Thursday, June 9, 2011

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति तत्काल की जाये

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद में पिछले एक वर्ष से कुलपति का पद रिक्त पडा हुआ है .
केन्द्र सरकार के द्वारा शासित यह विश्वविद्यालय पिछले एक वर्ष से सरकार की घोर उपेक्षा का शिकार बना हुआ है.
नियमित कुलपति की अनुपस्थिति में विश्वविद्यालय का अकादमिक, प्रशासनिक तथा विकास का सारा कार्य ठप्प हो गया है.
एम वर्ष से भी ज्यादा अवधि से प्रशासन में ठहराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी है. नित्यप्रति नई नई समस्यायें पैदा हो रही हैं जिनका
समाधान तत्काल न होने के कारण प्रशासन और कर्मचारियों में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसके परिणाम स्वरूप
इधर कुछ दिनों से शिक्षकेतर कर्मचारीगण अपनी कुछ मांगों को लेकर अनिश्चित कालीन हडताल/आन्दोलन पर अडे हुए हैं, जिसका
समंजस समाधान न होने के कारण विश्वविद्यालय का अकादमिक, परीक्षा-संबंधी कामकाज रुक गया है. कुलपति के ही साथ विश्वविद्यालय
के कुलसचिव का पद भी रिक्त पडा है जिस पर नियुक्ति की अनिवार्यता है. दोनों ही पद विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए अतिप्रमुख होते हैं .
देश में अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यलय का एक महत्वपूर्ण स्थान है, यह राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय महत्व का विश्वविद्यालय है जो कि सारे देश भर में
विधेसी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन, अध्यापन तथा शोध के लिए जाना जाता है. यूरोपीय भाषाओं के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध के साथ साथ, विभिन्न विदेशी भाषाओं के मध्य अनुवाद तथा तुलनात्मक- शोध तथा तुलनात्मक भाषा-विग्यान के अध्यापन के लिए यह वि वि विश्व विख्यात रहा है. यहां देश विदेश से बडी संख्या में विद्यार्थी विदेशी भाषाओं ( और अंग्रेज़ी भाषा तथा साहित्य) में महारथ हासिल करने के लिए दाखिला लेते हैं. विश्वविद्यालय का परिसर में समन्वयात्मक अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश का बहुत ही सुन्दर परिद्रिश्य दिखाई देता है. ऐसा विश्वविद्यालय दुर्भाग्य से सरकार की उपेक्षा का शिकार हो गया है . केन्द्र सरकार को इस विश्वविद्यालय के शैक्षिक विकास को पुन: पटरी पर लाने के लिए शीघ्र ही कुअलपति तथा कुलसचिव की नियुक्ति के लिए आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिए. कुलपति के चयन की प्रक्रिया जटिल और संश्लिष्ट होती है इसीलिए इसमें काफ़ी समय भी लग जाता है. किन्तु यदि सरकार चाहे तो किसी भी जटिल काम को सरल भी कर सकती है. सरकार की तत्काल कार्यवाही इस विश्व-स्तरीय विश्वविद्यालय की शैक्षिक प्रगति को अवरुद्ध होने से बचा सकती है .

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद में पिछले एक वर्ष से कुलपति का पद रिक्त पडा हुआ है .

Wednesday, June 8, 2011

A premium Central University without a Vice Chancellor for an year and The Government does not bother to appoint one !

The English and Foreign Languages University, established by an act of parliament with a vision to offer World Class Language and Literature teaching in English and Foreign Languages, is now facing a strangled death situation due to sheer negligence of the Ministry of HRD, which has the responcibility of providing infrau-structure as well as adequate teaching and Non-teaching staff. Unfortunately the Government has totally forgotten to take this university in to cognisense even to appoint a new Vice-Chancellor ever since the former Vice-Chancellor completed his tenure and relinquished office one year ago. Due to the Callous and careless attitude,the central government has driven the University in to total disarray and confusion, without any direction and total management failure. The day to day problems are increasing and sometimes the the very serious probles of grave nature have become very common. The University has come to a grinding halt without any developpment in the absence of a fulfledged Vice-Chancellor. The unrest among the Non-teaching staff has gone to the extent of frequent protests and strikes which brings the university administration to a grinding halt. Students problems are causing regular hinderence to the academic progress of the prestigious University. The development of infrastructure has come to a halt due to lack of decision making authority. New academic year is in the offing and the admission process is threatened due to dead-lock between the University authorities and the Non-teaching staff over an issue of excess payment and its recovery. The Incharge
Vice-Chancellor ( VC of MAANU ) has been very kind and considerate to look in to the situation and has been trying his best to sustain the regular activities of the University, but due to his preoccupations in his own University it becomes difficult for him to give full time to this newly established University, which demands a full time Vice-Chancellor of its own. There have often studetn's unrest due to various problems and also due to the effect of the ongoing agitation which has been spearheaded by the neighbouring University campus. The OU Campus exerts a lot of plolitical pressure on the EFL-U Campus in many ways which also becomes detrimental to the academic activities of the the University. One Year of vaccum without a regular vice-chancellor for such a premium istitution of national importance and of international recognition is pathetic and deplorable.The Government should act immediately on priority basis and appoint regualr vice-chancellor to bring back the university on to the track, so that the losses which have occured during the last one year may be compensated.

सत्ता बनाम देश बचाओ आन्दोलन

देश में भ्रष्टाचार के विरोध में तीव्र आक्रोश अपने चरम पर आ पहुंचा है । भ्रष्टाचार विरोधी सुनामी भारत में दस्तक दे चुकी है इसे अब कोई नहीं रोक सकता। आम जनता किसी भीतरह की कुर्बानी देनेके लिए सन्नद्ध हो गई है। लोगों ने कमर कास लिया है। भ्रष्ट राजनीति और देश कि नौकरशाही व्यवस्था के साथ साथ अपराधीकृत राजनीति का घिनौना रूप अब बेनकाब हो गया है। घोटालों की राजनीत अब अनावृत्त हो चुकी है। नामी गिरामी उद्योग घराने से लेकर व्यावसायिक दलालों का भंडाफोड़ हो गया है। न्यायपालिका अपना काम करने के लिए कमर कास ली है। आम जनता में देर से ही सही एक जनचेतना जाग गयी है। सताधारी राजनेता की नींद उड़ गयी है। सता पक्ष जन आन्दोलन को कुचलने के घिनौने हथकंडे अपना रहे हैं वह भी बेशर्मी से। रातों रात निहथ्थे, निर्दोष आम लोगों पर सशस्त्र बल अपना पौरुष प्रदर्शन करते हैं। तथाकथित गांधीजी और नेहरूजी के सिद्धांतों का पालन करने का ढोंग करने वाली तथाकथित वाली सरकार इन निहत्थों पर बल प्रयोग करते हुए ज़रा भी शर्मसार नहीं हुई। प्रधान मंत्री महोदय अनभिज्ञता की गहरी नींद सो रहे हैं। वे करें भी तो क्या, तंत्र के धागे तो किसी और के हाथों में हैं । जन समर्थित हर आन्दोलन ऐसे ही रौंदा जाता है। जन समर्थित आन्दोलन को कुचलने के लिए उसे किसी न किसी सता विरोधी राजनीतिक दल से जोड़ दिया जाता है और उसे सिद्ध भी कर दिया जाता है। सत्ता के खेल निराले होते हैं। सत्ता का विरोध, जनता के कल्याण के लिए जब किया जाए वह तब - लोकतंत्र में जायज़ होता है। लेकिन आज की हमारी सरकारें ( जो कि जनता द्वारा चयनित प्रतिनिधियों की सरकार है ) अपने आप को तानाशाही संस्कृति में ढाल चुकी है । बहुत दुःख होता है ऎसी परिस्थितियों को देखते हुए। क्या आम आदमी का कोई अधिकार ही नहीं रहा - इस देश में। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव - चाहे किसी भी विचारधारा के हों - हैं तो वे आम नागरिक ही। विरोध का स्वर दबाने के लिए सत्ता पक्ष के नेता हमेशा गड़े मुर्दे उखाड़ते हैं और सवाल का जवाब पलट वार करके करते हैं। सवाल पूछना के लिए लोकतंत्र में किसी भी अर्हता या योग्यता या पात्रता की आव्यशाकता नहीं होती लेकिन जब भी कोई सरकार को उनकी गलत नीतियोंके लिए ललकारता है तो उसे उत्पीडित किया जाता है, उसे तरह तरह से सताया जाता है,उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है, उस पर अनेक तरह के आपराधिक मामले दर्ज कर दिए जाते हैं और उसे देश द्रोही सिद्ध कर उसे ख़त्म कर दिया जाता है। लोगों में भय और आतंक का वातावरण उभर कर आ रहा है। सत्ता पक्ष लोगों को मासिक रूप से अपंग बनाना चाहती है। हर राजनीतिक दल का यही एजेंडा है। कोई भी दल आम आदमी अथवा देश में व्याप्त अराजकता, महंगाई, विदेशों में छिपाए काले धन की समस्या, सरहद पार के आतंकवादी हमले आदि के बारे कोई भी समाधान नहीं निकालना चाहते है , केवल भोली भाली जनता को सत्ता और विपक्ष की लड़ाई में उलझा कर रख देना चाहते हैं। आम आदमी के पास केवल अपनी रोज़ी रोतीकमानेभर का ही समय बड़ी मुश्किल से मिल पाता है, वह उपरोक्त समस्याओं में कहाँ से उलझेगा। उसे उम्मीद रहती है अपने जन प्रतिनिधियों से - लेकिन वे कितने भ्रष्ट हैं - इसे अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है।
पिछले दिनों की घटनाओं को सत्ता और विपक्ष दोनों अपनी अपनी राजनीति का मुद्दा बनाकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। जन लोकपाल विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने के लिए जो प्रयास हो रहे हैं, उसमें काफी अड़चनें सरकार पैदा कर रही है - यही बात जनता को समझ में आती है। सरकार क्यों इस विधेयक को जनता के अनुकूल मांगों के अनुकूल स्वीकार नहीं करती - इसका उत्तर सरकार क्यों नहीं देना चाहती ? क्यों सरकार जनता की आवाज़ को दबाना चाहती है। जब राजनेता ( सत्ता और विपक्ष - दोनों पक्षों के ) भ्रष्टाचार में डूबे हों तो वे कैसे ऐसे विधेयक को स्वीकार करेंगे जो उनके ही विरुद्ध कार्रवाई करने वाली हो । लेकिन अब समत आ गया है कि सरकार को जनता के हर सवाल का जवाब देना ही पडेगा।
राष्ट्रीय संकट के समय या राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे देश के राजनीतिक दल एकजुट कभी नहीं होते। विदेशों में ऐसे मुद्दों पर सत्ता और विपक्ष दोनों एकजुट होकर परस्पर दोषारोपण की राजनीति न करते हुए, देशवासियों के हित में समाधान ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं । अनेक अवसरों पर दोनों पक्ष एक ओर हो जाते हैं। लेकिन हमारे देश हमने कभी ऎसी स्थिति नहीं देखी। ( सिवाय बाहरी आक्रमण की स्थिति को छोड़कर ) ।
आज देश बहुत ही गहरे संकट से गुज़र रहा है। कई लाख -करोड़ रुपयों की राशि ( राष्ट्रीय संपत्ति ) काले धन के रूप में अवैध तरीके से विदेशी बैंकोंमेंजमा है जिससे राष्ट्र की सारी गरीबी दूर की जा सकती है, भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुँच चुका है, यह ऐसा समय है जब कि सभी को एकजुट होकर इस धन को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए । साथ ही देश के भीतर दमनकारी नीतियों का रास्ता छोड़कर जनता के हित में सत्ता को नीतिगत निर्णय लेने का साहस होना चाहिए।
किसने सोचा था कि गांधी, नेहरू, अम्बेडकर,फुले, दयानंद सरस्वती, टैगोर का यह देश आज ऎसी दीन और दयनीय स्थिति में होगा जहां केवल भ्रष्ट राजनीति ही देश का वर्तमान और भविष्य हो ।
हम सामान्य वर्ग के अति सामान्य नागरिकों को कब इस महामारी से मुक्ति मिलेगी।
दाई में ula