Monday, June 11, 2012

सचिन एक मिसाल

सचिन तेंदुलकर ने राज्य सभा के सदस्य की रूप में शपथ लेकर भारतीय संसद की गरिमा में वृद्धि की है। यह देश के खेल जगत के लिए गौरव का विषय है। सचिन निश्चित रूप से इस गौरव और सम्मान के हकदार हैं। सचिन एक परिपक्व, सुलझे हुए विचारों के मानवतावादी खिलाड़ी हैं . उनमे खेल भावना कूट कूट कर भारी हुई है। सर्वोच्च नैतिक मानदंडों के समर्थक व संस्थापक सिध्ह किया अहै उन्होंने अनेकों बार। खेल के मैदान में और निजी जीवन में भी . अब एक और बेहतरीन मिसाल उन्हेंने दी है - सांसद के रूप में। यह युवा खिलाड़ी पूरी तरह से स्वयं को भारतीय नैतिक मूल्यों के संवर्धक और वाहक के रूप में निजी स्वार्थ त्याग का आदर्श उदाहरण बन गया है। और यह उस समय हुआ जब उन्होंने दिल्ली में आबंटित ( सासदों के लिए - विशेष ) आवास ( भव्य बंगला ) दिल्ली के प्रवास के दिनों के लिए, ठुकरा दिया और स्वेच्छा से उन्होंने अपने खर्चे पर दिल्ली के किसी होटल में ठहराने की सार्वजनिक घोषणा की . यह एक बहुत ही भावुक किन्तु सार्थक और कारगर कदम है जिसे उन्होंने ठीक ऐसे समय जभारात्वासियों के सम्मुख प्रस्तुत किया है जब की देश भ्रष्टाचार की चरम और परम सीमा कू लांघ चुका है। अब जनता की सहनशीलता भी ख़त्म हो चुकी है। राजनेताओं के   चरित्र   कलंकित हो चले हैं और ईमानदार नीता को ढूँढ़ पाना कठिन हो रहा है। आम आदमी की आस्था और विश्वास राजनेताओं के प्रति डगमगाने लगी है - ऐसे में इस प्रकार का चारित्रिक प्रदर्शन नेताओं के लिए चौंकाने वाला हो सकता है। आज दिल्ली में मुफ्त मिलने वाली सुविधा कौन नहीं चाहता ?  फिर सांसदों तो यह हक़ है . लेकिन आज का सांसद  वेतन और भत्ते के रूप में जितनी सुविधाएं प्राप्त करता है - क्या उतनी सुविधाएं यह गरीब देश उस बोझ को उठा सकता है ? आज त्याग और स्वार्थरहित जीवन का आदर्श स्वीकार करने की हिम्मत और चारित्रिक बल बहुत कम लोगों में दिखाई देता है, सचिन उन विराक्ले लोगों में से हैं जिन्होंने बहुत ही सही अवसर पर अपने चारित्रिक सदाशयता को देशवासियों के सामने रखा। इस प्रकरण से सचिन के प्रति देशवासियों का सम्मान और  प्रेम कई गुना बढ़ा है। सचिन को समस्त देशवासियों की और इस साहसपूर्ण निर्णय पर बधाई और शुभ कामनाएं .

Tuesday, June 5, 2012

विवादों की राजनीति से आम आदमी परेशान

विवादों की राजनीति से देश गरमा रहा है। आज किसी भी मुद्दे पर  पर न तो सरकार में और न ही  गैर सरकारी सस्थाओं में किसी भी तरह की सामान वैचारिक एकता दिखाई पड़ती है। हर राजनीतिक दल केवल सत्ता की राजनीति  करते हुए दिखाई देते हैं और इन सबके बीच आम आदमी परेशान है। किसी भी मुद्दे पर आम सहमति नहीं बनती है।
देश महंगाई से त्राहि त्राहि कर रहा है और सत्ताधारी राजनीतिज्ञों को अपनी कुर्सी की राजनीति करने से फुरसत नहीं है। महंगी, और भ्रष्टाचार ने सभी सीमाएं पार कर ली हैं। देश विखंडन के दौर से गुजर रहा है और कोई भी राजनीतिक दल देश की आतंरिक सुरक्षा, महंगाई, बढ़ती कीमतों से देशवासियों की बदहाली, शिक्षा के गिरते स्तर, देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि, फैलते भ्रष्टाचार  पर नियंत्रण करने की इच्छा शक्ति का पूर्णत: अभाव - जैसी स्थितियों से देश गुजर रहा है। हर राजनीतिक दल स्वयं की स्थापनाओं को सही सिद्ध करने की होड़ में देश की जनता के प्रति उदासीन हो गया है। जनता या आम आदमी का अस्तित्व  ही गायब हो गया है- हमारे देश के राजनीतिक परिदृश्य से - आज राजनीतिक ताकत ही सर्व - प्रबल हो गयी है। सही-गलत में कोई भेद नहीं रहा, निर्दोष और अपराधी में अंतर समाप्त हो गया है। अपराध करके कोई भी अपराधी बहुत ही आसानी से जमानत पर छुट सकता है और फिर उसके आरोपों की जांच के लिए बरसों लग जाते हैं - इस बीच वह आरोपी बहुत ही चालाकी से न्याय व्यवस्था तक को झुठलाकर या खरीदकर स्वयं को पाक साफ़ सिद्ध कर लेता है .जमानत पर रिहा होने की विचित्र परम्परा हमारे देश की न्याय व्यवस्था ने अपराधियों को वरदान के रूप में प्रदान किया है। आज देश में एक से बढाकर एक  अक्षम्य किस्म के घोटाले खुलकर सामने आ रहे हैं जिनमें सत्ता पक्ष के और प्रतिपक्ष के भी अनेक नेतागण  शामिल  हैं। मीडिया की सक्रियता और खोजी पत्रकारिता तथा सूचना के अधिकार के द्वारा अनेक खुफिया जानकारियाँ देश के सामने प्रकट हो रही हैं जिसके द्वारा हमारे सामने राजनीतिज्ञों का एक बहुत ही भ्रष्ट - घिनौना चेहरा सामने आ रहा है - भ्रष्टाचार में लिप्त इन राजनेताओं को जल्द से जल्द सजा मिलनी चाहिए - तत्काल दंड का प्रावधान हमारी न्याय व्यवस्था में होना चाहिए। कई दशकों तक चलने वाले मुकदमे - अपराधी और अपराध दोनों को संरक्षण प्रदान करते हैं .
सरकार से जब कोई आम आदमी सीधे सवाल पूछता  है तो सरकार तिलमिला जाती है और उस प्राश्निक पर ही हमला बोल देती है। एक और तो हम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की दुहाई देते है लेकिन दूसरी और जनता की आवाज को  किसी न किसी तकनीकी पेचीदगी में उलझाकर दबा देते हैं। क्या यही लोक तंत्र है ? यह तो नाम मात्र का लोक तंत्र है। भ्रष्टाचार पर किये जाने वाले हर सवाल को - केवल भ्रष्टाचार की अतिव्याप्ति के उदाहरण देकर- परस्पर दोषारोपण करते हुए मूल मुद्दे से लोगों को भटका दिया जाता है। आखिर इस देश में आम आदमी को न्याय कब मिलेगा ?