Saturday, December 26, 2009

नफ़रत के बीज बोना सबसे आसान काम है , मैत्री के पौधे को सींचना सबसे कठिन चुनौती है

राजनीतिक कूट नीति आम जनता में सत्ता की राजनीति खेलने के लिए लोगों में आपसी भेदभाव पैदा करती है । आज जो भी राजनीतिक आन्दोलन हो रहे हैं उन सबके पीछे राजनेताओं की सत्ता प्राप्त करने की ही होड़ लगी हुई है । केवल सत्ता की राजनीति है यह सब। चाहे वह कोई भी राजनीतिक दल हो आज सब सत्ता की ही राजनीति खेल रहे हैं और वह भी जनता के अधिकारों के एवज में .जाति, धर्म, कुल, प्रांत, क्षेत्र, स्थानीयता, भाषा, गांव और शहर आदि के धरातल पर लोगों को बांट बांट कर राजनेता सता को हासिल करने की प्रक्रिया को ही अपनी जीवन का उद्देश्य मान रहे हैं। लोगों में तरह तरह के विभेद करना ही इन राजनेताओं का धंधा है । निर्दोष, भोलीभाली जनता इनके जाल में फंसकर अपना सब कुछ इन राजनेताओं को सौंप देती है, इन पर भरोसा करती है कि ये जनता की समस्याएम सुलझा देंगे पर उन्हें अंत में निराशा ही हाथ आती है .
आज का दौर सामाजिक और राजनीतिक विखंडन का क्लिष्ट दौर है। विखंडन की ही राजनीति चल रही है। जनता के जीवन के साथ राजनेता राजनीति कर रहे हैं । राजनीतिक समस्याओं का राजनीतिक समाधान बातचीत के माध्यम से निकालने के बदले, जनता में फूट डालकर, उन्हें आपस में लड़वा रहे हैं, यह निंदनीय और अस्वीकार्य है. राजनीतिक आतंकवाद -साम्प्रदायिक आतंकवाद से अधिक खतरनाक होता है . इसे आज के राजनेताओं को समझना चाहिए । आन्ध्र प्रदेश की राजनीति इन दिनों कुछ इसी राह पर चल पड़ी है, यह चिंता का विषय है। सारे राजानेता ( सभी डालो के ) कन्फ्यूज्ड मानसिक स्थति में हैं । विभ्रमित और दिग्भ्रमित हैं। केवल सत्ता होड़ में
विचारधारा, सिद्धांत और नैतिक मूल्यों को त्यागकर महज सत्ता हासिल करने के चक्कर में पड़ गए हैं । जनता कहां है ?

University Campuses OR battle fields ?

It is painful to see that in Andhra Pradesh the premium institutions of higher learning viz Universities are suffering very sadly from the menace of political agitations. Post Graduate students, whose talent and intellectual potential is needed for the constructive participation in the development of socio-economic strength of the country, is being calously misused by the confused politicians of today. Agitations should be controlled and monitored and also steered by the professional politicians ( elected leaders ), who wish to represent the society and who have adopted politics to do some service to th people. It is the responsibiloity of the Government consistng of elected leaders to provide good governennce alongwith safety and security to the lives of common man. But what do we see these days ? Politicians are provoking the youth ( of all ages ) to adopt violent methods to support their reasonable/unreasonable demands. Students of all ages and all sections ( rural/urban) are being misguided by their psuedo-patriotism to fulfill their selfish motives. these days it is all the power game.
Agitations should be led and fought among the politicians and poloitical parties and among common people in the socity who have more important tasks of serving the nation in their capasities. Politicians have to draw a line for the students so as not to participate in such destructive and negative anti-social activities which may cause harm to the fellow citizens.
University Campuses are very sacred places of learning and the santity of these temples of learning have to be protected by the social system which includes political system in a democracy. Students should be kept away from participating in politics and they should be enouraged to build their academic career to become outstanding intellectual. We need the best out of the youth, today. Universities should be able to produce the best student products who can run the country in their future. Unfortunately, these days campuses are more involved in unacademic (political ) activites ( provoked by politicicians ) . We have 450 Universities
( approximately ) compared to 1500 Universities in China, but the kind of intellectuals we are producing, is not satisfactory or proportional to the potential. Knwoedge commissions and so many other academic evaluatory agencies have been trying to suggest ways to improve this situation ( from time to time ) but we are unable to improve the attitude of the politicians nor education poicy makers. We could not drive this idea in to the mionds of the present day politicians that students participation in active politics on university campus is suicidal to the career of the students. Off late students union elections have been banned in some of the universities (at least in south ), but this has not improved the situation as national and regional political parties have established their students wings in every university and are creating a
non- academic atmosphere on campuses. The political rivalry is as strong as among the main political parties even on campuses and they settle their scores on campus in exhibiting their
power.
On going Telengana agitation is a typical example of provacative destruction and disruption of normal life of common man, due to the avoidable intervention of University students whose academic careers are at stake now, because they have already incurred loss of a semester and the present ( January to April ) semester also is in visible danger. The students of these (agitating ) universites may not be able to qualify to swrite national and international level tests to proceed to higher studies within and outside India.
Some good samaritan has to convince the politicians ( of political parties ) involved in negotiations for a separate statehood to spare the university students fromt he ongoing turmoil and to request the students to return to the class rooms to pursue their studies to achieve their determined goal. The politicians may ask the students community to leave politics for themselves as it is their area to solve the problems of the public. They are competent enough to find ways to solve all sorts of problems including the problem of separate statehood. Also politicians should see that normalcy is restored on campuses. it is the duty of the political parties to ensure safety and security to the public porperty, by forcning the government mechanism to provide enough protection. Even University Campus also comes under the perview of the government if it comes to the issue of law and order. Campuses cannot be left to so called frenzy of unruly mobs, if they occupy the campus, to indulge in damaging public property and misbehaving with public on road. Such elements have to be dealt with sternly and they must be brought to the book. Intervention of human rights commission, when government deals with unruly youth on campus is a serious issue to be debated in the interest of public or tax payer.
It has unfortunately observed that, people are scared to walk on the streets, to ride their vehicles, to leave their houses locked, to continue business. The continuous Bundhs - declared by zso called poloitical parties these days have created havoc and have caused immense inconvenience to the public life. This situation is unwsarranted and against the norms of a civilized society in a demoracy. I earnestly appeal to the political parties to educate and ecourage the students to return to classes and to handle the politics themselves.

Wednesday, December 23, 2009

लोकतंत्र में आम सहमति का क्या अर्थ है ?

कोई समझाए कि लोकतंत्र में आम सहमति का अर्थ क्या होता है और इसे कैसे साधा जा सकता है। और जब तक क्सीई भीमुद्दे पर आम सहमति न हो तो क्या किया जाए ? बहु संख्यक और अल्प संख्यक के अधिकार क्या हैं ?
आम सहमति न हो तो क्या असहमत दल/व्यक्ति और सहमत दल/व्यक्ति को हंसा पर उतर जाना चाहिए ? क्या हिंसा के सहमति पैदा की जा सकती है ? राजनीतिक असहमति को सुलझाने के कौन से रास्ते है और कौन से कारगर उपाय हैं । विकसत, अर्धविकसित और पूर्ण विकसित प्रजातंत्र में अंतर क्या है। क्या भारत विकसित प्रजातंत्र है ?
एडवांस्ड डेमोक्रेसी ( अमेरिका ) में क्या इसी तरह से हिंसा के माध्यम से किसी की बाहें मरोड़कर अपने लक्ष्य को हासिल किया जाता है ? गांधी और गौतम के देश में आज हिंसा के आतंक से अपनी बात मनवाने का एक नया तरीका ईजाद किया जा रहा है। अपनी अवैध और निहित स्वार्थो की पूर्ति भी इसी रास्ते से लोग करते और करवाते हैं हमारे देश में । इसीलिए आज यह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। मांग विवेकपूर्ण है या नही यह कौन तय करेगा ? हमें राष्ट्रीय चरित्र प्रति सजग और विचारवान होना होगा। स्थानीयतावाद आज राष्ट्र के हट में घातक सिद्ध होता जा रहा है। राष्ट्रीय सोच का ह्रास होता जा रहा है । इस पतनशीलता को किस्सी तरह रोअकाने का प्रेस करना होगा। यह एक निस्वार्थ, स्वच्छ आस्थावादी नेतृत्व से संभव है .
एम वेंकटेश्वर

आज फिर हैदराबाद और आसपास के प्रदेशा में हिंसा का तांडव शुरू / यह कैसा लोकतंत्र है ?

कल शाम भारत सरकार कि ओर से तेलंगाना मुद्दे पर गृह मंत्री मान्यवर श्री पी चिदम्बरम के द्वारा जारी अधिकारक
वक्तव्य में यह स्पष्ट करा दिया गया कि अभी पृथक राज्य के गठन के लिए सभी राजनीतिक दलों के एक मत होने की आवश्यकता है इसलिए व्यापक बहस की ज़रूरत है इसलिए जनता को ( दोनों प्रदेशो के ) संयम रखना होगा और राज्य में कानून और व्यवस्था को भंग नहीं करने की अपील भी की गयी । यह एक राजनीतिक पहल के लिए की गयी अपील है न कि कोई फरमान किसी के भी पक्ष या विपक्ष में यह नही है। जैसा कि कुछ स्वार्थी नेता इसे एनी तरीके से पेशा कर रहे हैं और लोगो को भड़का कर हैदराबाद और उसके आस पास के क्षेत्रो में हिंसा भड़का रहे हैं । इस वक्तव्य के टी वी पर प्रसारित होंव के कुछ ही मिनटों में शहर के कुछ हिस्सों में सड़क पर चलने वाले आम आदमियों पर और उनके वाहनों पर घातक हमले किये गए। कई निजी गाडियों को तोडा गया और आग लगाई गई। बसों को आग में झोंक डाला गया। पुलिस और जनता देखती रह गई । इसमें तथा कथित असामाजिक तत्व और छात्रो के होने की संभावना बताई जा रही है । इसे आम जनता का आक्रोश कहकर राजनेता हिंसा का औचित्य घोषित करने में श्री ले रहे हैं । आम आदमी का जीवन दूभर हो गया है। अनिश्चितताओं में जीवन घिर गया है। जन जीवन ठप्प हो गया है। पेट्रोल पम्प बंद कर दिए गए शाम ही को । जनता परेशान भटकती रही रात भर कि कही कोई थोडा सा पेट्रोल मिल जाए ताकि वे अपने घरो को पहुंच सके । अस्पताल जाने वाले बीमारों की हालत की ओर इस्सी का ध्यान नही जा रहा है। यात्रा पर निकले मुसाफिर सड़क पर बैठे है - उन्हें कोई सवारी नही मिल रही है। साग - सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं । स्कूल और कालेज बंद हो गए हैं । परीक्षाए रद्द कर दी गयी है। शैक्षिक सत्र अस्स्ता व्यस्त हो गए हैं - राज्य का पर्यटन राजस्व बुरी तरह प्रभावित हुआ है। विभिन्न प्रकार के राजस्व की वसूली नही हो रही है। होटल उद्योग मंदीका शिकार हो चुका है। हैदराबाद आने वाले पर्यटकों के लिए नवम्बर दिसंबर और जनवरी के महीने सुहावने हॉट एहैम इसीलिए इन्हीमहीनो में अधिक से अधिक पर्यटक
हैदराबाद और आन्ध्र प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में घूमते हैं और इससे राज्य को तथा निजी क्षेत्र के व्यापारियों को कमाने साधन उपलब्ध होता है । सब कुछ ख़तम कर दिया इन अदूरदर्शी राजनेताओं ने - केवल अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए जिसे वे जन-आन्दोलन का छद्म रूप दे रहे हैं । केवल आर टी सी ( राज्य परिवहन निगम ) को चार सौ करोड़ का नुकसान. बताया जा रहाहै । आये दिन सड़को पर राज्य परिवहन निगम के बसों पर पथराव और आगजनी की घटनाए ऐसे घटित होती हैं जैसे यह कोई आम बात हो । आन्ध्र प्रदेश एक उत्तम और आदर्श राज्य माना जाता रहा है। यहां के लोग बहुत ही मिलनसार और सुसंस्कृत हैं । हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए यह नगर विश्व में मशहूर है। यहां सभी जातियों , धर्मो और संसकृतियों के लोग प्रेम और परस्पर आदर सम्मान के साथ अनेको दशको से रह रहे हैं । यहां की सम्मिलित तहजीब देश के लिए मिसाल है , लेकिन इसे आज जैसे ग्रहण लग गया है । किसी की नज़र लग गयी है। कल फिल्मी कलाकारों पर भी हमले हुए । उनकी शूटिंग रोक दी गयी और उनके साजो सामान को तोड़ दिया गया । कलाकार किसी एक धर्म या जाति का नही होता वह जनता का होता
है सारे समाज काहोता है सारे राष्ट्र का होता है। कला मनुष्य मात्र के लिए होती है । जिस समाज में कला एवं कलाकारों अपमान हो वह समाज सभ्य कहलाने का दावा नहीं कर सकता। तो क्या हम इन समाज विरोधी आंदोलने के रास्ते समाज को कुरूप और विकृत बनाने की दिशा में चला पड़े हैं - हमें आत्मालोचन करनाहोगा ।
इस जनविरोधी हिंसा को रोकने का कोई कारगर उपाय सोचना होगा । आज के राजनेता समाज को विकृत कर सकते हैं उसे सुन्दरता प्रदान नहीं कर सकते । हमें मनुष्यता की रक्षा करनी है - पाशविकता की नहीं ।
एम वेंकटेश्वर -

Monday, December 21, 2009

त्रिभाषा सूत्र के सख्ती से अनुपालन की सिफारिश - भाषा आयोग द्वारा

आज एक हिन्दी दैनिक में राजभाषा आयोग द्वारा भारत में त्रिभाषा फार्मूले की सख्ती से अमल करने की सिफारिश संबंधी समाचार देखने/पढ़ने को नसीब हुआ। ऐसे समाचार आये दिन छपते ही रहते हैं और कोई इसे गंभीरता से नही लेता । भाषा एक मजाक है हमारे देश में । (कुछ ) अखबार वालो को मुख पृष्ठ पर छपने के लिए सुर्खियों की तलाश रहती है और फिर, भारतीय भाषाओं ( हिंदी ) संबंधी खबरें केवल हिन्दी के अखबारों में अपना किंचित स्थान पा लेने में सफल हो जाती हैं । इसी सिलसिले मम हाल ही में धारवाड़ में संपन्न ' शिक्षा में भाषा ' विषय पर आयोजित द्विदिवसीय एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धारवाड़ केंद्र में सम्पन्न हुआ । दिनांक १० और ११ दिसंबर २००९ को। यह संगोष्ठी अनेक अर्थों में बहुत ही सार्थक और सारगर्भित संगोष्ठी रही। मुझे भी इस राष्ट्रीय महत्व के बौद्धिक विमर्ष में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ । दो दिनों के इस आयोजन में देशा की राजधानी से भी प्रमुख भाषाविद, और साहित्यकारों ने ईमानदारी से हिस्सा लिया । परिणाम स्वरुप कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष उपलब्ध हुए । साथ ही बहुत ही स्तरीय प्रपत्रों से भी मुखातिब होने का सुयोग मिला ।
शैक्षिक दृष्टि से भी इस संगोष्ठी में शिक्षा के माध्यम से जुड़ी अनेक समस्याओं पर प्रभावी चर्चा हुई .
प्रो दिलीप सिंह , प्रो वी आर जगन्नाथन, प्रो गंगा प्रसाद विमल, प्रो डिमरी, प्रो ऋषभदेव शर्मा, प्रो विजयराघव रेड्डी, प्रो अमर ज्योति, प्रो नारायण राजू तथा अन्य अनेक प्रबुद्ध शिक्षाविदों ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में ' भारतीय भाषाओं की वर्त्तमान स्थिति पर विचार किया । इस संगोष्ठी में सभी विद्वानों की एक ही सामान्य चिंता दिखाई दी - हमारे ही देशा में शिक्षा के लिए प्रयुक्त भाषा माध्यम पूरी तरह से असंगत और अनुपयोगी हैं। अंग्रेज़ी भाषा का अनाधिकारिक दबदबा, त्रिभाषा सूत्र के अनुपालन में कोताही ( और बेईमानी ) , असंतुलित और मनमाने ढंग से भाषा माध्यमो के साथ खिलवाड़ - जैसी असंख्य अनियामितिया खुलकर सामने आई । हिन्दी की वर्त्तमान दशा - शिक्षा के माध्यम के रूप में - बहुत ही हाशिये पर है। भारतीय भाषाओं को शिक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध किया जा रहा है । शिक्षा के माध्यम को लागू करनी की कोई कारगर (एक ) नीति आज तक हमारे देशा में नही
बन पाई है । इससे अधिक दुर्भाग्य इस देश का और क्या हो सकता है ? संसार के किसीभी दशा में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नही है - सिवाय भारत के ? इस मुद्दे पर विचार करने के लिए आज हमारे देश के नेता और नौकरशाह लोग सोचने के लिए तैयार ही नही हैं । संविधान के अनुच्छेद में राजभाषा को तो परिभाषित किया गया है लेकिन राष्ट्रभाषा (शब्द) को बहुत ही सफाई से बाईपास कर दिया गया है ? आखिर क्यों ? क्यों आज भी हमारे नेता और नौकरशाह लोग हिन्दी को खुलकर राष्ट्रभाषा, शिक्षा के माध्यम की भाषा और कामकाज की भाषा स्वीकार नही करते ? हिन्दी के साथ अन्य सभी भारतीय भाषाओं को यह दर्जा हासिल करने का पहला हक़ है । फिर क्यों सारा ऎसी गहरी नींद सो रहा है की वह साथ सालो के बाद भी जाग सकने की स्थिति में नही है। अंग्रेज़ी को हम एक महत्वपूर्ण विदेशी भाषा के रूप में सर पर बिठा सकते हैं -इतना ही लेकिन उसे हम अपनी आम अभिव्यक्ति का माध्यम कैसे बना सकते हैं ? हम अंग्रेज़ी का विरोध उस अर्थ में नही करना चाहते । लेकिन उसकी भूमिका को स्पष्ट करना होगा और उसके हस्तक्षेप को सीमित करना होगा। उसकी दादागिरी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर नही चलने देंगे । प्रत्येक ब्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का जन्मसिद्ध अधिकार मिलना ही चाहिए। इसके लिए सरकार का कर्त्तव्य है की वह ऎसी व्यवस्था करे जिससे हर नागरिक को उसका भाषा का अधिकार स्वाभाविक रूप से उसे उपलब्ध हो . यह एक बहुत ही लम्बी राह है - चुनौती से भरी हुई । उत्तर के लोगो द्वारा दक्षिण की भाषाओं की उपेक्षा भी एक बड़ा विवाद का मुद्दा है जिसे जल्द से जल्द सुलझाने से ही हम एक सुनिश्चित दिशा में आगे बढ़ सकेंगे . भारत वासियों को परस्पर एक दूसरे की भाषाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना होगा तभी हम देश में भारतीय भाषाओं के मध्य व्याप्त दूरियों को समाप्त कर पायेंगे .साक्षरता अभियान में भारतीय भाषाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिलाना होगा। शिक्षा का आधार हिन्दी और भारतीय भाषाए होना चाहिए तभी हम भी चीन और जापान की तरह स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में उभर सकेंगे .जो देश अपनी भाषामें अपने नागरिको को शिक्षा उपलब्ध कराता है वही देश शक्तिशाली बन सकता है. भारतेंदु बाबू ने इसीलिए ' निज भाषा से ही उन्नति संभव है ' का नारा बरसों पहले दिया था इस देश को । आज हमें वही काम करना है । दशा में एक जनांदोलन की आवश्यकता है - भाषिक आन्दोलन- एक और नवजागरण - भाषिक जन जागरण, यही एकमात्र उपाय है अपनी अस्मिता की रक्षा का ।

Sunday, December 20, 2009

वर्त्तमान राजनीतिक गतिरोध के लिए जिम्मेदार कौन ?

पिछले एक महीने से राज्य में भयानक उथल पुथल मची हुई है । एक राजनीतिक अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है । सारी राजनीतिक पार्टियां असमंजस की स्थिति में फंसी हुई हैं। तेलंगाना मुद्दा एकाएक ऐसे उभरकर आया की लोग हैरत में हैं की यह कैसे इस तरह विकराल रूप धारण कर बैठा ? मुख्य मंत्री डा वाई एस राजशेखर रेड्डी की असमय मृत्यु से ही अलगाववादी राजनीतिक विचारधारा ने अचानक सक्रियता दिखाई और के सी आर जैसे अलगाववादी नेता की मेहरबानी से राज्य में अराजक स्थितियां पैदा हो गईं । तेलंगाना क्षेत्र में खूब हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाए हुई । पुलिस मूक दर्शक बनी रही । आम आदमी पर हमले हुए जिसे टी आर एस पार्टी के नेताओं ने समर्थन प्रदान किया । वि वि परिसर रणभूमि में परिवर्तित हो गया। भारी संख्या में पुलिस बल और अन्य रक्षक बल तैनात किये गए .के सी आर का आमरण अनशन नाटकीय परिस्थितियों में समाप्त हुआ लेकिन कांग्रेस की आलाकमान ने एक भारी चूक कर ही दी । आनन् फानन में पृथक तेलंगाना की मांग के पक्ष में गृह मंत्री से घोषणा करवा दी की पृथक तेलंगाना के लिए उचित कार्यवाही शुरू की जाए । बस इस ऐलान से राज्य के अन्य हिस्सों में एक नया आन्दोलन शुरू हो गया । तेलंगाना क्षेत्र के नेता जहां एक और तेलंगाना राज्य के अवतरण की संभावनाओं को लेकर हर्षित हो रहे हैं वही एकाएक राज्य के अन्य दो प्रदेशो ( आंध्र और रायलसीमा) में संयुक्त/एकीकृत राज्य आन्ध्र प्रदेश की यथास्थिति के लिए आन्दोलन बहुत बड़े पैमाने पर शुरू हो गया है. तेलंगाना के नेता ( टी आर एस पार्टी के नेता ) इस आन्दोलन को पैसों से प्रायोजित कहा रहे हैं जो की सर्वथा गलत है। यह देखने में आया है की उधर के लोगो की भावनाए भी उसी तरह से वास्तविक हैं जैसे की तेलंगाना प्रांत के लोगो की .इस प्रादेशिक विभेद की आग को भड़काने वाले लोग अपने स्वार्थ के लिए आम जीवन को तहस नहस करके उसकी आड़ में अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं । आम आदमी विभाजन कभी नही चाहता । मुद्दा विकास का है और विकास के उद्देश्य को हर हाल में और हर समय सर्वोपरि माना जाना चाहिए चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो . यदि कोई भूखंड किन्हीं कारणों से आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ जाताहै तो उसका समाधान सभी के परस्पर समन्वय से हो सकता है। फिर यह जो स्थिति उत्पन्न हुई है यह अनेको वर्षो के कुप्रबंधन के कारण हुई है जिसके लिए समुचित प्रयास नही किये गए। आजादी से लेकर आज तक की बनी सरकारों में यहाँ के भी तो नेता हमेशा से रहे हैं ? वे फिर क्या कर रहे थे ? जहां हम एक और विश्वग्राम की कल्पना को साकार करने की जी तोड़ कोशिश में लगे हुए हैं वही हम अपने ही (छोटे से) राज्य को दो या तीन टुकड़ो में
खंडित कर देना चाहते हैं ? आखिर किसलिए ? अलगाव क्यों ? और यह दोषारोपण यहाँ बसे हुए लोग पर अन्यायपूर्ण रूप से लगाया जा रहा है । राजनीतिक व्यवस्था खराब है तो उसे बदला जाना चाहिए न की बसे हुए लोगो को विस्थापित करने के लिए आन्दोलन करना चाहिए .तेलंगाना का आन्दोलन भीतर से विस्थापन का आन्दोलन जैसा लग रहा है। अनेको दशको क्स्से बसे हुए लोग कहा जायेंगे > क्यों जायेंगे ? कांग्रेस आलाकमान की एक छोटी सी भूल ने सारे राज्य के निवासियों की नींद उड़ा दी है । स्थानीय राजनीतिक दल हमले पर उअतर रहे हैं । कानून और व्यवस्था बिगड़ चुकी है। राज्य गृह युद्ध के कगार की दिशा में बढ़ रहा है । सभी दलों के अधिकतर सदस्य विधायक पद से इस्तीफा दे रहे हैं । यह सही संकेत नही है। अगर यही स्थिति बनी रही तो राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है. किसी भी तरह से राज्य सरकार को अपनी कूटनीति का उपयोग करके लोगो को इस राजनीतिक गतिरोध से मुक्त करना होगा। अनेको तरह के विभ्रम का प्रचार भी हो रहा है, सरकार का निर्णय स्पष्ट नही है, इसलिए जनता परेशान है । स्कूल और कालेज वीरान पड़े हैं । यदि समय पर परीक्षाए नहीं हुई तो वर्ष के अंत में इसका खामियाजा छात्रो को भुगतना पडेगा । वे आगे की पढाई के लिए प्रवेष परीक्षाओं में नही बैठ पायेंगे । विदेशो में जाकर पढ़ने के इच्छुक छात्र ज्यादा प्रभावित होंगे । इसलिए ऐसे आंदोलनों से छात्रो को दूर ही रखना चाहिए । लेकिन राजनेताओ के लिए छात्र शक्ति ही मुफ्त में उपलब्ध होती है ऐसे कामो के लिए।
इसलिए आज सरकार को बहुत ही सावधानी से जनता को इस अनिश्चय की स्थिति से निकालकर आम जीवन को सामान्य करने की दिशा में पहल शुरू कर देनी चाहिए .