Saturday, October 19, 2013

Congratulations ! Eleanor Catton for receiving the Man Booker Prize of Literature for the year 2013.

The Man-Booker Prize for Literature for 2013 has been awarded to Ms Eleanor Catton of New Zealand. She is the youngest writer ( 28 yrs ) ever to receive this prestigious award in the history of this award. She has been chosen for this award for her voluminous historical novel ' The Luminaries'. She will be the last of the recipients as a citizen of commonwealth, as this award shall be open to all from 2014. Till now the Man-Booker Prize is intended for the citizens of commonwealth, Ireland and Zimbaabve. This restriction shall be removed from next year, thereby this privilege shall not be available to the citizens of commonwealth. The said novel novel is huge in its size as it runs in 859 pages. The novel unfolds the true story which takes place in 1866 in New Zealand. A group of 12 men joined by a foreigner Walter moody go in for Gold Rush. The novel depicts the intrigues and the hidden agenda of each other of the group to collect the gold.
We congratulate Ms Eleanor Catton on this occasion.
M Venkateshwar.   

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित गांधीवादी तेलुगु कथाकार ' रावूरि भारद्वाज ' को विनम्र श्रद्धांजलि

कल रात अकस्मात खबर मिली कि हैदराबाद के एक अस्पताल मे ' रावूरि भारद्वाज ' का निधन हो गया । अरुणाचल प्रदेश के राजीव गांधी विश्वविद्यालय परिसर मे स्थित अतिथिगृह के अपने कमरे के एकांत मे जब मैं अपने अरुणाचल प्रवास के संस्मरणों को कलमबद्ध करने का प्रयास कर रहा था तो इस खबर ने मुझे हतप्रभ कर दिया और मैं भावुक होकर रावूरि भारद्वाज के सादगी भरे उदार  व्यक्तित्व और उनके सामाजिक सरोकार से युक्त कथा साहित्य की उदात्तता के चिंतन मे खो गया। रावूरि भारद्वाज को मैंने हमेशा एक संत के रूप मे देखा है । उनकी जुझारू और श्रम पूर्ण गरिमामय कद काठी - उनके जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष को बिना किसी दुराव या छिपाव के व्यक्त करती रही । उनकी अति साधारण जीवन शैली और और उनकी गरिमामय वाणी ने आज़ादी के बाद की कई पीढ़ियों को प्रेरित किया है । अपनी कहानियों से वे आम आदमी के बहुत करीब रहे । वे सच्चे अर्थों मे एक स्थितप्रज्ञ संत थे। श्रमिक और मजदूर जीवन से गुजरते हुए उन्होने स्वाध्याय और स्वानुभव से जीवन की विसंगतियों को ही अपना पाठ प्रदर्शक स्वीकार कराते हुए कबीर और वेमना, रविदास और दादू के पद चिह्नों पर चलते हुए गरीबों के हिमायती बनाकर आजीवन मानवीय मूल्यों के लिए संघर्षरात रहे । उनका कथा साहित्य ( कहानी और उपन्यास ) दोनों सर्वहारा वर्ग के शोषण और उत्पीड़न की कहानी कहता है । हाल ही मे तेलुगु साहित्य को उनके आजीवन योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने प्रतिष्ठात्मक ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया । यह उनके जीवन के अंतिम दिनों मे उन्हें नसीब हुआ । एक तरह से उनकी उपेक्षा होती रही लेकिन उन्होने कभी पुरस्कारों की राजनीति के अंग नहीं बने। वे आजीवन मौन मुनि बनकर साहित्य सृजन मे लगे रहे । सक्रिय काल मे वे आकाशवाणी से जुड़े रहे । तेलुगु मे आकाशवाणी के लिए उन्होने बाल कार्यक्रम ' बाला नंदम ' की परिकल्पना उन्होने ही की थी जो कि आज भी लोकप्रिय है और आकाशवाणी के लोकप्रिय कार्यक्रमों मे अपनी विशेष पहचान रखती है । फिल्मी जगत की विसंगतियों पर उनका उपन्यास ' पाकुडु राल्लु '  आधुनिक तेलुगु उपन्यास साहित्य मे मील का पत्थर माना गया है । ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कर उन्हें संतोष का अनुभव हुआ और वे बहुत प्रसन्न थे ।  ज्ञानपीठ पुरस्कार से इधर मीडिया मे वे काफी चर्चित होने लगे थे ।  यह अत्यंत दुख और चिंता का विषय है कि उनके निधन का समाचार और उनके प्रति किसी राष्ट्रीय समाचार पत्रों और टीवी चैनलों ने नहीं प्रसारित किया । ( अब तक - इस लेख के लिखे जाने तक )आखिर यह उपेक्षा क्यों ? भारतीय भाषाओं के लेखकों ( साहित्यकारों ) के प्रति यह उपेक्षा का भाव मन को दुखी करता है । इस अकिंचन की ओर से उस साहित्यकर्मी, समाज के उपेक्षित वर्ग के मसीहा को नमन । उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ।
एम वेंकटेश्वर   
रांझणा : एक बनारसी प्रेमकथा का दुर्दांत राजनीतिक अंत
-       एम वेंकटेश्वर

रांझणा वर्ष 2013 की एक नए तेवर की रोमांटिक फिल्मी ड्रामा है जिसमें  इश्क सर चढ़कर बोलता है ।  बहुत अरसे के बाद एक दु:खांत प्रेम  कहानी लीक से हटकर आई है जो हिन्दी और तमिल दोनों भाषाओं मे रिलीज़ हुई  है ।  यह फिल्म मूलत: हिंदी मे निर्मित है साथ ही इसे तमिल मे डब  किया गया है । इस फिल्म का कथा नायक बनारस मे बसे एक तमिल पण्डित का पुत्र है और इस पात्र के लिए तमिल के मशहूर अभिनेता ' धनुष ' को चुना गया है । ' धनुष ' का हिंदी का लहजा मनोरंजक और आकर्षक भी है ।  यह फिल्म एक ट्रेजिडी है जिसमें अंत मे नायक और सहनायक दोनों की मौत हो जाती है । नायिका अकेली रह जाती है जो कि अपने ही कर्मों का फल भोगने के लिए अभिशप्त है । नायक धनुष का मार्मिक अंत जो कि राजनीति से प्रेरित है, दर्शकों को भावुकता के चरम पर ले जाता
है । फिल्म का नायक ' कुन्दन '  ( धनुष ) ही प्रेम में हारा हुआ, जान गँवाने वाला रांझणा है ।   इस फिल्म की कहानी बनारस के  जनजीवन से निकलकर देश की राजधानी के ' जे एन यू और दिल्ली विश्वविद्यालयों '  की छात्र राजनीति में उलझकर अंत मे एक बड़े राजनीतिक दल के षडयंत्र का शिकार हो जाती है । फिल्म में घटना चक्र नाटकीय अंदाज मे बहुत तेजी से बदलते जाते हैं जो दर्शकों की उत्सुकता को बनाए रखता है ।
बनारस की गलियों में मौज मस्ती करता हुआ युवाओं का एक झुंड है जिसमे कुन्दन ( धनुष ) अपने मित्र मुरारी ( मोहम्मद जीशान आयूब ) के साथ कभी गंगा के घाटों पर तो कभी सड़कों पर लड़कियों का पीछा करते, नाचते, गाते मस्ती के रंग में डूबे रहते हैं । कुन्दन बचपन में एक मुसलमान प्रोफेसर की लड़की ज़ोया  (सोनम कपूर ) को देखकर आकर्षित होता है और  किशोरावस्था में ज़ोया से  गली मोहल्ले में छेड़खानी करता है, बदले में उससे कई बार थप्पड़ खाता है लेकिन वह ज़ोया का पीछा नहीं छोड़ता, क्योंकि उसे ज़ोया से प्यार हो गया है । लेकिन ज़ोया उसके प्रेम को केवल शरारत समझकर गंभीरता से नहीं लेती । उसके माता-पिता उसे स्कूली पढ़ाई के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ भेज देते हैं । वहाँ जाकर ज़ोया कुन्दन को भूल जाती है लेकिन बनारस में युवक कुन्दन,  ज़ोया की राह देखता हुआ  उसे अपने कल्पना लोक में बसा लेता है । जब ज़ोया, पढ़ाई खत्म करके लौटकर बनारस आती है तो वह कुन्दन को   नहीं पहचान पाती, लेकिन कुन्दन अपनी तमाशबीन हरकतों से उसे गुजरे किशोरावस्था  की घटनाओं के याद दिलाने पर उसे कुन्दन की बेशर्म शरारतें याद हो आती हैं । ज़ोया  को कुन्दन के इस व्यवहार से खीझ होती है और वह कुन्दन को अपनी और उसकी पारिवारिक सथियों तथा धार्मिक विषमता की समस्या को समझाने का प्रयास कर उन दोनों के विवाह की संभावना से इन्कार कर  देती है ।
इस प्रेम कहानी में एक और सहनायिका ' बिंदिया ' ( स्वर भास्कर ) नाम की लड़की मौजूद है जो बचपन से कुन्दन से बेंइंतहा प्यार करती है और उसकी पत्नी बनने का सपना देखती है । उसे कुन्दन की ज़ोया के लिए दीवानगी का पता है किन्तु फिर भी वह कुन्दन से बेहद पुयार करती है  । वह कुन्दन के हर दु:ख सुख में साथ देने वाली अल्हड़ दीवानी प्रेमिका के रूप में सारी फिल्म में छायी रहती है ।
फिल्म में एक जबर्दस्त नाटकीय मोड तब आता है जब ज़ोया (सोनम कपूर ) कुन्दन ( धनुष ) को अपने
' जे एन यू ' के एक छात्र नायक ' अकरम  ' ( अभय देओल ) से अपने प्रेम संबंधों को प्रकट करती है और कुन्दन से ही अपने प्रोफेसर पिता को ' अकरम ' से  उसके विवाह के लिए मनवाने के लिए मनुहार करती
है ।' कुन्दन ' इस आघात से उबर नहीं पाता और फिर एक बार अपने हाथ की नसें काटकर जान देने के लिए आमादा हो जाता है । फिर भी वह ज़ोया की खुशी के लिए, उसके पिता को  ज़ोया और अकरम के निकाह के लिए राज़ी करा लेता है और वह स्वयं भी पराजित मानसिकता में   ' बिंदिया ' ( स्वरा भास्कर )  से विवाह के लिए तैयार हो जाता है । दोनों के विवाह के लिए एक ही दिन तय किए जाते हैं । और फिर एक और बड़ी घटना  उस दिन घटित होती है जो की फिल्म के सारे ढांचे पर वार करती है । फिल्म की कहानी एक अप्रत्याशित मोड लेती है । विवाह से कुछ ही पल पहले अख़बार की एक खबर से ज़ोया के दूल्हे ' अकरम ' के वास्तव में हिन्दू ( जसजीत सिंह ) होने का पता चलता है । कुन्दन निकाह से कुछ ही क्षण पहले ज़ोया के परिवार के सामने इस सच्चाई को उद्घाटित करता है । परिणाम अति भयंकर होता है । अकरम ( जसजीत ) -ज़ोया की शादी टूट जाती है,  अकरम ( अभय देओल ) पर मुसलिम समुदाय द्वारा जान लेवा हमला होता
है । कुन्दन, अकरम ( जसजीत ) की जान बचाता है लेकिन दूसरी और ज़ोया आत्महत्या का प्रयत्न करती है ।
कुन्दन के लिए एक और झकझोर देने वाली सच्चाई यह थी की जसजीत को अकरम के रूप में अपने परिवार के सम्मुख लाने वाली ज़ोया ही थी, वह केवल विवाह के लिए जसजीत को झूठ बोलने के लिए तैयार करती है, लेकिन कुन्दन की नादानी से सारा खेल बिगड़ जाता है । कुन्दन को जब इस असलियत का पता चलता है तो वह पश्चाताप की आग में झुलसने लगता है और अपनी इस गलती को सुधारने के लिए वह ज़ोया को लेकर जसजीत के घर ( पंजाब ) पहुंचता है । लेकिन वहाँ एक और भयावह घटना घट जाती है । जसजीत की अकस्मात मृत्यु हो जाती है । इस घटना से जोया और कुन्दन दोनों भीतर से टूट जाते हैं और दोनों अलग हो जाते हैं । ' कुन्दन ' अपराध बोध से ग्रस्त होकर अन्यमनस्क स्थिति में अंजान राहों पर भटकने लगता है लेकिन उसे कहीं सुकून नहीं मिलता। इधर ज़ोया, जसजीत की याद को ताज़ा रखने के लिए उसके द्वारा स्थापित छात्रों के राजनीतिक संगठन नेतृत्व संभाल लेती है । ' कुन्दन ' भी भटकते भटकते भूखा प्यासा उसी छात्र समुदाय में शरण लेता है लेकिन वहाँ ज़ोया को देखकर वह सहम जाता है । वह ज़ोया के नफरत का सामना पग पग पर करता है । धीरे धीरे उस छात्र संगठन में ' कुन्दन ' किसी तरह अपनी जगह बना लेता है । अन्य छात्र नेता कुन्दन की सरलता और उसकी सूझबूझ के प्रति कायल होने लगते हैं । कई बार  संकटपूर्ण स्थितियों में  वह पुलिस से अपनी  पार्टी को बचाता है ।  ' कुन्दन ' अब 'ज़ोया ' के मुक़ाबले पार्टी में शक्तिशाली नेता के रूप में उभरने लगता है जिससे ज़ोया अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस करने लगती है । ज़ोया एक विचित्र मानसिक संकट से गुजरने लगती है । छात्रों के इस राजनीतिक दल की बढ़ती हुई ताकत से प्रमुख राजनीतिक दलों में खलबली मचने लगती है ।  प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री ( सुजाता कुमार कृष्णमूर्ति ) स्वयं ज़ोया से राजनीतिक समझौता करने का प्रस्ताव लेकर आती है और ज़ोया को 'कुन्दन' के बढ़ते वर्चस्व को खत्म करने के लिए एक मोहरा बनाती है । कुन्दन हर हाल में केवल ज़ोया की सफलता और संतोष की कामना करता है । वह ज़ोया की सुख शांति के लिए सब कुछ करने को तत्पर हो जाता है । उसे वह मौका अंत में मिलता है । मुख्य मन्त्री, ज़ोया का इस्तेमाल कर कुन्दन को एक राजनीतिक समारोह में छात्रों की पार्टी के प्रमुख नेता के रूप में भेजती है । ज़ोया, कुन्दन पर खतरे की संभावना को जानते हुए भी उसे उस समारोह में जाने के लिए प्रेरित करती है । 'कुन्दन '  ज़ोया के लिए उस समारोह में जाता है । अचानक वहाँ गोलियां चलती हैं, जो की पहले से तय था, और एक गोली सीधे कुन्दन के सीने पर लगती
है । कुन्दन मारा जाता है । कुन्दन अपनी जान दे देता है, अपने उस प्यार की खातिर जिसे वह कभी पा नहीं सका । इधर प्रेस कान्फ्रेंस में ज़ोया मुख्यमंत्री का असली चेहरा बेनकाब कर देती है साथ ही स्वयं को भी  इस षडयंत्र का हिस्सा स्वीकार कर लेती है । कुन्दन का बाल सखा मुरारी, मंगेतर बिंदिया, और उसके पिता और परिवार सब की आत्मा, कुन्दन के इस निरीह और करुण अंत से कराह उठती है  ।  इस फिल्म में गौरतलब है कि चार प्रेमी अपने अपने प्रेम को पाने के लिए प्रेमियों का पीछा कहानी के अंत तक करते हैं लेकिन किसी को उनका प्रेम हासिल नहीं होता । बिंदिया - कुन्दन का पीछा करती है, कुन्दन - ज़ोया का और  ज़ोया - जसजीत उर्फ अकरम का पीछा करती है, किन्तु सब अपने प्यार की मंज़िल तक पहुँचने में नाकामायाब ही होते हैं । यह प्रेमियों की विफल प्रेम कथा है जो मनोरंजन के पुट के साथ पेश की गयी है ।    
फिल्म का पूर्वार्ध बहुत ही कसा हुआ और तेज गति से कहानी को आगे बढ़ाता है और यह हिस्सा बहुत ही रोचक और विनोदात्मक  है । किन्तु फिल्म का उत्तरार्ध बिखर सा गया है । दूसरे हिस्से में फिल्म की मूल कथा कहीं गुम होती नजर आती है और कहानी का निर्दिष्ट अंत कहीं भटक कर रह जाता है जिस कारण फ़िल्मकार को किसी तरह से कहानी को समेटने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ा है । कुन्दन का भटकाव और उसका ज़ोया के जीवन में दुबारा प्रवेश एक नए परिवेश में होता है जो  फिल्म को बोझिल बनाता है ।  अभिनय की दृष्टि से सोनम कपूर ने  ज़ोया और धनुष ने कुन्दन की भूमिकाओं का निर्वाह बहुत ही कुशलता से किया है जो की उनसके अभिनय कौशल को सिद्ध करता है ।   
 अभय देओल ( अकरम/जसजीत ) ने  ' जे एन यू ' ( जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी ) के युवा छात्र नेता के रूप में विशेष छाप छोड़ी है । धनुष ( कुन्दन ) की तमिल लहजे वाली बनारसी चाल की हिंदी चुटीली, चुटकुली और अपने खास अंदाज़ में मनमोहक बन पड़ी है । फिल्म में संवाद बनारसी लहजे में विशेष प्रभाव पैदा  करते हैं ।  बिंदिया की भूमिका में स्वरा भास्कर ने अपनी खास पहचान बनाई है ।  
फिल्म की पटकथा सशक्त होकर भी आखिर में कहीं शिथिल होती हुई लगती है । फिल्म का कुशल निर्देशन आनंद राय,और कथा एवं पटकथा लेखन हिमांशु शर्मा ने किया है । फिल्म के गीतकार हैं इरशाद कामिल और संगीतकार हैं ए आर रहमान । फिल्म के सभी गीत लोकप्रिय और बनारस की ठेठ देशी संस्कृति को उभारने में कामयाब हुए हैं । यह फिल्म ईरोज इन्टरनेशनल के बैनर तले कृशिका लल्ला द्वारा निर्मित है जिसके सिनेमाटोग्राफर नटराजन सुब्रमण्यम तथा विशाल सिन्हा हैं । ' रांझणा '  मनोरंजक और भावना प्रधान  फिल्म है  जो एक श्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में रखी जा सकती है इसलिए यह फिल्म देखने योग्य है ।

-       एम वेंकटेश्वर                                                                                                                                               

        


Tuesday, October 15, 2013

अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक साज़िशों की सशक्त रोमांचक फिल्म : मद्रास कैफे

बॉलीवुड अब धीरे धीरे अंतरराष्ट्रीय जासूसी और राजनीतिक साज़िशों को प्रदाफाश करने वाली सशक्त फिल्में बनाने में  हॉलीवुड से मुक़ाबला कर रहा है । एस्पियोनेज पर सफल फिल्में बनाने का श्रेय एकमात्र हॉलीवुड को ही जाता था । लेकिन अब भारतीय फिल्मों में भी इस तरह के विषयों पर बहुत ही सार्थक और प्रभावशाली फिल्में बननी शुरू हो गईं हैं । इसी शृंखला मे शूजित सरकार द्वारा निर्देशित, जॉन अब्राहम-रोनी -लाहिरी और वियाकोम 18 मोशन पिक्चर्स द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित ' मद्रास कैफे ' एक सशक्त अंतरराष्ट्रीय जासूसी रोमांचक ( थ्रिलर ) फिल्म है जिसकी प्रभावशाली पटकथा सोमनाथ डे और शुभेन्दु भट्टाचार्य द्वारा लिखी गई है । इस फिल्म की पृष्ठभूमि श्रीलंका का बरसों से भीषण गृहयुद्ध ग्रस्त' जाफना' प्रदेश है । श्रीलंका सरकार और तमिल ईलम के सैन्य संगठन लिट्टे के मध्य चले बरसों के विध्वंसात्मक गोरिल्ला युद्ध को इस फिल्म में अपने ढंग से फिल्माया गया है । यह एक युद्ध फिल्म कही जा सकती है । 
प्रकारांतर से श्रीलंका के प्रतिबंधित संगठन ' लिट्टे ' के आत्मघाती दस्ते द्वारा अंजाम दिये गए राजीव गांधी हत्या कांड को इस फिल्म का केंद्र बिंदु बनाया गया है जिसे परोक्ष रूप से पूर्व भारतीय प्रधान मंत्री की हत्या के रूप मे प्रस्तुत  किया गया है । वास्तव मे इस फिल्म के द्वारा इस तथ्य को उजागर किया गया है कि पूर्व प्रधान मंत्री  राजीव गांधी की हत्या के पीछे भारतीय खुफिया एजिंसियों की विफलता थी और इसका प्रमुख कारण भारतीय खुफिया तंत्र के अहम खुफिया सूचनाओं का ' लीक ' होना था । विश्व में समय समय पर हुए  बड़े राजनेताओं की हत्या के पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक षडयंत्र रहे हैं, ऐसी हत्याओं को अंजाम देने के पीछे कुछ  देशों की खुफिया एजेंसियों के षडयंत्र रहते हैं ।  हर देश की  खुफिया एजेंसी अपने तरह से देश की सुरक्षा संबंधी खुफिया सूचनाओं को प्राप्त करने के लिए अपने खुफिया जासूसों की तैनाती उच्च स्तर पर
विभिन्न देशों में करती है । ऐसे ही एक कोवर्ट ऑपरेशन की कहानी है ' मद्रास कैफे'
 फिल्म की कहानी के अनुसार ' मद्रास कैफे '  उस अड्डे का नाम है,  जहां से पूर्व पूर्व भारतीय प्रधान मंत्री की हत्या की साजिश रची गई थी । यह फिल्म 80 और 90 के दशकों में श्री लंका में घटी कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है जिसमें प्रमुख है भारत सरकार द्वारा श्री लंका सरकार की सहायता के लिए भेजी गई शांति सेना ( इण्डियन पीस कीपिंग फोर्स ) का श्रीलंका की राजनीति में हस्तक्षेप और तत्जनित परिणाम । श्री लंका में उन दिनों चल रहा गृह युद्ध जिसमे जाफना प्रदेश में रहने वाले तमिल भाषी श्रीलंका निवासी एक स्वतंत्र तमिल राष्ट्र की मांग करते हैं और जिसे  प्राप्त करने के लिए वे तमिल लिट्टे  नामक सैन्य संगठन के सैनिक नेता वेलुपिल्लई प्रभाकरण के नेतृत्व में सशस्त्र संग्राम कर रहे थे । लिट्टे को प्रतीकात्मक रूप से इस फिल्म में एल टी एफ नामक एक सैन्य सगठन के रूप में प्रस्तुत किया गया है । प्रभाकरण का प्रतिनिधित्व इस फिल्म में ' अन्ना भास्करन ' ( अजय रत्नम ) नामक स्वघोषित सैन्य नेता को रूपायित किया गया है ।  श्रीलंका की सरकार इस गृहयुद्ध को समाप्त करने के लिए भारत सरकार द्वारा भेजी गई शांतिवाहिनी की सहायता से लिट्टे के सैन्य विद्रोह को नेस्तनाबूत करने के लिए कमर कसती है ।  
' मद्रास' कैफे ' के फ़िल्मकार ने उक्त घटनाओं को फिल्म में पुन: सृजित करने के लिए  श्रमपूर्ण रिसर्च किया है और उसी के आधार पर इस फिल्म की पटकथा का निर्माण किया गया है । इस अघोषित युद्ध ने तत्कालीन भारत के इतिहास को बादल कर रख दिया । उस युद्ध के कारण भारत की राजनयिक छवि कलंकित हुई और भारत की तमिल भाषी जनता आज तक श्रीलंका में तमिलों पर हुए अत्याचारों और उनकी स्वतन्त्रता के प्रश्न को लेकर भारत सरकार की आलोचना करती है । 
मेजर विक्रमसिंह ( जॉन अब्राहम ) भारतीय थलसेना का विशेष अधिकारी है जिसकी नियुक्ति भारत की खुफिया एजेंसी 'रिसर्च एंड एनालिसिस विंग ' ( रॉ RAW) द्वारा श्रीलंका के जाफना इलाके में भारतीय शांति वाहिनी के भारत लौट आने के बाद की स्थितियों का जायजा लेने के लिए एक खुफिया ऑपरेशन
( कोवर्ट ऑपरेशन ) के तहत किया जाता है ।  वह श्रीलंका के भयावह युद्धग्रस्त  क्षेत्र में तमिलों के सैन्य संगठन  एल टी एफ की गतिविधियों का खुफिया ढंग से पता लगाने के लिए और खुफिया सूचनाएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से जाफना पहुंचता है । लेकिन वहाँ पहुँचकर वह एल टी एफ और उसके खौफनाक अनुचरों, सिपाहियों और जासूसों  तथा उनके  नेताओं के जाल में फंस जाता है । उसकी सहायता एक ब्रिटिश जर्नलिस्ट ' जया'  ( नर्गिस फाकिरी ) करती है जो उसे भारत संबंधी महत्वपूर्ण सूचनाएँ अपने स्रोतों से मुहैया  कराती है । वास्तव में जया वहाँ से अपने अख़बार के लिए रिपोर्टिंग करने के लिए डेरा डाले हुए है ।  विक्रम सिंह एल टी एफ को युद्ध के लिए विदेशों से हथियार और गोला बारूद मुहैया कराने वाले संगठनों का पता लगाता है । वह युद्ध की दिशा को भारत के पक्ष में करने के लिए रॉ के उच्चाधिकारियों के निर्देशों पर ' एल टी एफ ' के मुखिया अन्ना भास्करन से संबंध स्थापित करता है लेकिन बीच में उसकी गुप्त योजना उसीके एक  अधिकारी की गद्दारी से अन्ना भास्करन के विरोधी दल को मालूम हो जाती है जिससे विक्रम सिंह के प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं, उसके रॉ के जासूस होने का पता एल टी एफ को पता चल जाता है और उस पर जानलेवा हमला होता है । उसे इस ओपरेन को  स्थगित कर स्वदेश लौटना पड़ता है । रॉ के सूचनाओं की ' लीक ' इस तरह जारी रहती है लेकिन इसके लीक करने वाले का पता विक्रम सिंह को नहीं लगता । वह अपनी सूत्रों को इस आदमी का पता लगाने के लिए तैनात कर देता है । इधर दिल्ली में उसकी हत्या के लिए आए हत्यारे धोखे से उसकी पत्नी को मार डालते हैं ।  फिल्म में इन घटनाओं को बहुत ही बारीकी से जमीनी हकीकत के साथ दिल दहलाने वाले युद्ध दृश्यों में रूपांतरित किया गया है ।  ब्रिटिश जर्नलिस्ट ' जया'  के खुफिया प्रयासों और उसके सूत्रों से ' मद्रास कैफे ' नामक होटल में कुछ गुप्त संगठन के सदस्यों द्वारा किसी बड़े राजनेता की हत्या की साजिश का पता चलता है ।  इस संवेदनशील खबर की पुष्टि करने के प्रयास में कई और जानें  जाती हैं । विक्रम सिंह रॉ को एलर्ट करता है । रॉ अपना सुरक्षा जाल बिछाती है ।  सारी सूचनाएँ श्रीलंका, लंदन, सिंगापूर, मद्रास, दिल्ली आदि स्थानों से जुड़ी होती हैं। इस ऑपरेशन की कोई भी पुख्ता सूत्र या सही जानकरी नहीं दे पाता । केवल संदेह के आधार पर कई लोगों से पूछ ताछ की जाती है लेकिन अंत तक विकरामसिंह को अपने ही संगठन के भीतर छिपे अधिकारी का पता नहीं चल पाता। पूर्व प्रधान मंत्री अपने चुनाव प्रचार के लिए निकल पड़ते हैं । उनके चुनाव प्रचार के कार्यक्रमों पर रॉ कड़ी नजर रखती है और अधिक से अधिक सुरक्षा कवच उनके चारों ओर निर्मित करती है । उनके मद्रास में  जनसभा को संबोधित करने के कार्यक्रम की सूचना मिलते ही विक्रम सिंह को संदिग्धों की तलाश युद्ध स्तर  पर शुरू कर देता है लेकिन हत्यारे उससे हमेशा एक कदम आगे ही रहते हैं । उस रात एक विशाल भीड भरी जनसभा में पूर्व प्रधान मंत्री एक आत्मघाती महिला मानव बम का शिकार हो जाते हैं, पास ही विक्रम सिंह भी घायल होकर गिर पड़ता है । रॉ के प्रमुख रॉबिन दत्त ( सिद्धार्थ बसु ) जो इस पूरे ऑपरेशन को शुरू से संचालित करते हैं अंत में अपनी इस विफलता पर बिखर जाते हैं । यह पूरा ऑपरेशन रॉ के खुफिया  दस्तावेजों में सिमटकर रह जाता है । भारतीय इतिहास की इस त्रासदीपूर्ण घटना के पीछे के अनेक रहस्यों का अनावरण यह फिल्म करती है । अनुमान और कल्पना तथा कुछ प्राप्त तथ्यों के आधार पर इस ऐतिहासिक घटना को जिस यथार्थपूर्ण प्रभाव के साथ सेल्यूलाईड पर प्रदर्शित किया गया,  वह काबिले तारीफ है । यह एक युद्ध फिल्म है इसलिए आज के अत्याधुनिक हथियारों द्वारा हमले और विध्वंस के दृश्यों का फिल्मांकन बहुत ही उच्चस्तरीय तकनीकी निर्देशन में किया गया है  । फिल्म की सिनेमाटोग्राफी आकर्षक और मर्मस्पर्शी है । श्रीलंका का जाफना प्रदेश जहां के सुरम्य मनोहारी पहाड़ियों से घिरे हुए जंगलों और हरियाली के मध्य, लहूलुहान लाशों से पटे गांवों का मार्मिक दृश्यांकन दर्शकों को प्रभावित करता है । अभिनय के क्षेत्र में विक्रम सिंह की भूमिका में जॉन अब्राहम का अभिनय बहुत ही यथार्थपूर्ण और आकर्षक है जो भारतीय सैनिकों के प्रति दर्शकों के मन में एक विशेष प्रकार का आदर भाव पैदा करता है । ब्रिटिश जर्नलिस्ट  की भूमिका में नर्गिस फाकिरी का अभिनाय बेजोड़ और प्रशंसनीय  है । फिल्म की कहानी की बुनावट अत्यंत  कसी होने कारण पूरी फिल्म बहुत ही रोचक बन पड़ी है । दर्शक को कहीं भी खालीपन नजर नहीं आता । हर फ्रेम सस्पेंस और एक्शन युक्त है जो दर्शकों के कौतूहल को अंत तक बरकरार रखता
है । यह फिल्म उन्हीं दर्शकों को भाएगी जिन्हें युद्ध और रोमांचक जासूसी ( एस्पियोनेज ) फिल्में देखने का शौक हो ।

                                                                                                            एम वेंकटेश्वर

                                                                                                            9849048156 
' लुटेरा '  : बीते युग की सौंदर्यात्मक प्रेम कथा की क्लासिक प्रस्तुति -
                                                                                                                       एम वेंकटेश्वर

'लुटेरा' विक्रमादित्य मोटवाने के निर्देशन में  अनुराग कश्यप, एकता कपूर, शोभा कपूर और विकास बहल द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित इस वर्ष की एक क्लासिक फिल्म है । इस फिल्म की कथा मूलत:  'ओ हेनरी '
( अमेरिकन कथाकार ) की कहानी ' द लास्ट लीफ़ ' ( The Last Leaf - 1907 ) पर आधारित है । यह एक पीरियड ( कालखंड-परक )  फिल्म है । पचास के दशक में ज़मींदारी उन्मूलन कानून के अंतर्गत  भारत के सारे ज़मींदारों की संपत्ति का राष्ट्रीयकरण कर उसे सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया गया । इस क्रम में उनके पास की अमूल्य धरोहरें जिनमें सोने चाँदी के जवाहरात, प्राचीन काल की दुर्लभ कला प्रतिमाएँ, देवी देवताओं की, बहुमूल्य धातुओं से निर्मित मूर्तियाँ, बेशकीमती पुरातन काल के  साजो सामान आदि को सरकार ने इसी कानून के तहत  हथिया लिया । इस अभियान के मुखौटे में कई ठगी, अपराधी गिरोह  इस उद्यम में सक्रिय हुए । आज़ादी के बाद इन गिरोहों ने सुदूर अंचलों में बसे धनी जमींदारों की हवेलियों और गढ़ो  में एकत्रित ऐसे धरोहरों का पता लगाकर प्राचीन धरोहरों को जब्त करने के फर्जी सरकारी आदेश पत्रों के जरिए बहुतेरे जमींदारों और रजवाड़ों को लूटा । यह क्रम काफी समय तक चलता रहा लेकिन जब ऐसे वारदात सरकार के संज्ञान में आए तो इन गिरोहों को खोज खोज कर नेस्तनाबूद कर दिया गया ।
' लुटेरा'  इसी विषय पर आधारित सुंदर, रोमांचक और संजीदगी से भरी फिल्म है । 
' लुटेरा ' का कथा परिदृश्य पचास के दशक  ( 1953) का है जिसमें एक सुंदर भावुक प्रेम कहानी चुपचाप, बहुत ही धीमी गति से नाक - नायिका के बीच पनपती है और आखिर में वह एक निरीह अंत को प्राप्त होती है । बंगाल के एक छोटे से गाँव में एक जमींदार परिवार में पिता और पुत्री  पाखी ( सोनाक्षी सिन्हा ) अपना प्रशांत जीवन एक ही  ढर्रे पर गुजारते रहते हैं । जमींदार पिता के पास अकूत संपत्ति, पुरानी हवेली और पुरखों की जमीन मौजूद है । आज़ादी के बाद  ज़मींदारी उन्मूलन कानून की चर्चा ज़ोरों पर होने के बावजूद   ज़मींदार  इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं ।
इसी नेपथ्य में अचानक एक दिन उनके जीवन में एक आर्कियलाजिस्ट ( पुरातत्वज्ञ )  वरुण ( रणवीर सिंह ) इस ज़मींदार की हवेली में प्रवेश करता है । वह उस गाँव में पुरातात्विक शोध के लिए खुदाई की अनुमति लेकर आता है । वरुण को जमींदार अपनी हवेली में रहने के लिए आमंत्रित करता है । वरुण उसी हवेली में अपने मित्र के साथ रहकर वहाँ की जमीन की खुदाई के काम का निरीक्षण करता है । वरुण के आकर्षक व्यक्तित्व और सौम्य सुशील व्यवहार से पाखी ( सोनाक्षी सिंह ) मन ही मन उससे प्रेम करने लगती है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाती । वरुण का व्यक्तित्व रहस्यमय है वह गंभीर प्रकृति का मितभाषी पुरुष  जो  अपना सारा समय केवल अपने मित्र के संग हवेली के आसपास की जमीन में खुदाई का काम करवाता रहता है । उसकी रुचि  प्राचीन पुरा-वस्तुओं में है इसलिए उस हवेली में जमींदार द्वारा एकत्रित कला-वस्तुओं के प्रति वह विशेष रुचि प्रदर्शित करता है ।  एक दिन पाखी अपने प्रेम को वरुण के सम्मुख व्यक्त करती है, पहले वरुण उसे स्वीकार नहीं करता किन्तु उसके भीतर पाखी के प्रति समाया हुआ प्रेम उसे पाखी को स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है ।   ज़मींदार पिता वरुण के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पाखी और वरुण के विवाह के लिए तैयार हो जाता है । विवाह की तैयारी हो जाती है किन्तु विवाह से पूर्व रात को वरुण अपने मित्र के साथ हवेली छोड़ कर पलायन कर जाता है ।  जब उन्हें पता चलता है की वरुण ने उनकी हवेली से उनकी सारी धरोहर,  बहुमूल्य सोने की मूर्तियाँ और अन्य बहुत सारी कलाकृतियाँ चुरा कर भाग निकला है तो ज़मींदार और पाखी के होश उड़ जाते हैं । वरुण एक लुटेरा साबित होता है । इस आघात से जमींदार की मृत्यु हो जाती है । पाखी भीतर से टूट जाती है और वह स्वयं को एकांत में डुबो लेती है । हवेली छोड़कर वह वरुण को भुलाने के लिए हिमाचल प्रदेश  के हिल स्टेशन ' डलहौज़ी ' की बर्फीली एकांत वादियों में शरण लेती है । पाखी जो पहले से ही क्षयरोग से ग्रस्त है जिसे समय- समय पर दौरा पड़ता है, वह  हिमाचल की प्राकृतिक सुंदरता के बीच बर्फीली ठंडी वादी में स्वयं को अकेलेपन के सूने अंधकार में छिपा लेती है । वह अपने बेवफा प्रेमी वरुण की याद को झुठलाते हुए दूभर और बोझिल जीवन के भार को किसी तरह गुजारने के लिए संघर्ष करती है ।  दूसरी और पुलिस वरुण और उसके गिरोह को पकड़ने के लिए  पाखी से पूछताछ करती है किन्तु वरुण के बारे में पाखी कुछ भी बताने को तैयार नहीं होती । अचानक एक दिन भयानक बर्फीली हवाओं के बीच पुलिस की गोली से घायल वरुण ' डलहौज़ी ' में पाखी की कोठी में छिपने के लिए घुस आता है । एकबारगी पाखी को सामने पाकर वह हतप्रभ और शर्मसार हो जाता है । पाखी उसे अपने मन-मस्तिष्क से पूरी तरह मिटा देना चाहती है इसलिए वह उसे नजदीक नहीं आने देती, लेकिन वरुण पुलिस से बचने के लिए पाखी का इस्तेमाल करता है ।     
पाखी एक विचित्र अंतर्द्वंद्व की स्थिति में स्वयं को नियंत्रित करती है, एक और वह अपने प्रेम की अंतर्वेदना से त्रस्त है तो  दूसरी ओर उसे वरुण का छली हृदय और अमानुषी व्यवहार पीड़ित करता है । वह ईद दुधारी पीड़ा से मुक्त नहीं हो पाती ।  उसे उसका जीवन धीरे धीरे छीजता हुआ सा आभास होता है । उसे अपनी कोठी से बाहर बर्फीली आंधी में ठिठुरते हुए एक पेड़ की टहनियाँ दिखाई देतीं हैं जिससे एक एक पत्ता झर कर, नीचे गिरकर मानों पाखी के भी जीवन के धीरे धीरे समाप्त होने की ओर मानो इशारा करता है ।  उसे उन झरते पत्तों को देखते हुए अपनी मृत्यु का भयावह चेहरा सामने दिखाई देने लगता है । उसे दृढ़ विश्वास सा होने लगता है कि जब पेड़ का अंतिम पत्ता झर जाएगा तब उसका भी अंत हो जाएगा । अपने इस वहम को वह वरुण को बताती है । वरुण घायल अवस्था में पाखी के घर  में छिपकर पाखी की इच्छा के विरुद्ध उसकी देखभाल करता है । उसके हृदय में पाखी के लिए प्रेम उमड़ पड़ता है । वह पाखी के उस आत्मघाती वहम को उसके दिल से निकालने के लिए अपने एक उपाय करता है ।  तूफानी रात में वह उस पेड़ पर चढ़कर अपनी चित्रकारी से बनाये हुए एक पत्ते को, बर्फीली तूफान से जूझते हुए, पेड़ की डाल से लटकाकर नीचे गिर जाता है । उसी तूफानी रात को पुलिस उसे घेरकर मार देती है । पाखी सुबह उठकर खिड़की से बाहर उस पेड़ को जब देखती है तो तूफानी रात के गुजर जाने के बाद भी उस पेड़ पर एक पत्ता उसको नया जीवन दान देने के लिए हवा के झोंकों में लहराता हुआ दिखाई देता है । उस एक पत्ते को तूफान के गुजर जाने के बाद भी पेड़ पर लटकता हुआ देखकर वह निश्चिंत हो जाती है । उसमें जीने की आशा फिर से जाग उठती है ।
इस फिल्म का उत्तरार्ध ' ओ हेनरी ' की कहानी ' द लास्ट लीफ '  का ही रूपान्तरण है, जिसे बखूबी निर्देशक और पटकथा लेखक विक्रमादित्य मोटवाने ने ' लुटेरा ' में भावुकता पैदा कर एक क्राइम थ्रिलर को क्लासिक बनाने के लिए उपयोग किया है । पूर्वार्ध निर्देशक और पटकथा लेखक की अपनी कल्पना है जिसमें वरुण के पात्र को गढ़ा गया है । इस फिल्म की खूबसूरती इसके चित्रांकन और कला पक्ष में  है । इस फिल्म का हर एक ' फ्रेम ' मनमोहक है, जो सुंदरता के चरम को छूता है । महेंद्र जे शेट्टी की सिनेमाटोग्राफी अद्भुत है । रंगों का छायांकन दर्शक को एक नए सौन्दर्य लोक की यात्रा कराता है । ' डलहौज़ी ' के पर्वत प्रदेश और उसके चारों ओर का प्राकृतिक सौंदर्य मंत्र मुग्ध कर देने वाली शैली में फिल्माया गया है ।  सोनाक्षी सिंह इस फिल्म में पारंपरिक ( पचास के दशक की एरिस्टोक्रेटिक परिवारों के ) परिधान में अत्यंत सुंदर दिखाई देती हैं । उनकी सुंदरता अद्वितीय है । समूचे फिल्म में पचास के दशक कि जीवन शैली प्रस्तुत  की गयी है जो कि बहुत ही प्रामाणिक है । उस समय की कारें ( शेवरले और मर्सिडीस ) बहुत खूबसूरती से अपने पूरे सामंती परिदृश्य को मनमोहक अंदाज़ में प्रस्तुत करने में सहायक हुई हैं । इस फिल्म में  एक बार फिर पचास का दशक जी उठता है । फिल्म में रणवीर सिंह और सोनाक्षी सिन्हा हर दृश्य में एक भिन्न प्रकार की सुंदरता और संजीदगी को अपने सुगढ़ अभिनय कौशल के साथ प्रस्तुत करने में पूरी तरह सफल हुए हैं । फिल्म में अमित त्रिवेदी का संगीत मधुर है तथा गीत कर्णप्रिय हैं  । पटकथा भवानी अय्यर और विक्रमादित्य मोटवाने के सहलेखन से प्रभावशाली बन पड़ी है । वैसे इस फिल्म की समूची कथा को विक्रमादित्य मोटवाने ने रूपायित किया है । 
' लुटेरा ' एक धीमी गति की प्रेम कहानी है जिसे मसाला फिल्मों को देखने की आदी आज की ' फास्ट फूड '  पीढ़ी ( जनरेशन ) शायद पसंद न करे लेकिन इस फिल्म में खूबसूरती है, प्रेम की सघनता ( इंटेन्सिटी ) है और यह गंभीर प्रेम को परिभाषित करती है । जिन लोगों ने ऋतुपर्णों घोष की  ' रेन कोट ' पसंद की है उन्हें यह फिल्म पसंद  आएगी । ' रेन कोट' ' ओ हेनरी ' की कहानी ' द गिफ्ट ऑफ मैगी ' ( 1906 ) पर आधारित थी । 'लुटेरा' खास दर्शकों के लिए है । ' ओ हेनरी ' की कहानियों के अंत साधारण न होकर चौंकाने वाले होते हैं, ऐसा ही अंत है ' लुटेरा ' का ।

-       एम वेंकटेश्वर
9849048156




दक्षिण भारतीय परिवेश में प्रस्तुत हास्यपूर्ण मनोरंजन का पैकेज : चेन्नई  एक्सप्रेस

'  चेन्नई  एक्सप्रेस ' बॉलीवुड की इस वर्ष की सबसे अधिक व्यावसायिक सफलता प्राप्त  रोमांटिक एक्शन कॉमेडी फिल्म है । इसकी व्यापारिक सफलता के आंकड़े चौंका देने वाले हैं । 75 करोड़ की लागत से गौरीखान, रोनी स्क्रूवाला और सिद्धेश रॉय कपूर द्वारा सहनिर्मित और बॉलीवुड के एक्शन फिल्मों के लोकप्रिय निर्देशक रोहित शेट्टी के निर्देशन में बनाकर भारत और विदेशों में एक साथ रिलीज़ हुई फिल्म ने फिल्मी मनोरंजन की दुनिया में बॉक्स ऑफिस के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए । केवल प्रथम तीन सप्ताहों के प्रदर्शन से इस फिल्म ने तीन सौ करोड़ रुपयों की आमदनी की है । इस फिल्म की सफलता और दर्शकों की पसंद का पूर्वानुमान कर इसे 2550 सिनेमा घरों में लगभग 3550 स्क्रीनों पर भारत में तथा 700 स्क्रीनों पर विदेशों में ( 195 स्क्रीन अमेरिका, 175 स्क्रीन इंग्लैंड, 55 स्क्रीन मिडिल ईस्ट, और 30 स्क्रीन ऑस्ट्रेलिया में ) एक साथ रिलीज़ किया गया जो कि किसी भी बॉलीवुड फिल्म के रिलीज़ का ऐतिहासिक  कीर्तिमान है ।   
' चेन्नै एक्सप्रेस ' अपने दादा की अस्थियों को रामेश्वरम में विसर्जित करने के लिए मुंबई से चेन्नै एक्सप्रेस से रामेश्वरम के लिए यात्रा पर निकले एक  व्यक्ति का रोचक और मनोरंजक यात्रा वृत्तान्त है जिसे फिल्म का नायक ( शाहरुख खान ) संस्मरणात्मक शैली में दर्शकों के सामने फिल्मी माध्यम से प्रस्तुत करता है । यह एक खालिस बॉलीवुड एक्शन और कॉमेडी से युक्त एंटरटेनर है जिसका मकसद केवल मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन ही है । नायिका प्रधान इस फिल्म को दक्षिण भारतीय परिवेश और परिधान के साथ खूबसूरत पहाड़ी वादियों में बसे हुए छोटे छोटे गांवों के पारिवारिक जीवन को ठेठ स्थानीय रंगत के साथ वहाँ के मंदिरों और उनमें आयोजित त्योहारों और विभिन्न अनुष्ठानों के सतरंगी मनमोहक चित्रण को सुरम्य सिनेमाटोग्राफी के जरिये प्रस्तुत करने में निर्माता- निर्देशकों को उम्मीद से बढ़कर सफलता और सराहना   मिली है । वैसे तो इस फिल्म की कहानी कोई नई नहीं है । एक तरह से कुछ पूर्ववर्ती फिल्मों का सम्मिश्रित रूप है जिसमें ' जब वी मेट, चोरी चोरी, चेजिंग लिबर्टी ( हॉलीवुड), शशीरेखा परिणयम ( तेलुगु ) और दिलवाले दुलहनिया ले जाएँगे ' का संतुलित और अवसरानुकूल घाल-मेल दिखाई देता है । फिल्म ' जब वी मेट ' से   शुरू होकर ' दिलवाले दुलहनिया ले जाएँगे '  में समाप्त होती है । फिल्म का बीच का हिस्सा हास्यपूर्ण घटनाओं और रोचक, चुटीले संवादों से युक्त नायक-नायिका के उलझनों से जूझने के संघर्ष को दर्शाता है । यह एक नायिका प्रधान  फिल्म है जिसमे फिल्म की नायिका दीपिका पड़कून ( मीनम्मा ) एक तमिल भाषी लड़की की भूमिका में अत्यंत आकर्षक और सुंदर दिखाई देती है । फिल्म का नायक शाहरुख खान ( राहुल ) मुंबई के एक धनी-प्रतिष्ठित परिवार का लड़का है जो अपनी दादी ( कामिनी कौशल ) की आज्ञा और दादाजी ( लेख टंडन )  की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए  दादाजी के मरणोपरांत उनई अस्थियों को रामेश्वरम में विसर्जित करने के लिए ' चेन्नै एक्सप्रेस '  ट्रेन से मुंबई से निकलता है । लेकिन वास्तव में राहुल ( शाहरुख खान ) अगले स्टेशन कल्याण में उतरकर अपने दोस्तों के साथ मिलकर ' गोवा' जाने की योजना  बनाते हैं । पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार राहुल कल्याण स्टेशनपर ट्रेन से उतरकर दोस्तों से मिलता है तभी उसे दादाजी की अस्थियों वाला कलश ट्रेन में छूट जाने की याद आती है जिसे लेने के लिए वह फिर से ट्रेन की ओर लपकता है, वह कलश को लेकर जैसे ही ट्रेन से उतारने की कोशिश करता  है कि तभी इस फिल्म की कहानी  एक नया मोड ले लेती है और राहुल के जीवन की दिशा बदल जाती है ।
फिल्म की कथा नायिका खूबसूरत मीनलोचिनी अशगुसुंदरम उर्फ मीनम्मा ( दीपिका पडकून )
सुंदर दक्षिण  भारतीय लिबास में बेतहाशा चलती ट्रेन की ओर  ट्रेन में चढ़ने के लिए दौड़ती हुई दिखाई देती है । राहुल ट्रेन से उतारने वाला है लेकिन इस सुंदर सलोनी लड़की को ट्रेन की ओर हाथ बढ़ाता देखकर वह उसे ' दिलवाले दुलहनिया ले जाएँगे ' फिल्म के अंदाज में हाथ बढ़ाकर उसका हाथ थामकर ट्रेन में चढ़ा लेता है । इसके बाद इसी क्रम में उस लड़की का पीछा करते हुए चार मुश्टंडे भी एक एक कर राहुल की मदद से उस ट्रेन के उसी डिब्बे में चढ़ जाते हैं । यहीं से इस फिल्म की मूल कथा शुरू होती है । मीनम्मा और उसके अपहरणकर्ता साथियों को बचाने के प्रकरण में राहुल अपने दोस्तों तक नहीं पहुँच पाता है और उसका गोवा अभियान भंग होजाता है और वह मीनम्मा तथा उसके बाहुबली अंगरक्षकों से घिरकर मीनम्मा के ' कोम्बन गाँव ' पहुंचता है । मीनम्मा तमिल भाषी होने कारण अपने तमिल लहजे में टूटीफूटी हिन्दी आकर्षक शैली में
बोलती है । इस पूरे  फिल्म में दीपिका पड़कून ( मीनम्मा ) के चुटीले तमिल मिश्रित हास्यपूर्ण संवाद दर्शकों का हर पल मनोरंजन करते हैं ।  
राहुल की भेंट चेन्नई एक्सप्रेस में नाटकीय परिस्थियों के बीच अपने चार हट्टे कट्टे अंगरक्षकों के संरक्षण में पिता द्वारा निश्चित विवाह से बचने के लिए घर से भागी हुई दक्षिण भारतीय सुंदरी मीनम्मा ((दीपिका पडकून ) से होती है । राहुल और मीनम्मा को उनके साथी उनके गाँव के पास चेन्नई एक्सप्रेस की ज़ंजीर खींचकर उतार लेते हैं, जहां उन्हें लेने के लिए मीनम्मा का पिता दुर्गेश्वर सुंदरम ( सत्यराज ) सैकड़ों की संख्या में अपने पूरे दलबल के साथ  पहुंचता है । अपने बाहुबली पिता दुर्गेश्वर सुंदरम से मीनम्मा राहुल का परिचय तमिल में अपने प्रेमी के रूप में कराती है जिसे राहुल तमिल नहीं समझ पाता । मीनम्मा के गाँव में
राहुल की खूब खातिरदारी होती है । दूसरे दिन राहुल के सामने तंगबल्ली  ( निकितीन धीर ) नामक एक पहलवान बाहुबली मीनम्मा के मंगेतर के रूप में प्रकट होता है । राहुल वहाँ की स्थितियों से पूरी तरह अनजान बनाकर वहाँ से भाग निकालने का रास्ता तलाशता रहता है किन्तु मीनम्मा उसे एक ने नाटकीय जाल में फंसा देती है क्योंकि वह तंगबल्ली से विवाह नहीं करना चाहती है । तंगबल्ली, राहुल को मीनम्मा का प्रेमी जानकार उसे कुश्ती के लिए ललकारता है । कुश्ती की शर्त के अनुसार विजेता से मीनम्मा का विवाह निश्चित होता है । राहुल इस स्थिति से बचाने के लिए कई उपाय करता है और अंत में वह किसी तरह वहाँ से भाग निकलता है लेकिन पकड़ा जाकर फिर से उसू गाँव में लाया जाता है । यह सारा प्रकरण राहुल के तमिल भाषा के अज्ञान से उत्पन्न स्थितियों और मीनम्मा के रोचक तमिल प्रभावित हिंदी के तालमेल से दर्शक भरपूर आनंद उठाते हैं । राहुल हर कदम पर मीनम्मा के परिजनों और गाँव वालों से छुटकारा पाने की कोशिश में अपनी चतुराई को सिद्ध करने में मीनम्मा के सम्मुख विफल होता जाता है और उसे बार बार मीनम्मा की शरण में ही आना पड़ता है । राहुल और मीनम्मा पलायन के इस दौर में एक दूसरे गाँव में आकार शरण लेते हैं जहां एक बार फिर मीनम्मा अपनी चतुराई से राहुल और स्वयं को पति-पत्नी घोषित कर गाँव वालों की सहानुभूति और प्रेम प्राप्त करने में कामयाब हो जाती है । गाँव वालों के सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार और लोगों की स्थानीय देवी-देवताओं में आस्था और एक सम्मोहक वातावरण में दोनों ही अपने मन में किया गया है जो की दर्शकों को भावनात्मक रूप  से प्रभावित करता है एक दूसरे से आत्मिक संवेदना से जुडने लगगते हैं । इस लगाव को बहुत ही बारीकी और सुकोमलता के साथ फिल्म में प्रस्तुत । इधर राहुल निरंतर मीनम्मा के बंधन से मुक्त होकर रामेश्वरम भागना चाहता है तो दूसरी ओर मीनम्मा अपनी शरारती और चंचल खूबसूरती से राहुल को रिझाते खिझाते हुए उसके मन को बांधे रखती है । इस गाँव में भी तंगबल्ली अपने आदमियों को लेकर जब पहुंचता है तो गाँव वालों की मदद से एक बार फिर मीनम्मा और राहुल वहाँ से भी भाग खड़े होते हैं । मीनम्मा राहुल को दादाजी की अस्थियों की याद दिलाकार वह उसे लेकर राहुल के सांग रामूषे]वरम पहुँचती है और राहुल के दारा उस अनुष्ठान  को पूरा करवाती है ।  राहुल यहाँ से मीनम्मा से विदा लेना चाहता है लेकिन दोनों के बीच जो रागात्मक संबंध स्थापित हो चुका था उसे वह भी नकार नहीं सकता है । वह एक दृढ़ संकल्प मन ही मन लेकर  मीनम्मा को बताए बिना उसे साथ लेकर उसके  पिता और तंगबल्ली के गाँव पहुँच जाता है । कहानी का पटाक्षेप फिल्म के अंत में ' दिल वाले दुलहनियाँ ले जाएंगे '  की तर्ज पर होता है जब राहुल मीनम्मा के पिता से खुलकर मीनम्मा का हाथ मांगता है । पूर्व निर्धारित शर्त के अनुसार राहुल को तंगबल्ली और उसके आदमियों का सामना करना पड़ता है । एक भीषण द्वंद्व युद्ध में किसी तरह राहुल तंगबल्ली को परास्त करने में जब कामयाब हो जाता है रो मीनम्मा के पिता दुर्गेशवर सुंदरम मीनम्मा का हाथ राहुल के लिए छोड़ देते हैं । तंगबल्ली भी अपने प्रतिद्वंद्वी के साहस के प्रति नतमस्तक हो जाता है । अंत में सच्चे प्रेम की जीत होती है और एक घोषणा भी कथा नायक राहुल ( शाहरूख खान ) के द्वारा की जाती है की प्रेम की कोई भाषा नहीं होती । भाषा भेद अथवा संस्कृति भेद प्रेमियों के मिलन में बाधा नहीं पहुंचा सकती । अब समय बादल गया है और माता-पिता को अपनी कन्याओं के विवाह के लिए उनकी रजामंदी जान लेना जरूरी है जिससे की वे उनका दिल न तोड़ें और उन्हें एक सुखी जीवन प्रदान कर सकें । यह फिल्म प्रच्छन्न रूप से एक संदेशात्मक फिल्म है, जिसे बखूबी निर्माता - निर्देशक ने खासे विनोदात्मक ढंग से प्रस्तुत  किया है ।   यह आम और खास दोनों तरह के दर्शकों के लिए सपरिवार देखने योग्य फिल्म है। फिल्म का संगीत और नृत्य संयोजन अपने इंद्रधनुषी रंगों में बहुत आकर्षक बन पड़ा है । दक्षिण भारत के विरले ग्रामीण प्रदेशों का फिल्मांकन मनमोहक और दर्शकों को स्तब्ध कर देने वाला है। दक्षिण के मंदिरों का सुंदर फिल्मांकन इस फिल्म की अतिरिक्त खासियत है । अभिनय के क्षेत्र में दीपिका पड़कून विशेष प्रशंसा की हकदार हैं,  जिन्होंने दक्षिण भारतीय युवती की भूमिका पूरी मौलिक अभिव्यक्तियों के संग स्थानीय भाषाई विवधता को सुंदर सहज ढंग से प्रस्तुत कर दर्शकों का दिल जीता है । शाहरूख खान अपने सदा बहार अंदाज में कॉमिक हीरो की सुंदर तस्वीर प्रस्तुत कराते हैं । शाहरूख खान और दीपिका पड़कून, दोनों ने कॉमेडी को एक नया आयाम प्रदान किया है । इन दोनों के साथ अन्य सहायक पात्रों ने भी अपने दमदार अभिनय कौशल से इस फिल्म की सफलता में भरपूर योगदान दिया है । विशाल - शेखर का संगीत इस फिल्म की लोकप्रियता को बढ़ाने में अपनी अहम भूमिका निभाएगा ।   

                                                                                                            एम वेंकटेश्वर

                                                                                                            9849048156 

Monday, October 14, 2013

महीन रिश्तों का  नाज़ुक दौर : लंच बॉक्स
                                                                                    एम वेंकटेश्वर

लंच बॉक्स यानी दोपहर के भोजन का डिब्बा जो अधिकतर कामकाजी लोग अपने अपने साथ दफ्तर ले जाते हैं या किसी अन्य साधन से भोजन के घंटे तक प्राप्त करते हैं । मुंबई में डिब्बे वालों की हजारों की संख्या में एक ऐसी खास जमात है जो समूचे मुंबई शहर में सैकड़ों दफ्तरों में कार्यरत लोगों तक उनके घरों से भोजन का डिब्बा लेकर उन्हें भोजन पहुंचाती है। इन डिब्बों वालों का नेटवर्क प्रबंधन बहुत ही सधा हुआ, अति सक्षम और अचूक है । दूर दूर से डिब्बे घरों से लिए जाते हैं उन्हें विशेष सूझ-बूझ और कुशल व्यावसायिक के साथ क्षेत्रवार वितरण प्रणाली के द्वारा सही ठिकाने पर ठीक समय पर उपभोक्ता तक पहुंचाया जाता है और फिर वापस उसी रास्ते उसे घरों में शाम से पहले लौटा दिया जाता है । मुंबई के डिब्बे  वालों की निरापद और त्रुटिहीन डिब्बा वितरण प्रणाली सारी दुनिया में  अपनी पहचान बनी चुकी है और बड़े बड़े प्रबंधन संस्थानों में इसके संगठन कौशल की मिसाल दी जाती है । अनेक विश्वविद्यालयों में इस प्रबंधन कौशल के रहस्य को परखने के लिए शोध कार्य भी सम्पन्न हुए हैं ।
लंच बॉक्स फिल्म की कहानी भी मुंबई के डिब्बे वालों द्वारा मुंबई के एक दफ्तर के बाबू को गलती से किसी दूसरे के भोजन के डिब्बे को पहुंचाने के कारण उत्पन्न घटना क्रमों की रोचक और मजेदार कहानी है । जीवन में कभी  कभी कुछ ऊटपटाँग घटनाएँ अकस्मात अनचाहे घटित  हो जाती हैं लेकिन ये ही घटनाएँ जीवन की दिशा भी बदल देती हैं । ऐसी ही यह घटना प्रधान कहानी है जिस पर यह फिल्म आधारित है जो कि आज के महानगरीय जीवन की विसंगतियों और वास्तविकताओं से दर्शकों को रूबरू कराता है । महानगरीय जीवन की जटिलताओं में दाम्पत्य संबंधों की ऊष्मा खत्म हो गई है, रिश्ते नाते तार-तार  हो गए हैं। मध्य वर्ग एक खोखला ऊबाऊ और बनावटी जीवन जीता है । यह फिल्म जीवन के समानान्तर चलती है इसलिए इसे समांतर फिल्म कहा जा सकता है ।  यह एक हल्की- फुल्की रोमांटिक कहानी  है जिसे गुनीत मोंगा, अनुराग कश्यप और अरुण रंगाचारी ने संयुक्त रूप से निर्मित किया है जिसका कुशल और श्रेष्ठ निर्देशन और रितेश बत्रा ने किया है । यह फिल्म सफल और उच्च कोटि के निर्देशन कौशल को प्रस्तुत करता है । इस फिल्म में इरफान खान (साजन फर्नांडिस)  और निम्रत कौर ( इला ) ने प्रमुख भूमिकाएँ बहुत सशक्त और आकर्षक ढंग से निभाई हैं । साथ में नवाज़ुद्दीन सीद्दीकी  ( शेख )  छोटे से एक विशेष रोल में दिखाई देते हैं जो अपनी निजी शैली में फिल्म की एकरसता को तोड़कर मनोरंजक बनाने में दर्शकों का ध्यान आकर्षित कराते हैं । हमेशा की तरह इनका अभिनय लाजवाब है । इस फिल्म की कहानी बहुत सरल और बिना किसी आकस्मिक उतार चढ़ाव के महानगरीय जीवन की आपाधापी को स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत करता है । ' साजन फर्नांडिस '  ( इरफान खान ) रिटायरमेंट के करीब है, जो गंभीर प्रकृति का सारहीन जीवन जी रहा है । वह विधुर है । डिब्बे वालों की गलती से उसके पास ' इला '  ( निम्रत कौर ) के घर से पति के लिए भेजा हुआ भोजन का डिब्बा पहुँचता है । साजन उस भोजन को खाकर प्रसन्न होकर उसे धन्यवाद की पर्ची भेजता है । डिब्बे वाले की यह गलती अब कई दिनों तक बेरोकटोक चलती है क्योंकि उन्हें इस गलती का अहसास कोई नहीं कराता, और फिल्म की कहानी इसी परिदृश्य में सघन हो चलती है । इला और साजन के मध्य दोपहर के भोजन के डिब्बी के माध्यम से पहले छोटी और बाद में लंबी चिट्ठियों का सिलसिला शुरू हो जाता है । एक महीन सा रिश्ता दोनों के बीच पनपता है । ' इला' अपने घरेलू जीवन के छोटे छोटे प्रसंगों को लिख भेजती है बदले में 'साजन'  उसे  डिब्बे के ही माध्यम से कुछ नसीहतें भेजता रहता है । यह सिलसिला बहुत जल्द एक रिश्ते का रूप अख़्तियार करता है जिसका अंत रोचक और अप्रत्याशित है । इस कहानी को बहुत ही प्रोफेशनल ढंग से निर्देशक ने सँभाला है और एक निर्दिष्ट अंत तक पहुंचाया है । इसमें कहीं बिखराव नहीं है और न ही भटकाव  है । फिल्म में बहुत कम पात्र हैं और सभी पात्र अपनी छोटी छोटी भूमिकाओं का निर्वाह बहुत ही कारगर तरीके से निभाने में सफल हुए हैं । गंभीर और सार्थक फिल्मों के   दर्शक इसे पसंद करेंगे । जीवन की नज़ाकत और परिस्थितियों का प्रभाव जीवन को कभी कभी निर्णायक मोड दे देता है जिसकी कल्पना करना कठिन है लेकिन यही जीवन की सच्चाई है, इसे साबित कराते हैं निर्माता और निर्देशक दोनों ।
रितेश बत्रा  लघु फिल्में ( शॉर्ट फिल्म ) बनाने के लिए मशहूर रहे हैं ' द  मॉर्निंग रिचुअल, गरीब नवाज़ की टैक्सी, कैफे रेगुलर और कैरो '  जैसी  फिल्मों के निर्माता -निर्देशक रितेश बत्रा ने मुंबई के डिब्बे वालों की डिब्बा वितरण प्रणाली पर फिल्म बनाने का मन बनाया । इसके लिए उन्होने मुंबई के डिब्बी वालों से दोस्ती की और काफी लंबा रिसर्च किया । इस फिल्म को फिल्म समीक्षकों ने बहुत उच्च कोटि की समांतर फिल्म के रूप में काफी सराहा और इसे 2013 के हॉलीवुड के ऑस्कर एवार्ड के लिए भारत की और से प्रतियोगी फिल्म के रूप में भेजे जाने की  चर्चा हुई ।
निश्चित रूप से यह फिल्म आज की बॉलीवुड की मसाला फिल्मों के बीच एक ताज़गी के साथ नई अनुभूति प्रदान करने वाली सार्थक फिल्म है ।

                                                                                                            एम वेंकटेश्वर

                                                                                                            9849048156 
कनाड़ा की 82 वर्षीय महिला कथाकार एलिस मुनरो को साहित्य का नोबेल पुरस्कार 
                                                                                                एम वेंकटेश्वर

कनाड़ा की सुप्रसिद्ध लोकप्रिय कहानीकार एलिस मुनरो को वर्ष 2013 का साहित्य के  नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है । स्वीडिश अकादमी स्टॉकहोम  का प्रतिष्ठापूर्ण साहित्य का नोबेल पुरस्कार चयनित साहित्यकार को उनके जीवन भर के विश्व स्तरीय अद्वितीय लेखन के लिए प्रदान किया जाता है । इस पुरस्कार के अंतर्गत स्वीडिश अकादमी के द्वारा स्टॉक होम में एक भव्य समारोह में अंतर राष्ट्रीय गणमान्य अतिथियों के समक्ष पुरस्कार ग्रहीता को  12 लाख डॉलर की राशि और प्रशस्ति पत्र प्रदान की जाती है । पुरस्कार की घोषणा में स्वीडिश अकादमी ने सुश्री मुनरो को ' समकालीन कहानी की स्वामिनी ' कहकर प्रशंसित किया है । एलिस मुनरो इस पुरस्कार को ग्रहण करने वाली 13 वीं महिला हैं । इस गौरवशाली पुरस्कार के लिए सुश्री मुनरो के नाम की घोषणा से विश्व अंग्रेजी साहित्य जगत में खुशी की लहर फैल गई और इस बार साहित्य प्रेमियों ने इस घोषणा से प्रसन्नता जाहिर की क्योंकि  ऐसा देखा गया है कि  साहित्य के  नोबेल पुरस्कार के लिए कई बार अतिसाधारण रचनाकारों को भी अप्रकट कारणों से चयनित किया जाता रहा । एलिस मुनरो ने जीवन भर में 14 कहानी संग्रहों की रचना की है ।  वे  मूलत: मनुष्य के गहरे आंतरिक मनोभावों का उद्घाटन करने वाली लेखिका के रूप में कहानी संसार में प्रतिष्ठित हुई हैं ।  साहित्य जगत में यह माना जा रहा है कि इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए उनके चयन का यही आधार है ।  एलिस मुनरो ने समकालीन अंग्रेजी कहानी को संरचनात्मक दृष्टि से एक नई दिशा प्रदान की । कहानी की बुनावट को उन्होने अपनी खास शैली से विशेष प्रभावशाली बनाया । वे अपनी कहानियों को अप्रत्याशित ढंग से  प्रारम्भ कर उसे कभी समय के आगे या पीछे की ओर  लेकर चलती हैं । पाठकों ने उनकी कहानियों में लेखिका की ग्रामीण पृष्ठभूमि को प्रमुख रूप से पहचाना है ।  उनकी कहानियों मे सहज परिहासयुक्त चुटीले  जीवन के विविध प्रसंग प्रमुख रूप से प्रस्तुत हुए हैं ।
एलिस मुनरो ने गत वर्ष प्रकाशित कहानी संग्रह ' डियर लाइफ ' को अपना अंतिम संग्रह स्वीकार किया
है ।इस कहानी संग्रह के प्रकाशन के बाद उन्होने अपनी लेखनी को विराम दे दिया है ।  ' नेशनल पोस्ट कनाड़ा ' को दिये गए अपने साक्षात्कार में उन्होने इस निर्णय की पुष्टि की । हाल के वर्षों में उन्होने   पुरस्कारों के प्रति एक प्रकार की उदासीनता का रुख अपनाया लिया था । स्वीडिश अकादमी द्वारा जब नोबेल पुरस्कार की घोषणा एलिस मुनरो के लिए की गयी तो अकादमी के लिए लेखिका को सूचना देने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी और उन्हें यह सूचना उनके फोन पर छोड़नी पड़ी ।  सुश्री मुनरो इन दिनों ओंटेरियो शहर के क्लिंटन इलाके में रहती हैं किन्तु वे अपनी पुत्री के पास विक्टोरिया ( ब्रिटिश कोलम्बिया) गईं हुईं थीं, जहां उन्हें प्रात: चार बजे नींद से जगाकर यह खबर दी गयी । कुछ क्षणों बाद जैसे वे किसी मादक स्थिति से उभरी हों उन्होने भावुक होकर कनेडियन ब्रॉडकास्टिंग कार्पोरेशन को फोन द्वारा अपने ये उद्गार व्यक्त किए - " यह असंभव लगता है, यह इतनी शानदार घटना है कि मैं इसका वर्णन नहीं कर सकती ।  मेरे पास शब्द नहीं हैं इसे बयान करने के लिए । "
तत्पश्चात उन्होने उपन्यास की तुलना में पाठकों की कहानी के प्रति बढ़ती अरुचि के प्रति चिंता व्यक्त की । उनके शब्दों में " कम से कम अब लोग कहानी को भी महत्वपूर्ण साहित्य कला के रूप में  स्वीकार करेंगे और केवल उपन्यास की महानता का ही गुणगान नहीं  करेंगे ।
कनाड़ा के प्रधान  मंत्री स्टीफेन हार्पर ने साहित्य की  नोबेल  पुरस्कार विजेता एलिस मुनरो को कनाडा की प्रथम महिला कहकर उन्हें समस्त कनाड़ा -वासियों की ओर से उनके जीवन-पर्यंत  विलक्षण लेखन के लिए बधाई दी । सलमान रश्दी ने मुनरो को "  इस विधा की सच्ची कलाकार कहा " एलिस मुनरो का प्रथम  कहानी संग्रह ' डांस ऑफ द हैप्पी डेज़ ' उनके जीवन के 37 वें वर्ष में प्रकाशित हुई । उसके बाद वे निरंतर लिखती रहीं । उनकी कहानियाँ  मुख्यत: अपने गृहनगर ओंटेरियो के ग्रामीण परिवेश के इर्दगिर्द के जीवन पर केन्द्रित रहीं हैं। वहाँ के लोगों की कामनाओं, कुंठाओं, असंतोष को प्रकट करती हैं । सन् 1998 में उनके कहानी संग्रह ' द लव ऑफ ए गुड वुमन ' को नेशनल बुक क्रिटिक्स सर्कल एवार्ड से सम्मानित किया गया ।
एलिस ऐन मुनरो का जन्म 10 जुलाई 1931 विङ्हेम ओंटेरियो कनाड़ा में हुआ ।  2013 में नोबेल  पुरस्कार के अतिरिक्त उन्हें 2009 में आजीवन लेखन के लिए मैन बुकर इन्टरनेशनल प्राइज़ से सम्मानित किया गया । वे कथा लेखन के लिए कनाड़ा की गवर्नर जनरल एवार्ड से तीन बार सम्मानित हुईं हैं । मुनरो को समीक्षकों ने कहानी लेखन में चेखव के समतुल्य स्थान दिया है । उन्हें समकालीन रचचनाकारों में महानतम कथा लेखिका का दर्जा प्राप्त है । मुनरो के पिता रॉबर्ट लैडलॉ पशु पालन का व्यवसाय और उनकी माता ऐन क्लार्क लैड लॉ स्कूल में पढ़ाती थीं । किशोरावथा से ही एलिस मुनरो में कहानी लेखन के प्रति विशेष रुचि थी । वेस्टर्न ओंटेरियो यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी और पत्रकारिता की शिक्षा प्राप्त के दिनों में 1950 में पहली कहानी ' द डाइमेनशन्स ऑफ ए शेडो '  प्रकाशित हुई । पढ़ाई के दिनों में मुनरो तंबाखू बीनने और पुस्तकालय में सहायक का कार्य करतीं और कहानियाँ लिखतीं । 1949 में उन्होने अपने सहपाठी जेम्स मुनरो से विवाह किया और ये विक्टोरिया आकार बस गए जहां उन्होने मिलकर ' मुनरो बुक्स ' नामक पुस्तकों की दूकान खोली जो आज तक चल रही है । मुनरो ने 2009 में अपने प्रशंसकों को यह बताकर चौंका दिया की वे कैंसर और हृदय रोग से ग्रस्त हैं ।  
एलिस मुनरो के समीक्षकों ने स्वीकार किया कि उनकी कहानियों में संवेदना और भावनाओं को उपन्यास की गहराई के साथ ही चित्रित किया जाता है जिस कारण उनके लेखन में निहित कहानी - उपन्यास के द्वंद्व को झुठला देती हैं । समीक्षकों ने इसकी परवाह नहीं की और उनके कहानी साहित्य को इस विवाद से अलग रखा है । मुनरो उपन्यास के महिमा मंडित वर्चस्व को स्वीकार नहीं करतीं । उनकी कहानियों में वह सब कुछ है जो उपन्यास में हो सकता है । मुनरो की कहानी लेखन की विधा को सदर्न ओंटेरियो गोथिक शैली कहा जाता है । अनेक राष्ट्रीय और अंतर राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित एलिस ऐन की मौलिक कहानी संग्रहों का विवरण निम्नलिखित है -
1          डांस ऑफ हैप्पी डेज़        1968 ( गवर्नर जनरल एवार्ड 1968 )
2          लाइव्स ऑफ गर्ल्स एंड विमेन - 1971
3          समथिंग  आई हेव बीन मीनिंग टु टेल यू - 1974
4          व्हाट डु यू थिंक यू आर  - 1978 ( गवर्नर जनरल एवार्ड 1978 )
5          द मून्स ऑफ जुपिटर -  1982
6          द प्रोग्रेस ऑफ लव - 1986
7          फ्रेंड ऑफ माई यूथ - 1990
8          ओपेन  सीक्रेट्स -  1994
9          द लव ऑफ गुड वुमेन - 1998
10        हेटशिप, फ्रेंडशिप, कोर्टशिप,लवाशिप, मैरेज - 2001
            ( हाल ही में '  अवे फ्राम हर ' नाम से          प्रकाशित )
11        रन अवे - 2994  ( गिल्लर प्राइज़ 2004 )
12        द व्यू  फ्राम कासल रॉक - 2009
13        टू मच हैप्पीनेस - 2009
14        डियर लाईफ - 2012

                                                                                                            एम वेंकटेश्वर

                                                                                                            9849048156 
वैश्वीकरण के परिदृश्य में अनुवाद की भूमिका
                                                                      प्रो एम वेंकटेश्वर

संसार मे लगभग तीन हजार भाषाएँ मौजूद हैं जिनमें  से कुछ भाषाएँ तेजी से लुप्त होती जा रही हैं क्योंकि उनका प्रयोग करने वाली जनजातियाँ लुप्त हो रही हैं। भाषा वैचारिक आदान प्रदान का माध्यम होती है साथ ही यही संस्कृति की वाहिका होती है। किसी भी समाज की पहचान उस समाज की भाषा से ही होती है। संसार में भाषाओं के जन्म के सही काल का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है किन्तु निश्चित रूप से इसकी पुष्टि के कोई प्रमाण  भाषाविदों के पास उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन इतना सत्य है कि मानव सभ्यता के विकास के समानान्तर ही भाषाओं का विकास संसार में  हुआ।  भाषा ही सभ्यता के विकास का  मानदंड
है ।भाषाओं का मूल प्रयोजन सम्प्रेषण  है।  मनुष्य अपने विचारों को, भावनाओं को, आवेग, आवेश और स्पंदन को व्यक्त करने के लिए इस मौखिक माध्यम का सहारा लेता है। भाषा के बिना मानव सभ्यता की कल्पना नहीं की  जा सकती ।
मानवता की दृष्टि से सभी  देशों - प्रदेशों के मनुष्य मूलत: एक हैं पर भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक , आर्थिक, और भाषिक सीमाएं उन्हें एक - दूसरे से अलग कर  देती हैं । इनमें भाषा की सीमा सबसे बड़ी सीमा है । विदेशों की बात तो दूर अपने ही देश में  विभिन्न प्रदेशों के लोग एक - दूसरे की भाषा न समझने के कारण एक - दूसरे से अजनबी हो जाते हैं । मानव - मन स्वभावत: सीमाओं में बंधकर रुद्ध नहीं होना चाहता, बल्कि वह इन  सीमाओं को लांघकर विश्व - भर में व्यापने के लिए तड़पता रहता है । भाषा की सीमाओं को लांघने का सबसे बड़ा माध्यम अनुवाद  है । अनुवाद के माध्यम से अपनी भाषा में अन्य  भाषाओं की कृतियो को पढ़ने का अवसर मिलने पर व्यक्ति सहज ही इस निष्कर्ष  पर पहुंचता है कि भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और भाषागत सीमाएं स्वाभाविक नहीं  बल्कि मनुष्य निर्मित कृत्रिम सीमाएं हैं । वस्तुत: मानव समाज  एक है।
भाषा हमारे विचारों एवं भावनाओं का अनुवाद कही जा सकती है । जो हम सोचते हैं, वह शब्दों के माध्यम से लेखन में समेटने का प्रयास करते हैं । भाषा किसी  हद तक ही हमारे विचारों को  पकड़ पाती है ।   हम कह सकते हैं कि आम तौर पर मूल कहा जाने वाला लेखन भी मूल न होकर लेखक की भावनाओं का अनुवाद है । यही कारण है कि बहुधा  लेखक अपने स्वयं के लिखे को बार बार पढ़ते हैं, अपनी भावनाओं और उसकी अभिव्यक्ति का मूल्यांकन - पुनर्मूल्यांकन करने के बाद ही रचना को मूर्त रूप देते हैं ।  फिर अनुवाद तो किसी अन्य  लेखक की भावनाओं की अभिव्यक्ति है । जब लेखक के लिए स्वयं की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उचित शब्द नहीं मिलते, तो अनुवादक के लिए तो यह एक तरह से 'अनुवाद के अनुवाद का अनुवाद मात्र ' होगा।
सुख और दुःख की भांति मनुष्य ज्ञान को भी दूसरों के साथ बांट लेना चाहता है । जो वह स्वयं जानता है उसे दूसरों तक पहुंचाना चाहता है और जो दूसरे जानते हैं उसे स्वयं जानना चाहता है । इस प्रक्रिया में भाषा की सीमाएं उसके आड़े आती हैं । इसीलिए अनुवाद आज ज्ञान - विज्ञान के विकास और प्रसार का अनिवार्य साधन बन गया है । सामान्यतया एक भाषा के पाठ को दूसरी भाषा में बदलने की प्रक्रिया को ही अनुवाद कहते हैं । इस संबंध में  विद्वानों ने  जो परिभाषाएँ दी हैं वे इस प्रकार हैं -

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1        " अनुवाद कार्य विश्व के एक खण्ड को प्रतिपादित करने वाले माध्यम से दूसरे माध्यम द्वारा लगभग वैसे ही अनुभव का पुन:  सर्जन है ।  "                                                                   - विन्टर  
     2  " अनुवाद एक जैसे संदर्भ में एक जैसी  भूमिका निभाने वाले दो  पाठों का संबंध है । "       - हैलिडे
     3  " स्रोत भाषा के पाठ में भी दी गयी सामाग्री को लक्ष्य भाषा के पाठ की समतुल्य सामाग्री में बदलना
ही अनुवाद है ।                                                                                                   - कैटफर्ड
      4    " एक भाषा के प्रतीकों को दूसरी भाषा के भाषिक प्रतीकों द्वारा प्रतिपादित करना अनुवाद है । "
                                                                                                                        -रोमन याकोब्सन
     5    " अनुवाद प्रक्रिया के अंतर्गत संग्राहक - भाषा के संदेश को अर्थ और शैली की दृष्टि से निकटतम
            स्वाभाविक समतुल्यों में बदलना ही अनुवाद है । "                                                  - नाइडा

 अनुवाद को  स्वीकृति अथवा मान्यता प्राप्त करने के लिए सुदीर्घ संघर्ष करना पड़ा । आरंभ में लगभग सभी अनुवादों की तीव्र आलोचना की जाती थी और यह माना जाता था कि अनुवाद असंभव प्रक्रिया है । अनुवाद की प्रामाणिकता पर अनेकों तरह के लांछन लगाए गए और आज भी कुछ लोग उसका उपहास   करते हैं जैसे -  " अनुवाद एक स्त्री के समान है जो सुंदर होगी तो विश्वसनीय नहीं हो सकती और यदि विश्वसनीय होगी तो सुंदर नहीं हो सकती " अनूदित सामाग्री  तस्कर की हुई वस्तु  समझी जाती थी । अत: य अनुवाद को निस्सार और निरर्थक माना जाता था । इस धारणा के बावजूद अनुवाद की प्रक्रिया निरंतर चलती रही ।  आज विश्व में अनुवाद एक अपरिहार्य भाषिक रूपान्तरण का माध्यम बन गया है। वैचारिक,  अभिव्यक्तियों  का भाषिक रूपान्तरण केवल अनुवाद की प्रक्रिया से संभव है चाहे यह प्रक्रिया जटिल  हो या सरल।
अनुवाद देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाला एक महत्तर भाषिक साधन है। विशेष रूप से यह एक औज़ार या उपकरण है जो भौगोलिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विभेदों को स्थानीय तथा वैश्विक स्तर  पर दूर कर परस्पर संबंध स्थापित कर सकता है। विश्व की अनगिनत भाषाएँ आज अपनी अपनी  संस्कृतियों और जीवन की विधियों को संचालित कर रही है। इन विविधताओं में समन्वय स्थापित करने का एक मात्र साधन अनुवाद ही है । भाषिक वैविध्य सांस्कृतिक और सामाजिक वैविध्य को जन्म देता है किन्तु इस वैविध्य  को दूर कर विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश में सादृश्य पैदा करने की क्षमता केवल अनुवाद में ही निहित है। व्यक्ति की अभिव्यक्ति  किसी भी भाषा में हो सकती है लेकिन वही अभिव्यक्ति समूचे समाज के लिए उस भाषा विशेष के ज्ञान के बिना संप्रेषणीय नहीं होगी, ऐसी  अवस्था में अनुवाद ही वह एक मात्र उपकरण है जो इस कठिनाई को दूर कर सकता है ।
वैश्वीकरण का परिदृश्य -
 नई सहस्राब्दी के आरंभ के साथ विश्व की  राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ तेजी से बदली हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के महाविनाश के बाद भी विश्व में स्थाई रूप से शांति स्थापित नहीं हो सकी । 
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आज भी महाशक्तियों के बीच परस्पर वर्चस्व की होड लगी है। अमेरिका, चीन और रूस जैसे सामरिक बल से लैस देश समस्त विश्व पर अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं इसी के परिणाम स्वरूप इन देशों ने समस्त विश्व की आर्थिक व्यवस्था को अपने वश में  करने के लिए वैश्वीकरण का एक नया सिद्धान्त  प्रतिपादित किया जिसके अनुसार  राष्ट्रों की संस्कृतियाँ, व्यापार, बाजार, भाषाएँ , संचार माध्यम, शिक्षा व्यवस्था आदि में एकरूपता लाने के प्रयास होने लगे। वैश्वीकरण की सोच ने उत्तर-आधुनिक सोच को जन्म दिया।   आज सारा विश्व एक वृहत बाजार में तबदील हो गया है । मनुष्य की प्राथमिकता केवल धनोपार्जन ही हो गयी है । 
आज  सम्पन्न देश अपने उत्पाद  बेचने के लिए बाजार ढूँढ रहे हैं ।  आज का वैश्वीकरण का सिद्धान्त भारतीय  वसुधेव कुटुम्बकम की विचार धारा से नितांत भिन्न है। भारतीय विचार धारा, शताब्दियों से समस्त मानव समाज को भावनात्मक रूप से एकता के सूत्र में बांधने का संदेश देती है । भारतीय मनीषा  मानवीय धरातल पर असमानताओं को  दूर कर सारे विश्व में सुख, शांति और समृद्धि के प्रचार व प्रसार के लिए तत्पर रही। आज के वैश्वीकरण की सोच ने मनुष्य को स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया जिससे समाज मे नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास बहुत तेजी से  हुआ ।  आज विश्व में प्रौद्योगिकी, विज्ञान, जनसंचार, व्यापार, वाणिज्य और  प्रबंधन का क्षेत्र सबसे अधिक विकासशील  है। निगमित व्यापार और प्रबंधन प्रणालियों ने एक नई  नव-धनाढ्य सभ्यता को विकसित किया है।  संचार - क्रान्ति ने विश्व को विश्व ग्राम में बदलकर रख दिया है। दूरियाँ सिमट गईं हैं। संचार क्रान्ति ने मनुष्यों को उपग्रहों के माध्यम से जोड़ दिया
है । आज  घर बैठे हजारों मील दूर स्थित लोगों से पलक झपकते ही सीधे संपर्क साधा जा सकता है। मानव जीवन में एक सम्पूर्ण क्रान्ति आ गयी है। भौगोलिक दूरियाँ समाप्त हो गई हैं, लेकिन भावात्मक और भावनात्मक दूरियाँ बढ़ गईं , लोग अति व्यावाहरिक हो गए हैं। संचार क्रान्ति ने विभिन्न भाषा भाषियों को
 परस्पर जोड़ने के वैज्ञानिक उपकरण तो बनाकर दे दिये लेकिन इनकी सक्षमता भाषिक विभेद को दूर करने लायक नहीं है  । इस भाषिक विभेद और भिन्नता को दूर करने का एक मात्र उपाय अनुवाद ही है। अंत: संचार क्रान्ति का प्राण तत्व अनुवाद ही है। भाषाओं की बहुल स्थिति में सामंजस्य पैदा करने वाला एक मात्र माध्यम ' अनुवाद ' है । भाषिक विभेद को अनुवाद के माध्यम से दूर किया जा सकता है। विश्व के सिमटते हुए मानचित्र पर भौगोलिक दूरियाँ जैसे  समाप्त हो रही हैं वैसे ही  अनुवाद के द्वारा भाषिक दूरियाँ भी खत्म हो सकती हैं ।
भावनात्मक और भावात्मक एकता का माध्यम -
विश्व समाज भिन्न भिन्न राष्ट्रों, भूखंडों धर्मों, वर्णों और जातियों में  विभक्त है । हर  राष्ट्र और  समाज की अपनी भाषिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक पहचान होती है । राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी राष्ट्र भाषा से होती है । इस विभाजित मानव समुदाय को भावात्मक और भावनात्मक धरातल पर जोड़कर उनके मध्य बनी हुई विषमता की खाई को पाटना ही अनुवाद का प्रधान लक्ष्य है ।  इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुयाद एक सेतु बन गया  है । इस  विभाजक अंतराल को  खत्म कर विभिन्न संस्कृतियों में भावात्मक एकता स्थापित करने के लिए अनुवाद एक सशक्त साधन के रूप में उपलब्ध है ।  राष्ट्रीय, भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और जातीय अलगाव को खत्म कर  भावात्मक एकीकरण के लिए अनुवाद की उपयोगिता आज विश्व स्तर पर  सिद्ध हो चुकी है । भाषिक विभिन्नता की दरार भी अनुवाद से ही मिटाई जा सकती है। इसीलिए अनुवाद को एक सशक्त सेतु माना गया है ।भावात्मक एकता से मनुष्य  में सहृदयता
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और सदाशयता का विकास और मानव जाति का कल्याण संभव है । अनुवाद के माध्यम से परस्पर एक दूसरे की सांस्कृतिक विरासत को साहित्य के माध्यम से समझकर सहिष्णुता का संवर्धन किया जा सकता
है ।  समाज में व्याप्त भाषिक  विभाजन से उत्पन्न खाई को  पाटने तथा भिन्न भिन्न संस्कृतियों के भावात्मक एकीकरण के लिए अनुवाद एक असाधारण खोज  है । 
राष्ट्रीय एकात्मकता :
राष्ट्रीय एकात्मकता आज की अनिवार्य आवश्यकता  है।  भारत जैसे बहुभाषी देश के लिए अनुवाद अत्यंत प्रभावी  और उपयोगी माध्यम है जिससे कि देश में व्याप्त  भाषिक विभेद को दूरकर जन सामान्य में परस्पर एक दूसरे की भाषा  और संस्कृति के प्रति सद्भावना जागृत हो सके । भारत आज भाषिक और सांस्कृतिक विखंडन की  प्रक्रिया से गुजर रहा है जिसका एक प्रमुख कारण वैश्वीकरण ( बाजारवाद ) की प्रक्रिया  से उत्पन्न सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास है । अनुवाद जैसे सशक्त और कारगर माध्यम की आवश्यकता सबसे अधिक भारत  को ही  है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समूचे विश्व को इसकी आवश्यकता है ।
अनुवाद की प्रक्रिया लक्ष्य भाषा और स्रोत भाषा दोनों के प्रति समान रूप से संवेदनशील तथा संरक्षात्मक भाव धारण किए रहती है इसलिए अनूद्य  और अनूदित दोनों भाषाएँ सुरक्षित  रहती हैं। किसी भी भाषा के अस्तित्व पर कोई खतरा नहीं  मँडराता । भारतीय संदर्भ में प्रादेशिक और क्षेत्रीय भाषाओं को परस्पर एक दूसरे के निकट लाने का सबसे व्यवहारिक माध्यम अनुवाद ही है । किन्तु भारत में  अनुवाद की स्थिति संतोषजनक नहीं है । भाषाओं की संख्या को देखते हुए तथा देश के विस्तार तथा आकार के अनुरूप भारत में अनुवाद के माध्यम  से देश की संस्कृतियों को जोड़ने का संगठित प्रयास अभी  बाकी है । अनुवाद के प्रति देश का शिक्षित वर्ग उदासीन है ।  अनूदित साहित्य को दोयम दर्जे का साहित्य मानने की मानसिकता अभी भी हमारे शिक्षित वर्ग में व्याप्त है । भाषा वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार हर भारतीय कम से कम द्विभाषिक होता है । भारत में अनेकों भाषाएँ सरलता से उपलब्ध हैं लेकिन भारतीयों में इतर भाषाओं को सीखने या स्वीकार करने की इच्छा शक्ति का अभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है ।  विश्व के अनेक  देशों में भारत जैसी  बहुभाषिकता की स्थिति विद्यमान है  लेकिन वहाँ आम लोगों में  सभी भाषाओं के प्रति संवेदना और अपनेपन का भाव सहज रूप में  परिलक्षित होता है । रूस, चीन, स्विट्जरलैंड आदि देश इसके उदाहरण हैं ।   भारत में साहित्यिक अनुवाद की परंपरा सशक्त होने के बावजूद पर्याप्त नहीं है । राष्ट्रीय एकात्मकता के लिए भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य का अनुवाद हिन्दी और हिन्दी साहित्य का
इतर भारतीय भाषाओं में अनुवाद राष्ट्रीय हित में आवश्यक है । भारत में संस्थागत अनुवाद कार्य की प्रगति  संतोषजनक नहीं है  ।  स्वैच्छिक रूप से भाषा-प्रेमी  विद्वान अपनी अभिरुचि के अनुकूल साहित्यिक  अनुवाद के कार्य में संलग्न हैं लेकिन अनुवाद के क्षेत्र को सुसंगठित होने की आवश्यकता है । भारत में अनुवाद कार्य  राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के द्वारा संगठित रूप से आयोजित करने की नितांत आवश्यकता है । अनुवाद कार्य को स्वैच्छिक एवं स्वच्छंद रूप से स्वीकार करना चाहिए तभी इस कारी को सही दिशा प्राप्त होगी ।  शिक्षित वर्ग यदि इस कार्य को नैतिक दायित्व के रूप में स्वीकार करे देश  की साहित्यिक धरोहर विभिन्न भारतीय भाषाओं में सामान्य जनता को उपलब्ध होगी । 


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बाजारवाद और अनुवाद : 
भारत में साहित्येतर अनुवाद की भी बहुत अधिक आवश्यकता है । साहित्येतर अनुवाद की आवश्यकता विभिन्न काम काज के क्षेत्रों के लिए उपयोगी होता है । भाषा की प्रयोजनमूलकता उसके विभिन्न
प्रकार्यात्मक अनुप्रयोगों से ही आँकी जा सकती है । भारत में अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं के मध्य अनुवाद की आवश्यकता अधिक है। क्योंकि देश में कामकाज की व्यवहारिक भाषा अंग्रेज़ी है । इसलिए काम काज के क्षेत्र में प्रयुक्त अंग्रेज़ी की अभिव्यक्तियों तथा आँय प्रकार के प्रशासनिक पाठ को जन सामान्य किए लिए बोधगम्य बनानेके लिए अनुवाद का आश्रय लेना पड़ता है । यह हमारी मजबूरी है । ऐसे विशेष कारी क्षेत्रों में कामकाजी  भाषा के प्रयोग के लिए भारतीय भाषाओं में प्रशासनिक एवं अन्य विषयों में पारिभाषिक शब्दावली की आवश्यकता होती है ।  इसके लिए भारत सरकार ने वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग जैसे संगठनों को स्थापित किया है जो कि हिंदी और इतर भारतीय भाषाओं में प्रयोजनमूलक पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण कर,  विभिन्न विषयों के कोशों द्वारा शब्दावली उपलब्ध कराती है ।
भारत में वैश्वीकरण की बाजारवादी नीति के अंतर्गत बड़ी तेजी से आर्थिक विकास हो रहा है। व्यापार एवं
 वाणिज्य का क्षेत्र सबसे बड़ा क्षेत्र है जहां अनुवाद की सर्वाधिक मांग है । भारत जैसे बहुभाषी देश में विदेशी और स्वदेशी उत्पादों की बिक्री केवल किसी एक भाषा के माध्यम से नहीं की जा सकती । भाषा सम्प्रेषण का माध्यम होती है । किसी भी उत्पाद ( माल ) को बेचने के लिए वाचिक और लिखित ( मुद्रित ) रूप में  विज्ञापन प्रणाली के द्वारा उस उत्पाद का प्रचार किया जाता है । यह प्रचार सामाग्री अनेक भाषाओं में पेशेवर  विज्ञापन विशेषज्ञ तैयार करते हैं । विज्ञापन का बाजार अनुवाद पर ही आधारित होता है ।  फिल्मों से लेकर उपभोक्ता वस्तु,  कृषि, सर्राफा, घरेलू वस्तु, अनाज, कपड़ा आदि हर जीवनोपयोगी वस्तुओं के क्रय - विक्रय की सारी व्यवस्था आज अनुवाद द्वारा तैयार किए गए विज्ञापनों के द्वारा ही संचालित हो रही है ।  विश्व का सारा बाजार अनुवाद पर आश्रित है । ये अनुवाद स्वदेशी और विदेशी भाषाओं में भी करवाए जाते हैं । इस कार्य के लिए निजी क्षेत्र में बड़ी विज्ञापन कंपनियाँ बाजार में उतर गईं हैं । इस तरह अनुवाद का भी एक बहुत बड़ा बाजार है जो कि करोड़ों रुपयों का व्यापार करता है । विज्ञापन जगत में अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर अनुवाद भी एक उद्योग के रूप में उभरा है आज ।    
मीडिया और अनुवाद :
 आज का युग संचार क्रान्ति का युग है । जान-संचार के माध्यम मानव जीवन पर हावी हो गए हैं । टी वी, रेडियो, इन्टरनेट, समाचार पत्र, पत्र-पत्रिकाएँ, फिल्म - ये सब आज मानव जीवन के अनिवार्य  अंग बन गए हैं ।  विश्व में आज हर देश और हर समाज में इनका प्रवेश हो गया है। आज समाचार और संदेश चौबीसों घंटे प्राप्त होते हैं । टी वी के चैनल और रेडियो के कार्यक्रम चौबीसों घंटे चलते हैं । समाचार पत्र के एकाधिक   संस्करण हर रोज निकाले जाते हैं । सम्पन्न देशों में रात्रि संस्कारण भी  प्रकाशित होते है, अर्थात जनसंचार के माध्यम हर पल, हर वक्त कार्यरत रहते हैं । विश्व की अनगिनत भाषाओं में ये चैनल और स्रोत कार्य करते
हैं ।  स्रोत  भाषाओं में एकत्रित  सामग्री  का अनुवाद इन संगठनों को तत्काल कर उनका प्रसारण किया जाता है ।आज  विश्व के संचार बाजार में असंख्य अनुवादक निर्विराम कार्य कर रहे हैं जिनके द्वारा संसार के हर कोने का समाचार या संदेश कुछ ही क्षणों में विश्व के अन्य हिस्सों में हर भाषा में अविलंब पहुँचता है । 

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 यह अनुवाद का ही चमत्कार है और अनुवाद प्रक्रिया की ही देन  है । यदि अनुवाद जैसी प्रक्रिया न होती तो संचार क्रान्ति भी संभव नहीं होती ।  मीडिया ने नई शताब्दी में मानव जीवन में उथल पुथल मचा दी है । राष्ट्रों की राजनीति को प्रभावित किया है । राष्ट्रों के प्रमुख अपने वक्तव्यों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करते हैं तो उन्हें सारा विश्व अनुवाद के ही माध्यम से समझ पाता है और तत्काल उस पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करता है । संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच से राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के भाषण तत्काल आशु अनुवाद द्वारा विश्व की सभी भाषाओं में उपलब्ध कराया जाता है । इसमें दूरसंचार के माध्यमों की  भूमिका महत्वपूर्ण है । कार्यक्रमों के सीधे प्रसारण के लिए संचार माध्यमों के द्वारा प्रयुक्त अत्याधुनिक तकनीक जिम्मेदार है जो इस तरह के उपकरण तैयार कर विश्व को तत्काल जोड़ती है । अनुवाद के बिना हम विभिन्न देशों में होने वाले परिवर्तनों को, वहाँ की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों में होने वाले बदलावों को कदापि नहीं आत्मसात कर पाते ।
अनुवाद का प्रयोजन केवल साहित्य के भाषिक रूपान्तरण के लिए ही नहीं बल्कि साहित्येतर कामकाज के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण और अनिवार्य है ।  अक्सर लोग अनुवाद का प्रयोजन  केवल साहित्यिक रूपान्तरण के लिए ही मानते हैं, लेकिन  जहां  भाषिक प्रयोग और अनुप्रयोग की संभावना है वहाँ अनुवाद की अनिवार्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । 
शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में अनुवाद :
अनुवाद की  सबसे अधिक उपयोगिता  वैश्वीकृत परिदृश्य में शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में  अति महत्वपूर्ण है । शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान और विज्ञान की सामग्री अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर विश्व के सभी देश  और शिक्षण संस्थाएं आपस में बांटती हैं ।  यह आदान - प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही  होता है। अनुसंधान के परिणामों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आपस में अनुवाद के द्वारा ही साझा करते हैं ।  मनुष्य के कल्याण के लिए विश्व भर में जो भी शोध और अनुसंधान हो रहे हैं जिनमें असंख्य वैज्ञानिक कार्यरत हैं उनके नतीजे समूची मानव जाति तक पहुंचाने का काम अनुवाद द्वारा ही संभव है । इसीलिए सूचना प्रौद्योगिकी, अन्तरिक्ष विज्ञान, चिकित्सा और वैद्यकी, असाध्य रोगों के निवारण हेतु जो शोध कार्य  हो रहे हैं उनकी जानकारी विभिन्न देशों के नागरिकों को स्थानीय भाषा में दी जाती है जिसके पीछे विशेषज्ञ अनुवादकों   का परिश्रम  रहता है । संसार में जितनी भाषाएँ मौजूद हैं उन सभी भाषाओं में सारी ज्ञान विज्ञान की सामग्री स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध हो रही है - इसका श्रेय अनुवाद को ही जाता है ।
वैश्वीकरण के दौर में अनुवाद के क्षेत्र में कंप्यूटर का प्रवेश :
आज का युग संचार के क्षेत्र में कंप्यूटर की  प्रधानता का युग है।  अनुवाद प्रक्रिया को सुगम और अत्यधिक गतिशील बनाने के लिए कंप्यूटर के प्रयोग की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान हो रहे हैं । कंप्यूटर द्वारा सम्पन्न अनुवाद को मशीन अनुवाद कहा जाता है । विश्व की अग्रणी कंप्यूटर संस्थाएं आज हर तरह के पाठ के अनुवाद के लिए कंप्यूटर का प्रयोग सफलता पूर्वक, कारगर तरीके से करने के लिए प्रयासरत हैं । 
अभी इस प्रयास में पूर्ण सफलता नहीं मिली है लेकिन बहुत जल्द यह प्रयास सफल होगा । जब विश्व की सभी भाषाओं में अंतर भाषिक अनुवाद मशीन द्वारा संभव  हो जाएगा।  आज कंप्यूटर साधित अनुवाद कुछ सीमित प्रकार्यों के लिए किया जा रहा है । सीमित शब्दावली के साथ विशेष क्षेत्रों में कंप्यूटर अनुवाद किया
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जा रहा है । इसके लिए विशेष रूप से कृत्रिम बौद्धिकता  ( Artificial intelligence ) का विकास किया जा रहा है।  वैश्वीकरण के दौर में विश्व मानव को सारे विभेदों, विषमताओं को भुलाकर यदि परस्पर निकट आना हो तो भाषिक अवरोधों को मिटाना होगा, यह केवल अनुवाद से ही संभव है । अनुवाद के क्षेत्र में आज के स्पर्धा-युक्त  समाज में रोजगार की  अपार संभावनाएं मौजूद हैं ।  फिल्मों की डबिंग ( ध्वन्यन्तरण )  और सब टाईटलिंग  की प्रणाली अनुवाद की प्रक्रिया पर ही आधारित है । आज विश्व का फिल्म उद्योग  अनुवाद की माध्यम से माला-माल हो रहा है ।
 दुभाषिए की भूमिका आज  बहु-राष्ट्रीय व्यापारिक  प्रतिष्ठानों  में  अत्यंत महत्वपूर्ण है । यह आशु-अनुवाद नामक प्रणाली द्वारा साध्य है । आशु अनुवाद भाषणों के तत्काल अनुवाद के लिए सर्वाधिक उपयोगी है, साथ ही वार्तालाप या संवाद के तत्काल अनुवाद के लिए भी इस कला की उपयोगिता निर्विवाद है । 
है । पर्यटन के क्षेत्र में अनुवाद की भूमिका अति महत्वपूर्ण सिद्ध हो चुकी है । भिन्न भिन्न भाषा बोलने वाले सैलानियों  के लिए उनकी भाषा में दर्शनीय स्थलों का परिचय देनेके लिए गाइड को अनुवाद  का सहारा लेना पड़ता है । इसीलिए अनुवाद को पर्यटन -संबंधी प्रशिक्षण का अनिवार्य हिस्सा बनाया गया है । उसी तरह प्रबंधन, प्रशासन और राजनयिक गतिविधियों में तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को परिपुष्ट करने की प्रक्रिया में अनुवादक या दुभाषिए की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । अंतर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने में भिन्न भाषा-भाषी समुदायों अथवा देशों के मध्य संधि वार्ताएं, समझौते और करार आदि के लिए अनुवाद का प्रयोग किया जाता है ।आज के तेजी से बदलते हुए अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में अनुवाद की भूमिका बहुआयामी है  भाषा जिस तरह से सम्प्रेषण का माध्यम है अनुवाद भी उसी सम्प्रेषण को सार्थक और सशक बनाने का सहायक औज़ार है । आज वैश्वीकरण के दौर में बहुभाषी होना समय की आवश्यकता है और बहु-भाषिकता को  समन्वय के सूत्र में बांधने के लिए अनुवाद की आवश्यकता अपरिहार्य है।
अनुवाद के माध्यम से ही हमे विश्व साहित्य को पढ़ने की सुविधा प्राप्त होती है । अनुवाद के बिना हम इस धरोहर को जानने से वंचित रह जाते । आज मनुष्य  पहले से कहीं अधिक जिज्ञासु और शोधपरक हो गया है।  मनुष्य की जिज्ञासाओं का  समाधान अनुवाद द्वारा प्राप्त सामाग्री के अध्ययन से ही संभव है ।   किसी भी व्यक्ति के लिए संसार की सारी भाषाओं को सीखना संभव नहीं है लेकिन विभिन्न भाषाओं में  रचित  साहित्य एवं अन्य सामाग्री का उपयोग हर व्यक्ति अनूदित पाठ के माध्यम से  कर सकता है। अनुवाद ने आज अभिव्यक्ति की सीमाओं का विस्तार किया है। अनुवाद वर्तमान काल की अनिवार्य आवश्यकता है ।
भारतीय संदर्भ में अनुवाद की आवश्यकता अति महत्वपूर्ण है । भारत की भौगोलिक, सामाजिक,  सांस्कृतिक तथा भाषिक विविधता निश्चित रूप से भारत की भावनात्मक अखंडता और एकता के लिए चुनौती है किन्तु इस वैविध्य और विभेद को  दूर करने के लिए अनुवाद ही एकमात्र कारगर उपाय है जिसके द्वारा देश में वैश्वीकरण की स्थितियों से उत्पन्न सांस्कृतिक अप्सरण तथा भाषिक क्षरण की प्रक्रिया पर रोक लगाई जा सकती है ।
-          प्रो एम वेंकटेश्वर
-         पूर्व - अध्यक्ष, हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग
-         अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय हैदराबाद 500007, मो - 9849048156