Wednesday, October 26, 2011

खेल की भावना से ही हार और जीत दिनों को स्वीकार करना चाहिए.

भारत - इंग्लैण्ड पांच (एक- दिवसीय) मैचों की श्रृंखला भारत के पक्ष में पांच शून्य से समाप्त हुई। पांच शून्य की जीत से भारत में खुशी की लहर दौड़ गयी। दिवाली का एक शानदार तोहफा देश वासियों को जश्न मनाने के लिए माही की युवा टीम ने भेंट किया है, यह काबिले तारीफ़ है। इस जीत के पीछे माही यानी धोनी की कुशल और दूरदर्शी कप्तानी का ही कमाल है। धोनी एक जुझारू, आशावादी, संप्रेरक कप्तान के रूप में टीम में में अपनी एक ख़ास पहचान बनाते हैं। वे एक श्रेष्ठ खिलाड़ी भी हैं और एक उत्तम नायक भी। उनसे टीम प्रबंधन के अनेकों गुर सीखे जा सकते हैं। उन्हें केप्टन कूल भी कहा जाता है अर्थात जो संकट की घड़ी में भी अपना संय्हम बिना खोए टीम की सफलता के लिए रणनीति बनाता है और उस पर पूरे आत्मविश्वास के साथ अमल करता है। उनमें टीम के हरेक खिलाड़ी को साथ ले चलने की अद्भुत क्षमता है। टीम के सभी सदस्यों के बीच स्नेह और सौहार्द्र का सामान भाव बनाए रखना आज के वर्चस्ववादी माहौल में चुनौती भरा दायित्व है । उनमें व्यक्तिगत अहं का भाव दिखाई नहीं देता। अपने साथियों को विजय का श्रेय देकर विफलताओं की जिम्मेदारी स्वयं स्वीकार करना एक महान नेता का लक्षण होता है। ए पी जे अब्दुल कलाम साहब ने इसे ही सच्चाऔर उत्तम नायक का गुण बताया है अपनी पुस्तक ' अदम्य साहस ' में। जिस टीम का नायक धोनी जैसा कुशल रणनीतिकार हो, जो खुद जोखिम लेकर दूसरों को अपना सहज खेल खेलने के लिए प्रोत्साहित करता हो, ऐसे कप्तान बहुत कम होते हैं और बहुत लम्बे अरसे बाद भारतीय क्रिकेट को ऐसा कप्तान नसीब हुआ है। धोनी ने भारतीय क्रिकेट की छवि को पूरी तरह से बदल दिया है। धोनी से पूर्व भी अजित वाडेकर, बिशन सिंह बेदी, कपिलदेव, सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली, राहुल द्राविड जैसे सफल कप्तान आए और अपनी अपनी कप्तानी का दौर पूरा करके चले गए, हालाकि उनमें से कुछ अभी भी धोनी की कप्तानी में खेल रहे हैं, लेकिन धोनी इन सबसे अलग साबित हुए हैं। झारखंड राज्य से रांची नामक अपेक्षाकृत छोटे शहर से आकर भारतीय क्रिकेट में जहां एक समय तक केवल महानगरीय माहौल से ही अधिकतर खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट टीम में जगाह्बना पाते थे, वहीं माही ने केवल अपने बल बूते पर भारतीय क्रिकेट के केंद्र में आकर अपना सिक्का जमा लिया और सारे देश को जगा दिया यह बाताकर कि छोटे शहरों एवं कस्बों में भी प्रतिभा की कमी नहीं है, उचित अवसर मिलने की देर है, वे भी देश के खेलकर देश को गौरवान्वित कर सकते हैं। हार से निराश टीम में अपने आत्मविश्वास से दुबारा विश्वास जगाकर जोश भर देना केवल धोनी हीकर सकते हैं।
धोनी ने २३ वर्षों बाद क्रिकेट का विश्वकप दिलाया, २०-२० विश्वकप में जीत दिलाई, टेस्ट मैचों में भारत को पहले पायदान पर स्थापित किया, विदेशी धरती पर भारत को श्रृंखला जिताई और स्वयं एक महान बल्लेबाज और सबसे सफल कप्तान साबित किया। इंग्लैण्ड के पिछले दौरे में भारत की करारी हार का सामना भी माही ने एक महान योद्धा की भांति किया है। उस पराजित श्रृंखला में भी माही को सिरीज़ का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का पुरस्कार मिला था। उस हार को माही ने पुरी तरह से खिलाड़ी की भावना से स्वीकार किया था। अपने साथियों को उन्होंने नियंत्रण में रखा, उन्हें बिखरने नहीं दिया। हालाकि अँगरेज़ टिप्पणीकारों ने भारतीय टीम की पराजय के क्षनोंमें भारतीय खिलाड़ियों का एकाधिक बार अपमान किया, कामेंट्री के दौरान ( गधे और कुत्ते जैसे ) अपमानजनक शब्द कहे - जेफरी बायकाट और नासर हुसैन - लेकिन माही और उनके साथियों ने उन पर पलटवार नहीं किया और न ही हमारी मीडिया ने ही उन पर कोई अभद्र प्रतिक्रया व्यक्त की, क्यंकि हम खेल की भावना से खेलते हैं। और फिर क्रिकेट को सुसभ्य और सुसंस्कृत लोगों का खेल कहा जाता है ( माना जाता है ) "जेंटल मेंस गेम" ! क्या अपने विजय के नशे में ये अँगरेज़ खेल की मर्यादा को भी भूल गए थे या यहान्ग्रेजों का पुराना अहंकार है जो अभी तक बना हुआ है।
भारत कीजमीन पर जो करारी शिकस्त अब उन्हेंझेलानी पड़ी है तो ये नासर हुसैन साहब कहाँ गए, कहना मुंह छिपा लिया ? लेकिन माही ने आज तक इस मुद्दे को नहीं उठाया, बल्कि जब भारत का मीडिया - भारत इंग्लैण्ड सीरीज को बदले का सिरीज़ कहकर प्रचार कर रहा था तब भी माही ने इस तरह के प्रचार समर्थन नहीं किया, यह माही का बड़प्पन है और उनकीमहानता है जो कि एक परिपक्व कप्तान की शालीनता है. खेल में प्रतिस्पर्धा और देश भक्ति की भावना स्वाभाविक रूप से जुड़ जाती है। हर देश वासी अपने देश की जीत चाहता है और जब अपनी टीम हारती है तो देशवासी दुखी होते हैं, जब जीतती है खुशियाँ मनाई जातीहैं, यह हर खेल के साथ जुदा हुआ एक जज्बा है। लेकिन खेल में हार और जीत के समय भावनाओं व्यक्त करने की भी एक मर्यादा होती है। हम भारतवासियों ने कभी इस मर्यादा कोनहीं तोड़ा है। चाहे हम पाकिस्तान से हारे हों या जीते हों या उसी तरह से आस्ट्रेलिया भी जब हारे या जीते। हमारी खेल भावना अपने चरम पर हमेशा रहीहै। इस खेल भावना के प्रतीक हैं माही उर्फ़ एम एस धोनी। आज धोनी विश्व में एक संवेदनशील, आकर्षक, संप्रेरक खेल नायक के रूप में पहचाने जाते हैं। हार और जीत में एक तरह की स्थित-प्रज्ञता का प्रदर्शन उन्हें विशिष्ट बनाता है। उन्हें अपनी टीम के वरिष्ट खिलाड़ियों का सम्मान करना भी भी बखूबी आता है। उनकीकप्तानी में सचिन तेंदुलकर जैसा महान ( क्रिकेट का भगवान ) खिलाड़ी भी सहज और तनाव रहित मानसिकता के साथ अपना स्वाभाविक खेल खेल सकते हैं। राहुल द्राविड, वीरेन्द्र सहवाग, हरभजन सिंह, सौरभ गांगुली, वी वी एस लक्षण जैसे दिग्गज खिलाड़ियों के प्रति माहि जो आदर का भाव रकहते हुए टीम का नेतृत्व करते हैं वह वास्तव में आदर्श नायकत्व का एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं.
जीत का जश्न मनाते समय ट्राफी को लेकर अपने सहयोगियों को सौंपकर अलग हट जाना उन्हें ही भाता है। जीत के जश्न में वे हमेशा पीछे रहकर टीम के अन्य खिलाड़ियों की खुशी को निहारते रहते हैं। टीम के सदस्यों की खुशी को अपनी खुशी मानते हैं। ऐसा असाधारण कप्तान, आक्रामक बल्लेबाज, कुशल रणनीतिकार और सबसे बढ़कर एक सहज और स्वाभाविक खिलाड़ी और एक अच्छा इंसान - कहाँ मिअलता है बार बार। ये हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं। निश्चित ही धोनी ने भारतीय क्रिकेट कि छवि को संवारा है। इनकी प्रशंसा सुनील गावस्कर, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, रवि शास्त्री, अरुण लाल, मोहिंदर अमरनाथ, टाइगर पटौदी, बिशन सिंह बेदी, मदनलाल, चेतन चौहाण, श्रीकांत, दिलीप वेंगसरकर, इयान चैपल, गैरी कर्स्टन, ब्रायन लारा, एडम गिलक्रिस्ट, टोनी ग्रेग जैसे क्रिकेट के दिग्गज खिलाड़ी करते हैं वह सचमुच महान ही होगा।

Wednesday, October 12, 2011

लोकतंत्र में असहनशीलता असहमतियों का समाधान नहीं !

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसकी गरिमा इस देश के लोगों के चरित्र से आंकी जाती रहीहै। प्राचीन काल से ही यह देश त्याग, तपस्या, सेवा, परोपकार और पर दुःख कातरता जैसे मानवीय मूल्यों के लिए पहचाना जाता रहा है। गांधी, गौतम और महावीर के साथ अम्बेडकर ज्योतिबा फुले और अन्ना हजारे जैसे कर्मठ और त्यागी महापुरुषों की पावन भूमि है यह। यहाँ जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी, ज्योति बासु, वी पी सिंह, लालकृष्ण अडवानी, अटल बिहारी वाजपेई जैसे कद्दावर नेता भी हुए जिनके सैद्धांतिक मतभेद सत्ताधारी नेताओं से सदैव रहे, लेकिन कभी कसी के मध्य अभद्रता और अशालीन व्यक्तिगत टिप्पणी के भी दृष्टांत न कभी सुनाई दिए और न कभी दिखाई दिए. गान्धीजीके साथ जवाहर लाल नेहरू और पटेल के भी काफी सैद्धानित्क मतभेद रहे हैं। अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल से प्रेरित देश के विभाजन के प्रस्ताव पर गांधी और अन्य के विचार काफी अलग थे लेकिन इन मतभेदों के बावजूद इन नेताओं ने कभीकिसी का अपमान नहीं किया और न ही सार्वजनिक जीवन में
परस्पर अभद्रता का प्रदर्शन ही किया। यही स्वस्थ और शालीन तथा गौरवपूर्ण राजनीतिक व्यवहार का सूचक है। निचले स्तर पर भी जो कार्यकर्ता हर राजनीतिक दल के थे उनमें से कोई इस तरह का व्यवहार नहीं करता था जो कि उनके दल के लिए लज्जाजनक स्थिति को उतपन्न कर दे । बड़ी बड़ी जन सभाओं में भी नेता बहुत संयम और सहनशीलता के साथ अपने विचारों को व्यक्त किया करते थे। सभी नेताओं का लक्ष्य देश की प्रगति और उत्थान होता था। आज की स्थिति इसके ठीक विपरीत हो गयी है जो कि चिंता का विषय है। नेता लोग एक दूसरे पर व्यक्तगत आरोपों से लेकर अनेक प्रकार की आपत्तिजनक टिप्पणियाँ बेहिचक किया करते हैं, जनता को अपने पक्ष में करने के लिए भडकाऊ भाषण देते हैं, अपने निचले स्तर के कार्यकर्ताओं को प्रत्याशियों पर हमले के लिए प्रोत्साहित करते हैं। जन सभाएं एक तरह से आपसी वैर को बढाने का ही काम करती हैं। राजनीतिक माहौल बुरी तरह से आज दुराचरण और अपराधी मानसिकता से प्रेरित और प्रभावित है। आम जनता त्रस्त है।
संसद और विधान सभाओं में खुलकर हाथा पाई और मार पीट होती है जिसके दृश्य टी वी के सीधे प्रसारण में जनता देखती है और हमारे इस लोकतांत्रिक ढाँचे पर शर्मसार होती है। राज्यपाल के अभिभाषण के समय राज्यपाल पर भी हमले के दृश्य इस बीच मीडिया में देखे गए हैं,जिससे हमारा लोकतंत्र शर्मा सार हुआ है। नोट के बदले वोट मामले को उजागर करने के लिए संसद में ही सांसदों के द्वारा नोटों की गड्डियों का प्रदर्शन भी ऐसा ही शर्मनाक घटना थी जिसे देश वासियों ने दिल थामकर देखा।
इधर असहमतियों को व्यक्त करने का एक नया और हिंसक तरीका अपनाया जा रहाहै, नेताओंपर जूता चप्पल फेंकने का और उन पर शारीरिक हमला करने का। आक्रोश प्रदर्शन का यह गैरकानूनी तरीका लोकतंत्र में मान्य नहीं है और स्वीकार्यभी नहीं है। यही स्थिति और मानसिकता छात्रों में विकसित होती हुई दिखाई दे रही है । विश्वविद्यालयों एवं अन्य शिक्षण संस्थाओं में इधर प्राध्यापकों के साथ छात्रों कि बदसलूकी के दृष्टांत देखने में आ रहे हैं। छात्रों के लिए हमारे तथा कथित विधायक गण आदर्श बन गए हैं जो विधान सभाओं में मार पीट करते हैं।
ऎसी वारदातों के बाद आरोपी पकडे तो जाते हैं लेकिन वे इस अपराधिक कृत्य के बावजूद दंड से बच जाते हैं। यह आश्चर्य का विषय है। वास्तव में ऐसे लोगों को कठोर से कठोर दंड मिलना चाहिए।
आज शाम की घटना जिसमें अन्ना हजारे के सहयोगी प्रशांत भूषण ( सुप्रीम कोर्ट के वकील ) के साथ तीन युवकों ने उनके कक्ष में जाकर ( सुप्रीम कोर्ट के परिसर में ही ) उन पर शारीरिक हमला किया और बहुत ही भयानक रूप से उन पर लात घूंसे बरसाए। यह समूची घटना एक टी वी चैनल के कैमरे में रिकार्ड कर ली गयी जो संयोग से उस समय प्रशांत भूषण का साक्षात्कार लेने पहुंची हुई थी। प्रशांत भूषण के एक कथित टिप्पणी के विरोध में उन पर यह हमला हुआ। ऐसे कई वारदात आजकल आम हो रहे हैं। फिल्म अभिनेता अनुपम खेर के एक वक्तव्य पर एक सामाजिक वर्ग ने उन को अपने आक्रोश का निशाना बनाया था। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सभी नागरिकों को सामान रूप से होती है। यह एक मौलिक अधिकार है. किसीकी अभिव्यक्ति से कोई असहमत जरूर हो सकता है और विवाद की स्थिति में देश की न्याय व्यवस्था का सहार लिया जा सकता है जो कि इतनी सक्षम है कि ऐसे मामलों को वह सुलझा सकती है । आज अंग्रेज़ी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में भी एक प्राध्यापक पर एक छात्र ने हमला किया जो कि एक शर्मनाक घटना है और जो कि तथा कथित छात्र के चरित्र को दर्शाती है । ऐसे मामलों की गहरी छानबीन करके आरोपी को कठोर दंड देना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं में इस तरह के आचरण को नहीं स्वीकार किया जाना चाहिए। विवादों का हल बातचीत के जरिये से निकाला जा सकता है। छात्रों को अपने असंतोष को दर्ज कराने के लिए विभिन्न अधिकारी होते हैं हर विद्यालय में, उनके माध्यम से विवादों का हल निकाला जा सकता है। किसी भी शर्त पर छात्रों द्वारा प्राध्यापकों का अपमान या हमला बरदाश्त योग्य नहीं है। इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए और कारगर कदम उठाना चाहिए।
आज देश एक गहन सांस्कृतिक और सामाजिक अवमूल्यन की स्थति से गुज़र रहा है। राजनीतिक मूल्यों में गिरावट स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है। सामाजिक और अकादमिक मूल्य भी तेजी से गिर रहे हैं। इन्हें पुनर्जीवित करना होगा। इन मूल्यों के प्रति युवा पीढी में चेतना जगानी होगी। यह जिम्मेदारी शिक्षण संस्थाओं पर ही अधिक है।

Saturday, October 8, 2011

जन आन्दोलन, लोकतांत्रिक मूल्य और शिक्षण संस्थाएं

क्या लोकतंत्र का अर्थ केवल केवल एक समुदाय, एक व्यक्ति और एक प्रदेश या प्रांत के लोगों की ही आवाज़ होती है ? भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े ( भौगोलिक आकार और जनसंख्या की दृष्टि से ) लोकतांत्रिक ( राजनीतिक ) समाज में स्वतन्त्रता और लोकतंत्र की व्याख्या दुबारा करनी होगी या फिर राजनेताओं को ही इस विषय में सही जानकारी देनी होगी। लेकिन यह काम कौन करेगा ? ( बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ) । इस देश के वर्तमान राजनेता, किसकी बात सुनते हैं, किस पर उन्हें भरोसा है। राजनीति को सत्ता हासिल करने का हथियार बना दिया है इन लोगों ने हमारे देश में. हमारे इन होनहार राजनेताओं ने अपने कर्मों से सारी परिभाषाएं बदल दी हैं। राजनीति का अर्थ भ्रष्टाचार और सत्ता हथियाना भर रह गया है। जनता को किसी ने जनार्दन कहा था - किसी ने। लेकिन आज राजनेताओं की दृष्टि में जनता तो मनुष्य के दर्जे से भी निकाल बाहर कर दी गयी है।
सत्ता हासिल करने के लिए राजनेता ( नेता ) कोई भी रास्ता अख्तियार कर सकता है, उसे हर तरह की छूट है।
वह जनता को लूट सकता है, सरकारी धन का अपव्यय कर सकता है, गबन कर सकता है, अवैध खनन कर देश की भूगर्भ संपदा को कौड़ियों के मोल बेचकर अपना खजाना भर सकता है, देश में अगर उसके बैंक खाते भर जायेँ तो विदेशों के बैकों में अकूत धन इकट्ठा कर सकता है और लाखों, करोड़ों देश वासियों को भूख से मर जाने को बाध्य कर सकता है। सार्वजनिक सेवाओं को मन मरजी कीमत पर अपने परिजनों को सौंप सकता है - इस दलाली में अपने समर्थकों को भी लाभान्वित कर सकता है और दूसरी ओर गरीब जनता सब कुछ सह लेती है। उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नहीं। सरकारें, कोर्ट कचहरी, न्याय व्यवस्था, पुलिस, सब कुछ केवल अमीरों और राजनेताओं के लिए ही तो हैं हमारे देश में । मजबूर और गरीब आदमी को हमारे देश में न्याय/इन्साफ नहीं मिलता.आम आदमी इन्साफ माँगने अदालत तक नहीं पहुँच सकता क्योंकि हमारे देश में कानून और कानूनी सहायता इतनी महंगी है कि केवल धनवान ही उसकी शरण में जानेकी हैसियत रखता है।
सत्ता लोलुप राजनेता केवल सत्ता प्राप्ति के लिए देश का इतिहास बदलकर रख देना चाहते हैं। सामान्य जनता में फूट, घृणा , भेदभाव, ( जाति, भाषा, प्रांत, क्षेत्र, गाँव और शहर, शिक्षा के आधार पर ) पैदा कर, लोगों को आपस में लड़वाकर स्वयं सत्ता का सुख ( ऐयाशी के हद तक ) लूट रहे हैं। हमारे राजनेताओं ने तो अंग्रेजों को भी मात दे दिया है - क्रूरता, नृशंसता, बर्बरता, अन्याय, अत्याचार और लगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर, उन्हें गुमराह कर, देश को ही भीतर से तोड़ने के लिए षडयंत्र रच रहे हैं। इधर नफ़रत कि ऎसी आंधी इन राजनेताओं ने फैला रखी है कि हर प्रदेश में हाहाकार मचा हुआ है। इन दोनों आन्ध्र प्रदेश राष्ट्रीय पटल पर इस नफ़रत कि राजनीति का शिकार होकर लहूलुहान हो गया है। जनता तड़प रही है, बिलख रही है, लेकिन उनके आंसू, राजनीतिक दलों को दिखाई नहीं देते। राजनीतिक दलों के अपने मुद्दे हैं, जिनका कोई सरोकार जनताके हितों से नहीं है. आज हमारे राजनयिक देश को जोड़ने के बदले उसे तोड़ने के अभियान में जी जान से लगे हुए हैं। अपने क्षुद्र स्वार्थों ( लक्ष्यों ) को पूरा करने के लिए उन्होंने जो नफ़रत का जाल बिछाया है उसमें निरीह और निर्दोष जनता का दम घुट रहा है। आजादी के बाद के इन वर्षों में हमने अपनी एकता बहुत तेजी से खोई है और यह प्रक्रिया तेजी से सक्रिय है।
देश के किसी भी भूभाग का सामाजिक और आर्थिक विकास उस प्रदेश की सरकार ( राजनेता ) के हाथों होता है, इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता। जनप्रतिनिधि जनता के सेवक हैं, उनसे सही ढंग से काम लेना जनता का प्रथम अधिकार है - जनता को इस अधिकार कोई वंचित नहीं कर सकता। विकास के मुद्दे पर कभी किसी भी व्यक्ति या समूह को किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। विकास के मुद्दे पर सरकार से जवाबदेही पूछी जा सकती है। लेकिन इस विकास के मुद्दे का विकृत राजनीतिकरण करना जनता के हित में नहीं हो सकता।
देश में आर्थिक विकास की गति सभी प्रान्तों न में एक जैसी नहीं है - आर्थिक असामनता और अन्य समस्याएं बहुत सारी मौजूद हैं। इसके लिए जिम्मेदार तो सरकारें ही हैं.हमारे देश में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष में कभी संतुलन नहीं रहा। देश के विकास के मुद्दे पर कभी दोनों पक्षों में सहमति नहीं बन पाई है। राष्ट्रीय संकट के समय भी सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष एक दूसरे के खिलाफ आपसी लड़ाई में उलझे रहते हैं। यह बड़ी विडम्बना है .जनता इन स्थितियों से परेशान है। लेकिनह उसके पास कोई विकल्प नहीं है। जब भी जनता सरकार बदलकर नई सरकार लाने का प्रयास करती है तो वह नई सरकार भी सत्ता पर आने के बाद पहले से अधिक भ्रष्ट और बदतर शासन और प्रशासन ही जनता को देती है।
पिछले कुछ वर्षों से आन्ध्र प्रदेश ऎसी ही एक घातक नफ़रत की राजनीति का शिकार हुआ है। विकास के मुद्दे को छोड़कर राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने क्षेत्रीयता का मुद्दा उठाया है । एक ही भाषा, संस्कृति और रहन सहन, आचार, विचार और व्यवहार में अचानक लोगों को अलगाव और भेदभाव नजर आने लगा है। कल तक जो अपने थे वे अपने आप को अलग घोषित करने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। सन १९४७ में भारत-पाक विभाजन की परिस्थितियों याद आ रहीं है, जब कि तब हमारा दुश्मन अँगरेज़ था जिसने ह्जिंज्दुओं और मुसलमानों में फूट डालकर दो राष्ट्रों का फार्मूला देकर देश को दो टुकड़ों में बांटकर चला गया, जिसकी त्रासदी आज तक हम भुगत रहे हैं। लेकिन आज हम किसके खिलाफ लड़ रहे हैं, हमारे अपने ही लोगों के खिलाफ, अपनों को ही पराया घोषित करके यह लड़ाई किसके हित के लिए। एक देश के वासी - एक प्रांत के वासी अचानक दुश्मन कैसे हो जाते हैं ? मतभेद हो सकते हैं कुशासन या बुरे शासन के लिए या सरकारी भ्रष्टाचार के लिए आम जनता कैसे जिम्मेदार है। और आज तक की सरकारों में सभी प्रान्तों के - सभी क्षेत्रों के नेता रहे हैं। फिर किसी एक क्षेत्र के लोगों से यह नफ़रत की राजनीति क्यों खेली जा रही है। रिश्ते नाते, शादी-ब्याह आदि के सुदृढ़ बंधन में बंधे हुए हैं लोग, बरसों से सामाजिक जीवन लोगों का खुशहाल है। सामाजिक और सांस्कृतिक तौर तरीकों में स्थानीय रंगत के साथ लोगोंमें स्नेह और सौमनस्य का भाव अकूत भरा हुआ है। स्थानीय और गैर-स्थानीय के नियम को कैसे लागू किया जा सकता है।
लेकिन पिछले कुछ महीनों में आन्दोलन के नाम पर सारे प्रदेश में जो नफ़रत के बीज बोये गए हैं अब वे बीज फल देने लगे हैं। उसीका परिणाम आज हम देख रहे हैं। कल एक रेलगाड़ी में छोटी सी झड़प को लेकर एक युवक पर स्थानीय युवाओं के एक समूह ने हमला किया और आतंकित किया. इस तरह की सी स्थिति में आम आदमी का जीवन शहरों में कामकाज के स्थानों में होने लगी हैं। इस नफ़रत का प्रचार करने के लिए राजनैतिक दलों ने अपने अपने समूह बना रखे हैं। खुलकर मीडिया में भडाकाऊ भाषण दिए जाते हैं और उस पर कोई रोक नहीं होती.मौजूदा सरकार भी लाचार दिखाई दे रही है।ऎसी स्थिति में आम जीवन तहस नहस हो जाता है. आम जनता में व्यवस्था के प्रति आक्रोश की भावना जागती है। लोगों का विश्वास सरकार पर से उठ जाता है.जनता असुरक्षित महसूस करती है । जब राज्य में ऎसी कोई राजनीतिक संकट की स्थिति पैदा हो जाए तो यह सस्रकार और राजनीतिक दलों का और साथ ही जनप्रतिनिधियों ( निर्वाचित ) का कर्तव्य है कि वह इन समस्याओं को अपने स्तर पर सुलझाने के लिए कारगर कदम उठाये और जनता को राहत प्रदान करे। राज्य के विभाजन का हो या एकीकरण का या अन्य कोई भी संकट जैसे क्षेत्रीय मामले ( जल के बंटवारे का या किसानों को मुफ्त बिजली वितरण का आदि ) जो भी विवाद होते हैं उन्हें सुलझाना सरकार का कराव्या है. सरकार को प्रतिपक्ष के नेताओं के साथ मिल बैठकर बातचीत के जरिये जनता की समस्याओं को संवाद के माध्यम से सुलझाना चाहिए .लेकिन दुर्भाग्य से सरकार और अन्य राजनीतिक दलों में आज कोई तालमेल नहीं देखा जाता। प्रतिपक्ष के राजनेता सामान्य जनता की मुश्किलें हल्कराने के स्थान पर उनकी मुश्किलें और अधिक बढाने में विश्वास करते हैं। राष्ट्रीय संकट के अवसर भी सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों अपने अपने स्वार्थों को पूरा करने में ही लगे रहेते हैं।
आज आंध्र प्रदेश में पृथक तेलंगाना राज्य के गठन कि मांग जोरों पर है, यह मांग केवल तेलंगाना प्रदेश के राजनीतिक दलों की मांग है, इन राजनीतिक दलों ने इस प्रदेश की जनता को अपनी दलीले देकर विभाजन की दिशा में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है. जनता इस मांग के परिणामों से अनभिज्ञ है लेकिन यह मामला अब एक जन आन्दोलन का रूप ले चुका है। प्रदेश में लोगों के बीच कई तरह की शंकाएं पैदा हो गयी हैं। राज्य के कर्मचारी और गैर सरकारी प्रतिष्ठानों के कामगार लोग भी अब इस विचाजन की राजनीति से आहत हो गए हैं। तेलुगु भाषा की एकरूपता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। तेलुगु संस्कृति के विभिन्न आंचलिक स्वरूपों को अलगाववाद के चश्मे से दिखाया जा रहा है। आम जनता दिग्भ्रमित है। नेता लोग इस स्थिति का लाभ उठा रहे हैं। सबसे अधिक प्रभावित हैं - शिक्षण संस्थाएं । स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षा केंद्र, चाहे वह सरकारी हो गैर सरकारी, सभी शिक्षा केंद्र बंद हो गए हैं या बंद कराये गए हैं। राज्य का और प्रदेश का विकास थम गया है। आन्दोलन के नाम पर आत्महंता कार्यकलापों से सामाजिक, आर्थिक विचलन की प्रक्रियासा सर्वत्र व्याप्त हो गयी है । बिजली, पानी के सेवाएं बाधित हुई हैं। सरकार की आमदनी करोड़ों रुपयों की ख़त्म हो गयी है। परिवहन सेवाओं के हड़ताल पर चले जाने से राज्य में यातायात और आवागमन अवरुद्ध हो गया है। उधर केंद्र सरकार कोई ठोस निर्णय लेने की स्थिति में नहीं दिखाई देती। एक गतिरोध की स्थिति लोगों को परेशान कर रही है।
जिस राज्य या राष्ट्र की युवा पीढी और शैशव और किशोर आयु के छात्रों की शिक्षा इस तरह अपने ही लोगों की आपसी राजनीति का शिकार हो जाए तो उस राष्ट्र का विकास कैसे संभव है ? शिक्षण संस्थाओं को राजनीति से हमेशा दूर रखना चाहिए, आज हमें ऐसे कानून की जरूरत है। न्यायपालिका की तरह देश की शिक्षण व्यवस्था को भी स्वतंत्र होना चाहिए, तभी देश में एक प्रभावी और आदर्श शिक्षा तंत्र का विकास होगा। देश का भविष्य सुरक्षित रहेगा और देश को चलाने के लिए सुशिक्षित और सुसंस्कृत युवा पीढी तैयार होगी। राजनीतिक हस्तक्षेप से हमारी शिक्षा प्रणाली अपंग हो गयी है - निस्सहाय हो गयी है। हर छोटे बड़े मुद्दे को लेकर राजनेता शिक्षण संस्थाओं का दोहन करते हैं जो कि भारत जैसे लोकतंत्र के आअत्मघाती है। इस पर विस्तार से विचार करना चाहिए। अब समय आ गया है कि देश के शिक्षाविद इस समस्या पर गंभीरता से विचार करें और कोई ठोस समाधान देशवासियों को प्रदान करें। देश में शिक्षा के गिरते मानदंडों ( स्तर ) के प्रति माता-पिता चिंतित हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों का ह्रास तेजी से हो रहा है। सरकार की शिक्षा नीतियों पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस अपेक्षित है। शिक्षा के स्तर को कैसे ठीक किया जाए - इस पर विचार होना चाहिए। गुणवत्ता आज एक समस्या हो गयी है। राजनीतिक आन्दोलन शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित न करें - ऐसा कोई कानून शीघ्र बनना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं में छात्रों के अलावा ( जो छात्र नहीं हो, या असामाजिक तत्वों को ) अन्य को प्रवेश नहीं मिलना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं के छात्रावासों में केवल नामांकित
( अनुक्रमांकित ) छात्रों को ही रहने की अनुमति मिलनी चाहिए, अन्य को नहीं। इस नियम का कार्यान्वयन सख्ती से होना चाहिए. देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों के छात्रावासों में बाहरी लोग आकर निवास करते हैं और अराजकता फैलाते हैं, उनकी आवाजाही पर कोई रोक टोक नहीं होती. आज अधिकतर उच्च शिक्षण संस्थाओं के छात्रावासों में बाहरी लोग अनधिकृत रूप से गैरकानूनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए अपना स्थाई ठिकाना बनाकर रह रहे हैं और प्रशासन मूक दर्शक बना हुआ है।
ये स्थितियां जब तक नहीं सुधरेंगी तब तक उच्च शिक्षण की संस्थाएं अपने अकादमिक उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाएंगी। इन सुधारों के लिए सरकारको अधिक कारगर उपाय और तरीके सोचने होंगे और सख्ती से लागू करने होंगे।
शिक्षण संस्थाओं को राजनीतिक गतिविधियों से दूर या अलग रखने के लिए कानूनी प्रावधान की आवश्यकता है।

Wednesday, October 5, 2011

देश का सरकारी तंत्र कितना भोला है ?

भारत सरकार ने देश की गरीबी रेखा तय करने के लिए जो फार्मूला अपनाया है वह न केवल हास्यापद है बल्कि अत्यंत लज्जाजनक तथा अपमानजनक भी है। मान्टेक सिंह आहलूवालिया जैसे तथा कथित अर्थ शास्त्री और प्रधान मंत्री के वित्त सलाहकार कहे जाने वाले मेधावी वित्त प्रबंधक के नेतृत्वा में भारतीय आर्थ प्रणाली की इस तरह की विडम्बना -पूर्ण व्याख्या बहुत हीआक्रोशजनक है। देश की जनता दुखी है इस तरह की सूचनाओं को जाकर। भला हो मीडिया का जो आजकल हर छोटी और बड़ी सूचनाओं को देश वासियों के समक्ष उजागर कर रहा है। सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत भी बहुत साँरी महत्वपूर्ण सूचनाएं आज जनता तक पहुँच रहीं हैं इसीलिए बहुत सारे घोटाले जनता के विचार-क्षेत्र में आ रहे हैं। गरीबी की रेखा को तय करने के लिए शहरी आदमी की आय ३२/- रुपये और ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के लिए महज २५/- रुपये तय करना कितना अमानवीय है और क्रूर है इसका अंदाजा हम इसी से लगा सकते हैं कि जब यह खबर सामने आयी तो वित्त मंत्रालय में हड़कंप मच गया और सारे वित्त प्रबंधकों ने तत्काल उसकी सफाई दे डाली कि ये आंकड़े सही हैं और इसे उचित सिद्ध करने के तकनीकी कारणों को रेखांकित करने में लग गए। ( यहाँ मान्टेक सिंह साहब की सक्रियता भी गौरतलब है ) । किसी ने बहुत सही चुनौती दे दी उनको कि वे ३२/- रुपये में एक दिन गुज़ार कर दिखाएँ इस देश में आज की तारीख में। सरकार को इस बात का भय है कि अगर इस राशि को बढ़ा दिया जाए तो गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या में भारी इजाफा हो जाएगा जिससे देश की तथा कथित ( कृत्रिम ) छवि बिगड़ जायेगी.इन ३२/- रुपयों में प्रतिदिन के अनुमानित खर्च का आबंटन भी बहुत उदारता के साथ दर्शाया गया है। जिसमें भोजन के अलावा, मकान का किराया, बच्चों की पढाई का खर्च, नौकरी के लिए आवागमन का खर्च, कपड़ों का खर्च आदि शामिल हैं। यह निर्धारित राशि कितनी मजाक उडाती है, हमारे लोकतंत्र का। जब कि सस्ता खाना केवल भारत के संसद भवन में केवल सांसदों को ही उपलब्ध है वह भी रियायती कीमतों पर। ३२/- रुपये वाला खाना बढ़िया खाना केवल संसद भवन के भोजनालय में उपलब्ध है जहां आम आदमी सपने में नहीं पहुँच सकता। हमारे देश का अमीर सांसद सबसे सस्ता भोजन संसद में करता है जब कि उनका करदाता ( जिसके पैसे से ये सांसद मन पसंद महँगा भोजन करते हैं ) भूखे और नंगे रहते हैं। वाह रे लोकतंत्र तेरी दुहाई है दुहाई। सांसदों के ऐशो आराम का सामान आम आदमी अपना पेट काटकर अनेकों तरह के त्याग और परिश्रम से जुटाता है और वह खुद भूखा रह रहा है। आज कि बढ़ती हुई महंगी के प्रति कोई भी राजनेता संवेदनशील नहीं दिखाई देता। राजेंता आम आदमी को, सरकारी कर्मचारियों को अपने स्वार्थ के लिए जन आन्दोलनों में झोंक देते हैं, उन्हें कार्यालयों में काम से बहिष्कार करने के लिए उकसाते हैं ( भड़काते हैं ), बिना वेतन के हड़ताल करने के लिए मजबूर करते हैं और जब महीने के अंत में उन्हें काम बिना वेतन नहीं - की मार झेलनी पड़ती है तो ये नेता अपना पल्ला झाड लेते हैं। राजनेताओं के लिए ऎसी कोई शर्त लागू नहीं होती। उन्हें हर महीने ( कम से कम एक लाख रूपये ) वेतन के रूप में प्राप्त हो ही जाता है। आज सरकारी कर्मचारी से लेकर निजी क्षेत्र के अनेकों कर्मचारी और अधिकारी गण ऐसे ही एक बड़े आन्दोलन का हिस्सा ( जबरदस्ती ) बनाए गए हैं उनका वेतन कट गया है। वे लाचार और बेबस हैं, उनसे जबरदस्ती इस नि:सहाय स्थिति को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया है। जब कि सांसद और विधायक अपना पूरा वेतन ले रहे हैं। अब देखना है कि केंद्र सरकार इस गरीबी की रेखा के लिए कितनी राशि निर्धारित करती है ( पुनर्विचार तो करना ही होगा ) इनकी क्या समझ है। ऐसे निर्णयों पर सरकार के सारे प्रतिनिधि खामोश क्यों रहते हैं। आम आदमी हमारे देश का बहुतही लाचार और बेबस है । उसे सहनशीलता का अमृत पिला दिया गया है। वह सब कुछ सह लेता है और अपनी नियति मानकर ज़िंदगी बसर कर लेता है।
इस विषय पर सही सोच वाले नागरिकों की बहुत तीखी प्रतिक्रया सामने आयी है। अब धीरे धीरे देश जाग रहा है।
( ऐसा कभी कभी अचानक लगने लगता है ) अन्ना हजारे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता और आन्दोलन कारियों ने इधर हमारे देश की सामान्य जनता को भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत दी है और इस महामारी से मुक्त होने के लिए सारे देश ओ संगठित किया है। अंतत: एक ऐसा नेतृत्व उभरकर सामने आया है जो कि आगामी दिनों में कारगर उपाय निकाल लेगा, देश की ऎसी समस्याओं से जूझने का। आज हमें अपने नेताओं को उनके कर्तव्य को याद दिलाने का अवसर आ गया है। लोगिन में धीरे धीरे हिम्मत जुट रही है लेकिन अभी बहुत लम्बी दूरी तय करनी है। साधारण लोगो का विश्वास सरकारी तंत्र पर से पूरी तरह से उठ गया है। इसे फिर से बहाल करने के लिए हमें व्यवस्था में परिवर्तन लाना होगा। अन्ना ने सही कहा है कि हमें एक और आजादी की लड़ाई लड़नी है। हमें भ्रष्टाचार मुक्त समाज के स्वरुप को साकार करने के लिए परस्पर विभेदों को भुलाकर एक जुट होना पडेगा, जो कि कठिन है लेकिन असंभव नहीं। अब वह समय आ गया है जब हम अपने जन - प्रतिनिधियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाएं ।
हमें देश में हर स्तर पर सुशासन की आवश्यकता है जो आज तक हमें उपलब्ध नहीं हुई। लेकिन अब समय आ गया है कि हम अपने राजनेताओं से ( जो कि जनता के सेवक भी हैं ) सुशासन की मांग करें और उनसे सुशासन ही करवाएं।
( गुड गवर्नेंस ) अन्ना हजारे ने जनालोकपाल बिल को अगले शीतकालीन सत्र में संसद में प्रस्तुत करने की मांग की है, अन्ना हजारे की इस मांग में सारादेश शामिल है। आज अन्ना की आवाज देश कीआवाज बन गयी है। निश्चित रूप से अन्ना की यह आवाज और अन्ना का यह दृढ संकल्प सरकार के लिए चेतावनी है। अन्ना ने देशवासियों को आन्दोलन का नया अर्थ दिया है। आन्दोलन का अर्थ हिंसा या तोड़फोड़ नहीं होता। आन्दोलन का अर्थ विरोध प्रदर्श लेकिन शालीन और शांतिपूर्ण तरीके से, बातचीत के जरिये अपनी मांगों को मनवाने का तरीका ही आज का जन आन्दोलन होना चाहिए। इस प्रक्रिया में निश्चित ही समय लगता है। दोनों पक्षों को एक आम सहमति बनानी पड़ती है। आम सहमति से ही विभेद सुलझाते हैं। आम सहमति ही सब विभेदों का हल हो सकती है ।