Saturday, December 26, 2009

नफ़रत के बीज बोना सबसे आसान काम है , मैत्री के पौधे को सींचना सबसे कठिन चुनौती है

राजनीतिक कूट नीति आम जनता में सत्ता की राजनीति खेलने के लिए लोगों में आपसी भेदभाव पैदा करती है । आज जो भी राजनीतिक आन्दोलन हो रहे हैं उन सबके पीछे राजनेताओं की सत्ता प्राप्त करने की ही होड़ लगी हुई है । केवल सत्ता की राजनीति है यह सब। चाहे वह कोई भी राजनीतिक दल हो आज सब सत्ता की ही राजनीति खेल रहे हैं और वह भी जनता के अधिकारों के एवज में .जाति, धर्म, कुल, प्रांत, क्षेत्र, स्थानीयता, भाषा, गांव और शहर आदि के धरातल पर लोगों को बांट बांट कर राजनेता सता को हासिल करने की प्रक्रिया को ही अपनी जीवन का उद्देश्य मान रहे हैं। लोगों में तरह तरह के विभेद करना ही इन राजनेताओं का धंधा है । निर्दोष, भोलीभाली जनता इनके जाल में फंसकर अपना सब कुछ इन राजनेताओं को सौंप देती है, इन पर भरोसा करती है कि ये जनता की समस्याएम सुलझा देंगे पर उन्हें अंत में निराशा ही हाथ आती है .
आज का दौर सामाजिक और राजनीतिक विखंडन का क्लिष्ट दौर है। विखंडन की ही राजनीति चल रही है। जनता के जीवन के साथ राजनेता राजनीति कर रहे हैं । राजनीतिक समस्याओं का राजनीतिक समाधान बातचीत के माध्यम से निकालने के बदले, जनता में फूट डालकर, उन्हें आपस में लड़वा रहे हैं, यह निंदनीय और अस्वीकार्य है. राजनीतिक आतंकवाद -साम्प्रदायिक आतंकवाद से अधिक खतरनाक होता है . इसे आज के राजनेताओं को समझना चाहिए । आन्ध्र प्रदेश की राजनीति इन दिनों कुछ इसी राह पर चल पड़ी है, यह चिंता का विषय है। सारे राजानेता ( सभी डालो के ) कन्फ्यूज्ड मानसिक स्थति में हैं । विभ्रमित और दिग्भ्रमित हैं। केवल सत्ता होड़ में
विचारधारा, सिद्धांत और नैतिक मूल्यों को त्यागकर महज सत्ता हासिल करने के चक्कर में पड़ गए हैं । जनता कहां है ?

University Campuses OR battle fields ?

It is painful to see that in Andhra Pradesh the premium institutions of higher learning viz Universities are suffering very sadly from the menace of political agitations. Post Graduate students, whose talent and intellectual potential is needed for the constructive participation in the development of socio-economic strength of the country, is being calously misused by the confused politicians of today. Agitations should be controlled and monitored and also steered by the professional politicians ( elected leaders ), who wish to represent the society and who have adopted politics to do some service to th people. It is the responsibiloity of the Government consistng of elected leaders to provide good governennce alongwith safety and security to the lives of common man. But what do we see these days ? Politicians are provoking the youth ( of all ages ) to adopt violent methods to support their reasonable/unreasonable demands. Students of all ages and all sections ( rural/urban) are being misguided by their psuedo-patriotism to fulfill their selfish motives. these days it is all the power game.
Agitations should be led and fought among the politicians and poloitical parties and among common people in the socity who have more important tasks of serving the nation in their capasities. Politicians have to draw a line for the students so as not to participate in such destructive and negative anti-social activities which may cause harm to the fellow citizens.
University Campuses are very sacred places of learning and the santity of these temples of learning have to be protected by the social system which includes political system in a democracy. Students should be kept away from participating in politics and they should be enouraged to build their academic career to become outstanding intellectual. We need the best out of the youth, today. Universities should be able to produce the best student products who can run the country in their future. Unfortunately, these days campuses are more involved in unacademic (political ) activites ( provoked by politicicians ) . We have 450 Universities
( approximately ) compared to 1500 Universities in China, but the kind of intellectuals we are producing, is not satisfactory or proportional to the potential. Knwoedge commissions and so many other academic evaluatory agencies have been trying to suggest ways to improve this situation ( from time to time ) but we are unable to improve the attitude of the politicians nor education poicy makers. We could not drive this idea in to the mionds of the present day politicians that students participation in active politics on university campus is suicidal to the career of the students. Off late students union elections have been banned in some of the universities (at least in south ), but this has not improved the situation as national and regional political parties have established their students wings in every university and are creating a
non- academic atmosphere on campuses. The political rivalry is as strong as among the main political parties even on campuses and they settle their scores on campus in exhibiting their
power.
On going Telengana agitation is a typical example of provacative destruction and disruption of normal life of common man, due to the avoidable intervention of University students whose academic careers are at stake now, because they have already incurred loss of a semester and the present ( January to April ) semester also is in visible danger. The students of these (agitating ) universites may not be able to qualify to swrite national and international level tests to proceed to higher studies within and outside India.
Some good samaritan has to convince the politicians ( of political parties ) involved in negotiations for a separate statehood to spare the university students fromt he ongoing turmoil and to request the students to return to the class rooms to pursue their studies to achieve their determined goal. The politicians may ask the students community to leave politics for themselves as it is their area to solve the problems of the public. They are competent enough to find ways to solve all sorts of problems including the problem of separate statehood. Also politicians should see that normalcy is restored on campuses. it is the duty of the political parties to ensure safety and security to the public porperty, by forcning the government mechanism to provide enough protection. Even University Campus also comes under the perview of the government if it comes to the issue of law and order. Campuses cannot be left to so called frenzy of unruly mobs, if they occupy the campus, to indulge in damaging public property and misbehaving with public on road. Such elements have to be dealt with sternly and they must be brought to the book. Intervention of human rights commission, when government deals with unruly youth on campus is a serious issue to be debated in the interest of public or tax payer.
It has unfortunately observed that, people are scared to walk on the streets, to ride their vehicles, to leave their houses locked, to continue business. The continuous Bundhs - declared by zso called poloitical parties these days have created havoc and have caused immense inconvenience to the public life. This situation is unwsarranted and against the norms of a civilized society in a demoracy. I earnestly appeal to the political parties to educate and ecourage the students to return to classes and to handle the politics themselves.

Wednesday, December 23, 2009

लोकतंत्र में आम सहमति का क्या अर्थ है ?

कोई समझाए कि लोकतंत्र में आम सहमति का अर्थ क्या होता है और इसे कैसे साधा जा सकता है। और जब तक क्सीई भीमुद्दे पर आम सहमति न हो तो क्या किया जाए ? बहु संख्यक और अल्प संख्यक के अधिकार क्या हैं ?
आम सहमति न हो तो क्या असहमत दल/व्यक्ति और सहमत दल/व्यक्ति को हंसा पर उतर जाना चाहिए ? क्या हिंसा के सहमति पैदा की जा सकती है ? राजनीतिक असहमति को सुलझाने के कौन से रास्ते है और कौन से कारगर उपाय हैं । विकसत, अर्धविकसित और पूर्ण विकसित प्रजातंत्र में अंतर क्या है। क्या भारत विकसित प्रजातंत्र है ?
एडवांस्ड डेमोक्रेसी ( अमेरिका ) में क्या इसी तरह से हिंसा के माध्यम से किसी की बाहें मरोड़कर अपने लक्ष्य को हासिल किया जाता है ? गांधी और गौतम के देश में आज हिंसा के आतंक से अपनी बात मनवाने का एक नया तरीका ईजाद किया जा रहा है। अपनी अवैध और निहित स्वार्थो की पूर्ति भी इसी रास्ते से लोग करते और करवाते हैं हमारे देश में । इसीलिए आज यह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। मांग विवेकपूर्ण है या नही यह कौन तय करेगा ? हमें राष्ट्रीय चरित्र प्रति सजग और विचारवान होना होगा। स्थानीयतावाद आज राष्ट्र के हट में घातक सिद्ध होता जा रहा है। राष्ट्रीय सोच का ह्रास होता जा रहा है । इस पतनशीलता को किस्सी तरह रोअकाने का प्रेस करना होगा। यह एक निस्वार्थ, स्वच्छ आस्थावादी नेतृत्व से संभव है .
एम वेंकटेश्वर

आज फिर हैदराबाद और आसपास के प्रदेशा में हिंसा का तांडव शुरू / यह कैसा लोकतंत्र है ?

कल शाम भारत सरकार कि ओर से तेलंगाना मुद्दे पर गृह मंत्री मान्यवर श्री पी चिदम्बरम के द्वारा जारी अधिकारक
वक्तव्य में यह स्पष्ट करा दिया गया कि अभी पृथक राज्य के गठन के लिए सभी राजनीतिक दलों के एक मत होने की आवश्यकता है इसलिए व्यापक बहस की ज़रूरत है इसलिए जनता को ( दोनों प्रदेशो के ) संयम रखना होगा और राज्य में कानून और व्यवस्था को भंग नहीं करने की अपील भी की गयी । यह एक राजनीतिक पहल के लिए की गयी अपील है न कि कोई फरमान किसी के भी पक्ष या विपक्ष में यह नही है। जैसा कि कुछ स्वार्थी नेता इसे एनी तरीके से पेशा कर रहे हैं और लोगो को भड़का कर हैदराबाद और उसके आस पास के क्षेत्रो में हिंसा भड़का रहे हैं । इस वक्तव्य के टी वी पर प्रसारित होंव के कुछ ही मिनटों में शहर के कुछ हिस्सों में सड़क पर चलने वाले आम आदमियों पर और उनके वाहनों पर घातक हमले किये गए। कई निजी गाडियों को तोडा गया और आग लगाई गई। बसों को आग में झोंक डाला गया। पुलिस और जनता देखती रह गई । इसमें तथा कथित असामाजिक तत्व और छात्रो के होने की संभावना बताई जा रही है । इसे आम जनता का आक्रोश कहकर राजनेता हिंसा का औचित्य घोषित करने में श्री ले रहे हैं । आम आदमी का जीवन दूभर हो गया है। अनिश्चितताओं में जीवन घिर गया है। जन जीवन ठप्प हो गया है। पेट्रोल पम्प बंद कर दिए गए शाम ही को । जनता परेशान भटकती रही रात भर कि कही कोई थोडा सा पेट्रोल मिल जाए ताकि वे अपने घरो को पहुंच सके । अस्पताल जाने वाले बीमारों की हालत की ओर इस्सी का ध्यान नही जा रहा है। यात्रा पर निकले मुसाफिर सड़क पर बैठे है - उन्हें कोई सवारी नही मिल रही है। साग - सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं । स्कूल और कालेज बंद हो गए हैं । परीक्षाए रद्द कर दी गयी है। शैक्षिक सत्र अस्स्ता व्यस्त हो गए हैं - राज्य का पर्यटन राजस्व बुरी तरह प्रभावित हुआ है। विभिन्न प्रकार के राजस्व की वसूली नही हो रही है। होटल उद्योग मंदीका शिकार हो चुका है। हैदराबाद आने वाले पर्यटकों के लिए नवम्बर दिसंबर और जनवरी के महीने सुहावने हॉट एहैम इसीलिए इन्हीमहीनो में अधिक से अधिक पर्यटक
हैदराबाद और आन्ध्र प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में घूमते हैं और इससे राज्य को तथा निजी क्षेत्र के व्यापारियों को कमाने साधन उपलब्ध होता है । सब कुछ ख़तम कर दिया इन अदूरदर्शी राजनेताओं ने - केवल अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए जिसे वे जन-आन्दोलन का छद्म रूप दे रहे हैं । केवल आर टी सी ( राज्य परिवहन निगम ) को चार सौ करोड़ का नुकसान. बताया जा रहाहै । आये दिन सड़को पर राज्य परिवहन निगम के बसों पर पथराव और आगजनी की घटनाए ऐसे घटित होती हैं जैसे यह कोई आम बात हो । आन्ध्र प्रदेश एक उत्तम और आदर्श राज्य माना जाता रहा है। यहां के लोग बहुत ही मिलनसार और सुसंस्कृत हैं । हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए यह नगर विश्व में मशहूर है। यहां सभी जातियों , धर्मो और संसकृतियों के लोग प्रेम और परस्पर आदर सम्मान के साथ अनेको दशको से रह रहे हैं । यहां की सम्मिलित तहजीब देश के लिए मिसाल है , लेकिन इसे आज जैसे ग्रहण लग गया है । किसी की नज़र लग गयी है। कल फिल्मी कलाकारों पर भी हमले हुए । उनकी शूटिंग रोक दी गयी और उनके साजो सामान को तोड़ दिया गया । कलाकार किसी एक धर्म या जाति का नही होता वह जनता का होता
है सारे समाज काहोता है सारे राष्ट्र का होता है। कला मनुष्य मात्र के लिए होती है । जिस समाज में कला एवं कलाकारों अपमान हो वह समाज सभ्य कहलाने का दावा नहीं कर सकता। तो क्या हम इन समाज विरोधी आंदोलने के रास्ते समाज को कुरूप और विकृत बनाने की दिशा में चला पड़े हैं - हमें आत्मालोचन करनाहोगा ।
इस जनविरोधी हिंसा को रोकने का कोई कारगर उपाय सोचना होगा । आज के राजनेता समाज को विकृत कर सकते हैं उसे सुन्दरता प्रदान नहीं कर सकते । हमें मनुष्यता की रक्षा करनी है - पाशविकता की नहीं ।
एम वेंकटेश्वर -

Monday, December 21, 2009

त्रिभाषा सूत्र के सख्ती से अनुपालन की सिफारिश - भाषा आयोग द्वारा

आज एक हिन्दी दैनिक में राजभाषा आयोग द्वारा भारत में त्रिभाषा फार्मूले की सख्ती से अमल करने की सिफारिश संबंधी समाचार देखने/पढ़ने को नसीब हुआ। ऐसे समाचार आये दिन छपते ही रहते हैं और कोई इसे गंभीरता से नही लेता । भाषा एक मजाक है हमारे देश में । (कुछ ) अखबार वालो को मुख पृष्ठ पर छपने के लिए सुर्खियों की तलाश रहती है और फिर, भारतीय भाषाओं ( हिंदी ) संबंधी खबरें केवल हिन्दी के अखबारों में अपना किंचित स्थान पा लेने में सफल हो जाती हैं । इसी सिलसिले मम हाल ही में धारवाड़ में संपन्न ' शिक्षा में भाषा ' विषय पर आयोजित द्विदिवसीय एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धारवाड़ केंद्र में सम्पन्न हुआ । दिनांक १० और ११ दिसंबर २००९ को। यह संगोष्ठी अनेक अर्थों में बहुत ही सार्थक और सारगर्भित संगोष्ठी रही। मुझे भी इस राष्ट्रीय महत्व के बौद्धिक विमर्ष में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ । दो दिनों के इस आयोजन में देशा की राजधानी से भी प्रमुख भाषाविद, और साहित्यकारों ने ईमानदारी से हिस्सा लिया । परिणाम स्वरुप कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष उपलब्ध हुए । साथ ही बहुत ही स्तरीय प्रपत्रों से भी मुखातिब होने का सुयोग मिला ।
शैक्षिक दृष्टि से भी इस संगोष्ठी में शिक्षा के माध्यम से जुड़ी अनेक समस्याओं पर प्रभावी चर्चा हुई .
प्रो दिलीप सिंह , प्रो वी आर जगन्नाथन, प्रो गंगा प्रसाद विमल, प्रो डिमरी, प्रो ऋषभदेव शर्मा, प्रो विजयराघव रेड्डी, प्रो अमर ज्योति, प्रो नारायण राजू तथा अन्य अनेक प्रबुद्ध शिक्षाविदों ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में ' भारतीय भाषाओं की वर्त्तमान स्थिति पर विचार किया । इस संगोष्ठी में सभी विद्वानों की एक ही सामान्य चिंता दिखाई दी - हमारे ही देशा में शिक्षा के लिए प्रयुक्त भाषा माध्यम पूरी तरह से असंगत और अनुपयोगी हैं। अंग्रेज़ी भाषा का अनाधिकारिक दबदबा, त्रिभाषा सूत्र के अनुपालन में कोताही ( और बेईमानी ) , असंतुलित और मनमाने ढंग से भाषा माध्यमो के साथ खिलवाड़ - जैसी असंख्य अनियामितिया खुलकर सामने आई । हिन्दी की वर्त्तमान दशा - शिक्षा के माध्यम के रूप में - बहुत ही हाशिये पर है। भारतीय भाषाओं को शिक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध किया जा रहा है । शिक्षा के माध्यम को लागू करनी की कोई कारगर (एक ) नीति आज तक हमारे देशा में नही
बन पाई है । इससे अधिक दुर्भाग्य इस देश का और क्या हो सकता है ? संसार के किसीभी दशा में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नही है - सिवाय भारत के ? इस मुद्दे पर विचार करने के लिए आज हमारे देश के नेता और नौकरशाह लोग सोचने के लिए तैयार ही नही हैं । संविधान के अनुच्छेद में राजभाषा को तो परिभाषित किया गया है लेकिन राष्ट्रभाषा (शब्द) को बहुत ही सफाई से बाईपास कर दिया गया है ? आखिर क्यों ? क्यों आज भी हमारे नेता और नौकरशाह लोग हिन्दी को खुलकर राष्ट्रभाषा, शिक्षा के माध्यम की भाषा और कामकाज की भाषा स्वीकार नही करते ? हिन्दी के साथ अन्य सभी भारतीय भाषाओं को यह दर्जा हासिल करने का पहला हक़ है । फिर क्यों सारा ऎसी गहरी नींद सो रहा है की वह साथ सालो के बाद भी जाग सकने की स्थिति में नही है। अंग्रेज़ी को हम एक महत्वपूर्ण विदेशी भाषा के रूप में सर पर बिठा सकते हैं -इतना ही लेकिन उसे हम अपनी आम अभिव्यक्ति का माध्यम कैसे बना सकते हैं ? हम अंग्रेज़ी का विरोध उस अर्थ में नही करना चाहते । लेकिन उसकी भूमिका को स्पष्ट करना होगा और उसके हस्तक्षेप को सीमित करना होगा। उसकी दादागिरी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर नही चलने देंगे । प्रत्येक ब्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का जन्मसिद्ध अधिकार मिलना ही चाहिए। इसके लिए सरकार का कर्त्तव्य है की वह ऎसी व्यवस्था करे जिससे हर नागरिक को उसका भाषा का अधिकार स्वाभाविक रूप से उसे उपलब्ध हो . यह एक बहुत ही लम्बी राह है - चुनौती से भरी हुई । उत्तर के लोगो द्वारा दक्षिण की भाषाओं की उपेक्षा भी एक बड़ा विवाद का मुद्दा है जिसे जल्द से जल्द सुलझाने से ही हम एक सुनिश्चित दिशा में आगे बढ़ सकेंगे . भारत वासियों को परस्पर एक दूसरे की भाषाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना होगा तभी हम देश में भारतीय भाषाओं के मध्य व्याप्त दूरियों को समाप्त कर पायेंगे .साक्षरता अभियान में भारतीय भाषाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिलाना होगा। शिक्षा का आधार हिन्दी और भारतीय भाषाए होना चाहिए तभी हम भी चीन और जापान की तरह स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में उभर सकेंगे .जो देश अपनी भाषामें अपने नागरिको को शिक्षा उपलब्ध कराता है वही देश शक्तिशाली बन सकता है. भारतेंदु बाबू ने इसीलिए ' निज भाषा से ही उन्नति संभव है ' का नारा बरसों पहले दिया था इस देश को । आज हमें वही काम करना है । दशा में एक जनांदोलन की आवश्यकता है - भाषिक आन्दोलन- एक और नवजागरण - भाषिक जन जागरण, यही एकमात्र उपाय है अपनी अस्मिता की रक्षा का ।

Sunday, December 20, 2009

वर्त्तमान राजनीतिक गतिरोध के लिए जिम्मेदार कौन ?

पिछले एक महीने से राज्य में भयानक उथल पुथल मची हुई है । एक राजनीतिक अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है । सारी राजनीतिक पार्टियां असमंजस की स्थिति में फंसी हुई हैं। तेलंगाना मुद्दा एकाएक ऐसे उभरकर आया की लोग हैरत में हैं की यह कैसे इस तरह विकराल रूप धारण कर बैठा ? मुख्य मंत्री डा वाई एस राजशेखर रेड्डी की असमय मृत्यु से ही अलगाववादी राजनीतिक विचारधारा ने अचानक सक्रियता दिखाई और के सी आर जैसे अलगाववादी नेता की मेहरबानी से राज्य में अराजक स्थितियां पैदा हो गईं । तेलंगाना क्षेत्र में खूब हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाए हुई । पुलिस मूक दर्शक बनी रही । आम आदमी पर हमले हुए जिसे टी आर एस पार्टी के नेताओं ने समर्थन प्रदान किया । वि वि परिसर रणभूमि में परिवर्तित हो गया। भारी संख्या में पुलिस बल और अन्य रक्षक बल तैनात किये गए .के सी आर का आमरण अनशन नाटकीय परिस्थितियों में समाप्त हुआ लेकिन कांग्रेस की आलाकमान ने एक भारी चूक कर ही दी । आनन् फानन में पृथक तेलंगाना की मांग के पक्ष में गृह मंत्री से घोषणा करवा दी की पृथक तेलंगाना के लिए उचित कार्यवाही शुरू की जाए । बस इस ऐलान से राज्य के अन्य हिस्सों में एक नया आन्दोलन शुरू हो गया । तेलंगाना क्षेत्र के नेता जहां एक और तेलंगाना राज्य के अवतरण की संभावनाओं को लेकर हर्षित हो रहे हैं वही एकाएक राज्य के अन्य दो प्रदेशो ( आंध्र और रायलसीमा) में संयुक्त/एकीकृत राज्य आन्ध्र प्रदेश की यथास्थिति के लिए आन्दोलन बहुत बड़े पैमाने पर शुरू हो गया है. तेलंगाना के नेता ( टी आर एस पार्टी के नेता ) इस आन्दोलन को पैसों से प्रायोजित कहा रहे हैं जो की सर्वथा गलत है। यह देखने में आया है की उधर के लोगो की भावनाए भी उसी तरह से वास्तविक हैं जैसे की तेलंगाना प्रांत के लोगो की .इस प्रादेशिक विभेद की आग को भड़काने वाले लोग अपने स्वार्थ के लिए आम जीवन को तहस नहस करके उसकी आड़ में अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं । आम आदमी विभाजन कभी नही चाहता । मुद्दा विकास का है और विकास के उद्देश्य को हर हाल में और हर समय सर्वोपरि माना जाना चाहिए चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो . यदि कोई भूखंड किन्हीं कारणों से आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ जाताहै तो उसका समाधान सभी के परस्पर समन्वय से हो सकता है। फिर यह जो स्थिति उत्पन्न हुई है यह अनेको वर्षो के कुप्रबंधन के कारण हुई है जिसके लिए समुचित प्रयास नही किये गए। आजादी से लेकर आज तक की बनी सरकारों में यहाँ के भी तो नेता हमेशा से रहे हैं ? वे फिर क्या कर रहे थे ? जहां हम एक और विश्वग्राम की कल्पना को साकार करने की जी तोड़ कोशिश में लगे हुए हैं वही हम अपने ही (छोटे से) राज्य को दो या तीन टुकड़ो में
खंडित कर देना चाहते हैं ? आखिर किसलिए ? अलगाव क्यों ? और यह दोषारोपण यहाँ बसे हुए लोग पर अन्यायपूर्ण रूप से लगाया जा रहा है । राजनीतिक व्यवस्था खराब है तो उसे बदला जाना चाहिए न की बसे हुए लोगो को विस्थापित करने के लिए आन्दोलन करना चाहिए .तेलंगाना का आन्दोलन भीतर से विस्थापन का आन्दोलन जैसा लग रहा है। अनेको दशको क्स्से बसे हुए लोग कहा जायेंगे > क्यों जायेंगे ? कांग्रेस आलाकमान की एक छोटी सी भूल ने सारे राज्य के निवासियों की नींद उड़ा दी है । स्थानीय राजनीतिक दल हमले पर उअतर रहे हैं । कानून और व्यवस्था बिगड़ चुकी है। राज्य गृह युद्ध के कगार की दिशा में बढ़ रहा है । सभी दलों के अधिकतर सदस्य विधायक पद से इस्तीफा दे रहे हैं । यह सही संकेत नही है। अगर यही स्थिति बनी रही तो राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है. किसी भी तरह से राज्य सरकार को अपनी कूटनीति का उपयोग करके लोगो को इस राजनीतिक गतिरोध से मुक्त करना होगा। अनेको तरह के विभ्रम का प्रचार भी हो रहा है, सरकार का निर्णय स्पष्ट नही है, इसलिए जनता परेशान है । स्कूल और कालेज वीरान पड़े हैं । यदि समय पर परीक्षाए नहीं हुई तो वर्ष के अंत में इसका खामियाजा छात्रो को भुगतना पडेगा । वे आगे की पढाई के लिए प्रवेष परीक्षाओं में नही बैठ पायेंगे । विदेशो में जाकर पढ़ने के इच्छुक छात्र ज्यादा प्रभावित होंगे । इसलिए ऐसे आंदोलनों से छात्रो को दूर ही रखना चाहिए । लेकिन राजनेताओ के लिए छात्र शक्ति ही मुफ्त में उपलब्ध होती है ऐसे कामो के लिए।
इसलिए आज सरकार को बहुत ही सावधानी से जनता को इस अनिश्चय की स्थिति से निकालकर आम जीवन को सामान्य करने की दिशा में पहल शुरू कर देनी चाहिए .

Sunday, November 15, 2009

एन डी टी वी (अंग्रेजी )चैनल में हिन्दी की उपयोगिता पर निरर्थक बहस

आज शाम आठ बजे, टी वी चैनल - एन डी टी वी -(अंग्रेजी) में परिचर्चा का एक कार्यक्रम आयोजित था । विषय था -
हिन्दी का मुद्दा। जाहिर है की यह प्रसंग हाल ही के मुम्बई विधान सभा प्रकरण से जुदा हुआ है । ऐसे टी वी चैनल ऐसे ही विवादास्पद विषयों को बहस का मुद्दा बनाकर वाहियात किस्म के विचारों का प्रसार जान बूझा कर देशा भर में फैलाते हैं। ऐसे ऐसे लोगों को वे अपने पैनल में रखते हैं जिनको न ही भाषा की राष्ट्रीयता का बोधा होता है और न ही हिन्दी या भारतीय भाषाओं के प्रति कोई राष्ट्रीय चेतना ही होती है। सारे अंग्रेजी दम लोग अंग्रेजी में हिन्दी भाषा के राष्ट्रीय महत्व अधूरी जानकारियों के सहारे और बिना किसी प्रतिबद्धता के बयानबाजी कर रहे थे । आश्चर्य की बरखादत्त जैसी वरिष्ठ टी वी पत्रकार भी हिन्दी और भारतीय भाषाओं के प्रति इतना सीमित ज्ञान रखती हैं। हिन्दी की कोई राष्ट्रीय अस्मिता ही नहीं - यही घोषित किया अंत में सारे प्रबुद्ध लोगो ने। इस चर्चा कार्यक्रम में माननीय अशोक वाजपेयी जी भी दिखाई दी लेकिन वे बहुत ही निरीह से लगे। उनकी बात कोई सुनाने को तैयार ही नही था
सभी लोगों ने अंत में एकमत से अंग्रेजी को ही भारत की संपर्क भाषा घोषित किया और कहा की अंग्रेजी से ही भारत का उत्थान होगा और अंग्रेजी ही देश की एकता को सुरक्षित रख सकती है. खुले आम हिन्दी और भारतीय भाषाओं की धज्जिया उडाई गयी । भारतीयता का न ही कोई बोध था, किसी में और न ही हिन्दी के प्रयोग के बारे में कोई जानकारी ही थी उन लोगो के पास. सभी लोगों ने हिन्दी को ही देश की समस्याओ का मूल कारण बताया और इससे जल्द से जल्द निजात पाने का फरमान घोषित कर दिया । वाह रे वाह भारत के बुद्धिजीवी और वाह रे वाह एन डी टी वी चैनल। धन्य हो बरखादत्त .

Saturday, November 14, 2009

हैदराबाद के अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में हिन्दी एवं भारत अध्ययन विभाग की स्थापना

हैदराबाद स्थित, अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो अभय मौर्य के सत्प्रयासों और भारत सरकार के अनुमोदन से हिन्दी एवं भारत अध्ययन विभाग की स्थापना हुई है . यह विभाग बहुत जल्द अपने विशेष पाठ्यक्रमो के साथ अध्यापन और शोध कार्य का शुभारम्भ करेगा । इस विभाग की स्थापना के प्रथम चरण में विभाग के लिए प्राध्यापकों की नियुक्तियां हो गई हैं । प्रो एम वेंकटेश्वर ( उस्मानिया विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष ) इस विभाग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए हैं । विभाग के अन्य प्राध्यापक सदस्य -
डा रसाल सिंह ( दिल्ली ), डा रेखा रानी ( हैदराबाद ) - रीडर , डा प्रोमीला ( दिल्ली ), डा अभिषेक रोशन ( दिल्ली) ,
डा प्रियदर्शिनी ( बनारस ) और डा श्यामराव राठौड़ ( हैदराबाद ) - लेक्चरर हैं ।
अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में हिन्दी और भारत अध्ययन विभाग का गठन देश की मौजूदा शैक्षिक
स्थितियों में चुनौतीपूर्ण और उल्लेखनीय है. यहां हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन और अध्यापन एक नई दृष्टि के साथ सम्पन्न करने का लक्ष्य लेकर शोध की दिशा निर्धारित करने का प्रयास किया जाएगा . भारतीय भाषाए और उनका साहित्य, इतिहास, संस्कृति, व्याकरण और काव्यशास्त्र की परम्पराओं को अध्ययन के शामिल किया जाएगा । यह एक अन्तर अनुशासनिक अध्ययन का केन्द्र होगा . हिन्दी भाषा को विदेशी भाषाओं और भारतीय भाषाओं से समन्वित करते हुए पाठ्य विषयों का निर्माण किया जायेगा । अनुवाद, मीडिया-अध्ययन, भाषिक अनुप्रयोग, साहित्य के पुनर्पाठ , सृजनशील लेखन, भारतीय साहित्य के संस्कृतिक अध्ययन अदि पर अधिक बल दिया जायेगा । राष्ट्रीय स्तर पर विशेषग्यों की सहायता से पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। इस विश्वविद्यालय में हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्यापन को नवीन आयाम प्रदान करने की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं। एक बहुत ही नए कलेवर में यह विभाग शैक्षिक जगत में अपनी विशेष पहचान बनाएगा .

चीन का आर्थिक आक्रमण

चीन का बढ़ता हुआ वर्चस्व आज सारे विश्व के लिए एक चुनौती बन गया है। वह न केवल एशिया में बल्कि सारे विश्व में अपना दबदबा दिखाना चाहता है । इसमें वह सफल हो रहा है। बीजिंग में आयोजित ओलम्पिक खेल इसी वर्चस्व स्थापना का ही एक प्रयास था । वह सम्पूर्ण विश्व को अपनी उपस्थिति का आभास कराना चाहता है। इसके लिए वह हर तरह की साजिश और चाल चल सकता है और वह यही कर भी रहा है। उसकी पास जनसंख्या के रूप मेम्म मानव शक्ति अपार है। वह अपनी सम्पूर्ण मानव शक्ति का प्रयोग अपने छोटे और बड़े उद्योगों में लगाता है. पड़ोसी देद्शो की आर्थिक और उत्पादन क्षमता को तोड़ने का वह बहुत ही संगठित प्रयास करता है। आज हमारे देशा में खिलौने, घरेलू ज़रूरत की छोटी और बड़ी चीजें अति सस्ते दामो में उपलब्ध कराता है. उस कीमत पर हमारे देश में हम कुछ भी नही उत्पादन कर पा रहे हैं । परिणाम - साफ़ है की हम सस्ते में मिलने वाली चीजों की ओर आकर्षित होकर चीन का ही माल ख़रीदते हैं । चीनी माल भारत में हर छोटी बड़ी दुकानों पर भारी मात्रा में उपलब्ध है । भारतके पास इसका कोई जवाब नही है। भारतीय उपभोक्ता और उत्पादक भी मजबूर हो गए हैं की वे चीन की इस आर्थिक नीति को चाहे अनचाहे स्वीकार कर लें और अपना व्यापार चीन से ही करें । आज सभी विकासशील देशोम्म की वाणिज्यिक मंजिल चीन ही है ( शंघाई या बीजिंग ) दिवाली के अवसर पर यह देखकर आश्चर्य हुआ कि दीये और पटाखे भी मेड इन चाइना आ गए हैं । भारतीय पारंपरिक आवश्यकताओं को पूरा करना भी चीन सीख गया है . चप्पल,जूते, कपडे से लेकर इलेक्ट्रानिक उपकरणों तक सभी मेड इन चाइना - बिक रही है । और वह भी सस्ते में । भारतीय उत्पाद जब चीनी उत्पाद से महंगा हो तो उसे कौन खरीदेगा ? भारत सरकार की आर्थिक और बाज़ार की नीतियां क्या हैं ? आयात और निर्यात के नियमों में क्या संशोधनों की आवश्यकता नही है ? आज देशा के सामने चीन से निपटने की चुनौती सभी मोर्चो पर सबसे ज्यादा है । चीन हमारा प्रतिद्वंद्वी भी है और दोस्त के रूप में बहुरुपिया भी । उस पर विश्वास करना दिशा के हित को खतरे में डालना ही है .
सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की क्यो न हो, राष्ट्रीय हित में अपनी नीतियों को बदलना होगा और उसे अधिक कारगर और विश्वस्त बनाना होगा । आज चीन का मुद्दा देशवासियों के लिए गहरे चिंता का विषय बन गया है .

Friday, November 13, 2009

चीन और भारत का सीमा विवाद - एक आंख मिचौनी

इधर निरंतर समाचार पत्रों में चीन और भारत के बीच कभी अरुणाचल प्रदेश तो कभी तिब्बत और कभी कश्मीर को लेकर विवाद उठते ही रहे हैं । लेकिन इन विवादों का कोई भी सही हल नहीं निकल रहा है . सरकार की चीन संबंधी कूटनीति बहुत ही अस्पष्ट और तुष्टिकरण की रही है। और इधर देशवासी परेशान हैं। उनकी भावनाए दिन पर दिन आहत होती जा रही हैं, लेकिन इसकी किसी को परवाह नहीं है। राजनेता लोग क्या कर रहे हैं जिनको देश के प्रशासन की, आतंरिक और बाहरी सुरक्षा की जिम्मेदारी जनता ने सौंपी है। हमारे देशा के चारों तरफ़ से सिम विवादों ने घेर रखा है। यह सत्य अब किसी से नहीं छुपा है कि पाकिस्तान के साथ उत्तर पश्चिम में चीन के साथ उत्तर-पूर्व में बंगला देशा के साथ पूर्व में हमारी सीमाएं सही रूप अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी मान्य नहीं हैं और उन्हें विवादित घोषित कर दिया गया है । हम (हमारी सरकारें ) बरसों से ( आज़ादी के बाद से ) इन विवादों को सुलझाने के बदले ताल-मटोल करती हैं। जिससे सीधे संघर्ष कि स्थित न उत्पन्न होने पावे। लेकिन इसका समाधान तो हमें ही खोजना होगा । आखिर कब तक यह यथास्थितिवाद चलता रहेगा। चीन ने अपना उद्देश्य परोक्ष रूप से स्पष्ट कर ही दिया है कि अरुणाचल प्रदेश चीन का भूभाग है जिसे भारत हथियाना चाहता है । ऐसे दुष्प्रचार से चीन को लाभ ही मिल रहा है । अंतर्राष्ट्रीय जगत तो उसी की बात मान रहा है .चीन ने पाक अधिकृत काश्मीर को पाकिस्तान के नक्शे में दिखा रहा है और हम कुछ नही कर सकते. चीन की इन हरकतों से देशा की जनता क्षुब्ध
है । क्या हम चीन और पाकिस्तान की भारत विरोधी विचारधारा और हमारी सीमाओं के अतिक्रमण को इसी तरह नज़र अंदाज़ करते रहेंगे ? क्या हम अपनी आतंरिक सुरक्षा के लिए और अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए कोई ठोस कदम नही उठा सकते ? यदि बातचीत से कोई कोई समाधान नही निकलता है तो क्या सैन्य कार्रवाई करना देशा के हित में ग़लत होगा ? आज देश इन सवालों का जवाब चाहता है .

Monday, November 9, 2009

कवीन्द्र रवीन्द्र के द्वारा रचित राष्ट्र गान के पाठ में अर्थ विभ्रम/स्पष्टीकरण

इधर कुछ महत्वपूर्ण संस्थाओं और विद्वानों के द्वारा टैगोर रचित राष्ट्रगान के पाठ की पुनर्व्याख्या की जा रही है ।
जो लांछन इस गीत पर लगा है की यह गीत जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा/लिखवाया गया था, इस कलंक को मिटाने का भरसक प्रयास सत्ताधारी बेटा कराने में काफी दिनों से लगे हुए हैं .इस विषय पर काफी परिशोधन भी हो रहा है। अभिलेखागारों से पुराने दस्तावेज़ निकालकर खंगाले जा रहे हैं। अनेक प्रकार के प्रमाणों को जुटाने के प्रयास जारी हैं .इस विषय को सही रूप से समझने के लिए दिनांक ८ नवम्बर २००९ के ' स्वतंत्र वार्ता ' ( हिन्दी समाचार पत्र -रविवारीय पन्ना ) पठनीय है । यह लेख अत्यन्त सारगर्भित और मौलिक स्थापनाओं सहित लिखा गया लेखा है। यह लेख इस विषय से जुड़े अनेक भ्रमो को दूर कर सकता है. इस लेख में इसे स्पष्ट कर दिया गया है कि प्रस्तुत गीत (जिसे स्वतंत्र भारत में राष्ट्र गान का दर्जा मिला है ), यह निश्चित ही जार्ज पंचम के स्वागत में ही लिखवाया गया था - कांग्रेस पार्टी के द्वारा । इस गीत में अधिनायक की जय जयकार करवाई करवाई गयी है। यहां अधिनायक 'सम्राट जॉर्ज पंचम ही हैं । इस लेख में इस तथ्य का भी खुलासा किया गया है कि अधिनायक शब्द की व्याख्या रवीन्द्रनाथ से ' ईश्वर ' के अर्थ में एक पत्र के माध्यम से करवाई गयी थी ( केवल आलोचना से बचने के लिए )। अब यह सत्य भी उजागर हो चुका है । लेकिन यह व्याख्या अपने आप में असंगत है और अमान्य भी । ' गाहे तव जय गाथा ' - पंक्ति पर यदि विचार करें तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है। ' यहाँ जय गाथा - सम्राट जॉर्ज पंचम ' ही की है , न कि ईश्वर की ? तब फ़िर यह जय गान सम्राट के प्रति नही तो और किसके प्रति है ?
इस लेख के लेखक दा राधेश्याम शुक्ला हैं जिन्होंने अप्रतिम प्रयासों से खोज पूर्ण दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है। उनके इस प्रयास के लिए वे साधुवाद के पात्र हैं.

वदेमातरम - गीत की सार्थकता और प्रासंगिकता

समय समय पर हमारे देश में जो कुछ निर्विवाद और अविवादित रहता है उसको भी विवादो के घेरे में ले आने का एक प्रचलन सा हो गया है । विवाद पैदा कराने के इई नए नए मुद्दे ढूढे जाते हैं, और बलपूर्वक कुछ मान्यताओं को स्वत:सिद्ध सत्यो को झुठलाकर उन्हें तोडमरोडकर , ग़लत व्याख्या कर समूचे प्रसंग को विकृत कर दिया जाता है। इन दिनों ऐसा ही निरर्थक प्रयास ' वंदे मातरम ' गीत के साथ किया जा रहा है। वंदे मातरम गीत में वंदे शब्द के अर्थ की चीर फाड़ हो रही है। मुसलमान भाई इसे ताभी स्वीकार करेंगे जब इसका अर्थ पूजा न होकर और कुछ हो क्यों कि पूजा या इबादत उनके धर्म में कुफ्र होता है ( ईश्वर निंदा ) । मातृभूमि शब्द में उन्हें मूर्ति पूजा का आभास हो जाता है इसलिए वे इस शब्द से नफ़रत करते हैं। अब उन्हें कौन बताएगा कि वंदे - शब्द का अर्थ महज - सलाम करना होता है ।' माँ तुझे सलाम। ( ऐ आर रहमान ने भी वंदे मातरम गीत के लिए संगीत दिया है और एक अलग से गीत लिखवाया भी है, जिसमें वे इस अभिव्यक्ति का इस्तेमाल करते हैं जिसे सारे देश ने सराहा है .क्या माँ को सलाम नही किया जाता ? नमन करना, सम्मान के भाव को व्यक्त करना होता है । ' सम्मान ' के अर्थ में ही वंदे शब्द का प्रयोग हुआ है- अन्य कुछ नहीं. राष्ट्र को सम्मानित कराने वाले हर प्रतीक का सम्मान करना हर देशावासीका प्रथम कर्तव्य है .राष्ट्रीय प्रतीकों को धर्म, मज़हब और साम्प्रदायिकता से अलग करके ही देखना चाहिए। यदियः देश सबका है ( हिंदू,मुसलमान, सिखा, ईसाई ) तो सभी को समान रूप से इन राष्ट्रीय चिह्नों के प्रति अपने भीतर से संवेदनाओं को जगाना ही होगा। इस विवाद को यहीखातं करा देना चाहिए.

हिन्दी की अवमानना / राजा नेताओं की ज्यादती

बहुत गहरे दुख के साथ महाराष्ट्र विधान सभा में आजके हादसे का आकलन करना पड़ रहा है । क्या हो गया है हमारे राज नेताओं को ? कौन सी मिसाल कायम करना चाहते हैं वे ?राष्ट्रीयता, देशा की अखंडता, परस्पर मैत्री और सौमनस्य का भाव कहां गया ? विधान सभाओं और संसद में सदस्यों को हिन्दी या अंग्रेजी अथवा अपनी मातृभाषा में बोलने का संवैधानिक अधिकार है । इसे कोई नहीं रोक सकता। मुंबई में विधान सभा में घटित अज की घटना ने
सारे देशा वासियों को हिला कर रखा दिया है। अबू आज़म नामक विधायक पर एम एन एस पार्टी के विधायकों द्वारा भरी सभा में हमला, वह भी केवल इसलिए की वे अपना शपथ हिन्दी में ले रहे थे जो की उनका और प्रत्येक देशवासी का संवैधानिक अधिकार है । खुले आम टी वी के प्रत्यक्ष प्रसारण में सारा देश इसे देखा रहा था । हिन्दी जो की राष्ट्र भाषा है और केन्द्र सरकार की घोषित ( संविधान में ) राजभाषा भी है, इसकी अवहेलना और अपमान, यह देशा का अपमान है और यह अपराध देशद्रोह का अपराध है। ऐसे देश द्रोहियोम को सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए। राष्ट्रीयता सबसे ऊपर होती है और उसके बाद ही प्रादेशिकता या प्रांतीय भावनाओं के लिए हमें सोचना चाहिए। इसका कदापि यह अर्थ नहीं है की हम अपने प्रदेश की भाषा की उपेक्षा करें । लेकिन हिन्दी बनाम भारतीय भाषाओं की समस्या को शांतिपूर्ण तरीकों से सुलझाया जा सकता है । हिंसा के लिए तो हमारे संविधान में और भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में कही भी स्थान ही नहीं है। यह अत्यन्त दुखद और आक्रोशपूर्ण घटना घटी है ।
एम एन एस के कार्यकर्ता केवल देशा में आतंक फैलाने के लिए विधान सभा जैसे लोकतंत्र के मंच पर आक्रमण करके यह सिद्धाकरना चाहते हैं की उन्हें इस देशा के लोकतंत्र में किसी भी प्रकार का विश्वास नहीं है. वे अपनी एक अलग और समानांतर आतंकी प्रशासनिक ढांचा तैयार करना चाहते हैं । देशा वासियों को ऎसी हरकतों का डटकर मुकाबला करना होगा और हमें अपने लोकतंत्र की रक्षा करनी होगी । हम आज के जघन्य, पाशविक हिंसात्मक हमले की कडी निंदा करते हैं। देशा वासियोम्म के बीच भाषा भेद पैदा करके आख़िर ये स्वार्थी राजनेता कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे.

Thursday, September 17, 2009

विदेश राज्य मंत्री की भद्दी टिपण्णी के प्रति -

आजकल के राजनितिक खामोखाह अकारण विवादों में फंस जाते हैं । बड़े बड़े राजनीतिक, श्री शशि थोरुर जैसे
आई ऍफ़ एस अधिकारी, जो उच्च कोटि के राजनयिक रह चुके हैं , ऐसे लोग भी सार्वजनकि जीवन में आकर अपनी जिम्मेदारी भूल जाते हैं और गैर जिम्मेदारी से बेतुकी और असंगत लेकिन मर्यादाहीन बयानबाजी करते हैं । शशि थोरुर विदेश राज्य मंत्री के महत्वपूर्ण ओहदे पर रहकर, इकोनोमी श्रेणी में यात्रा कराने वाले विमान यात्रियों को पशु -
वर्ग के यात्री कहना, कितना दुर्भाग्यपूर्ण है ? क्या उनको इतनी भी सोच नहीं है की ऐसे कथन देस वासियों की भावनाओ को ठेस पहुंचा सकते हैं । क्या उनकी नज़र में सरे वे यात्री जो किफायती श्रेणी में विमान में यात्रा करते हैं,
वे सब जानवर हैं ? यह तो देशवासियों के स्वाभिमान पर सीधा हमला हुआ. फ़िर तो माननीय मंत्री महोदय को भारतीय विमानों में से इकोनोमी श्रेणी हटवाकर सबके लिए प्रथम श्रेणी की व्यवस्था करवा देने की मुहिम छेड़ देनी चाहिए . लोगों का भी भला होगा. लोग उन्हें याद रखेंगे . जो भी हो उनकी यह टिपण्णी घोर आपत्तिजनक है, और उ न्हें इसके लिए शर्मिंदा होना चाहिए ।

' Cattle Class' - paradigm.

It is sad to note the unwanted comment made by Shashi Thorur, Minsiter for State, MEA, regarding the Economy class in the air travel in India. If he feels and feels strongly that the economy class in Indian air borne flights are all 'cattle class', then he should request the DGCA to issue directives to all Air Lines to abolish this so called Cattle Class ( Economy ) in their Air Crafts and create only Club/Business/First class accommodation and make the same available to all the air passengers, who travel in domestic sectors. How nice it would be to serve the nation in this way by upgrading the enitre fleet in the country. People will be ever grateful to the magnanimity of Shri Shashi Thorur, on this occasion. If this is not possible, why should he come out with thid kind of stuff. He may be greeted with appreceation for his elite expression, which obviously insults the spirit of Indians who largely travel or forced to travel in that so called 'Cattle Class' only, whioch offcourse is not uncomfortable, as the Honble minister is imagining. And his expression does not end here, he further continues the sentence by adding ' travelling with holy cows'. who are these so called holy cows, let him explain to the high command and the Prime Minister, and to the Nation.
Today nation is asking him a question, whether he agrees to what he has said ? If yes, is he ready to quit the cabinet ? and become a common man ? or is he ready to apologise for what he has said ? he seems to be frustrated to leave that five star Hotel at the behst of Finance Minister and High Command !! But this is not the way to release the fumes. He has committed a grave mistake. he should be more careful in future while reacting to his own situations.
Such politicians should be kept away from public, and should not be allowed to speak in public, because the do not know what they are speaking ! His observation/comment is unpardonable.

Friday, September 11, 2009

उत्तर प्रदेश सरकार को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश

मायावती सरकार को सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश भेजा गया है की उत्तर प्रदेश में, विशेषकर लखनऊ महानगर में पिछले कुछ बरसों से नए बाग़ बचीचो के साथ उनमें संगमरमर की मूर्तियों और पार्टी के चुनाव चिह्न हाथी की जो मूर्तिया बड़े पैमाने पर बनवाई जा रही हैं जिसके निर्माण के लिए मायावती सरकार करीब २६०० करोड रुपये खर्च कर चुकी है या कर रही है, इस खर्च पर अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने आज आपत्ति जताई है और सम्बंधित निर्माण कार्य तत्काल रोक देने के आदेश दिए हैं । प्रदेश सकल घरेलू उत्पाद जब की केवल दो प्रतिशत ही है तो सरकार इतना बड़ा खर्च किस मद से कर रही है ? इस सवाल का जवाब सरकार नही देना चाहती है । यह कैसी सरकार
है ? प्रदेश और समूचे देश में गरीबी उन्मूलन का सपना देखा जा रहा है। निरक्षरता, बेरोज़गारी, अकाल, जैसी घोर संकट की स्थिति से सारे देशवासी जूझ रहे हैं और दूसरी ओर दींन-दलितों की मसीहा कहलाने वाली राजनेता ही ख़ुद ऐसे प्रदर्शनकारी योजनाओं में जनता का इतना पैसा खर्च कर रही हैं तो यह सोचने का विषय है .इस सारे प्रकरण ने राष्ट्रीय स्तर पर लोगो का ध्या आकर्षित किया। इस मुद्दे पर सारे देश भर में चर्चा हो रही है लेकिन हर कोई बेबस और लाचार दिखाई दे रहा है । समाज का एक वर्ग मायावती के इस काम का और खर्ची का समर्थन भी कर रहा है और इस निर्माण परियोजना की तुलना अन्य पार्टियों के राजनेताओं के स्मारकों के निर्माण की लगत से कर रहा है और अपने कार्य के औचित्य को सिद्ध कराने की कोशिश में लगा हुआ है । एक राज नेता जब तानाशाही रूप धारण कर लेती है तो नतीजा यही होता है। ऐसे लोग किसी सिस्टम की परवाह नही करते। देखना है की सुप्रीम कोर्ट कहां तक मायावती सरकार के किए हुए को नकार कर रद्द घोषित कर सकती है और जो खर्च सरकारी खजाने से हुआ है उसकी भरपाई करने के लिए आदेश दे पाती है या नहीं । कैसे यह मामला सुलझता है ?

मंत्रियों को सादगी के रास्ते अपनाने के निर्देश

आज की सबसे बडीखबर, वित्त मंत्री द्वारा सहमंत्रियो को यात्रा के दौरान देश में अंतर्देशीय उड़ानों में इकोनोमी दर्जे में यात्रा कराने के निर्देश/सलाह दिए गए हैं । सरकार की यश सलाह अथवा निर्देश जनता की दृष्टि से स्वागत योग्य हैं और उम्मीद की जाती है कि मंत्री गण इस निर्देश/सलाह पर अमल भी करेंगे । वैसे राजनेताओं में खलबली मची हुई है । नाराज़गी भीकुछ लोगो ने ज़ाहिर की है लेकिन यह नाराज़गी परोक्ष ही है .ऐसा पहली बार हुआ है कि सरकार की और से वित्त मंत्री ने इस प्रकार की हिदायत मंत्रियों को दी हो । साथ ही पांच सितारा होटलों में होने वाले आयोजनों पर भी सरकार ने लगाम कसी है । इन महंगे होटलों में संगोष्ठियों , बैठकों और अन्य तरह के समारोहों के आयोजन पर भी रोक लगाने के निर्देश जारी किए हैं । यह भी एक महत्वपूर्ण कदम है। देखना यही है कि हमारे प्रबुद्ध और होशियार राजनेता इस पर कितना अमल करते हैं ? हमारे देश में इस बीच पांच सितारा संस्कृति बड़ी तेजी से विकसत हुई है और अपना जाल राजनेताओं के दैनिक जीवन का हिस्सा बना चुकी है .इन लोगो के लिए ऐसे बड़े होटल घर आंगन की तरह हो गए हैं , जनता के पैसो को यहां पानी की तरह बहाया जाता है.
आशा की जाती है कि इस तरह के निर्णय से राजनीतिको के व्यवहार में कुछ बदलाव आयेगा.

Thursday, September 10, 2009

विदेशमंत्री की शाही विलासिता

धन्य है हमारे देश के राजनेता जो मंत्री की कुर्सी पर बैठते हैं . मंत्री बनते ही जैसे उन्हें जनता के धन को खुले आम लूटने की छूट मिल जाती है. क्या वे इतने भोले हैं कि वे जनता को भी अपनी ही तरह अबोध और पोंगा पंडित समझते हैं ? जैसे बिल्ली आंख बंद करके दूध पीती है और समझती है कि कोई उसे नहीं देख रहा है . हमारे ग्रेट विदेश मंत्री श्री एस एम् कृष्ण जी भी ऎसी ही बिल्ली बने हुए हैं इन दिनों .उन्हें किसी की परवाह नही है। रहते पंच सितारा या सप्त सितारा होटल में , दिल्ली में - ऑन ड्यूटी - और जो ऑन ड्यूटी होता है उसे पूरी छूट है कि वह शासन तंत्र का उपयोग अपनी इच्छानुसार कर सकता है। ऑफ कोर्स यह लोकतंत्र है। भारत का गरीब लोकतंत्र । इस गरीब देश का विदेशा मंत्री कैसे देश की गरीबी को सीने से लगाए और क्यों वह मामूली से सरकारी बंगले में निवास करे । वह विदेश मंत्री है इसलिए उसे विदेशी शानो -शौकत से जिंदगी गुजारने का पूरा पूरा हक़ है . हमारे महा मंत्री अपना यही विशेषाधिकार को अमल में ला रहे हैं । देश की इज्ज़त का सवाल है , सर जी, विदेशी मेहमानों की भी तो आवभगत सरकारी खर्चे पर करनी पड़ती है , इसके लिए उनके पास सही आधार भूत ढांचा भी तो होना चाहिए । इसी की तो कृष्णा साहब जुगाड़ कर रहे थे । जनता ने और मीडिया वालो ने क्यों उन्हें टोका ?
अगर वे बुरा मान गए तो भारत की सारी विदेश नीति गडबडा जायेगी . पड़ोसी दोस्तों से संबंध बिगड़ जायेंगे और देश का माहौल भी ख़राब हो सकता है। अन्तर राष्ट्रीय संबंधो को पुख्ता बनाने के लिए हमारे विदेश मंत्री को ऐशो - आराम का माहौल मुहैया कराना भारत की जनता का प्राथमिक दायित्व है। इसे जनता को नही भूलना चाहिए -शायद . अखबार में इस समाचार को पढ़कर बहुत बुरा लगा। टी वी के समाचार चैनलों में भी कल रात से ही यह समाचार पसारित हो रहा था। बहुत शर्मनाक व्यवहार है मंत्री महोदय का और उनके मातहत (राज्य ) मंत्री का भी ( शशि थोरूर का ) क्या चरित्र पाया है इन लोगों ने । एक तो उनमें से आई ऐ एस /आई ऍफ़ एस अधिकारी भी हैं.
आभिजात्य वर्ग के लोग से दिखते हैं लेकिन इतने छिछोरे होंगे यह मालूम न था . उन्हें इस बात का भी शौउर न रहा कि देश की वर्त्तमान आर्थिक हालत खस्ता है, देश के अधिकांश हिस्सों में अकाल और दुर्भिक्ष का साया मंडरा रहा है, आम आदमी को दो वक्त की रोटी नसीब नही हो रही है। पीने के पानी की भारी किल्लत है ( लगभग सभी शहरों और गांवो में )। ऐसे संकट के समय में ये जनता के प्रतिनिधि सारी नैतिकता का हनन करके निर्लज्ज बनकर राजधानी के सबसे आलीशान होटल ' आई टी सी मौर्या' के प्रेसिडेंशियल सूट में रहने का साहस जुटा लेते हैं . ये जिस सूट में रह रहे हैं वह सामान्यतः राष्ट्राध्यक्शो और अतिविशिष्ट मेहमानों के लिए रखे जाते हैं। समाचार पत्रों के माध्यम से भी यह भी मालूम होता है कि इसी सूट में जोंर्ज बुश और राष्ट्रपति क्लिंटन भी रह चुके हैं । ऎसी व्यवस्था के किराए नही बताये जाते, सरकार ही उनका भुगतान करती है। वित्त मंत्री के द्वारा इन दोनों मंत्रियों की जब खिंचाई की गयी तो इन लोगो ने एक और सफ़ेद झूठ बोल दिया कि वे अपने खर्चे पर उस होटल में ठहरे हुए हैं . अनुमान है कि उस कमरे का किराया एक लाख रुपये प्रति रात्रि है। मंत्रियों की विलासिता की और क्या सीमा हो सकती है ? सरकार एक तरफ़ किसानो की दू;स्थिति पर चिंता व्यक्त कर रही है दूसरी तरफ़ उनके मंत्री गण जनता के पैसें पर गुलछर्रे उडा रहे हैं । ये कैसा न्याय है ? सरकार कब ऐसे ऐयाश राजनीतिको को सज़ा देगी जिससे वे आगे ऎसी हरकत कराने से बाज आयें । ऎसी हरकत करने की कल्पना भी न कर सकें . जनता तो केवल उम्मीद ही कर सकती है। जनता का आक्रोश सरकार और राजनीतिक दलों तक तो ज़रूर पहुंचा है. अब देखना है कि इसका असर क्या होता है ? इन मंत्रियों को अपने किए पर जनता से माफी मांगनी चाहिए और अपने व्यवहार के लिए खेद जताना चाहिए. ( कम से कम )। मंत्रियों के इस गैर जिम्मेदार रवैये से जनता बहुत आहत हुई है और नाराज़ भी है.

Tuesday, September 8, 2009

प्रदेश में नायकत्व को लेकर राजनीतिक संकट गहरा रहा है

दिवंगत मुख्य मंत्री डा राजशेखर रेड्डी के स्थान पर नए मुख्य मंत्री के चयन को लेकर राज्य की राजनीति गरमा गई है। एक विचित्र सी दबाव की राजनीति खेली जा रही है। दिल्ली में बैठे कांग्रेस की रणनीतिकारों के लिए यह स्थिति चुनौती बन गयी है । गतिरोध की स्थिति पैदा होने के खतरे नज़र आ रहे हैं। दिवंगत नेता के सम्मान में घोषित शोक काल की समाप्ति से पहले ही नेता लोग कुर्सी की होड़ में लगा गए हैं। और यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि राजनीति केवल अपनी अपनी कुर्सी बचाने के लिए हो रही है और भावी मुख्य मंत्री पद के उम्मीदवार के समर्थको का दबाव बढ़ता ज आ रहा है। एक आन्दोलन की स्थिति पैदा की जा रही है .दिवंगत नेता के सुपुत्र के पक्ष में कांग्रेसी दल का एक वर्ग अभियान चला रहा है। संवेदना की लहर का लाभ कांग्रेस की आला कमान पूरी तरह से लेना चाहेगी । इसके लिए ही दिल्ली में वैचारिक मंथन हो रहा है। आंध्र प्रदेश का भविष्य दिल्ली वाले के हाथो में है. वंशानुक्रम की राजनीति अगर आला कमान को स्वीकृत हो जाए तो निश्चित ही पूर्व मुख्य मंत्री के सुपुत्र ही गद्दी पर बैठेंगे । यह आम जनता क्या चाहती है इसकी किसी को चिंता नही है. कुछ इने गिने राजनीतिको की राय को ही आम जनता की राय घोषित कर दिया जाएगा। ( जैसा कि विभाजन के समय हुआ था )
असमय और अकस्मात घटित जानलेवा हादसे ने समूचे शासन तंत्र को हिला कर रख दिया है। हालाकि किसी भी व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति अपरिहार्य नही होता लेकिन कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपनी कार्यशैली से स्वयं को व्यवस्था के लिए अनिवार्य सिद्ध कर सकते हैं . पूर्व मुख्य मंत्री डा राजशेखर रेड्डी का वर्चस्व ऐसा ही बन गया था .इसीलिए उनके लिए स्थानापन्न नेता को तलाशना कठिन हो गया है.
प्रदेश में राजनीतिक सरगर्मिया तेज़ हो गयी हैं। देखना है आने वाले दिनों में क्या होता है.केवल उम्मीडी ही कर सकते हैं कि जो भी होगा अच्छा ही होगा। एक उत्तम कोटि का ही नायक हमें मुख्य मंत्री के रूप में मिले जो जनता की समस्याओं को सहानुभूति के साथ सुलझा सके.

Sunday, September 6, 2009

शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में -

शिक्षक दिवस के सन्दर्भ में मन मे बहुत सारे विचार आ रहे हैं .शिक्षक दिवस की सार्थकता और महत्व पर आज विचार किया जा सकता है .यह एक महान राजनयिक, दार्शनिक, संस्कृत के महापंडित और एक आदर्श शिक्षक के जन्म दिवस को सम्मानित करने का अवसर है. महान थे वे महापुरुष जिनका नाम लेते ही वेद, उपनिषद और गीता के भाष्य की गूंज सर्वत्र प्रतिध्वनित होने लगती है . उनका व्यक्तित्व सात्विकता और संतत्व का विलक्षण सामंजस्य था. शुभ्र धवल परिधान में सिर पर श्वेत पगडी धारण किये हुए डा सर्वेपल्लि राधाकृष्णन भारतीयता के मूर्त स्वरूप थे . भारतीयता उनके व्यक्तित्व में कूट कूट कर भरी हुई थी . वे वैदिक संस्कारों से युक्त शास्त्रों के आजीवन गहन अध्येता बने रहे , उनका जीवन सादगी और उच्च चिन्तन का असाधारण सम्मिश्रण था . अंग्रेज़ी साहित्य और दर्शन के वे आचार्य थे . अनेकों विश्वविद्यालयों में उन्होंने आचार्यत्व का दायित्व निर्वाह किया था . अत्यन्त लोकप्रिय और गम्भीर शिक्षक के रूप में वे सदैव पहचाने गये . बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर आसीन हुए और उन्होंने अपने पांडित्य पूर्ण गुरु - गम्भीर शैक्षिक नायकत्व से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक जगत में विशेष प्रतिष्ठा उपलब्ध कराने में सूत्रधार बने. एक महान राजनयिक के रूप में उनकी ख्याति दिगदिगन्त में व्याप्त थी . वे पं जवाहरलाल नेहरू के प्रिय राजनयिक बने . रूस के साथ भारत के संबंधों को सुदृढ बनाने के लिए विशेष रूप से नेहरू जी ने उन्हें रूस का राजदूत नियुक्त किया था . डा राधाकृष्णन ने अपनी सूझ-बूझ से स्टालिन जैसे उग्र और आक्रामक प्रकृति के तानाशाह को भी अपनी आत्मीयता से जीत लिया था . डा राधाकृष्णन की वाग्मिता शक्ति अपूर्व थी. संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषा दोनों पर उनका समान अधिकार अच्छे अच्छे वक्ताओं को चाकित कर देता था .भारतीय संस्कृत, हिदुत्व और सनातन धर्म जैसे आध्यात्मिक विषयॊं पर उनके व्याख्यान विश्व कोटि के माने जाते थे . वे एक आदर्श शिक्षक ( गुरु ), कुशल प्रशासक, सफल राजनयिक और महान देशभक्त नेता थे . उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति दोनों पदों पर उनके वर्चस्व ने देश को गौरवान्वित किया . उन्होंने देश के शिक्षकॊं को सम्मानित करने के लिए ही अपने जन्म दिन को शिक्षकॊं को समर्पित कर दिया और इस तरह उनका जन्म दिन देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है. शिक्षक दिवस, शिक्षकों को गौरवान्वित करने का दिन माना गया है. समाज से अपेक्षा की जाती है कि ५ सितम्बर के दिन ( जो कि डा राधाकृष्णन काजन्म दिवस है ) शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में शिक्षकॊं की सेवाओं के लिए उन्हें सम्मानित कर उनके योगदान को स्मरित करें . शिक्षकॊं की सेवाओं का मान करें और उनके प्रति अपनी कृतग्यता ग्यापित करने का प्रयास करें .
लेकिन इसी सन्दर्भ में शिक्षकों का भी यह कर्तव्य है कि वे स्वयं आत्मानुशीलन करें. क्या उन्होंने वास्तव में समाज की उस रूप में सेवा की है जो उनसे अपेक्षित है ? आज शिक्षक का स्वरूप क्या है ? शिक्षक और गुरु में क्या कोई भेद है ? क्या ये दोनों शब्द एक ही बोध कराते है ?
आज हमारे समाज में शिक्षकॊं को वही आदर और सम्मान प्राप्त होता है, जिसके वे हकदार हैं ? आज की भारतीय़ शिक्षा प्रणाली में शिक्षक का क्या स्थान है ? कहीं वह धीरे धीरे शिक्षा के परिवेश से कटता तो नहीं जा रहा
है ? समाज शिक्षक को किस दृष्टि से देखता है आज ? क्या आज शिक्षक समाज से आदर और सम्मान प्राप्त करने की योग्यता/क्षमता रखता है ? ये सवाल आज मात्रा-पिता और छात्र दोनों शिक्षकों से सीधे कर रहे हैं .क्या इस प्रश्न कासामना करने को तैयार है, आज का शिक्षक ?
शिक्षण के स्तर में गिरावट की बात चारो ओर सुनाई पड रही है, ऐसा क्यों
है ? इस गिरावट के लिए कौन ज़िम्मेदार है ? शिक्षक या सरकार या समाज या छात्र या माता-पिता या राजनेता ?
शिक्षण के हर स्तर पर औपचारिक शिक्षण प्रणाली में शिक्षक ही छात्रों के भविष्य का निर्माता होता है. शिक्षक में चाहे वह स्कूली कक्षाओं का हो या उच्च शिक्षा की कक्षाओं का अध्यापन करने वाला हो, उसमें कुछ मौलिक और बुनियादी गुणों का होना अनिवार्य है - अनुशासन, ईमानदारी, कर्मठता, सदाचरण,विषय का ग्यान, श्रमशीलता, सेवा भाव, सकारात्मक सोच और छात्रों को संप्रेरित करने की क्षमता जैसे गुणों का होना अनिवार्य है .इन गुणो को अर्जित किया जा सकता है. सर्वप्रथम शिक्षक वृत्ति के उद्देश्यों को शिक्षकों को जानना आवश्यक है .शिक्षण एक अभिवृत्ति जब बनेगी तभी व्यक्ति सामान्य से असाधारण एवं उत्तम शिक्षक में रूपान्तरित होता है. शिक्षण वृत्ति में आने से पूर्व हमें अपनी पडताल कर लेना चाहिए कि हम इस वृत्ति और अभिवृत्ति के अनुकूल हैं या नहीं . आज का शिक्षक महज एक शिक्षण कर्मचारी बनकर रह गया है ( अधिकांश ) जो केवल नौकरी कर रहा है. शिक्षण के नैतिक और मानवीय तथा सामाजिक मूल्यों के परिवर्धन और संवर्धन में शिक्षक का योगदान कहां तक सार्थक है ? इसका आकलन सही तौर पर नहीं हो रहा है. सरकारी तंत्र इस कार्य को करने में अक्षम सिद्ध हो चुका है . और फिर शिक्षक के लिए पहरेदारी की अगर आवश्यकता पडने लगे तो उसकी प्रवृत्ति पर ही सवालिया निशान लग जाता है.
युगीन सन्दर्भ में आज शिक्षक को बहुग्य बनने का प्रयास करना पडेगा क्योंकि आज समाज की अपेक्षाएं शिक्षक से बहुत बढ गईं हैं .छात्रों के बौद्धिक स्तर में अप्रतिम रूप से वृद्धि हुई है . बहुआयामी ग्यान के अर्जन की आवश्यकता है और इसीलिए छात्र शिक्षक से इसी तरह की मांग करने लगा है. इसके लिए शिक्षक को अमित और निरन्तर अध्ययन -शील होना अनिवार्य है .शिक्षक जब तक स्वयं अध्ययनशील नहीं होगा तब तक वह छात्रों को अध्ययनशील बनने के लिए प्रेरित नहीं कर पाएगा . निरन्तर अग्रगामी, विकासशील शोधपरक दृष्टि शिक्षक के लिए अनिवार्य है, तभी वह अपने शिक्षण के विषय के प्रति न्याय कर पाएगा, वरना वह अध्यापन में पिछड जायेगा और छात्रों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पायेगा .आज विद्यालयों में ऐसे ही अनेक शिक्षक मिलेंगे जिनमें अध्ययन की प्रवृत्ति, लगभग समाप्त प्राय है, उनमें शोधपरक दृष्टि का पूर्णत: अभाव है और जिनमें अपने ग्यान के नवीकरण के लिए कोई उत्साह नहीं है. ऐसे शिक्षक समाज के लिए हानिकारक होते हैं. हमें शिक्षा तंत्र में ही किसी ऐसी प्रणाली का विकास करना होगा जिससे शिक्षक में स्वयं को स्वाध्या की ओर प्रेरित किया जा सके . राष्ट्र का भविष्य शिक्षक के द्वारा ही संवारा जाता है इसलिए जिस समाज में शिक्षक अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्ध और समर्पित होगा वही समाज सही दिशा में प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा .
भारतीय सभ्यता में अनादि काल से गुरु को ईश्वरसे बढकर दर्जा दिया गया है. ईश्वर का अर्थ है - सर्वग्य -और परम-आत्मन . मनुष्य के भीतर मौजूद आत्मन को परम-आत्मन तक पहुंचने का ग्यान गुरु अर्थात शिक्षक ही प्रदान कर सकता है. ( कबीर - गुरु गोविन्द दोऊ खडै, काकौ लागौ पांव -
बलिहारी गुरु आपनौ, गोविन्द दियो बताय . )
अत: वर्तमान शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों के विकास के लिए भी समाज को कटिबद्ध होना चाहिए, जिससे कि शिक्षक समाज के लिए सार्थक और उपयोगी सिद्ध हो सकें .

Saturday, September 5, 2009

कोई भी राजनेता समाज के हर वर्ग को संतुष्ट नही कर सकता

आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री डा वाई एस राज शेखर रेड्डी नियति की क्रूरता के शिकार हुए । सब कुछ बहुत ही नाटकीय परिस्थितियों में घटित हो गया .सारा विध्वंस काण्ड कुछ ही घंटों में घटित हो गया । एक अति लोकप्रिय राजनेता के वैभवशाली किंतु साथ ही सेवापरायण जीवन का अंत काल की निर्ममता ने बहुत ही वीभत्स तरीके से कर दिया । ऐसा असामयिक अंत और ऐसा कारुणिक अंत। दुर्गम और दुर्दांत बीहडों के बीच नल्लामल्ला पर्वत श्रेणियों , जंगल के वीरानो में एक ऐसे जन नायक की करुण और दारुण मृत्यु - निश्चित ही अकल्पनीय और हृदय विदारक है । इसा तरह का अंत कोई सोच भी नहीं सकता था । इस घटना ने सरकारी तंत्र की आपदा प्रबंधन सक्षमता की भी पोल खोल दी । आज के तथाकथित अति आधुनिक प्रौद्योगिकी से लैस बचाव के साधनों के होते हुए भी
राज्य सरकार उनका सही समय पर कारगर तरीके से उपयोग नही कर पाई . यह बहुत ही दुखद स्थिति थी। सत्ता के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुई महामहिम लोगो को इतना भी ध्यान नही रहा की रेडियो संपर्क के टूटने का अर्थ हवाई जहाज़ का दुर्घटना ग्रस्त होना ही लगभग तय होता है.सता के गलियारों में शाम चार बजे तक कोई हड़कंप नही मचा . शाम होने के बाद सरकारी तंत्र आम आदमियों से मदद की गुहार लगाना शुरू करता है. केन्द्र सरकार को भी वास्तविक स्थिति ऐ सही समय पर अवगत नही कराया जाता । क्या ये है हमारे देशा का आपदा प्रबंधन का स्वरूप, और वह भी जब की यह हादसा राज्य के मुख्य मंत्री के मामले में हो रहा है । इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है ? राज्य सरकार कौन सा मुंह लेकर दावा करेगी कि उन्होंने मुख्य मंत्री को बचाने का प्रयास किया था। विडम्बना देखी कि मुख्य मंत्री का हेलीकाप्टर सुबह ९.४० के आसपास दुर्घटनाग्रस्त होकर बीहडों में गिरा पडा है और वायुसेना, पुलिस, कमांडो कोई भी कुछ नही कर सका। शायद यहाँ भी विधि का ही विधान था । काल भी कभी कभी अत्यन्त निर्दयी हो जाता है। बचने, बचाने का भी मौका नही देता है। यही हुआ।
इस समूची घटना ने आम जनता को हिला कर रखा दिया। इस हादसे के साथ जिस राज्य की और बाद में देशा की आम जनता जिस पैमाने पर जुड गई यह अपने आप में एक इतिहास बना गया.जिस भारी संख्या में लोगों ने पहले ही दिन से मुख्य मंत्री की कुशलता के लिए प्रार्थनाएं की , और मुख्य मंत्री के निधन के समाचार से जिस रूप में समाज के हर वर्ग के लोगों का दुःख और शोक का सैलाब प्रवाहित हुआ वह अचंभित कराने वाला था । गांधी और नेहरू की अन्तिम यात्रा के दृश्यों की याद ताज़ा हो आयी । लोग जिस तादाद में लोग सड़को पर निकल आए और फ़िर नगर में अपने दिवंगत नेता के अन्तिम दर्शन के लिए एकत्रित जनता के उमड़ते हुए महोदधि को देखकर सरकारी तंत्र भी सकते में आ गयी थी । जो असंख्य लोग घरो में और बाहर चौराहों पर टी वी सेटों से दो दो दिनों तक चि़पके रहे , उन्हें क्या कहा जाए ? हर तबके का आदमी, छोटा बड़ा,अमीर गरीब, बूढा - जवान , गांव -शहर का चाहे कहीं का भी हो वह राज शेखर रेड्डी के साथ था। रो रहा था या आखे नम थी । और यह सब कुछ सहज भाव से हो रहा था। सड़कों पर लोगो की बाढ़ इस तरह की आज तक कभी नही देखी गयी थी । पुलिस लाचार दिखाई दी और फ़िर उन्हें सख्त हिदायत भी दी गयी थी कि इस अवसर पर किसी को परेशान न किया जाए । जहां जहां सर्गीय दा राजा शेखर रेड्द्दी के पार्थिव शरीर को ले जाया गया ( दर्शनार्थ ) वहा वहा और रास्ते भर लोग हजारो की तादाद में उस वाह ने के पीछे दौड़ते रहे । यह दृश्य भी बहुत ही करुण था । ऐसे दृश्यों को टी वी में देखकर भी अनेक लोगों को सदमा लगा होगा। ये दृश्य लगातार दो दिन और दो रात दिखाए जाते रहे - इसका बहुत ही गहरा असर लोगो के दिलो-दिमाग पर पड़ा है। ऐसे दुख और शोक के वातावरण से निकल पाना बहुत कठिन हो जाता है। इस बार मीडिया ने भी बहुत ही अलग ढंग से सारे प्रकरण का प्रसारण किया। विशेष गीत लिखाए गए। विशेष व्याख्याताओं को शोक को कारुणिक और सघन प्रस्तुति के लिए तलब किया गया। शोक व्याख्या के लिए प्रसिद्ध व्याख्याकार विजयचंद्र को विशेष रूप से एक तेलुगु के एक टीवी चैनल ने तैनात किया।
तेलुगु के सभी चैनलों द्वारा लगातार तीन दिनों तक केवल दिवंगत मुख्य मंत्री की अन्तिम यात्रा और अंत्येष्टि से संबंधित प्रसारण ही चलते रहे । राष्ट्रीय चैनलों ने भी बहुत ही व्यापक कवरेज दिया इस बार। दुर्घटना का विश्लेषण आज तक चल रहा है। विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारणों का पता लगाने के लिए जांच के आदेशा भी जारी कर दिए गयी हैं । पिछले तीन दिनों के विषादपूर्ण वातावरण ने आम जीवन को प्रभावित किया है। मीडिया के अति प्रसारण और घटना की अति - प्रस्तुति ने वातावरण को बोझिल और उदास बना दिया है । इसमें से निकलना कठिन ही लगता है।
लेकिन एक बात स्पष्ट तौर पर उभर कर आई है, वहा यह कि डा राज शेखर रेड्डी राजनीति के अत्यन्त लोकप्रिय महानायक थे। उन्होंने लोकनायक का दर्जा हासिल कर लिया था । गरीब तबकों के वे मसीहा बन चुके थे। उनके जीवन काल में उनकी बहुत सारी कल्याणकारी योजनाओं के प्रति विपक्षी दलों और शहरी लोगो को कुछ हद विश्वास नही होता था लेकिन उनकी असमय मृत्यु के बाद उनके जनकल्याण सेवाओं की प्रामाणिकता स्पष्ट रूप से सिद्ध हुई है । आज हर तबके का व्यक्ति अश्रुपूर्ण नेत्रों से राजशेखर रेड्डी अपना उद्धारक और मसीहा मान रहा है । मरणोपरांत उनकी लोकप्रियता का प्रमाण सारे देश की सामने आगया . उनके चाहने वाले इतने सारे लोग होंगे इसका अनुमान शायदकई लोगो को नही होगा लेकिन अब उनकी अमरता सिद्ध हो चुकी है । गरीबो, किसानो,काश्तकारों,मज़दूरों,औरतो और दलित वर्गों के लिए उन्होंने निश्चित रूप से जो सेवाए प्रदान कीं वे आज अपना असर दिखा रही हैं .गरीबों को उसका लाभ मिल रहा है । भले ही शहरी मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के
नौकरी पेशा वर्ग के लोग उनके प्रति थोडा बहुत अलग तरह का विचार रखते हो, क्योकि उनका ज्यादा ध्यान गांवो की और था - फ़िर भी वे आज एक महान नेता की श्रेणी में पहुंच चुके हैं ।
एक सक्षम, दृढ़संकल्पवांन, कर्मठ, जुझारू ,निडर , साहसी , दूर - दृष्टि संपन्न महा नायक के रूप में वे वे राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर अपना चिर स्थाई स्थान बना चुके हैं । कोई इसे स्वीकार करे या न करे.

Friday, August 21, 2009

हवाई अड्डो पर केवल अंग्रेजी की ही पुस्तकों की दूकान दिखाई देती है . ऐसा क्यों

बहुत दिनों से मुझे एक बात खटक रही थी । जब भी मैं विमान से यात्रा करता हूं और भारतीय हवाई अड्डो में थोडा बहुत समय बिताने का अवसर मिलता है तो वहा की किताबो की दूकान की तरफ़ जब जाता हूं तो यही देखता हूं की हमारे देश के सभी हवाई अड्डो पर जितनी भी किताबो की दुकाने लगी हुई हैं वे सब केवल अंग्रेजी की ही पुस्तके और पत्रिकाए बेचती हैं । इनमे सभी तरह की पुस्तके सभी विषयो की विपुल संख्या में मिलती
हैं । जैसे अंग्रेजी के उपन्यास, कहानी संग्रह, जीवनी साहित्य, अंग्रेजी क्लासिक उपन्यास ( साहित्यिक और लोकप्रिय ) जिनको बस्ता सेल्लर कहा जाता है, प्रबंधन, इतिहास , विभिन्न शहरों और विभिन्न देशों के लिए पर्यटन गाइड, फैशन और पाक कला पर ढेर सारी पुस्तकें, नाना तरह के सौंदर्य वृद्धि के उपायों और साधनों पर पुस्तके यहां भारी हुई दिखाई देती हैं । ज़ाहिर है की यहां इस तरह की किताबे खरीदने वालों की भी शायद कमी नहीं है । गौर तलब सच्चाई यहाँ है कि अचानक लगता है कि क्या हम किसी विदेशी शहर के हवाई अड्डे पर खड़े हैं ? एक भी हिन्दी या एनी भारतीय भाषाओं की एक भी पत्रिका या पुस्तक ( उपन्यास या कहानी या अन्य विषयो की ) बिक्री के लिई नही रखी जाती । सारा स्टाल अंग्रेजी मय ही होता है । भारतीय हवाई अड्डो पर अंतर्देशीय यात्राओं पर तो भारतीय ही अधिक यात्राए करते हैं . विदेशी यात्री भी होते हैं लेकिन भारतीयों की आवश्यकता क्या भारतीय भाषाओं में रचित पत्रिकाओ और पुस्तकों की नही ? हमारे हवाई अड्डो को एक विचित्र विदेशी सांस्कृतिक बाना पहनाया जा रहा है /जा चुका है । अंग्रेजी रंगत और ने हमारी न्यूनतम पहचान भी मिटाने को तुली हुई है । बड़ी मुश्किल से हिन्दी में इंडिया - टुडे या आउटलुक पत्रिका कभी कभार मिला जाती है वरना वह भी नही मिलाती । हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के कथा साहित्य की बात तो बहुत दूर की है । कितनी विडम्बना है यह । इसके समक्ष रेलवे स्टेशनों में स्थिति बेहतर है । वहां हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की पत्र पत्रिकाओं के साथ हिन्दी कथा साहित्य का भंडार मिलेगा । ( भले ही वह सस्ता साहत्य हो - साहित्यिक कृतियाँ बहुत कम मिलती हैं ) लेकिन फ़िर भी भारतीय यात्रियों के लिए अपनी भाषाओं में कुछ तो उपलब्ध है । तो क्या भारत में रेल यात्रियों का सामाजिक और संस्कृतिक दर्जा/वर्चस्व विमान यात्रियों के तथा कथित आभिजात्य वादी संस्कारों से दोयम का दर्जे का है ? या क्या सारे विमान यात्री अंग्रेजी के ही पाठक होते हैं - भारत में ? क्या ये हवाई अड्डे भारतीय नही हैं ? हमारे ही देश में सार्वजनिक स्थलों में हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की पाठ्य सामग्री क्यो उपलब्ध नही होती है ? यह एक विचारणीय विषय है .

Monday, August 17, 2009

टी वी रिएलिटी शो - सच का सामना - का सच

टी वी धारावाहिक -सच का सामना -
पश्चिम में लोग भूखे रहने के लिए, हंसने के लिए, रोने के लिए, बेइज्ज़त होने के लिए, हिंसा का मजा चखने के लिए, आतंकित होने के लिए, भयभीत होने के लिए, दरिद्रता का आनंद लेने के लिए , दुखों का स्वाद चखने के लिए, भूत - प्रेतों के खौफ का अनुभव करने के लिए, घोर अमानवीय कारागारों में बंद कैदियों के नारकीय जीवन की अनुभूति प्राप्त करने के लिए - प्रायोजित और कृत्रिम रूप से तैयार किये गए आयोजनों का सहारा लेते हैं . इन प्रायोजित कार्यक्रमों में स्वयं को नंगा करके दुनिया वालो के सामने अपनी नग्नता का प्रदर्शन करने का भी एक कार्यक्रम होता है .इसा प्रकार के कार्यक्रम पश्चिम में बहुत चर्चित और लोकप्रिय होते हैं . यह मनुष्य का एक आत्मपीड़क स्वरूप है . आत्मपीडन भी मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्ति को एक विशेष प्रकार का आनंद प्रदान करता है . भारत में प्रर्दशित टी वी धारावाहिक - सच का सामना भी एक ऐसा ही -आत्मपीड़क और परपीड़क - धारावाहिक है .जिसमे परहना पूछने वाला परपीड़क और उत्तर देने वाला आत्मपीड़क है .दोनों ही अपने अपने स्तर पर इस पूरी असामाजिक प्रक्रिया का आनंद या लुत्फ़ उठा रहे हैं . दर्शक सहमे सहमे से अपने जिसम और अपनी आत्मा को छिपाने के प्रयास में अपनी पहचान खो बैठे हैं .इस मुद्दे को जब संसद में उठाया गया और उस धारावाहिक के निर्माताओं से पूछ ताछ की गयी तो निर्माता का उत्तर और भी चौंका देने वाला निकला . निर्माता महोदय का तर्क यह है कि कार्यक्रम में भाग लेने वाले लोगों को इस प्रतियोगिता के नियम मालूम हैं और वे नियमों को जानते हुई ही पैसों के लिए स्वयं को टी वी के परदे पर भावनात्मक और व्यक्तिगत धरातल पर अनावृत्त होने के लिए तैयार होकर ही आते हैं . आश्चर्य इस बात का है कि अभी तक किसी भी प्रतिभागी ने इस कार्यक्रम का विरोध नही किया है . धीरे धीरे हमेशा की तरह भारतीय जनता जिस तरह समाज की अन्य बुराईयों से जैसे समझौता कर लेती है उसी प्रकार इस धारावाहिक को भी स्वीकार करने के लिए मजबूर हो चुकी है . आजकल नई पीढी की एक यह भी है कि उन पर नैतिक पहरेदारी न की जाए . हर व्यक्ति अपनी नैतिक जिम्मेदारी को बखूबी समझता है . इस सारे प्रकरण को वैयक्तिक हस्तक्षेप का मामला बनाकर इस पर बहस भी ख़त्म कर दी जाएगी . बहस तो शायद ख़त्म हो ही गई है . आज हमारे देश में किसी को इन बातों से कोई सरोकार ही नही है .अपनी भाषा, संस्कृति, साहित्य, संगीत, पहनावा, खान पान, मान मर्यादा की बाते - पिछडापन और सभ्यता विरोधी लगती हैं . एक यही धारावाहिक नहीं बल्कि आज टी वी में जितने भी निजी - विदेशी चैनेल प्रसारण करा रहे हैं उनके सारे कार्यक्रम अश्लीलता से भरे हुए हैं और भारतीयता को खुले आम ठेंगा दिखा रहे हैं . समाचार चैनलों में भी बोलीवुड का फिल्मी मसाला भरा पडा रहता है . अब समाचार चैनल केवल समाचार तक ही सीमित न होकर सस्ते और फूहड़ मनोरंजन का बाज़ार बना गए हैं . इस पर कौन विचार करेगा ?
सच का सामना - ब्लाग में गलती से टी वी शब्द के साथ इ अक्षर अतिरिक्त आ गया है । कृपया ध्यान न दे । नई पीढी की जगह कई पीढी छापा गया है इसे भी ठीक तरह से - नई पीढी- ही पढें .
धन्यवाद ।
एम वेंकटेश्वर

Wednesday, August 5, 2009

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने अपने दो पत्रकारों को उत्तर कोरिया से छुडाया

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और उनके साथियों ने अमरीकी सरकार की एक अभूत पूर्व कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से अपने दो पत्रकारों को जो उत्तर कोरिया में पिछले १४० दिनों से बंधक बना कर रखे गए थे जिनको वहां की सरकार ने अनधिकृत रूप से सीमा पार करने के आरोप में पकड़ लिया था, उन्हें उत्तर कोरिया जाकर, वहा की सरकार से कूटनीतिक बातचीत द्वारा मनाकर अपने साथ विशेष हवाई जहाज द्वारा उन दोनों पहिला पत्रकारों के लेकर स्वदेश पहुंचे । अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की जितनी सराहना की जाए कम है । क्या हमारे देश में ऐसे कारनामे होते हैं ? हमारे देश के कितनी ही निर्दोष सैनिक और नागरिक पाकिस्तानी जेलों में बरसों से सदा रही हैं लेकिन आज तक हमारी सराकर उनके लिए कुछ भी नहीं कर पाई है । हमारी सरकार के पास हमारे देशवासियों की जान की कोई कीमत ही नही है । क्या हमारे दशा का कोई मंत्री भी लोगों की जान बचाने के लिए कभी भी इस तरह से आगे आयेगा । मुम्बई गुजरात और दशा के अन्य हिस्सों में सैकडो और
हाजारो लोगो की जाने गई, लेकिन क्या आज तक हमारी सरकार ने उनके बारे में कभी कुछ सोचा ? हमारे दशा में आम आदमी की जान की कीमत कुछ भी नहीं है । काश हामरी सराकर आज के अमरीकी सरकार और बिल क्लिंटन के इस मानवतावादी आचरण से कुछ सीख लेते ।

Friday, July 31, 2009

प्रेमचंद की छवि से खेल बंद हो - लेख - स्वतंत्र वार्ता - दि 31

आज प्रेमचंद का पावन जनम दिन है । हमारे यहां के प्रमुख हिन्दी अखबार स्वतंत्र वार्ता में के विक्रम राव द्वारा प्रस्तुत लेख " प्रेमचंदा की छवि से खेल बंद हो " लेख पढ़कर मन आनंद से भर उठा । विक्रम राव साहब को इस लेख के लिए बधाई देना चाहूंगा . बहुत ही सटीक लेख है और उनके विचार भी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । आज समय आ गया है कि प्रेमाचना साहित्य को नई दृष्टि से पढा जाए और उस पर पुन: विचार किया जाए . प्रेमचनद के लेखन का एक बहुत बड़ा हिस्सा उनकी निर्भीक पत्रकारिता का था । जिसे लोग नज़रन्दाज़ कर देते हैं । विभिन्न पत्रिकाओं में उनके
द्वारा लिखे गए लेख उनकी साहित्यिक दृष्टि को और अधिक साफ करते हैं । उन्हें ज़बरदस्ती मार्क्सवादी खेमें में खींचना घोर अन्याय है । उसी तरह उन्हें कट्टरतावादी घोषित करना भी एक तरह का अपराध ही होगा । के विक्रम राव ने अपने लेख में प्रेमचंद के चिंतन के कुछ भिन्न पहलुओ को प्रस्तुत किया है । देश में भिन्न विचारधाराओ वाले राजनीतिक परिवेश में भी प्रेमचंद बहुत ही सहज हो कर अपनी ही कार्य शैली में अपने साहित्य के माध्यम से देश सेवा में लगे हुए थे . वे एक महान सुधारवादी मानवतावादी संत थे । जिन्होंने कबीर की शैली में समाज को जागृत करने का बीडा उठाया । उनके चिंतन का विकास सुधारवादी चेतना से क्रांतिकारी चेतना की ओर अग्रसर हुई ॥ बहुत ही सारगर्भित और उपयोगी विचार हैं लेखक के .

Kargil War was emphatically won by Indian Army.

This is with reference to the article published in Deccan Chronicle dt 31 July 2009, by Balbir K Punj. The article reveals the true spirit of a victorious nation which has fought back valiantly and prevented the intrusion.We can not ignore the supreme sacrifice of our troups ( Army and Airforce). As it is rightly reminded by Mr Balbir K Punj, this is the occasion for India's celebrations in a big way. We should have honored the families of those who have given away their lives for the Nation. Why the celebrations be so luke warm importance when we have every right to rejoice and celebrate to acquint our younger generation with the heroic ddeds of our Armed forces. Kargil battle was not so easy one and we have proved again and again that no invader will be allowed to occupy any inch of our mother land. Why do we not celebrate at a national level instead of party level or only within the particular Army core. Why the Giovernment of India is silent. yes, We the citizens of India are entitled to know the reason for this kind of silence over our own victory. It is to demean the supreme sacrifice of our Jawans and it is an insult if do not recognise their valor. These are moments when India should take pride and be proudful.
It is sad thet we Indians always devide ourselves in to small fractions always and instead of uniting ourselves, we creatre divisions even in our achievements. We never behave as a notion, but like small groups of idealogical and political fractionists. If kargil War was won, it was by Indian soldiers and by the then ruling party NDA or any other party.We should learn to stand collectively in joys andd sorrows. When will we learn this ?

Thursday, July 30, 2009

Controvery over India Diplomacy

It is very unfortunate that our leaders in the parliament have raised the issue of Prime Minister Manmohan Singh's statement at the India-Pakistan diplomatic talks held recently. opposition parties in the Parliament always forget that they are also part of the system and when it comes to foreign policy matters and dealing with foreign affairs, we all have to be with the PM, who so ever he or she is. We hae to be united in such matters and not send wrong signals to other countries
specially to a country like Pakistan, who is always watching us, day in and day out, through their intelligence system and their planted spies all over the country. They watch every word uttered within our country and Parliament, more so if it is on the subject of terrorism. It is unfortunate that our diplomates have utterly failed in delivering the goods. As per P.C.Alexander's observation (as appeared in DeccanChronicle ), our diplomates could not even draft the document properly and they have done it in great hurry, without proper preparation. Thereby comitting gross mistakes, which have led to the situation where in Pakistanis could create an issue of Baluchistan, from no where !!! It is our own loop-hole which they have caught and played agaisnt us, they have hit us by our own shoes. They have been very good at this art. And we are not careful. In my view, we have to support our leader, more in crisis and should not isolate him and effect assaults on him. We all have to shoulder the responsibility of success as well as failures some times.

क्या पुस्तक लोकार्पण समारोह सार्थक हैं ?

पिछले दिनों एक लोकार्पण समारोह में जाने का अवसर मिला । ऐसे ही कुछ और पुस्तक लोकार्पण समारोहों में जाने के अवसर कभी कभी मिला जाते हैं । बहुत आश्चर्य होता है जब हम देखते हैं कि इन समारोहों में केवल निरर्थक बातें होती हैं । अपनी मित्र मंडली को ही आमंत्रित करा लिया जाता है और समाचारपत्रों के संपादकों को अवश्य
बुलाया जाता है ताकि समारोह कि तस्वीर जरूर छाप जाए । कोई भी वक्ता लोकार्पित पुस्तक की सही समीक्षा भी नहीं कर पाता । अनेक अवसरों पर पुस्तकें मंच पर ही समीक्षकों को दी जाती हैं . ऐसे ऐसे वक्ताओंको जमा कर लिया जाता है कि उपस्थित अतिथि शर्म से अपना सिर नीचे कर लेते हैं । स्वयं भू कवि और रचनाकार आज साहित्य में बहुत बडी संख्या में चारों और दिखाई दे रहे हैं । जिनके पास पैसा है उनको कवि बनने की अधिक ललक है । आज ऐसे अनेक कवि साहित्य के बाज़ार में विद्यमान हैं जिनके अकूत धन है , इस धन से वे अपनी रचास्नाओम को साहित्य घोषित कर रहे हैं और ख्याति प्राप्त समीक्षकों से बलपूर्वक समीक्षा करवाकर अपनी रचना को प्रमाणीकृत करवा रहे हैं । धन्य हैं ऐसे रचनाकार और धन्य हैं उनकी रचनाए । हिन्दी के क्षेत्र में यह बीमारी बहुत ज्यादा फैली हुई है । क्या एक अच्छी रचंना लोकार्पण समारोह के बिना श्रेष्ठ सिद्ध नही हो सकती ?
आज जितने महान उपन्यास और काव्य जो जगत प्रसिद्ध हैं, क्या उन साहित्यिक ग्रंथो का लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ था ? एक तरह से आज जो स्थिति है उससे तो यही बात सामने आ रही है कि जो रचनाए कमजोर होती हैं उनहीं रचनाओं का लोकार्पण करवाया जाता है लोगों का ध्यान आकर्षित कराने के लिए । लेकिन ऐसे समारोहों की चमक कुछ ही दिनों की होती है । लोग पुस्तकों को भी भूल जाते हैं और शायद केवल समारोह ही याद रह जाता है । हिन्दी के लेखकों को ऐसे आडम्बर पूर्ण दिखावे से बचने का प्रयास करना चाहिए । ऐसे छद्म लेखक इन समारोहों में पैसा भी बहुत खर्च करते हैं । काश, हमारे बुद्धिजीवी लेखक और पाठक दोनों ही वर्गों के लोग इसा तरह के दिखावे से दूर रहने का प्रयास करें और ऐसे लोकार्पण समारोहों का बहिष्कार करें तो साहित्य का बहुत भला होगा । रचनाए अपनी उत्कृष्टता के दम पर लोकप्रिय होती हैं , लोकार्पण समारोहों के कारण नहीं ।
क्या ख्याल है आप लोगो का ?

Tuesday, July 21, 2009

इस बीच ऊटी में पाठ्यक्रम लेखन की एक कार्यशाला में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ । यहाँ अपने आप में एक रोमांचक अनुभव रहा । दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास के तत्वावधान में इस कार्यशाला का आयोजन
हिन्दी में दो महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों के निर्माण के लिए किया गया था । दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास इन
दिनों स्नातक एवं स्नातोत्तर स्तर पर दूर शिक्षण माध्यम से ' बहु संचार और जनसंचार माध्यम ' विषयों पर पाठ्यक्रम का निर्माण कर रही है । यह एक बहुत ही कठिन और श्रमसाध्य कार्य है । इस दुसाध्य कार्य को सम्पन्न करने के लिए सभा के कुल सचिव प्रो दिलीप सिहं जी ने राष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञों का एक दल बनाया है जिसमें ख्याति प्राप्त भाषाविद और शिक्षाविद् शामिल हैं । इनमें कुछ युवा मित्र भी थे जो बहुत ही उत्साह के साथ इस लेखन कार्यशाला में भाग लेने के लिए हमारे साथ ऊटी पहुंचे थे । युवा शिक्षक मित्रों का उत्साह वास्तव में काबिले तारीफ़ था । कड़कती ठण्ड में ख़राब मौसम में घनघोर बारिश में भी लोग बहुँत ही तन्मयता के साथ निर्दिष्ट पाठ्य इकाइयों का लेखन कार्य करते रहे । बीच बीच में चर्चा परिचर्चा भी होती रहती । आपस में संदेहों का निवारण भी करते रहे थे । बारह से पंद्रह लोगों ने मिलकर एक बहुत ही आत्मीय वातावरण बना लिया था ।
अध्ययनशीलता और शोधपरक अनुभव का एक बहुत ही उच्च स्तर का अकादमिक वातावरण वहा पहाड की उन अपरिचत ऊँचाईयों में हमने मिलकर बना लिया था । हमारे पाठ्य लेखन के विषय अनेक क्षेत्रो को जोड़ रहे थे ।
जिसमें सिनेमा, संगीत, रेडियो, टेलिविज़न, पत्रकारिता आदि से जुड़े अनेक रोचक प्रसंग शामिल थे । इन विषयों से संबंधित ज्ञान विज्ञान की सूचनाओं को पाठ- सामग्री में शामिल करने के लिए सभी लोग मिलकर जो प्रयास कर रहे थे, वह अपने आप में एक अभूतपूर्व अनुभव था । छ: दिनों में हम लोगों ने अपने लक्ष्य को लगभग पूरा करा लिया । बहुत ही संतोषजनक कार्य हुआ । शाम के समाया मित्र लोगों के साथ ऊटी शहर में घुमाने का प्रयत्न करते थे । कभी बारिश में भीगते हुए तो ठण्ड में ठिठुरते हुए ही आसपास के बाग़ बगीचे और पहाड़ के कुछ शिखरों को तो हम नाप आये थे । कुछ नए मित्र भी बने । वहां के स्थानीय लोगो से हम लोगों ने मित्रता भी की । उन्होंने हमारा काफी सम्मान किया । १३ जुलाई की शाम को जब हमारा काफिला ऊटी की पहाडियों से नीचे उतर रहा था
तो सभी लोग उदास हो गए थे कुछ ही दिनों में ही हम लोग ऊटी के वातावरण और वहा के लोगों के साथ इतने घुल मिल गए थे कि हमें वहां से लौटने में एक विचित्र उदासी का अनुभव होने लगा था । दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के शिक्षण महाविद्यालय के प्राचार्य डा सतीष पांडे जी का आत्मीयता से भरा हुआ आतिथ्य कभी भी भुलाए नही भुलाया जा सकेगा । उनके सभी सहयोगी मित्रो का हमारे प्रति प्रेम और सौहार्द्र पूर्ण व्यवहार एक मिसाल बना गया ।

Tuesday, June 16, 2009

Performance of Indian Railways today

We have been independent since 1947 and we have projected on paper that we have achieved immense growth and development in the areas of public utility systems within our country. When we look at our Railways system, which is the largest governmental organization in India with more than 15 lakhs employees of all cadres, with thousands of miles of rail track, we are still lagging behind most of the developing countries. Our people are habituated to accept whatever is served to them, however the quality of service may be bad or even worse. Passenger amenities in our trains
are inadequate. Our coaches are designed in a very inconvenient way. In other countries
( Europe)
you dont find the side berths at all as that space is left for the passage of the commuters, to avoid congestion. In our country we do not have minimum common sense to ever imagine to leave that side space as passage. The wash room facility in each coach is inadequate to the number of passengers of the coach. NO one is ever thinking to improve this facility.Ministers change after every election and the new minister administers in his dictatorial way to spoil the existing system.
Worse among all other facilities is the catering service in the trasins. Ever since the railway ministry has out sourced the catering service to private contractors, it has become worse and the food they serve is not palatable. The quality is poorest and unhygenic. Cost wise also, it is enoprmously and unwantedly very expensive. The cost of the food/snack item does not match with the quality and the quantity. The vendor forces the buyer to buy the unwanted excess quantity/number of items as one unit for a very high cost which is unagreeable.In my view the Railways should restore the old ways of catering themselves, which may improve the quality of service and the food in the train.
Our Railway stations are not condusive to the old people. The over bridge concept in all our railway stations is an obselete way of crossing the rilway tracks.This is causing a tremendous strain and harressment to the senior citizens and physically challenged people. Indian Railways should plan to construct under ground passages with escelator/lift facilities on platforms.This is high time to think of such technological inovations in ourIndian Railway stations.

Saturday, June 13, 2009

The verdict of the Indian electorate

The results of recently held elections for parliament and some the state assemblies have been an ey opener for the politicians and people in general. it is evident that now the electorate is matured and people know whom to vote. Earlier voters have been misguided and allured by the viles of politicals parties and they were forced to vote for the benefactors. For the first time, people of India have very discreetly showed that they can elect intelligently and wisely cutting acroos the issues of caste, color, religion and regionalism. They can elect a government which will be stable and which can better ht lives of people with scientific progress in all areas.They have taught a lesson to high headed politicians who have always tried to encash the emotional weakenss of masses, and who have been insulting fellow politicians and other poklitical parties ina cheap and unbecoming ways.
People of this great civilization have shown that they now can vote for the best among the available and people who have common sense to run the government.This is for the first time that the muscle power and money power could not play a decisive role in the formation of the government.
This election 2009 shall be remebered for the participation of youth to the maximum extent. The youth power has now become forceful. Younger generation is very conscious of evil and wisdom. Youth is always highly idealistic, therefore they do not succumb to any cojnfusions. There is clarity in their minds and so we have the positive result.
I wish to salute the youth and the people from villages, who have excercised their franchise so well and with so much of confidence. The future of our democracy is bright and hopeful.

Thursday, June 4, 2009

Attack on Indian community in Australia

It is heart rendering to see the pathetic situation in an advanced democratic society, like that of Australian society, that such heinous and cowardly acts of human assaults are taking place. Is this a civilized culture of human beings, where people are attacked for no valid reasons ! This is not any war time situation, where racial hatred, may exist due to the political ambitions of the invader.
Indian youth is moving towards a safe destination to pursue higher studies to excel in academics, and that too on the invitation of of the Government of Australia. Should this kind of act be justified by any means ?
Where is Australian law enforcement agencies ? And what are they doing ? Will any civilized society accept this kind of inhuman insults, if inflicted on them.
I and many fellow Indians appreciate the gesture of our most beloved Amitabh Bachchan ji, who, without any further thought has returned the honorary Doctorate of Queensland University. He has rightly shown the high moral spirit of an fellow Indian, who crys for the safety of fellow Indians.We are all behind him.