Tuesday, October 15, 2013

अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक साज़िशों की सशक्त रोमांचक फिल्म : मद्रास कैफे

बॉलीवुड अब धीरे धीरे अंतरराष्ट्रीय जासूसी और राजनीतिक साज़िशों को प्रदाफाश करने वाली सशक्त फिल्में बनाने में  हॉलीवुड से मुक़ाबला कर रहा है । एस्पियोनेज पर सफल फिल्में बनाने का श्रेय एकमात्र हॉलीवुड को ही जाता था । लेकिन अब भारतीय फिल्मों में भी इस तरह के विषयों पर बहुत ही सार्थक और प्रभावशाली फिल्में बननी शुरू हो गईं हैं । इसी शृंखला मे शूजित सरकार द्वारा निर्देशित, जॉन अब्राहम-रोनी -लाहिरी और वियाकोम 18 मोशन पिक्चर्स द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित ' मद्रास कैफे ' एक सशक्त अंतरराष्ट्रीय जासूसी रोमांचक ( थ्रिलर ) फिल्म है जिसकी प्रभावशाली पटकथा सोमनाथ डे और शुभेन्दु भट्टाचार्य द्वारा लिखी गई है । इस फिल्म की पृष्ठभूमि श्रीलंका का बरसों से भीषण गृहयुद्ध ग्रस्त' जाफना' प्रदेश है । श्रीलंका सरकार और तमिल ईलम के सैन्य संगठन लिट्टे के मध्य चले बरसों के विध्वंसात्मक गोरिल्ला युद्ध को इस फिल्म में अपने ढंग से फिल्माया गया है । यह एक युद्ध फिल्म कही जा सकती है । 
प्रकारांतर से श्रीलंका के प्रतिबंधित संगठन ' लिट्टे ' के आत्मघाती दस्ते द्वारा अंजाम दिये गए राजीव गांधी हत्या कांड को इस फिल्म का केंद्र बिंदु बनाया गया है जिसे परोक्ष रूप से पूर्व भारतीय प्रधान मंत्री की हत्या के रूप मे प्रस्तुत  किया गया है । वास्तव मे इस फिल्म के द्वारा इस तथ्य को उजागर किया गया है कि पूर्व प्रधान मंत्री  राजीव गांधी की हत्या के पीछे भारतीय खुफिया एजिंसियों की विफलता थी और इसका प्रमुख कारण भारतीय खुफिया तंत्र के अहम खुफिया सूचनाओं का ' लीक ' होना था । विश्व में समय समय पर हुए  बड़े राजनेताओं की हत्या के पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक षडयंत्र रहे हैं, ऐसी हत्याओं को अंजाम देने के पीछे कुछ  देशों की खुफिया एजेंसियों के षडयंत्र रहते हैं ।  हर देश की  खुफिया एजेंसी अपने तरह से देश की सुरक्षा संबंधी खुफिया सूचनाओं को प्राप्त करने के लिए अपने खुफिया जासूसों की तैनाती उच्च स्तर पर
विभिन्न देशों में करती है । ऐसे ही एक कोवर्ट ऑपरेशन की कहानी है ' मद्रास कैफे'
 फिल्म की कहानी के अनुसार ' मद्रास कैफे '  उस अड्डे का नाम है,  जहां से पूर्व पूर्व भारतीय प्रधान मंत्री की हत्या की साजिश रची गई थी । यह फिल्म 80 और 90 के दशकों में श्री लंका में घटी कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है जिसमें प्रमुख है भारत सरकार द्वारा श्री लंका सरकार की सहायता के लिए भेजी गई शांति सेना ( इण्डियन पीस कीपिंग फोर्स ) का श्रीलंका की राजनीति में हस्तक्षेप और तत्जनित परिणाम । श्री लंका में उन दिनों चल रहा गृह युद्ध जिसमे जाफना प्रदेश में रहने वाले तमिल भाषी श्रीलंका निवासी एक स्वतंत्र तमिल राष्ट्र की मांग करते हैं और जिसे  प्राप्त करने के लिए वे तमिल लिट्टे  नामक सैन्य संगठन के सैनिक नेता वेलुपिल्लई प्रभाकरण के नेतृत्व में सशस्त्र संग्राम कर रहे थे । लिट्टे को प्रतीकात्मक रूप से इस फिल्म में एल टी एफ नामक एक सैन्य सगठन के रूप में प्रस्तुत किया गया है । प्रभाकरण का प्रतिनिधित्व इस फिल्म में ' अन्ना भास्करन ' ( अजय रत्नम ) नामक स्वघोषित सैन्य नेता को रूपायित किया गया है ।  श्रीलंका की सरकार इस गृहयुद्ध को समाप्त करने के लिए भारत सरकार द्वारा भेजी गई शांतिवाहिनी की सहायता से लिट्टे के सैन्य विद्रोह को नेस्तनाबूत करने के लिए कमर कसती है ।  
' मद्रास' कैफे ' के फ़िल्मकार ने उक्त घटनाओं को फिल्म में पुन: सृजित करने के लिए  श्रमपूर्ण रिसर्च किया है और उसी के आधार पर इस फिल्म की पटकथा का निर्माण किया गया है । इस अघोषित युद्ध ने तत्कालीन भारत के इतिहास को बादल कर रख दिया । उस युद्ध के कारण भारत की राजनयिक छवि कलंकित हुई और भारत की तमिल भाषी जनता आज तक श्रीलंका में तमिलों पर हुए अत्याचारों और उनकी स्वतन्त्रता के प्रश्न को लेकर भारत सरकार की आलोचना करती है । 
मेजर विक्रमसिंह ( जॉन अब्राहम ) भारतीय थलसेना का विशेष अधिकारी है जिसकी नियुक्ति भारत की खुफिया एजेंसी 'रिसर्च एंड एनालिसिस विंग ' ( रॉ RAW) द्वारा श्रीलंका के जाफना इलाके में भारतीय शांति वाहिनी के भारत लौट आने के बाद की स्थितियों का जायजा लेने के लिए एक खुफिया ऑपरेशन
( कोवर्ट ऑपरेशन ) के तहत किया जाता है ।  वह श्रीलंका के भयावह युद्धग्रस्त  क्षेत्र में तमिलों के सैन्य संगठन  एल टी एफ की गतिविधियों का खुफिया ढंग से पता लगाने के लिए और खुफिया सूचनाएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से जाफना पहुंचता है । लेकिन वहाँ पहुँचकर वह एल टी एफ और उसके खौफनाक अनुचरों, सिपाहियों और जासूसों  तथा उनके  नेताओं के जाल में फंस जाता है । उसकी सहायता एक ब्रिटिश जर्नलिस्ट ' जया'  ( नर्गिस फाकिरी ) करती है जो उसे भारत संबंधी महत्वपूर्ण सूचनाएँ अपने स्रोतों से मुहैया  कराती है । वास्तव में जया वहाँ से अपने अख़बार के लिए रिपोर्टिंग करने के लिए डेरा डाले हुए है ।  विक्रम सिंह एल टी एफ को युद्ध के लिए विदेशों से हथियार और गोला बारूद मुहैया कराने वाले संगठनों का पता लगाता है । वह युद्ध की दिशा को भारत के पक्ष में करने के लिए रॉ के उच्चाधिकारियों के निर्देशों पर ' एल टी एफ ' के मुखिया अन्ना भास्करन से संबंध स्थापित करता है लेकिन बीच में उसकी गुप्त योजना उसीके एक  अधिकारी की गद्दारी से अन्ना भास्करन के विरोधी दल को मालूम हो जाती है जिससे विक्रम सिंह के प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं, उसके रॉ के जासूस होने का पता एल टी एफ को पता चल जाता है और उस पर जानलेवा हमला होता है । उसे इस ओपरेन को  स्थगित कर स्वदेश लौटना पड़ता है । रॉ के सूचनाओं की ' लीक ' इस तरह जारी रहती है लेकिन इसके लीक करने वाले का पता विक्रम सिंह को नहीं लगता । वह अपनी सूत्रों को इस आदमी का पता लगाने के लिए तैनात कर देता है । इधर दिल्ली में उसकी हत्या के लिए आए हत्यारे धोखे से उसकी पत्नी को मार डालते हैं ।  फिल्म में इन घटनाओं को बहुत ही बारीकी से जमीनी हकीकत के साथ दिल दहलाने वाले युद्ध दृश्यों में रूपांतरित किया गया है ।  ब्रिटिश जर्नलिस्ट ' जया'  के खुफिया प्रयासों और उसके सूत्रों से ' मद्रास कैफे ' नामक होटल में कुछ गुप्त संगठन के सदस्यों द्वारा किसी बड़े राजनेता की हत्या की साजिश का पता चलता है ।  इस संवेदनशील खबर की पुष्टि करने के प्रयास में कई और जानें  जाती हैं । विक्रम सिंह रॉ को एलर्ट करता है । रॉ अपना सुरक्षा जाल बिछाती है ।  सारी सूचनाएँ श्रीलंका, लंदन, सिंगापूर, मद्रास, दिल्ली आदि स्थानों से जुड़ी होती हैं। इस ऑपरेशन की कोई भी पुख्ता सूत्र या सही जानकरी नहीं दे पाता । केवल संदेह के आधार पर कई लोगों से पूछ ताछ की जाती है लेकिन अंत तक विकरामसिंह को अपने ही संगठन के भीतर छिपे अधिकारी का पता नहीं चल पाता। पूर्व प्रधान मंत्री अपने चुनाव प्रचार के लिए निकल पड़ते हैं । उनके चुनाव प्रचार के कार्यक्रमों पर रॉ कड़ी नजर रखती है और अधिक से अधिक सुरक्षा कवच उनके चारों ओर निर्मित करती है । उनके मद्रास में  जनसभा को संबोधित करने के कार्यक्रम की सूचना मिलते ही विक्रम सिंह को संदिग्धों की तलाश युद्ध स्तर  पर शुरू कर देता है लेकिन हत्यारे उससे हमेशा एक कदम आगे ही रहते हैं । उस रात एक विशाल भीड भरी जनसभा में पूर्व प्रधान मंत्री एक आत्मघाती महिला मानव बम का शिकार हो जाते हैं, पास ही विक्रम सिंह भी घायल होकर गिर पड़ता है । रॉ के प्रमुख रॉबिन दत्त ( सिद्धार्थ बसु ) जो इस पूरे ऑपरेशन को शुरू से संचालित करते हैं अंत में अपनी इस विफलता पर बिखर जाते हैं । यह पूरा ऑपरेशन रॉ के खुफिया  दस्तावेजों में सिमटकर रह जाता है । भारतीय इतिहास की इस त्रासदीपूर्ण घटना के पीछे के अनेक रहस्यों का अनावरण यह फिल्म करती है । अनुमान और कल्पना तथा कुछ प्राप्त तथ्यों के आधार पर इस ऐतिहासिक घटना को जिस यथार्थपूर्ण प्रभाव के साथ सेल्यूलाईड पर प्रदर्शित किया गया,  वह काबिले तारीफ है । यह एक युद्ध फिल्म है इसलिए आज के अत्याधुनिक हथियारों द्वारा हमले और विध्वंस के दृश्यों का फिल्मांकन बहुत ही उच्चस्तरीय तकनीकी निर्देशन में किया गया है  । फिल्म की सिनेमाटोग्राफी आकर्षक और मर्मस्पर्शी है । श्रीलंका का जाफना प्रदेश जहां के सुरम्य मनोहारी पहाड़ियों से घिरे हुए जंगलों और हरियाली के मध्य, लहूलुहान लाशों से पटे गांवों का मार्मिक दृश्यांकन दर्शकों को प्रभावित करता है । अभिनय के क्षेत्र में विक्रम सिंह की भूमिका में जॉन अब्राहम का अभिनय बहुत ही यथार्थपूर्ण और आकर्षक है जो भारतीय सैनिकों के प्रति दर्शकों के मन में एक विशेष प्रकार का आदर भाव पैदा करता है । ब्रिटिश जर्नलिस्ट  की भूमिका में नर्गिस फाकिरी का अभिनाय बेजोड़ और प्रशंसनीय  है । फिल्म की कहानी की बुनावट अत्यंत  कसी होने कारण पूरी फिल्म बहुत ही रोचक बन पड़ी है । दर्शक को कहीं भी खालीपन नजर नहीं आता । हर फ्रेम सस्पेंस और एक्शन युक्त है जो दर्शकों के कौतूहल को अंत तक बरकरार रखता
है । यह फिल्म उन्हीं दर्शकों को भाएगी जिन्हें युद्ध और रोमांचक जासूसी ( एस्पियोनेज ) फिल्में देखने का शौक हो ।

                                                                                                            एम वेंकटेश्वर

                                                                                                            9849048156 

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