Friday, September 17, 2010

और एक हिंदी दिवस का आना और चला जाना.

१४ सितम्बर २०१० का दिन आया और ढेर सारी आशाएं जगाकर चला गया। वही समारोह और वही हलचल - एक दिन की चांदनी और फिर ३६५ रातों का अंधेरा ? लेकिन इस बार कुछ नए तरह के दृश्य देखने को मिले । हिन्दी के समाचार पत्रों में हिन्दी दिवस संबंधी लेखों में काफी वृद्धि हुई है। निश्चित रूप से काफी लोग अब हिंदी दिवस संबंधी लेख लिखने में रूचि लेने लगे हैं। जहां पहले केवल कुछ अकादमिक क्षेत्र के लोग ही लिखते थे वहां इस बार केंद्र सरकार के उपक्रमों के हिन्दी अधिकारी गण अपने विचार खुलकर व्यक्त करने लगे हैं। यह एक सकारात्मक पहलू है, इस बार के हिन्दी दिवस का । राजभाषा के कार्यान्वयन की दिशा में जो भी कम हुआ है और हो रहा है - केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों में उसका ब्योरा अधिक मात्रा में इस बार प्रिंट माध्यम में देखने को मिला। राजभाषा पत्रिकाओं की भी भरमार दिखाई दी है। खेद का और चिंता का भी विषय फिर वही रहा कि अंग्रेज़ी के किसी अखबार वाले ने इस महान दिवस की चर्चा तक नहीं की। और लोग चुप हैं हमेशा की तरह। क्या अंग्रेज़ी के समाचार पत्र - इस देश के नहीं हैं ? क्या हिन्दी केवल हिन्दी पढ़ने लिखने वालो का ही सर दर्द है ? क्या इसका कोई राष्ट्रीय सरोकार नहीं है ? हम इस सवाल को हर साल यूं हीहैं और खुद ही इसका उत्तर भी देकर आगे बढ़ जाते हैं।
स्वाधीनता प्राप्त के ६३ बरसों बाद भी हम आज तक अपनी भाषाई राष्ट्रीय अस्मिता को सिद्ध करने में असफल ही रहे। आज भी सरकार ( चाहे किसी भी दल की क्यों आई हो ) हिंदी को राष्ट्र भाषा घोषित करने के लिए खुलकर पहल नहीं कर रही है - ऐसा क्यों ? संविधान की हिन्दी भाषा संबंधी धाराएं अस्पष्ट हैं और अधूरी हैं। समय आ गया है कि उन अनुच्छेदों पर पुनर्विचार किया जाए और उनमें उचित संशोधन कर देश की भाषा नीति को स्पष्ट कर लागू किया जाए। हिन्दी और अंग्रेज़ी की यह आँख मिचौली आखिर कब तक चलेगी ? पीढियां गुज़र जा रहीं इस व्यर्थ के बोझ
को उठाते उठाते । देशवासी इतने उदासीन क्यों हैं - हमारी भाषा/भाषाओं के प्रति ? किसी भी बहुभाषी देश में किसी एक (सर्वसम्मत ) भाषा को शिक्षा, कामकाज और अन्य प्रयोजनों के लिए स्वीकार करना राष्ट्रीय धर्म है और कर्त्तव्य भी। ऐसा नहीं करना देशद्रोह हो सकता है। दुर्भाग्य से हमारे देश राजनेताओं ने आजादी के समय एक छोटी सी भूल कर दी उसीका खामियाजा आज तक देश भुगत रहा है। राष्ट्र की प्रमुख राजभाषा/राष्ट्रभाषा के प्रति उदासीनता और नीतिविहीनता ने आखिर देश को अनिश्चितता की स्थिति में ढकेल दिया। लेकिन इसकी किसी को परवाह नहीं है। १४ सितम्बर के दिन कम से कम हम सब लोग मिलकर हिन्दी भाषा की वर्तमान स्थिति के बारे मन कुछ देर के लिए विचार तो कर लेते हैं। इसके कार्यान्वयन की दशा और दिशा का आकलन कर लेते हैं। यही संतोषजनक कार्य है।
वैसे आज भारत में आज हिंदी की दशा पहले से बहुत सुधरी है और लोगों का दृष्टिकोण भी बदला है। हालाकि अंग्रेज़ी का प्रयोग बढ़ा है, लेकिन हिन्दी और भारतीय भाषाएँ भी अपना काम कर रहीं हैं, चुपके चुपके। बाज़ार और उपभोक्ता संस्कृति ने भारतीय भाषाओं और विशेषकर हिंदी को व्यावहारिक प्रयोग के लिए उपयुक्त बना दिया है। उपभोक्तावादी बाज़ार प्रणाली ने उत्पादों की बिक्री के लिए भारतीय भाषाओं को अनुवार्य सिद्ध कर दिया है। लेकिन यह बदलाव किसी दल, समुदाय या व्यापार की नीति के कारण नहीं हुआ। यह तो एक स्वचालित प्रक्रिया है जो आवश्यकता से उत्पन्न हुई है। इसका कोई सांस्कृतिक आधार नहीं है। सांस्कृतिक दृष्टि से हमारी भाषाओं को नुकसान ही हुआ है। अंग्रेज़ी और अन्य पाश्चिमी संस्कृति का प्रकोप और तेज़ हो गया है। शिक्षित शहरी वर्ग - हिन्दी और भारतीय भाषाओं को हीन दृष्टि से देखता है । उसे अमेरिका का आकर्षण भारतीय भाषाओं से दूर कर देता है। फिर जब हमारे देश में जब हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएँ किसी काम की नहीं हों तो फिर कोई क्यों इन भाषाओं को सीखने या प्रयोग करने की दिशा में सोचेगा ? बुद्धिमान व्यक्ति वही है जोअपने भविष्य को सुस्थिर बनाने के लिए व्यावाहारिक्रूप से प्रचलित और रोज़गार की सम्भावनाओं वाली भाषा माध्यम को ही चुनेगा - और वह आज के परिदृश्य में निश्चित रूप से अंग्रेज़ी ही है। अंग्रेज़ी को अनिवार्य दर्जा देकर हम भारतीय भाषाओं का पक्ष कैसे ले सकत हैं, यदि लेते भी हैं तो वह केवल एक दिखावा है और छल है । सरकार और राजनीतिक दल आज भी हिन्दी और भारतीय भाषाओं के प्रयोग के उपायों को लेकर गंभीर नहीं है। यथास्थितिवाद ने देश को बरबाद कर दिया है। आज देश में किसी को अपनी भाषाओं के विकास की गंभीर चिंता नहीं है। एक विचित्र तदर्थवाद चल रहा है - जिसका समर्थन सभी लोग चाहे-अनचाहे कर रहे हैं।
आज भी हमारे सामने ये प्रश्न ज्वलंत रूप से मुंह बाए खड़े हैं कि हमारे देश में शिक्षा का माध्यम हिंदी अथवा भारतीय भाशाएं क्यो नहीं हैँ वह कौन सी मजबूरी है कि हम एक विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाकर अपना काम चलाने को बाध्य हैं ? हमारे देशवासी किसी एक भाषा को स्वीकार करने के लिए क्यों तैयार नही हैं ?
राजभाषा कार्यान्वयन का सही आकलन हो पा रहा है या नहीं। राजभाषा कार्यान्वयन कहीं कहीं पर केवल खानापूरी की ही स्थिति में ही मौजूद है। आज भी ये समस्याएँ देश के सम्मुख गंभीर रूप में विद्यमान हैं.