Tuesday, December 13, 2011

हमारी व्यवस्था की कटु सच्चाइयां और विडंबनाएं !

आज देश एकाधिक समस्याओं से जूझ रहा है। देश की सत्ताधारी दल विपक्ष और अन्य लोगों के प्रहारों से लहूलुहान है। अनेक प्रकार की विसंगतियां सरकार के अंतर्विरोधी और अदूरदर्शी निर्णयों के कारण पैदा हो गयी हैं। सरकार की उलझाने न बढ़ती जा रहीं हैं. सरकार अपनी ही नीत्यिओं के जाल में फंसती जा रही है. प्रतिपक्ष भी अपनी आवाज अनेक मुद्दों पर बुलंद कर रहा है जो कि संसद की सामान्य कार्यवाही में बाधक बन रहा है। सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति में उलझाते जा रहेहैं। सरकार के द्वारा प्रतिपादित अनेक मुद्दे इधर विवादास्पद हो गए हैं, जिन पर प्रतिपक्ष जनता की आम राय के अनुकूल सदन में ( संसद में ) सरकार की नीत्यों का विरोध कर रहा है। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के मामले में सरकार को अपना फैसला टालना पडा है, देश में इस नीति के प्रति मिली जुली प्रतिक्रया दिखाई पड़ी। वास्तव में आम जनता इस नीति के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती सिवाय इसके कि एक सामान्य समझ वाला व्यक्ति यही समझता है कि इस नीति के अमल में लाने से हमारे छोटे और खुदरा व्यापारी प्रभावीहोंगे और उनकी आजीविका समाप्त हो जायेगी,जो कि सच लगता है। और फिर हमारे देश की स्वदेशी की नीति कहाँ गुम हो गयी। आज हम ( हमारी सरकारें ) हर समस्या का समाधान विदेशी पूंजीपतियों को देश के हितों को सौंपने में ढूँढ़ रहें हैं । चाहे वह बाजार हो, उद्योग हो, उत्पादन हो या परमाणु करार हो या बेरोजगारी से निजात पाने के उपाय हों आदि। देश का व्यापार, वाणिज्य, आतंरिक और बाह्य सुरक्षा - हर क्षेत्र को हम धीरे धीरे विदेशी बहुराष्ट्रीय सगठनों को सौंपते जा रहे हैं। विदेशी मोटर गाड़ियां, बसें, ( परिवहन के साधन ), उपभोक्ता वस्तुएं, घरेलू उपयोग की वस्तुएं, कपड़ा उद्योग, खेल कूद के उपकरण, सभी कुछ तो अब विदेशी ही बिकने लगा है, यहाँ तक फल भी विदेशी ही बिक रहे हैं बाजार में ( सेब और संतरे और केले आदि ) हमारे खोटें की उपज अब दिखाई नही देती। सब कुछ आयात किया जारहा है। हमार पास हमारे उत्पादों के भंडारण के लिए पर्याप्त गोदाम नहीं हैं, इसलिए पैदावार कुंठित हुई है इसलिए महंगाई बढी है। कम फसल और अधिक मांग ने खाद्यान्न को कल्पनातीत महँगा कर दिया है। देश नव धनाढ्य वर्ग के आविर्भाव ने समाज में आर्थिक असमानता पैदा कर दी है जिससे एक ओर बहुत अमीर हैं जिनकी क्रय क्षमता मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग के लोगों से कई गुना अधिक हो गयी है .इस असमानता से समाज में असंतोष और अपराध बढ़ने लगा है।
शिक्षा व्यवस्था पर भी देश में सर्व व्यापी असंतोष छाया हुआ है। अन्य विकसित और विकासशील देशों की तुलना में हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में निवेश बहुत कम है और जो कि चिंता का विषय है। हमारी जनसंख्या के अनुपात में हमारे पास स्कूल और उच्च शिक्षण संस्थाएं नहीं हैं। जो हैं उनमें भी हम उत्तम और गुणात्मक ( उच्च कोटि की ) शिक्षा मुहैया कराने में विफल हुए हैं। गुणवता पूर्ण अशिक्षा आज कार्पोरेट स्कूलों और कालेजों ही उपलब्ध है - ऐसा जान पड़ता है, लेकिन इन शिक्षण संस्थाओं में देश का आम आदमी अपने बच्चों को नहीं भेज सकता इसा तरह इस तरह की शिक्षा केवल चन्द को लोगों को ही नसीब हो रही है. सरकार की वोट की राजनीति ने कुछ वर्गों को तुष्ट करने के लिए अनेक मुफ्त योजनाओं को उपलब्ध कराने के लिए जिस तरह से सरकारी पैसों का दुरपयोग हो रहा है उस पर विचार करने का समय आ गया है। कब तक हम इस तरह के जन - लुभावनी योजनाएं और परियोजनाएं लागू करके देश की वित्तीय व्यवस्था को नष्ट करते रहेंगे। अनावश्यक और मिथ्या वायदों की आड़ में सत्ता हासिल करने की राजनीति को त्यागना होगा और जनकल्याणकारी शासन तथा प्रशासन को बहाल करना अब अनिवार्य है।
नागरिकों को अपनी जिम्मेदारियों से अवगत करान चाहिए और उन्हें स्वावलंबन का पाठ सिखाना आवश्यक है।
पर-जीवी बनाने से जनता को बचाना चाहिए। लेकिन हमारे देश के राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए जिस तरह से अकूत धन लुटाती है वह भी आपत्तिजनक है लेकिन इसे कोई रोक नहीं पा रहा है। हमारे देश में चुनाव सुधारों की नितांत आवश्यकता है। विदेशों में अवैध तरीकों से जमा काला धन ( जो कि हजारों करोड़ों में है ) जिस पर देश वासियों का अधिकार है, उसे किसी भी तरह से वापस लाकर राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगाया जाना चाहिए तभी हमारे देशवासियों के जीवन स्तर में सुधार होगा।
भ्रष्टाचार हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है जिसका निदान हम नहीं खोज पा रहे है और न ही हम उस पर कसी भी तरह का अंकुश ही लगा पा रहेहैं। रिश्वतखोरी आज हमारे देश में मान्य हो गई है और आम जनता इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर है. इसे ख़त्म करने के कारगर उपायों ( कानून ) की आवश्यकता है।
बेरोजगारी, गरीबी, निरक्षरता, बाल-परिश्रम, स्त्रियों पर होने वाली घरेलू हिंसा आदि में वृद्धि हुई है । देश भर की पत्रिकाएँ इस तथ्य को उजागर कर रहीं हैं। आज मीडिया बहुत सशक्त हो गया है और कारगर भी - मीडिया ने भारती समाज को अनेक क्षेत्रों में जागरूक बनाया है तथा अनेकों घोटालों को उजागर करने में बहत्वापूरना भूमिका निभा रहा है जो कि प्रशंसनीय है । लेकिन मीडिया को अधिक जिम्मेदार होना पडेगा।
आज की युवा पीढी लहले से अधिक जागरूक है और अपने बल-बूते पर वह अपना भविष्य संवार रही है। उन्हें अब अवसरों की खोज करने के तरीके पहले से ज्यादा मालूम हो गए हैं। देश के भविष्य को संवारने में युवाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। साथ ही देश में फैले भ्रष्टाचार से तंग आकर युवा वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा विदेशों में जाकर आजीविका के अवसर तलाशने में और वही रहकर सुखमय जीवन जीने में विश्वास करने लगा है। देश में विखंडन की राजनीति से बचने के लिए आज की युवा पीढी, अपने देश को छोड़ रही है। योग्यता और हुनर तथा ईमानदारी का मूल्य और साथ ही पहचान विदेशों में हासिल करना ज्यादा आसान लगता है। जब कि हमारे देश में ईमानदारी की कोई इज्जत नहीं और न ही पहचान है - आज हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था और सरकारी तंत्र दोनों योग्यता और सक्षमता को दर किनार कर भ्रष्टाचार के माध्यम से उच्च पदों ( प्रशासनिक और इतर ) पर नियुक्तियां कर रही है, जिससे ऐसे ईमानदार और सक्षम तथा योग्य लोग दुखी और असंतुष्ट हैं लेकिन निस्सहाय भी हैं वे लोग। धनबल और राजनीतिक बल के बिना आज कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता , यहीहमारे देश और समाज की सच्चाई है।

Friday, December 9, 2011

वीरेन्द्र सहवाग का एक दिवसीय क्रिकेट में दोहरा शतक एक नया कीर्तिमान

क्रिकेट के एक दिवसीय स्वरुप में विस्फोटक बल्लेबाज वीरेन्द्र सहवाग का वेस्ट इंडीज़ के खिलाफ २१९ रनों की पारी कई मायनों में भारत और विश्व क्रिकेट के लिए बहुत महत्व रखती है। सहवाग के बल्ले से यह कीर्तिमान उस समय संभव हुआ जब कि उन पर कप्तानी का अतिरिक्त दायित्व है और इधरहाल के मैचों में उनका बल्ला खामोश रहा। प्रशंसको को निरंतर उनसे निराशा और मायूसी ही देखने को मिलती रही। वेस्ट इंडीज़ के खिलाफ उनका प्रदर्शन इस श्रृंखला में बहुत ही औसत दर्जे का रहा है, अब तक। कोई ख़ास प्रशंसनीय पारी वे नहीं खेल पाए. यह प्रदर्शन खेल प्रेमियों और भारतीय चयनकर्ताओं के लिए भी एक चुनौती बन गयी थी। क्योंकि उन्हें आस्ट्रेलिया के दौरे के लिए भी चुन लिया गया है। अब वे फ़ार्म में नहीं आते तो भारतीय टीम की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। वे स्वयं भी इस तथ्य को समझते रहे हैं, लेकिन उपाय केवल एक ही है कि वे अपने बल्ले से ही जवाब दें। और यह उन्होंने कर दिखाया। वे एक महान बल्ले बाज हैं - इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन उनमें स्थिरता नहीं है । बीच बीच में उनका प्रदर्शन अचानक कहीं गुम हो जाता है। फिर वे अचानक अगिन पाखी की तरह उठ जाते हैं, और धमाका कर देते हैं। हालाकि एक दिवसीय क्रिकेट में दोहरा शतक बनाने सर्व प्रथम बनाने का श्रेय क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर को जाता है लेकिन यह भी एक संयोग ही है कि उन्हीं के टीम सहयोगी और अभिन्न मित्र तथा सहवाग जिनको अपना गुरु मानते हैं , उन्हीं के रिकार्ड को तोड़ने का स्वर्णिम अवसर वीरू को प्राप्त हुआ। यह दोनों खिलाड़ियों के लिए गर्व और गौरव का विषय है। सचिन तेंदुलकर ने बहुत ही उत्कृष्ट खेल भावना से अपनी खुशी जाहिर की है इस अवसर पर। भारतीयों के इए यह गर्व और का विषय है ये दोनोंही कीर्तिमान भारतीय टीम के ( एक ही समय टीम में खेलने वाले ) खिलाडियों ने हासिल किया। सचिन और सहवाग अच्छे मित्र और अच्छे इंसान भी हैं। दो मित्रों द्वारा ऐसा अनूठा कीर्तिमान देश के लिए हासिल करना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। सारा देश इन दोनों खिलाड़ियों की खेल भावना के प्रति नतमस्तक है। युवा पीढी ले लिए यह उपलब्धि प्रेरणादायक और अनुकरणीय है। वीरू के इस प्रदर्शन पर विश्व के महान क्रिकेट खिलाड़ियों ने ( पूर्व और वर्तमान ) खुशी का इजहारकिया है, जो कि उत्कृष्ट खेल भावना का सूचक है। निश्चित रूप से ऐसे प्रदर्शन और ऎसी खेल भावना देश की आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय बनेगी .
वेस्ट इंडीज़ के साथ चौथे एक दिवसीय मैच में उनकी बल्ले बाजी तकनीक की दृष्टि से और समय की दृष्टि से भी बहुत ही सटीक, सधी हुई, सुनियोजित, परिपक्व तथा दर्शनीय थी । सहवाग अपने असली९ रंग में बहुत समय बाद लौटे हैं। उनका यही मिजाज़ आगे भी बरकरार रहना चाहिए। खासकर आस्ट्रेलिया में ऎसी हीबल्ले बाजी की नितांत आवश्यकया है, और उनके चाहक और प्रशंसक अभी से यही उम्मीद लगाए हैं कि वे ऎसी ही पारी वहां भी खेलेंगे। भारतीय पिचों पर ऎसी पारी खेलना अपेक्षाकृत आसान माना जाता है लेकिन आस्ट्रेलिया की उछाल भारी पिचों पर उनके तेज़ गेंदबाजों के सामने सहवाग इसी मानसिकता का परिचय देना होगा तभी उनकी सही परिक्षा होगी और वे खरे उतरेंगे, वैसे उनको कुछ नया सिद्ध करने कीई आवश्यकता नहीं है लेकिन फिर भी टीम को उनके बड़े योगदान की अपेक्षा है। वीरेन्द्र सहवाग एक निडर और आक्रामक बलल्लेबाज हैं जो अन्य सलामी बल्लेबाजों से बहुत ही अलग किस्म और तकनीक के हैं। वे पहली ही गेंद से आक्रामक हो जाते हैं और अपने शाट्स खेलने लग जाते हैं, जब कि अन्य सलामी बल्लेबाज ( या अन्य भी ) क्रीज़ पर जमने के लिए थोड़ा समय लेना पसंद करते हैं ,लेकिन वीरू को इसकी जरूरत नहीं पड़ती। वे आक्रामक मानसिकता के इंसान हैं और आक्रमण ( येलागार ) में ही विश्वास करते हैं। उनकी आक्रामता से विश्व की सभी टीमें घबराती हैं और खौफ खाती हैं। क्योंकि अगर वीरू थोड़े भी समय के लिए क्रीज़ पर टिक जाते हैं तो वे प्रतिद्वंद्वी टीम की बालिंग और फील्डिंग को ध्वस्त कर देते हैं फिर उसके बाद उनका संभलना मुश्किल हो जाता है। टेस्ट मैच में भी उनकी बल्ले बाजी वैसी ही होती है जैसी कि एक दिवसीय मैचों में या टी-२० में । वीरू की आक्रामकता और विध्वन्सात्मकता खतरनाक होती है।
क्रिकेट के विशेषज्ञों ने विवियन रिचर्ड्स और याद किया है, उन्हें देखते हुए। वास्तव में वीरू भारत के विवियन रिचर्ड्स हैं। अभी आगे भी उनके बल्ले से और भी अधिक बड़ी पारियों की प्रतीक्षा है ।
उन्हें हमारी शुभ कामनाएं -

Wednesday, November 9, 2011

अन्ना हजारे और उनके साथियों को कारगर और सकारात्मक ढाँचे में संगठित होने की आवश्यकता

आज सारा देश अन्ना जी के मंतव्यों और वक्तव्यों के प्रति सचेत हो गया है। अन्ना ने भ्रष्टाचार निर्मूलन अभियान का जो अलख जगाया है, उसे हर राजनीतिक दल अपने पक्ष में भुनाना चाहता है। इस अवसर पर सभी राजनीतिक दल और राजनेता अन्ना जी से बढ़कर स्वयं को पाक साफ़ सिद्ध करने की कवायद में लग गए हैं। अचानक नेताओं को विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने की चिंता सताने लगी है। भ्रष्टाचार निर्मूलन अभियान की दौड़ में अब हर राजनेता और राजनीतक दल अन्ना को पछाड़ने की होड़ में जुट गए हैं. अन्ना को हराने अथवा उनके ( जन जागृति ) अभियान को शिथिल करने के उपायों में से सबसे प्रभावी उपाय उन्हें किसी न किसी कानूनी दांव पेंच में फंसाने का है। उन्हें और उनके साथियों को कानूनी अनियमितताओं के घेरे में लाकर उनकी विश्वसनीयता को ख़त्म कर देने का प्रयास जोरों पर है। अन्ना जी कोई मंझे हुए राजनीतिक नहीं हैं । वे एक बहुत ही सरल और सहज ( साधारण ) व्यक्ति हैं, ठेठ ग्रामीण । उन्हें न तो वैसी पेशेवर भाषा ही आती है और न ही वे राजनीतिक दांव पेंच ही जानते हैं। इसीलिए वे आजकल के पेशेवर राजनेताओं के वाक्जाल में फंस जाते हैं और निरुत्तर हो जाते हैं। उनके और उनके साथियों के बीच किसी भी तरह से फूट पैदा करने की कोशिश जोरों से जारी है। ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की राजनीति में अन्ना और उनकी टीम को घेरा जा रहा है, और आये दिन कुछ न कुछ विवाद खडा करने प्रयास जारी है।
इसलिए अन्ना जी को भी अपने दल ( साथियों ) को वैचारिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर अधिक संगठित होना पडेगा। उन्हें हर कदम फूंक फूंक कर रखना होगा। बहुत ही सावधानी से मीडिया के समक्ष उन्हें अपने विचारों को तर्क सम्मत तथा पारदर्शिता के साथ रखना होगा, ताकि वे अपनी बनी बनाई विश्वसनीयता को न खो बैठें। सरकार
या सत्ता पक्ष उनके आन्दोलन या अभियान को कमजोर करने की तमाम कोशिशें कर रहा है और आगे भी करता रहेगा। आज के कमाऊ जमाने में कौन राजनेता स्वयं को जन-लोकपाल विधेयक जैसे कठोर, भ्रष्टाचार विरोधी कानून के धेरे में लाना चाहेगा या ऐसे आत्मघाती कानून को कौन राजनेता बनने देगा ? यह सोचने का मुद्दा है - जो कि हर आम आदमी आज सोच रहा है. सबसे बड़ा सवाल - जो अन्ना जी अक्सर अपने भोलेपन में उठाते हैं - सरकार को क्या आम आदमी की चिंता है ? सही सोच रखने वाला आम आदमी सरकार से अनावश्यक राहतों का कोष नहीं मांगता है, उसे केवल उसका हक़ चाहिए -जीवन जीने का, रोज़गार का, शिक्षा का, खेती-बाडी का । उसे आजादी चाहिए अपनी आमदनी में गुजर बसर करने का । सत्ता की राजनीति को पीछे छोड़कर जनसेवा और जनकल्याण की राजनीति को प्रोत्साहन जिस दिन मिलेगा उस दिन हमारे देश का आम आदमी संतुष्ट और आश्वस्त होगा. अन्ना जी को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सरकारी और गैर- सरकारी दोनों क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने की पहल करनी चाहिए। उन्हें किसी भी दल का नाम लेने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। सत्ता धारी पक्ष जो भी हो उसका यह नैतिक दायित्व होना चाहिए कि वह जनता की भलाई के लिए ऐसे कठोर और कारगर कानून को बनाए और बनाकर उसपर अमल करे। दलगत राजनीति में पड़ने से अन्नाजी का अभियान कमजोर पड़ सकता है, जिससे देशवासियों की आशाओं पर पानी फिर सकता है । आम आदमी को किसी राजनीतिक दल से कोई सरोकार नहीं होता। उसे तो स्वच्छ भ्रष्टाचार-रहित सुशासन चाहिए, चाहे वह किसी भी दल अथवा व्यक्ति द्वारा उपलब्ध कराई जाए। भ्रष्टाचार उन्मूलन अभियान को दलगत राजनीति से परे रहकर चलाना होगा, तभी इस अभियान की सार्थकता और विश्वसनीयता बढ़ेगी। अन्ना जी और उनके साथियों को अनावश्यक विवादों से परे रहना चाहिए, क्योंकि पेशेवर राजनेता लोग प्रचारात्मक भाषणों से जनता में अविश्वास और संदेह फैलाने में माहिर होते हैं। आज देश में बहुत सारे विवादास्पद मुद्दे विद्यमान हैं, उन मुद्दों पर अलग अलग दलों और उनके नेताओं की अलग अलग राय है, अन्ना जी के साथियों में किसी को ऐसे मुद्दोंपर बयानबाजी से बाज आना चाहिए, उनका ध्यान केवल एक ही लक्ष्य पर हो तभी उन्हें और देशवासियों को इस लक्ष्य को साधने में सफलता मिल सकती है।

Wednesday, October 26, 2011

खेल की भावना से ही हार और जीत दिनों को स्वीकार करना चाहिए.

भारत - इंग्लैण्ड पांच (एक- दिवसीय) मैचों की श्रृंखला भारत के पक्ष में पांच शून्य से समाप्त हुई। पांच शून्य की जीत से भारत में खुशी की लहर दौड़ गयी। दिवाली का एक शानदार तोहफा देश वासियों को जश्न मनाने के लिए माही की युवा टीम ने भेंट किया है, यह काबिले तारीफ़ है। इस जीत के पीछे माही यानी धोनी की कुशल और दूरदर्शी कप्तानी का ही कमाल है। धोनी एक जुझारू, आशावादी, संप्रेरक कप्तान के रूप में टीम में में अपनी एक ख़ास पहचान बनाते हैं। वे एक श्रेष्ठ खिलाड़ी भी हैं और एक उत्तम नायक भी। उनसे टीम प्रबंधन के अनेकों गुर सीखे जा सकते हैं। उन्हें केप्टन कूल भी कहा जाता है अर्थात जो संकट की घड़ी में भी अपना संय्हम बिना खोए टीम की सफलता के लिए रणनीति बनाता है और उस पर पूरे आत्मविश्वास के साथ अमल करता है। उनमें टीम के हरेक खिलाड़ी को साथ ले चलने की अद्भुत क्षमता है। टीम के सभी सदस्यों के बीच स्नेह और सौहार्द्र का सामान भाव बनाए रखना आज के वर्चस्ववादी माहौल में चुनौती भरा दायित्व है । उनमें व्यक्तिगत अहं का भाव दिखाई नहीं देता। अपने साथियों को विजय का श्रेय देकर विफलताओं की जिम्मेदारी स्वयं स्वीकार करना एक महान नेता का लक्षण होता है। ए पी जे अब्दुल कलाम साहब ने इसे ही सच्चाऔर उत्तम नायक का गुण बताया है अपनी पुस्तक ' अदम्य साहस ' में। जिस टीम का नायक धोनी जैसा कुशल रणनीतिकार हो, जो खुद जोखिम लेकर दूसरों को अपना सहज खेल खेलने के लिए प्रोत्साहित करता हो, ऐसे कप्तान बहुत कम होते हैं और बहुत लम्बे अरसे बाद भारतीय क्रिकेट को ऐसा कप्तान नसीब हुआ है। धोनी ने भारतीय क्रिकेट की छवि को पूरी तरह से बदल दिया है। धोनी से पूर्व भी अजित वाडेकर, बिशन सिंह बेदी, कपिलदेव, सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली, राहुल द्राविड जैसे सफल कप्तान आए और अपनी अपनी कप्तानी का दौर पूरा करके चले गए, हालाकि उनमें से कुछ अभी भी धोनी की कप्तानी में खेल रहे हैं, लेकिन धोनी इन सबसे अलग साबित हुए हैं। झारखंड राज्य से रांची नामक अपेक्षाकृत छोटे शहर से आकर भारतीय क्रिकेट में जहां एक समय तक केवल महानगरीय माहौल से ही अधिकतर खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट टीम में जगाह्बना पाते थे, वहीं माही ने केवल अपने बल बूते पर भारतीय क्रिकेट के केंद्र में आकर अपना सिक्का जमा लिया और सारे देश को जगा दिया यह बाताकर कि छोटे शहरों एवं कस्बों में भी प्रतिभा की कमी नहीं है, उचित अवसर मिलने की देर है, वे भी देश के खेलकर देश को गौरवान्वित कर सकते हैं। हार से निराश टीम में अपने आत्मविश्वास से दुबारा विश्वास जगाकर जोश भर देना केवल धोनी हीकर सकते हैं।
धोनी ने २३ वर्षों बाद क्रिकेट का विश्वकप दिलाया, २०-२० विश्वकप में जीत दिलाई, टेस्ट मैचों में भारत को पहले पायदान पर स्थापित किया, विदेशी धरती पर भारत को श्रृंखला जिताई और स्वयं एक महान बल्लेबाज और सबसे सफल कप्तान साबित किया। इंग्लैण्ड के पिछले दौरे में भारत की करारी हार का सामना भी माही ने एक महान योद्धा की भांति किया है। उस पराजित श्रृंखला में भी माही को सिरीज़ का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का पुरस्कार मिला था। उस हार को माही ने पुरी तरह से खिलाड़ी की भावना से स्वीकार किया था। अपने साथियों को उन्होंने नियंत्रण में रखा, उन्हें बिखरने नहीं दिया। हालाकि अँगरेज़ टिप्पणीकारों ने भारतीय टीम की पराजय के क्षनोंमें भारतीय खिलाड़ियों का एकाधिक बार अपमान किया, कामेंट्री के दौरान ( गधे और कुत्ते जैसे ) अपमानजनक शब्द कहे - जेफरी बायकाट और नासर हुसैन - लेकिन माही और उनके साथियों ने उन पर पलटवार नहीं किया और न ही हमारी मीडिया ने ही उन पर कोई अभद्र प्रतिक्रया व्यक्त की, क्यंकि हम खेल की भावना से खेलते हैं। और फिर क्रिकेट को सुसभ्य और सुसंस्कृत लोगों का खेल कहा जाता है ( माना जाता है ) "जेंटल मेंस गेम" ! क्या अपने विजय के नशे में ये अँगरेज़ खेल की मर्यादा को भी भूल गए थे या यहान्ग्रेजों का पुराना अहंकार है जो अभी तक बना हुआ है।
भारत कीजमीन पर जो करारी शिकस्त अब उन्हेंझेलानी पड़ी है तो ये नासर हुसैन साहब कहाँ गए, कहना मुंह छिपा लिया ? लेकिन माही ने आज तक इस मुद्दे को नहीं उठाया, बल्कि जब भारत का मीडिया - भारत इंग्लैण्ड सीरीज को बदले का सिरीज़ कहकर प्रचार कर रहा था तब भी माही ने इस तरह के प्रचार समर्थन नहीं किया, यह माही का बड़प्पन है और उनकीमहानता है जो कि एक परिपक्व कप्तान की शालीनता है. खेल में प्रतिस्पर्धा और देश भक्ति की भावना स्वाभाविक रूप से जुड़ जाती है। हर देश वासी अपने देश की जीत चाहता है और जब अपनी टीम हारती है तो देशवासी दुखी होते हैं, जब जीतती है खुशियाँ मनाई जातीहैं, यह हर खेल के साथ जुदा हुआ एक जज्बा है। लेकिन खेल में हार और जीत के समय भावनाओं व्यक्त करने की भी एक मर्यादा होती है। हम भारतवासियों ने कभी इस मर्यादा कोनहीं तोड़ा है। चाहे हम पाकिस्तान से हारे हों या जीते हों या उसी तरह से आस्ट्रेलिया भी जब हारे या जीते। हमारी खेल भावना अपने चरम पर हमेशा रहीहै। इस खेल भावना के प्रतीक हैं माही उर्फ़ एम एस धोनी। आज धोनी विश्व में एक संवेदनशील, आकर्षक, संप्रेरक खेल नायक के रूप में पहचाने जाते हैं। हार और जीत में एक तरह की स्थित-प्रज्ञता का प्रदर्शन उन्हें विशिष्ट बनाता है। उन्हें अपनी टीम के वरिष्ट खिलाड़ियों का सम्मान करना भी भी बखूबी आता है। उनकीकप्तानी में सचिन तेंदुलकर जैसा महान ( क्रिकेट का भगवान ) खिलाड़ी भी सहज और तनाव रहित मानसिकता के साथ अपना स्वाभाविक खेल खेल सकते हैं। राहुल द्राविड, वीरेन्द्र सहवाग, हरभजन सिंह, सौरभ गांगुली, वी वी एस लक्षण जैसे दिग्गज खिलाड़ियों के प्रति माहि जो आदर का भाव रकहते हुए टीम का नेतृत्व करते हैं वह वास्तव में आदर्श नायकत्व का एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं.
जीत का जश्न मनाते समय ट्राफी को लेकर अपने सहयोगियों को सौंपकर अलग हट जाना उन्हें ही भाता है। जीत के जश्न में वे हमेशा पीछे रहकर टीम के अन्य खिलाड़ियों की खुशी को निहारते रहते हैं। टीम के सदस्यों की खुशी को अपनी खुशी मानते हैं। ऐसा असाधारण कप्तान, आक्रामक बल्लेबाज, कुशल रणनीतिकार और सबसे बढ़कर एक सहज और स्वाभाविक खिलाड़ी और एक अच्छा इंसान - कहाँ मिअलता है बार बार। ये हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं। निश्चित ही धोनी ने भारतीय क्रिकेट कि छवि को संवारा है। इनकी प्रशंसा सुनील गावस्कर, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, रवि शास्त्री, अरुण लाल, मोहिंदर अमरनाथ, टाइगर पटौदी, बिशन सिंह बेदी, मदनलाल, चेतन चौहाण, श्रीकांत, दिलीप वेंगसरकर, इयान चैपल, गैरी कर्स्टन, ब्रायन लारा, एडम गिलक्रिस्ट, टोनी ग्रेग जैसे क्रिकेट के दिग्गज खिलाड़ी करते हैं वह सचमुच महान ही होगा।

Wednesday, October 12, 2011

लोकतंत्र में असहनशीलता असहमतियों का समाधान नहीं !

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसकी गरिमा इस देश के लोगों के चरित्र से आंकी जाती रहीहै। प्राचीन काल से ही यह देश त्याग, तपस्या, सेवा, परोपकार और पर दुःख कातरता जैसे मानवीय मूल्यों के लिए पहचाना जाता रहा है। गांधी, गौतम और महावीर के साथ अम्बेडकर ज्योतिबा फुले और अन्ना हजारे जैसे कर्मठ और त्यागी महापुरुषों की पावन भूमि है यह। यहाँ जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी, ज्योति बासु, वी पी सिंह, लालकृष्ण अडवानी, अटल बिहारी वाजपेई जैसे कद्दावर नेता भी हुए जिनके सैद्धांतिक मतभेद सत्ताधारी नेताओं से सदैव रहे, लेकिन कभी कसी के मध्य अभद्रता और अशालीन व्यक्तिगत टिप्पणी के भी दृष्टांत न कभी सुनाई दिए और न कभी दिखाई दिए. गान्धीजीके साथ जवाहर लाल नेहरू और पटेल के भी काफी सैद्धानित्क मतभेद रहे हैं। अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल से प्रेरित देश के विभाजन के प्रस्ताव पर गांधी और अन्य के विचार काफी अलग थे लेकिन इन मतभेदों के बावजूद इन नेताओं ने कभीकिसी का अपमान नहीं किया और न ही सार्वजनिक जीवन में
परस्पर अभद्रता का प्रदर्शन ही किया। यही स्वस्थ और शालीन तथा गौरवपूर्ण राजनीतिक व्यवहार का सूचक है। निचले स्तर पर भी जो कार्यकर्ता हर राजनीतिक दल के थे उनमें से कोई इस तरह का व्यवहार नहीं करता था जो कि उनके दल के लिए लज्जाजनक स्थिति को उतपन्न कर दे । बड़ी बड़ी जन सभाओं में भी नेता बहुत संयम और सहनशीलता के साथ अपने विचारों को व्यक्त किया करते थे। सभी नेताओं का लक्ष्य देश की प्रगति और उत्थान होता था। आज की स्थिति इसके ठीक विपरीत हो गयी है जो कि चिंता का विषय है। नेता लोग एक दूसरे पर व्यक्तगत आरोपों से लेकर अनेक प्रकार की आपत्तिजनक टिप्पणियाँ बेहिचक किया करते हैं, जनता को अपने पक्ष में करने के लिए भडकाऊ भाषण देते हैं, अपने निचले स्तर के कार्यकर्ताओं को प्रत्याशियों पर हमले के लिए प्रोत्साहित करते हैं। जन सभाएं एक तरह से आपसी वैर को बढाने का ही काम करती हैं। राजनीतिक माहौल बुरी तरह से आज दुराचरण और अपराधी मानसिकता से प्रेरित और प्रभावित है। आम जनता त्रस्त है।
संसद और विधान सभाओं में खुलकर हाथा पाई और मार पीट होती है जिसके दृश्य टी वी के सीधे प्रसारण में जनता देखती है और हमारे इस लोकतांत्रिक ढाँचे पर शर्मसार होती है। राज्यपाल के अभिभाषण के समय राज्यपाल पर भी हमले के दृश्य इस बीच मीडिया में देखे गए हैं,जिससे हमारा लोकतंत्र शर्मा सार हुआ है। नोट के बदले वोट मामले को उजागर करने के लिए संसद में ही सांसदों के द्वारा नोटों की गड्डियों का प्रदर्शन भी ऐसा ही शर्मनाक घटना थी जिसे देश वासियों ने दिल थामकर देखा।
इधर असहमतियों को व्यक्त करने का एक नया और हिंसक तरीका अपनाया जा रहाहै, नेताओंपर जूता चप्पल फेंकने का और उन पर शारीरिक हमला करने का। आक्रोश प्रदर्शन का यह गैरकानूनी तरीका लोकतंत्र में मान्य नहीं है और स्वीकार्यभी नहीं है। यही स्थिति और मानसिकता छात्रों में विकसित होती हुई दिखाई दे रही है । विश्वविद्यालयों एवं अन्य शिक्षण संस्थाओं में इधर प्राध्यापकों के साथ छात्रों कि बदसलूकी के दृष्टांत देखने में आ रहे हैं। छात्रों के लिए हमारे तथा कथित विधायक गण आदर्श बन गए हैं जो विधान सभाओं में मार पीट करते हैं।
ऎसी वारदातों के बाद आरोपी पकडे तो जाते हैं लेकिन वे इस अपराधिक कृत्य के बावजूद दंड से बच जाते हैं। यह आश्चर्य का विषय है। वास्तव में ऐसे लोगों को कठोर से कठोर दंड मिलना चाहिए।
आज शाम की घटना जिसमें अन्ना हजारे के सहयोगी प्रशांत भूषण ( सुप्रीम कोर्ट के वकील ) के साथ तीन युवकों ने उनके कक्ष में जाकर ( सुप्रीम कोर्ट के परिसर में ही ) उन पर शारीरिक हमला किया और बहुत ही भयानक रूप से उन पर लात घूंसे बरसाए। यह समूची घटना एक टी वी चैनल के कैमरे में रिकार्ड कर ली गयी जो संयोग से उस समय प्रशांत भूषण का साक्षात्कार लेने पहुंची हुई थी। प्रशांत भूषण के एक कथित टिप्पणी के विरोध में उन पर यह हमला हुआ। ऐसे कई वारदात आजकल आम हो रहे हैं। फिल्म अभिनेता अनुपम खेर के एक वक्तव्य पर एक सामाजिक वर्ग ने उन को अपने आक्रोश का निशाना बनाया था। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सभी नागरिकों को सामान रूप से होती है। यह एक मौलिक अधिकार है. किसीकी अभिव्यक्ति से कोई असहमत जरूर हो सकता है और विवाद की स्थिति में देश की न्याय व्यवस्था का सहार लिया जा सकता है जो कि इतनी सक्षम है कि ऐसे मामलों को वह सुलझा सकती है । आज अंग्रेज़ी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में भी एक प्राध्यापक पर एक छात्र ने हमला किया जो कि एक शर्मनाक घटना है और जो कि तथा कथित छात्र के चरित्र को दर्शाती है । ऐसे मामलों की गहरी छानबीन करके आरोपी को कठोर दंड देना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं में इस तरह के आचरण को नहीं स्वीकार किया जाना चाहिए। विवादों का हल बातचीत के जरिये से निकाला जा सकता है। छात्रों को अपने असंतोष को दर्ज कराने के लिए विभिन्न अधिकारी होते हैं हर विद्यालय में, उनके माध्यम से विवादों का हल निकाला जा सकता है। किसी भी शर्त पर छात्रों द्वारा प्राध्यापकों का अपमान या हमला बरदाश्त योग्य नहीं है। इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए और कारगर कदम उठाना चाहिए।
आज देश एक गहन सांस्कृतिक और सामाजिक अवमूल्यन की स्थति से गुज़र रहा है। राजनीतिक मूल्यों में गिरावट स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है। सामाजिक और अकादमिक मूल्य भी तेजी से गिर रहे हैं। इन्हें पुनर्जीवित करना होगा। इन मूल्यों के प्रति युवा पीढी में चेतना जगानी होगी। यह जिम्मेदारी शिक्षण संस्थाओं पर ही अधिक है।

Saturday, October 8, 2011

जन आन्दोलन, लोकतांत्रिक मूल्य और शिक्षण संस्थाएं

क्या लोकतंत्र का अर्थ केवल केवल एक समुदाय, एक व्यक्ति और एक प्रदेश या प्रांत के लोगों की ही आवाज़ होती है ? भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े ( भौगोलिक आकार और जनसंख्या की दृष्टि से ) लोकतांत्रिक ( राजनीतिक ) समाज में स्वतन्त्रता और लोकतंत्र की व्याख्या दुबारा करनी होगी या फिर राजनेताओं को ही इस विषय में सही जानकारी देनी होगी। लेकिन यह काम कौन करेगा ? ( बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ) । इस देश के वर्तमान राजनेता, किसकी बात सुनते हैं, किस पर उन्हें भरोसा है। राजनीति को सत्ता हासिल करने का हथियार बना दिया है इन लोगों ने हमारे देश में. हमारे इन होनहार राजनेताओं ने अपने कर्मों से सारी परिभाषाएं बदल दी हैं। राजनीति का अर्थ भ्रष्टाचार और सत्ता हथियाना भर रह गया है। जनता को किसी ने जनार्दन कहा था - किसी ने। लेकिन आज राजनेताओं की दृष्टि में जनता तो मनुष्य के दर्जे से भी निकाल बाहर कर दी गयी है।
सत्ता हासिल करने के लिए राजनेता ( नेता ) कोई भी रास्ता अख्तियार कर सकता है, उसे हर तरह की छूट है।
वह जनता को लूट सकता है, सरकारी धन का अपव्यय कर सकता है, गबन कर सकता है, अवैध खनन कर देश की भूगर्भ संपदा को कौड़ियों के मोल बेचकर अपना खजाना भर सकता है, देश में अगर उसके बैंक खाते भर जायेँ तो विदेशों के बैकों में अकूत धन इकट्ठा कर सकता है और लाखों, करोड़ों देश वासियों को भूख से मर जाने को बाध्य कर सकता है। सार्वजनिक सेवाओं को मन मरजी कीमत पर अपने परिजनों को सौंप सकता है - इस दलाली में अपने समर्थकों को भी लाभान्वित कर सकता है और दूसरी ओर गरीब जनता सब कुछ सह लेती है। उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नहीं। सरकारें, कोर्ट कचहरी, न्याय व्यवस्था, पुलिस, सब कुछ केवल अमीरों और राजनेताओं के लिए ही तो हैं हमारे देश में । मजबूर और गरीब आदमी को हमारे देश में न्याय/इन्साफ नहीं मिलता.आम आदमी इन्साफ माँगने अदालत तक नहीं पहुँच सकता क्योंकि हमारे देश में कानून और कानूनी सहायता इतनी महंगी है कि केवल धनवान ही उसकी शरण में जानेकी हैसियत रखता है।
सत्ता लोलुप राजनेता केवल सत्ता प्राप्ति के लिए देश का इतिहास बदलकर रख देना चाहते हैं। सामान्य जनता में फूट, घृणा , भेदभाव, ( जाति, भाषा, प्रांत, क्षेत्र, गाँव और शहर, शिक्षा के आधार पर ) पैदा कर, लोगों को आपस में लड़वाकर स्वयं सत्ता का सुख ( ऐयाशी के हद तक ) लूट रहे हैं। हमारे राजनेताओं ने तो अंग्रेजों को भी मात दे दिया है - क्रूरता, नृशंसता, बर्बरता, अन्याय, अत्याचार और लगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर, उन्हें गुमराह कर, देश को ही भीतर से तोड़ने के लिए षडयंत्र रच रहे हैं। इधर नफ़रत कि ऎसी आंधी इन राजनेताओं ने फैला रखी है कि हर प्रदेश में हाहाकार मचा हुआ है। इन दोनों आन्ध्र प्रदेश राष्ट्रीय पटल पर इस नफ़रत कि राजनीति का शिकार होकर लहूलुहान हो गया है। जनता तड़प रही है, बिलख रही है, लेकिन उनके आंसू, राजनीतिक दलों को दिखाई नहीं देते। राजनीतिक दलों के अपने मुद्दे हैं, जिनका कोई सरोकार जनताके हितों से नहीं है. आज हमारे राजनयिक देश को जोड़ने के बदले उसे तोड़ने के अभियान में जी जान से लगे हुए हैं। अपने क्षुद्र स्वार्थों ( लक्ष्यों ) को पूरा करने के लिए उन्होंने जो नफ़रत का जाल बिछाया है उसमें निरीह और निर्दोष जनता का दम घुट रहा है। आजादी के बाद के इन वर्षों में हमने अपनी एकता बहुत तेजी से खोई है और यह प्रक्रिया तेजी से सक्रिय है।
देश के किसी भी भूभाग का सामाजिक और आर्थिक विकास उस प्रदेश की सरकार ( राजनेता ) के हाथों होता है, इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता। जनप्रतिनिधि जनता के सेवक हैं, उनसे सही ढंग से काम लेना जनता का प्रथम अधिकार है - जनता को इस अधिकार कोई वंचित नहीं कर सकता। विकास के मुद्दे पर कभी किसी भी व्यक्ति या समूह को किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। विकास के मुद्दे पर सरकार से जवाबदेही पूछी जा सकती है। लेकिन इस विकास के मुद्दे का विकृत राजनीतिकरण करना जनता के हित में नहीं हो सकता।
देश में आर्थिक विकास की गति सभी प्रान्तों न में एक जैसी नहीं है - आर्थिक असामनता और अन्य समस्याएं बहुत सारी मौजूद हैं। इसके लिए जिम्मेदार तो सरकारें ही हैं.हमारे देश में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष में कभी संतुलन नहीं रहा। देश के विकास के मुद्दे पर कभी दोनों पक्षों में सहमति नहीं बन पाई है। राष्ट्रीय संकट के समय भी सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष एक दूसरे के खिलाफ आपसी लड़ाई में उलझे रहते हैं। यह बड़ी विडम्बना है .जनता इन स्थितियों से परेशान है। लेकिनह उसके पास कोई विकल्प नहीं है। जब भी जनता सरकार बदलकर नई सरकार लाने का प्रयास करती है तो वह नई सरकार भी सत्ता पर आने के बाद पहले से अधिक भ्रष्ट और बदतर शासन और प्रशासन ही जनता को देती है।
पिछले कुछ वर्षों से आन्ध्र प्रदेश ऎसी ही एक घातक नफ़रत की राजनीति का शिकार हुआ है। विकास के मुद्दे को छोड़कर राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने क्षेत्रीयता का मुद्दा उठाया है । एक ही भाषा, संस्कृति और रहन सहन, आचार, विचार और व्यवहार में अचानक लोगों को अलगाव और भेदभाव नजर आने लगा है। कल तक जो अपने थे वे अपने आप को अलग घोषित करने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। सन १९४७ में भारत-पाक विभाजन की परिस्थितियों याद आ रहीं है, जब कि तब हमारा दुश्मन अँगरेज़ था जिसने ह्जिंज्दुओं और मुसलमानों में फूट डालकर दो राष्ट्रों का फार्मूला देकर देश को दो टुकड़ों में बांटकर चला गया, जिसकी त्रासदी आज तक हम भुगत रहे हैं। लेकिन आज हम किसके खिलाफ लड़ रहे हैं, हमारे अपने ही लोगों के खिलाफ, अपनों को ही पराया घोषित करके यह लड़ाई किसके हित के लिए। एक देश के वासी - एक प्रांत के वासी अचानक दुश्मन कैसे हो जाते हैं ? मतभेद हो सकते हैं कुशासन या बुरे शासन के लिए या सरकारी भ्रष्टाचार के लिए आम जनता कैसे जिम्मेदार है। और आज तक की सरकारों में सभी प्रान्तों के - सभी क्षेत्रों के नेता रहे हैं। फिर किसी एक क्षेत्र के लोगों से यह नफ़रत की राजनीति क्यों खेली जा रही है। रिश्ते नाते, शादी-ब्याह आदि के सुदृढ़ बंधन में बंधे हुए हैं लोग, बरसों से सामाजिक जीवन लोगों का खुशहाल है। सामाजिक और सांस्कृतिक तौर तरीकों में स्थानीय रंगत के साथ लोगोंमें स्नेह और सौमनस्य का भाव अकूत भरा हुआ है। स्थानीय और गैर-स्थानीय के नियम को कैसे लागू किया जा सकता है।
लेकिन पिछले कुछ महीनों में आन्दोलन के नाम पर सारे प्रदेश में जो नफ़रत के बीज बोये गए हैं अब वे बीज फल देने लगे हैं। उसीका परिणाम आज हम देख रहे हैं। कल एक रेलगाड़ी में छोटी सी झड़प को लेकर एक युवक पर स्थानीय युवाओं के एक समूह ने हमला किया और आतंकित किया. इस तरह की सी स्थिति में आम आदमी का जीवन शहरों में कामकाज के स्थानों में होने लगी हैं। इस नफ़रत का प्रचार करने के लिए राजनैतिक दलों ने अपने अपने समूह बना रखे हैं। खुलकर मीडिया में भडाकाऊ भाषण दिए जाते हैं और उस पर कोई रोक नहीं होती.मौजूदा सरकार भी लाचार दिखाई दे रही है।ऎसी स्थिति में आम जीवन तहस नहस हो जाता है. आम जनता में व्यवस्था के प्रति आक्रोश की भावना जागती है। लोगों का विश्वास सरकार पर से उठ जाता है.जनता असुरक्षित महसूस करती है । जब राज्य में ऎसी कोई राजनीतिक संकट की स्थिति पैदा हो जाए तो यह सस्रकार और राजनीतिक दलों का और साथ ही जनप्रतिनिधियों ( निर्वाचित ) का कर्तव्य है कि वह इन समस्याओं को अपने स्तर पर सुलझाने के लिए कारगर कदम उठाये और जनता को राहत प्रदान करे। राज्य के विभाजन का हो या एकीकरण का या अन्य कोई भी संकट जैसे क्षेत्रीय मामले ( जल के बंटवारे का या किसानों को मुफ्त बिजली वितरण का आदि ) जो भी विवाद होते हैं उन्हें सुलझाना सरकार का कराव्या है. सरकार को प्रतिपक्ष के नेताओं के साथ मिल बैठकर बातचीत के जरिये जनता की समस्याओं को संवाद के माध्यम से सुलझाना चाहिए .लेकिन दुर्भाग्य से सरकार और अन्य राजनीतिक दलों में आज कोई तालमेल नहीं देखा जाता। प्रतिपक्ष के राजनेता सामान्य जनता की मुश्किलें हल्कराने के स्थान पर उनकी मुश्किलें और अधिक बढाने में विश्वास करते हैं। राष्ट्रीय संकट के अवसर भी सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों अपने अपने स्वार्थों को पूरा करने में ही लगे रहेते हैं।
आज आंध्र प्रदेश में पृथक तेलंगाना राज्य के गठन कि मांग जोरों पर है, यह मांग केवल तेलंगाना प्रदेश के राजनीतिक दलों की मांग है, इन राजनीतिक दलों ने इस प्रदेश की जनता को अपनी दलीले देकर विभाजन की दिशा में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है. जनता इस मांग के परिणामों से अनभिज्ञ है लेकिन यह मामला अब एक जन आन्दोलन का रूप ले चुका है। प्रदेश में लोगों के बीच कई तरह की शंकाएं पैदा हो गयी हैं। राज्य के कर्मचारी और गैर सरकारी प्रतिष्ठानों के कामगार लोग भी अब इस विचाजन की राजनीति से आहत हो गए हैं। तेलुगु भाषा की एकरूपता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। तेलुगु संस्कृति के विभिन्न आंचलिक स्वरूपों को अलगाववाद के चश्मे से दिखाया जा रहा है। आम जनता दिग्भ्रमित है। नेता लोग इस स्थिति का लाभ उठा रहे हैं। सबसे अधिक प्रभावित हैं - शिक्षण संस्थाएं । स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षा केंद्र, चाहे वह सरकारी हो गैर सरकारी, सभी शिक्षा केंद्र बंद हो गए हैं या बंद कराये गए हैं। राज्य का और प्रदेश का विकास थम गया है। आन्दोलन के नाम पर आत्महंता कार्यकलापों से सामाजिक, आर्थिक विचलन की प्रक्रियासा सर्वत्र व्याप्त हो गयी है । बिजली, पानी के सेवाएं बाधित हुई हैं। सरकार की आमदनी करोड़ों रुपयों की ख़त्म हो गयी है। परिवहन सेवाओं के हड़ताल पर चले जाने से राज्य में यातायात और आवागमन अवरुद्ध हो गया है। उधर केंद्र सरकार कोई ठोस निर्णय लेने की स्थिति में नहीं दिखाई देती। एक गतिरोध की स्थिति लोगों को परेशान कर रही है।
जिस राज्य या राष्ट्र की युवा पीढी और शैशव और किशोर आयु के छात्रों की शिक्षा इस तरह अपने ही लोगों की आपसी राजनीति का शिकार हो जाए तो उस राष्ट्र का विकास कैसे संभव है ? शिक्षण संस्थाओं को राजनीति से हमेशा दूर रखना चाहिए, आज हमें ऐसे कानून की जरूरत है। न्यायपालिका की तरह देश की शिक्षण व्यवस्था को भी स्वतंत्र होना चाहिए, तभी देश में एक प्रभावी और आदर्श शिक्षा तंत्र का विकास होगा। देश का भविष्य सुरक्षित रहेगा और देश को चलाने के लिए सुशिक्षित और सुसंस्कृत युवा पीढी तैयार होगी। राजनीतिक हस्तक्षेप से हमारी शिक्षा प्रणाली अपंग हो गयी है - निस्सहाय हो गयी है। हर छोटे बड़े मुद्दे को लेकर राजनेता शिक्षण संस्थाओं का दोहन करते हैं जो कि भारत जैसे लोकतंत्र के आअत्मघाती है। इस पर विस्तार से विचार करना चाहिए। अब समय आ गया है कि देश के शिक्षाविद इस समस्या पर गंभीरता से विचार करें और कोई ठोस समाधान देशवासियों को प्रदान करें। देश में शिक्षा के गिरते मानदंडों ( स्तर ) के प्रति माता-पिता चिंतित हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों का ह्रास तेजी से हो रहा है। सरकार की शिक्षा नीतियों पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस अपेक्षित है। शिक्षा के स्तर को कैसे ठीक किया जाए - इस पर विचार होना चाहिए। गुणवत्ता आज एक समस्या हो गयी है। राजनीतिक आन्दोलन शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित न करें - ऐसा कोई कानून शीघ्र बनना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं में छात्रों के अलावा ( जो छात्र नहीं हो, या असामाजिक तत्वों को ) अन्य को प्रवेश नहीं मिलना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं के छात्रावासों में केवल नामांकित
( अनुक्रमांकित ) छात्रों को ही रहने की अनुमति मिलनी चाहिए, अन्य को नहीं। इस नियम का कार्यान्वयन सख्ती से होना चाहिए. देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों के छात्रावासों में बाहरी लोग आकर निवास करते हैं और अराजकता फैलाते हैं, उनकी आवाजाही पर कोई रोक टोक नहीं होती. आज अधिकतर उच्च शिक्षण संस्थाओं के छात्रावासों में बाहरी लोग अनधिकृत रूप से गैरकानूनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए अपना स्थाई ठिकाना बनाकर रह रहे हैं और प्रशासन मूक दर्शक बना हुआ है।
ये स्थितियां जब तक नहीं सुधरेंगी तब तक उच्च शिक्षण की संस्थाएं अपने अकादमिक उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाएंगी। इन सुधारों के लिए सरकारको अधिक कारगर उपाय और तरीके सोचने होंगे और सख्ती से लागू करने होंगे।
शिक्षण संस्थाओं को राजनीतिक गतिविधियों से दूर या अलग रखने के लिए कानूनी प्रावधान की आवश्यकता है।

Wednesday, October 5, 2011

देश का सरकारी तंत्र कितना भोला है ?

भारत सरकार ने देश की गरीबी रेखा तय करने के लिए जो फार्मूला अपनाया है वह न केवल हास्यापद है बल्कि अत्यंत लज्जाजनक तथा अपमानजनक भी है। मान्टेक सिंह आहलूवालिया जैसे तथा कथित अर्थ शास्त्री और प्रधान मंत्री के वित्त सलाहकार कहे जाने वाले मेधावी वित्त प्रबंधक के नेतृत्वा में भारतीय आर्थ प्रणाली की इस तरह की विडम्बना -पूर्ण व्याख्या बहुत हीआक्रोशजनक है। देश की जनता दुखी है इस तरह की सूचनाओं को जाकर। भला हो मीडिया का जो आजकल हर छोटी और बड़ी सूचनाओं को देश वासियों के समक्ष उजागर कर रहा है। सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत भी बहुत साँरी महत्वपूर्ण सूचनाएं आज जनता तक पहुँच रहीं हैं इसीलिए बहुत सारे घोटाले जनता के विचार-क्षेत्र में आ रहे हैं। गरीबी की रेखा को तय करने के लिए शहरी आदमी की आय ३२/- रुपये और ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के लिए महज २५/- रुपये तय करना कितना अमानवीय है और क्रूर है इसका अंदाजा हम इसी से लगा सकते हैं कि जब यह खबर सामने आयी तो वित्त मंत्रालय में हड़कंप मच गया और सारे वित्त प्रबंधकों ने तत्काल उसकी सफाई दे डाली कि ये आंकड़े सही हैं और इसे उचित सिद्ध करने के तकनीकी कारणों को रेखांकित करने में लग गए। ( यहाँ मान्टेक सिंह साहब की सक्रियता भी गौरतलब है ) । किसी ने बहुत सही चुनौती दे दी उनको कि वे ३२/- रुपये में एक दिन गुज़ार कर दिखाएँ इस देश में आज की तारीख में। सरकार को इस बात का भय है कि अगर इस राशि को बढ़ा दिया जाए तो गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या में भारी इजाफा हो जाएगा जिससे देश की तथा कथित ( कृत्रिम ) छवि बिगड़ जायेगी.इन ३२/- रुपयों में प्रतिदिन के अनुमानित खर्च का आबंटन भी बहुत उदारता के साथ दर्शाया गया है। जिसमें भोजन के अलावा, मकान का किराया, बच्चों की पढाई का खर्च, नौकरी के लिए आवागमन का खर्च, कपड़ों का खर्च आदि शामिल हैं। यह निर्धारित राशि कितनी मजाक उडाती है, हमारे लोकतंत्र का। जब कि सस्ता खाना केवल भारत के संसद भवन में केवल सांसदों को ही उपलब्ध है वह भी रियायती कीमतों पर। ३२/- रुपये वाला खाना बढ़िया खाना केवल संसद भवन के भोजनालय में उपलब्ध है जहां आम आदमी सपने में नहीं पहुँच सकता। हमारे देश का अमीर सांसद सबसे सस्ता भोजन संसद में करता है जब कि उनका करदाता ( जिसके पैसे से ये सांसद मन पसंद महँगा भोजन करते हैं ) भूखे और नंगे रहते हैं। वाह रे लोकतंत्र तेरी दुहाई है दुहाई। सांसदों के ऐशो आराम का सामान आम आदमी अपना पेट काटकर अनेकों तरह के त्याग और परिश्रम से जुटाता है और वह खुद भूखा रह रहा है। आज कि बढ़ती हुई महंगी के प्रति कोई भी राजनेता संवेदनशील नहीं दिखाई देता। राजेंता आम आदमी को, सरकारी कर्मचारियों को अपने स्वार्थ के लिए जन आन्दोलनों में झोंक देते हैं, उन्हें कार्यालयों में काम से बहिष्कार करने के लिए उकसाते हैं ( भड़काते हैं ), बिना वेतन के हड़ताल करने के लिए मजबूर करते हैं और जब महीने के अंत में उन्हें काम बिना वेतन नहीं - की मार झेलनी पड़ती है तो ये नेता अपना पल्ला झाड लेते हैं। राजनेताओं के लिए ऎसी कोई शर्त लागू नहीं होती। उन्हें हर महीने ( कम से कम एक लाख रूपये ) वेतन के रूप में प्राप्त हो ही जाता है। आज सरकारी कर्मचारी से लेकर निजी क्षेत्र के अनेकों कर्मचारी और अधिकारी गण ऐसे ही एक बड़े आन्दोलन का हिस्सा ( जबरदस्ती ) बनाए गए हैं उनका वेतन कट गया है। वे लाचार और बेबस हैं, उनसे जबरदस्ती इस नि:सहाय स्थिति को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया है। जब कि सांसद और विधायक अपना पूरा वेतन ले रहे हैं। अब देखना है कि केंद्र सरकार इस गरीबी की रेखा के लिए कितनी राशि निर्धारित करती है ( पुनर्विचार तो करना ही होगा ) इनकी क्या समझ है। ऐसे निर्णयों पर सरकार के सारे प्रतिनिधि खामोश क्यों रहते हैं। आम आदमी हमारे देश का बहुतही लाचार और बेबस है । उसे सहनशीलता का अमृत पिला दिया गया है। वह सब कुछ सह लेता है और अपनी नियति मानकर ज़िंदगी बसर कर लेता है।
इस विषय पर सही सोच वाले नागरिकों की बहुत तीखी प्रतिक्रया सामने आयी है। अब धीरे धीरे देश जाग रहा है।
( ऐसा कभी कभी अचानक लगने लगता है ) अन्ना हजारे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता और आन्दोलन कारियों ने इधर हमारे देश की सामान्य जनता को भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत दी है और इस महामारी से मुक्त होने के लिए सारे देश ओ संगठित किया है। अंतत: एक ऐसा नेतृत्व उभरकर सामने आया है जो कि आगामी दिनों में कारगर उपाय निकाल लेगा, देश की ऎसी समस्याओं से जूझने का। आज हमें अपने नेताओं को उनके कर्तव्य को याद दिलाने का अवसर आ गया है। लोगिन में धीरे धीरे हिम्मत जुट रही है लेकिन अभी बहुत लम्बी दूरी तय करनी है। साधारण लोगो का विश्वास सरकारी तंत्र पर से पूरी तरह से उठ गया है। इसे फिर से बहाल करने के लिए हमें व्यवस्था में परिवर्तन लाना होगा। अन्ना ने सही कहा है कि हमें एक और आजादी की लड़ाई लड़नी है। हमें भ्रष्टाचार मुक्त समाज के स्वरुप को साकार करने के लिए परस्पर विभेदों को भुलाकर एक जुट होना पडेगा, जो कि कठिन है लेकिन असंभव नहीं। अब वह समय आ गया है जब हम अपने जन - प्रतिनिधियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाएं ।
हमें देश में हर स्तर पर सुशासन की आवश्यकता है जो आज तक हमें उपलब्ध नहीं हुई। लेकिन अब समय आ गया है कि हम अपने राजनेताओं से ( जो कि जनता के सेवक भी हैं ) सुशासन की मांग करें और उनसे सुशासन ही करवाएं।
( गुड गवर्नेंस ) अन्ना हजारे ने जनालोकपाल बिल को अगले शीतकालीन सत्र में संसद में प्रस्तुत करने की मांग की है, अन्ना हजारे की इस मांग में सारादेश शामिल है। आज अन्ना की आवाज देश कीआवाज बन गयी है। निश्चित रूप से अन्ना की यह आवाज और अन्ना का यह दृढ संकल्प सरकार के लिए चेतावनी है। अन्ना ने देशवासियों को आन्दोलन का नया अर्थ दिया है। आन्दोलन का अर्थ हिंसा या तोड़फोड़ नहीं होता। आन्दोलन का अर्थ विरोध प्रदर्श लेकिन शालीन और शांतिपूर्ण तरीके से, बातचीत के जरिये अपनी मांगों को मनवाने का तरीका ही आज का जन आन्दोलन होना चाहिए। इस प्रक्रिया में निश्चित ही समय लगता है। दोनों पक्षों को एक आम सहमति बनानी पड़ती है। आम सहमति से ही विभेद सुलझाते हैं। आम सहमति ही सब विभेदों का हल हो सकती है ।

Thursday, June 9, 2011

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति तत्काल की जाये

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद में पिछले एक वर्ष से कुलपति का पद रिक्त पडा हुआ है .
केन्द्र सरकार के द्वारा शासित यह विश्वविद्यालय पिछले एक वर्ष से सरकार की घोर उपेक्षा का शिकार बना हुआ है.
नियमित कुलपति की अनुपस्थिति में विश्वविद्यालय का अकादमिक, प्रशासनिक तथा विकास का सारा कार्य ठप्प हो गया है.
एम वर्ष से भी ज्यादा अवधि से प्रशासन में ठहराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी है. नित्यप्रति नई नई समस्यायें पैदा हो रही हैं जिनका
समाधान तत्काल न होने के कारण प्रशासन और कर्मचारियों में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसके परिणाम स्वरूप
इधर कुछ दिनों से शिक्षकेतर कर्मचारीगण अपनी कुछ मांगों को लेकर अनिश्चित कालीन हडताल/आन्दोलन पर अडे हुए हैं, जिसका
समंजस समाधान न होने के कारण विश्वविद्यालय का अकादमिक, परीक्षा-संबंधी कामकाज रुक गया है. कुलपति के ही साथ विश्वविद्यालय
के कुलसचिव का पद भी रिक्त पडा है जिस पर नियुक्ति की अनिवार्यता है. दोनों ही पद विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए अतिप्रमुख होते हैं .
देश में अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यलय का एक महत्वपूर्ण स्थान है, यह राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय महत्व का विश्वविद्यालय है जो कि सारे देश भर में
विधेसी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन, अध्यापन तथा शोध के लिए जाना जाता है. यूरोपीय भाषाओं के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध के साथ साथ, विभिन्न विदेशी भाषाओं के मध्य अनुवाद तथा तुलनात्मक- शोध तथा तुलनात्मक भाषा-विग्यान के अध्यापन के लिए यह वि वि विश्व विख्यात रहा है. यहां देश विदेश से बडी संख्या में विद्यार्थी विदेशी भाषाओं ( और अंग्रेज़ी भाषा तथा साहित्य) में महारथ हासिल करने के लिए दाखिला लेते हैं. विश्वविद्यालय का परिसर में समन्वयात्मक अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश का बहुत ही सुन्दर परिद्रिश्य दिखाई देता है. ऐसा विश्वविद्यालय दुर्भाग्य से सरकार की उपेक्षा का शिकार हो गया है . केन्द्र सरकार को इस विश्वविद्यालय के शैक्षिक विकास को पुन: पटरी पर लाने के लिए शीघ्र ही कुअलपति तथा कुलसचिव की नियुक्ति के लिए आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिए. कुलपति के चयन की प्रक्रिया जटिल और संश्लिष्ट होती है इसीलिए इसमें काफ़ी समय भी लग जाता है. किन्तु यदि सरकार चाहे तो किसी भी जटिल काम को सरल भी कर सकती है. सरकार की तत्काल कार्यवाही इस विश्व-स्तरीय विश्वविद्यालय की शैक्षिक प्रगति को अवरुद्ध होने से बचा सकती है .

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद में पिछले एक वर्ष से कुलपति का पद रिक्त पडा हुआ है .

Wednesday, June 8, 2011

A premium Central University without a Vice Chancellor for an year and The Government does not bother to appoint one !

The English and Foreign Languages University, established by an act of parliament with a vision to offer World Class Language and Literature teaching in English and Foreign Languages, is now facing a strangled death situation due to sheer negligence of the Ministry of HRD, which has the responcibility of providing infrau-structure as well as adequate teaching and Non-teaching staff. Unfortunately the Government has totally forgotten to take this university in to cognisense even to appoint a new Vice-Chancellor ever since the former Vice-Chancellor completed his tenure and relinquished office one year ago. Due to the Callous and careless attitude,the central government has driven the University in to total disarray and confusion, without any direction and total management failure. The day to day problems are increasing and sometimes the the very serious probles of grave nature have become very common. The University has come to a grinding halt without any developpment in the absence of a fulfledged Vice-Chancellor. The unrest among the Non-teaching staff has gone to the extent of frequent protests and strikes which brings the university administration to a grinding halt. Students problems are causing regular hinderence to the academic progress of the prestigious University. The development of infrastructure has come to a halt due to lack of decision making authority. New academic year is in the offing and the admission process is threatened due to dead-lock between the University authorities and the Non-teaching staff over an issue of excess payment and its recovery. The Incharge
Vice-Chancellor ( VC of MAANU ) has been very kind and considerate to look in to the situation and has been trying his best to sustain the regular activities of the University, but due to his preoccupations in his own University it becomes difficult for him to give full time to this newly established University, which demands a full time Vice-Chancellor of its own. There have often studetn's unrest due to various problems and also due to the effect of the ongoing agitation which has been spearheaded by the neighbouring University campus. The OU Campus exerts a lot of plolitical pressure on the EFL-U Campus in many ways which also becomes detrimental to the academic activities of the the University. One Year of vaccum without a regular vice-chancellor for such a premium istitution of national importance and of international recognition is pathetic and deplorable.The Government should act immediately on priority basis and appoint regualr vice-chancellor to bring back the university on to the track, so that the losses which have occured during the last one year may be compensated.

सत्ता बनाम देश बचाओ आन्दोलन

देश में भ्रष्टाचार के विरोध में तीव्र आक्रोश अपने चरम पर आ पहुंचा है । भ्रष्टाचार विरोधी सुनामी भारत में दस्तक दे चुकी है इसे अब कोई नहीं रोक सकता। आम जनता किसी भीतरह की कुर्बानी देनेके लिए सन्नद्ध हो गई है। लोगों ने कमर कास लिया है। भ्रष्ट राजनीति और देश कि नौकरशाही व्यवस्था के साथ साथ अपराधीकृत राजनीति का घिनौना रूप अब बेनकाब हो गया है। घोटालों की राजनीत अब अनावृत्त हो चुकी है। नामी गिरामी उद्योग घराने से लेकर व्यावसायिक दलालों का भंडाफोड़ हो गया है। न्यायपालिका अपना काम करने के लिए कमर कास ली है। आम जनता में देर से ही सही एक जनचेतना जाग गयी है। सताधारी राजनेता की नींद उड़ गयी है। सता पक्ष जन आन्दोलन को कुचलने के घिनौने हथकंडे अपना रहे हैं वह भी बेशर्मी से। रातों रात निहथ्थे, निर्दोष आम लोगों पर सशस्त्र बल अपना पौरुष प्रदर्शन करते हैं। तथाकथित गांधीजी और नेहरूजी के सिद्धांतों का पालन करने का ढोंग करने वाली तथाकथित वाली सरकार इन निहत्थों पर बल प्रयोग करते हुए ज़रा भी शर्मसार नहीं हुई। प्रधान मंत्री महोदय अनभिज्ञता की गहरी नींद सो रहे हैं। वे करें भी तो क्या, तंत्र के धागे तो किसी और के हाथों में हैं । जन समर्थित हर आन्दोलन ऐसे ही रौंदा जाता है। जन समर्थित आन्दोलन को कुचलने के लिए उसे किसी न किसी सता विरोधी राजनीतिक दल से जोड़ दिया जाता है और उसे सिद्ध भी कर दिया जाता है। सत्ता के खेल निराले होते हैं। सत्ता का विरोध, जनता के कल्याण के लिए जब किया जाए वह तब - लोकतंत्र में जायज़ होता है। लेकिन आज की हमारी सरकारें ( जो कि जनता द्वारा चयनित प्रतिनिधियों की सरकार है ) अपने आप को तानाशाही संस्कृति में ढाल चुकी है । बहुत दुःख होता है ऎसी परिस्थितियों को देखते हुए। क्या आम आदमी का कोई अधिकार ही नहीं रहा - इस देश में। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव - चाहे किसी भी विचारधारा के हों - हैं तो वे आम नागरिक ही। विरोध का स्वर दबाने के लिए सत्ता पक्ष के नेता हमेशा गड़े मुर्दे उखाड़ते हैं और सवाल का जवाब पलट वार करके करते हैं। सवाल पूछना के लिए लोकतंत्र में किसी भी अर्हता या योग्यता या पात्रता की आव्यशाकता नहीं होती लेकिन जब भी कोई सरकार को उनकी गलत नीतियोंके लिए ललकारता है तो उसे उत्पीडित किया जाता है, उसे तरह तरह से सताया जाता है,उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है, उस पर अनेक तरह के आपराधिक मामले दर्ज कर दिए जाते हैं और उसे देश द्रोही सिद्ध कर उसे ख़त्म कर दिया जाता है। लोगों में भय और आतंक का वातावरण उभर कर आ रहा है। सत्ता पक्ष लोगों को मासिक रूप से अपंग बनाना चाहती है। हर राजनीतिक दल का यही एजेंडा है। कोई भी दल आम आदमी अथवा देश में व्याप्त अराजकता, महंगाई, विदेशों में छिपाए काले धन की समस्या, सरहद पार के आतंकवादी हमले आदि के बारे कोई भी समाधान नहीं निकालना चाहते है , केवल भोली भाली जनता को सत्ता और विपक्ष की लड़ाई में उलझा कर रख देना चाहते हैं। आम आदमी के पास केवल अपनी रोज़ी रोतीकमानेभर का ही समय बड़ी मुश्किल से मिल पाता है, वह उपरोक्त समस्याओं में कहाँ से उलझेगा। उसे उम्मीद रहती है अपने जन प्रतिनिधियों से - लेकिन वे कितने भ्रष्ट हैं - इसे अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है।
पिछले दिनों की घटनाओं को सत्ता और विपक्ष दोनों अपनी अपनी राजनीति का मुद्दा बनाकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। जन लोकपाल विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने के लिए जो प्रयास हो रहे हैं, उसमें काफी अड़चनें सरकार पैदा कर रही है - यही बात जनता को समझ में आती है। सरकार क्यों इस विधेयक को जनता के अनुकूल मांगों के अनुकूल स्वीकार नहीं करती - इसका उत्तर सरकार क्यों नहीं देना चाहती ? क्यों सरकार जनता की आवाज़ को दबाना चाहती है। जब राजनेता ( सत्ता और विपक्ष - दोनों पक्षों के ) भ्रष्टाचार में डूबे हों तो वे कैसे ऐसे विधेयक को स्वीकार करेंगे जो उनके ही विरुद्ध कार्रवाई करने वाली हो । लेकिन अब समत आ गया है कि सरकार को जनता के हर सवाल का जवाब देना ही पडेगा।
राष्ट्रीय संकट के समय या राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे देश के राजनीतिक दल एकजुट कभी नहीं होते। विदेशों में ऐसे मुद्दों पर सत्ता और विपक्ष दोनों एकजुट होकर परस्पर दोषारोपण की राजनीति न करते हुए, देशवासियों के हित में समाधान ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं । अनेक अवसरों पर दोनों पक्ष एक ओर हो जाते हैं। लेकिन हमारे देश हमने कभी ऎसी स्थिति नहीं देखी। ( सिवाय बाहरी आक्रमण की स्थिति को छोड़कर ) ।
आज देश बहुत ही गहरे संकट से गुज़र रहा है। कई लाख -करोड़ रुपयों की राशि ( राष्ट्रीय संपत्ति ) काले धन के रूप में अवैध तरीके से विदेशी बैंकोंमेंजमा है जिससे राष्ट्र की सारी गरीबी दूर की जा सकती है, भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुँच चुका है, यह ऐसा समय है जब कि सभी को एकजुट होकर इस धन को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए । साथ ही देश के भीतर दमनकारी नीतियों का रास्ता छोड़कर जनता के हित में सत्ता को नीतिगत निर्णय लेने का साहस होना चाहिए।
किसने सोचा था कि गांधी, नेहरू, अम्बेडकर,फुले, दयानंद सरस्वती, टैगोर का यह देश आज ऎसी दीन और दयनीय स्थिति में होगा जहां केवल भ्रष्ट राजनीति ही देश का वर्तमान और भविष्य हो ।
हम सामान्य वर्ग के अति सामान्य नागरिकों को कब इस महामारी से मुक्ति मिलेगी।
दाई में ula

Sunday, April 3, 2011

भारत विश्व कप - विजेता

२ अप्रैल २०११ भारतीय खेल इतिहास में एक ऐतिहासिक दिन और रात के ९ बजाकर ३० मिनट पर सारा देश थम गया। एक सौ बीस करोड़ लोग एक साथ देश के कोने कोने से जश्न और उत्सव के रंग में रंग गए। प्रादेशिक, भाषिक, मज़हबी और सांस्कृतिक विभेदों से ऊपर उठाकर सारे देश ने एक जुट होकर इस टीम इंडिया की जीत को हृदय की गहराइयों से अनुभव किया और देश के लिए एक होकर समर्पित हो गए - इस महान क्षण को अपने मन-मस्तिष्क में हमेशा हमेशा के लिए समाने के लिए। सारा देश इस इतिहास का हिस्सा बन गया। क्रिकेट की इस जीत ने सारे देश को एक कर दिया। सारे भेद-भाव मिट गए, छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, आबाल-वृद्ध, हरेक ने इस खेल भावना को जिया और साकार किया। इस खेल ने देश में वह एकता भर दी जिसे पहले कभी देशवासियों ने अनुभव नहीं किया। ऐसे भी लोग जो क्रकेट से मुंह चिढाते थे वे भी क्रिकेट के इस अभूतपूर्व वातावरण में विलीन हो गए। आज हर देशवासी भारतीय टीम की इस ऐतिहासिक जीत से गौरवान्वित हुआ है और अपार गर्व का अनुभव कर रहा है। निश्चित ही यह जीत विश्व में भारतीय खेलों का एक नया इतिहास रचेगा। भारत का क्रिकेट प्रेम आज विश्व भर में गौरव और आदर का पात्र बन गयाहै। भातीय टीम की इस जीत के पीछे देश के १२० करोड़ लोगों की भावनाएं साथ रहीं। यह एक अति-विशिस्ट उपलब्धि का समय है। क्रिकेट एक अनिश्चितताओं का खेल है इसमें सफलता हासिल करना आज विश्व मंच पर एक अनूठी चुनौती है। इस खेल के नियम भी निराले हैं। सन १९८३ से लेकर आज तक इस खेल के प्रारूप कमें कई बदलाव आये हैं। आज का प्रारूप ( एक दिवसीय खेल का ) पहले से बहुत अलग हो गया है, बल्कि यह कहना होगा इसे अधिक कठिन तथा चुनौतीपूर्ण बना दिया गया है। इसमें रोमांच का पुट अब अधिक बढ़ गया गई। मैच के आखिरी गेंद तक भी हार-जीत का फैसला नहीं हो पाता है - लोग तनाव में आ जाते हैं। यह तनाव असहनीय भी हो जाता है जिस कारण कई लोगों ने अपनी जानें भी गवाई हैं । मौजूदा विश्व कप प्रतियोगिताओं में भारत जिस तरह से एक के बाद एक पडावों को पार करता हुआ जीत की ओर अग्रसर हुआ है, वह निश्चित रूप से काबिले तारीफ़ है। हमारी टीम ने सही सूझ-बूझ के साथ अपनी रन नीतियाँ तय कीं। इसमें कप्तान महेंद्रसिंह धोनी और कोच गैरी कर्स्टन का बहुत बड़ा योगदान है। फिर टीम में सचिन जैसे महान खिलाड़ी की उपस्थिति एनी खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा क़ा स्रोत बनती है। सचिन क़ा शालीन और संयमित तथा गौरवमय व्यक्तित्व अपने आप में एक विशेष अनुभूति प्रदान करता है। अचिन की मात्र उपस्थिति से साथी खिलाड़ी अपने को ऊर्जस्वित महसूस करते हैं। सचिन क़ा योगदान इस टीमके निर्माण में अद्भुत है.मैच जीतने के बाद टीम के सभी सदस्यों ने जिस खेल भावना से सचिन के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है वह अनुकरणीय है और ऐतिहासिक भी। आज के राजनेताओं को हमारी भारतीय टीम की खेल भावना से बहुत कुछ सबक लेना चाहिए। युवराज सिंह क़ा यह कथन कि सचिन ने २१ सालों तक भारतीय गौरव को अपने कन्धों पर रखकर उसे nibhaaya है तो आज उन्हें हम यह तोहफा देते हैं। इस विश्व कप को सचिन के नाम कर खिलाड़ियों ने जिस सम्मान और प्रेम का प्रदर्शन किया है वह महान मानवीय मूल्यों को दर्शाता है। वीराट कोहली का यह पहला ही विश्व कप है जिसमें उन्हें खेलने का अवसर का मिला, उनका बनही यही जज्बा गौर तलब है। खिलाड़ी जब अपने वरिष्ठ खिलादियोंके प्रति इस तरह की भावनाओं का प्रदर्शन करते हैं - इसके निहितार्थ समाज के हर वर्ग के लोगों तक पहुँचते हैं। इनमें छिपे हुए नैतिक मूल्यों की ओर एक बार हमारा ध्यान आकर्षित होता है। अभी हमारे समाज में ऐसे मूल्य बाक़ी हैं, बचे हुए हैं, जिसंकी हमें रक्षा करनी है। हमारे क्रिकेट के खिलाड़ियों ने अपने इस इस व्यवहार से देश के हर वर्ग को जागृत किया है। यह एक ऐसा अवसर है जब कि देश फिर से अपने खोते हुए नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों को वापस लौटा लाये और एक नए समाज के पुनर्निमाण की प्रक्रिया शुरू हो सके। आज सारा देश इस महान उपलब्धि से अभिभूत है, भावाकुल है, भावोद्रेग की मन:स्थिति में है। इस जीत से सारा देश गदगद हो रहा है। सारे विभेद मिट गए हैं, यही सिलसिला चलता रहे। हम अपने सारे भेद-भाव मिटा दें और एकजुट हो जायेँ एक नए समाज को साकार रूप देने के लिए। सारे देश को बधाई - टीम इंडिया के हरेक सदस्य को बधाई और उन सारे कर्मचारियों और अधिकारियों को हार्दिक बधाई जिन लोगों के अथक प्रयासों से यह उपलब्धि हमें हासिल हुई है.

Friday, April 1, 2011

देश में क्रिकेट का उन्माद

आज देश भर में क्रिकेट का बुखार अपने चरम पर है। किसी खेल के प्रति हमारे देश का इस प्रकार का जुनून काबिले तारीफ़ है लेकिन मीडिया जिस भांति इस खेल को लोकप्रिय बनाने के लिए सारे दांव पेंच लगा रही है वह चिंता का विषय है। आज खेल-कूद और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम भी बाज़ार का विषय बन गए हैं और केवल पैसा कमाने का माध्यम बनाकर रह गयीं हैं। सिनेमा से लेकर रंगमंच और खेल-कूद तक - सारे क्षेत्र बाज़ार के निशाने पर हैं। बाज़ार अकूत धनोपार्जन का स्रोत है। बाज़ार का सीधा समीकरण विज्ञापन की दुनिया से है। विज्ञापन और प्रचार से करोड़ों रुपयों या डालरों की कमाई मीडिया के तानाशाह कर रहे हैं। मीडिया को देश-प्रेम या राष्ट्रीय संस्कृति से कुछ लेना देना नहीं है। वह केवल पैसे के लिए ही सब कुछ करती है। समूचे राष्ट्र को किसी भी घटना के खिलाफ या तरफ लोकचेतना को बनाने में मीडिया का ही दखल है। मीडिया जो दिखाती है, छापती है, उसे ही जनता देखती है और उसे ही सच मानती है, जब की हकीकत कुछ और ही होती है। आज हमारे चारों का वातावरण मीडिया के दखल से उतीदित है। देश जी आम जनता उसी ओर लहर की ओर बहती है जो लहर मीडिया पैदा करती है। क्रिकेट के विश्व कप टूर्नामेंट का आयोजन भारत जैसे गरीब देश में होना अपने आप में एक विडम्बना है । इस खेल में जो धन लगता है और जिस रूप में इसका वितरण होता है वह भी आम लोगों के लिए अकल्पनीय है। खिलाड़ियों से लेकर प्रायोजकों और मीडिया के प्रचारकों को अपार धन राशि की उपलब्धि होती है। इस धन का उपयोग देश के विकास के कार्यों के लिए नहीं किया जाता। केवल कुछ धनी समाज के हित में ही ये खेल और इनसे प्राप्त धन का उपयोग होता है। विश्व कप के मैचों को देखने के लिए अपार जाना समूह उमड़ पड़ता है । टी वी चैनलों में रात दिन केवल क्रिकेट संबंधी कार्यक्रम ही दिखाए जाते हैं। तरह तरह की व्याख्याओं विश्लेषणों द्वारा क्रिकेट संबंधी चर्चा जारी रखी जाती है। अखबार, पत्रिकाएँ, दृश्य और श्रव्य माध्यम अहर्निश क्रिकेट का ही राग आलापते रहते हैं।


चाहे कुछ भी हो, यह खेल हमारे देश का राष्ट्रीय खेल बन चुका है। सारा देश भारत के विजय की प्रतीक्षा कर रहा है। भारत का फाइनल में पहुँचना अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। इधर कुछ वर्षों से भारतीय टीम ने विजय का अभियान जो शुरू किया है, उसकी चरम परिणति विश्व कप की जीत में ही होगी। आज देश का हर व्यक्ति, हर उम्र का, इस खेल की बारीकियों को समझने लगा है. इसीलिए लोग इस खेल में रूचि ले रहे हैं। भारत - पाकिस्तान के सेमी फाईनल प्रतियोगिता ने नए कीर्तिमान स्थापित किये। फाइनल में भजी भारत की जीत को लोग निश्चित मान रहे हैं। लोगों के इस विश्वास और देश केप्रति ऐसे जज़बात के प्रति हम नमन करते हैं और कामना करते हैं कि हमारा देश विजयी हो।