Saturday, February 16, 2013

सी सी एम बी हैदराबाद मे द्वि अर्द्ध दिवसीय हिंदी मे विज्ञान लेखन - समस्याएँ और समाधान - विषय पर कार्यशाला सम्पन्न

दिनांक 14 और 15 फरवरी 2013 को अपराह्न दो बजे से 5.30 तक एक द्विदिवसीय  कार्यशाला का आयोजन संस्था के राजभाषा प्रकोष्ठ ने सफलता पूर्वक किया । सी सी एम बी के राजभाषा अधिकारी  डॉ चन्द्रशेखर ने इस कार्यशाला का संचालन और संयोजन किया जिसमे सी सी एम बी हैदराबाद के लगभग 30 वैज्ञानिकों ने भाग लिया। इसका उदघाटन संस्था के निदेशक माननीय डॉ मोहन राव ने किया । प्रथम व्याख्यान डॉ राधेश्याम शुक्ल संपादक : भास्वर भारत " ( मासिक ) ने प्रस्तुत किया । शुक्ल जी ने हिंदी मे विज्ञान लेखन की आवश्यकता - और उसके परिणाम - विषय पर चिंतनप्रधान सारगर्भित व्याख्यान दिया। वर्तमान वैज्ञानिक परिदृश्य मे भारतीय जनमानस को वैज्ञानिकों के शोध के संबंध मे कोई समुचित जानकारी नहीं दी जाती या मुहैया कराई जाती । राष्ट्रीय स्तर पर सैकड़ों वैज्ञानिक अहर्निश विभिन्न विज्ञान के क्षेत्रों मे नवीन खोज कर रहे हैं, किन्तु उनकी सूचना एवं उनके खोज के परिणामों को भारतीय भाषाओं मे उपलब्ध कराने से ही उस शोध कार्य का प्रयोजन सिद्ध होगा। हमारे देश मे वैज्ञानिकों द्वारा शोध कारी की रिपोर्टिंग केवल अंग्रेजी भाषा मे ही होती है तथा उनकी उपलब्धियों को भी प्रतिवेदन के रूप मे केवल अंग्रेजी मे सुरक्शित रखा जाता है। या यदि उसे जारी किया भी जाता है तो अंग्रेजी मे ही जारी किए जाते हैं। हमारे देश की जनता देश मे सम्पन्न शोध कार्य की जानकारी से पूरी तरह से अनभिज्ञ है और बेखबर भी। अंग्रेजी मे प्रसारित वैज्ञानिक शोध कार्यों के विवरण को समझने वाली अत्यल्प होते हैं । इसीलिए विज्ञान के क्षेत्र मे होने वाले शोध कार्यों की जानकारी भारत मे आम जनता तक पहुंचाने के लिए हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषों को वैज्ञानिको द्वारा स्वीकार कर ( सीखकर ) अपने शोध कार्य के परिणामों को हिंदी मे लोगों तक पहुंचाने का प्रयास आवश्यक है। प्रकारांतर से प्रतिभागियों ने वक्ता से अपनी अनेकोंभाषा से संबंधित जिज्ञासाओं का सामाधान प्राप्त किया। शुक्ला जी ने भारत की वर्तमान भाषिक समस्या पर प्रकाश डाला और देश मे हिंदी के प्रचार प्रसार मे जो गतिरोध हैं उनसे प्रतिभागियों को अवगत कराया। अंग्रेजी और हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के परस्पर संबंध को भी उन्होने सकारात्मक ढंग से समझाया जिससे प्रतिभागी प्रभावित हुए । अंग्रेजी शब्दों के भारतीय भाषाओं मे सही समानकों के प्रयोग मे जो कठिनाइया आती हैं जिससे की भारतीय शब्दों के मूल अर्थ मे जो विसंगति पैदा होती है उसकी ओर उन्होए सोदाहरण लोगों का ध्यान आकर्षित किया जिससे प्रतिभागी लाभान्वित हुए।
दूसरे दिन मध्याह्न के सत्र मे मुझे सी सी एम बी के वैज्ञानिकों को संबोधित करने का अवसर प्राप्त हुआ । इस सत्र मे मैंने " विज्ञान लेखन मे पारिभाषिक शब्दावली की समस्या और समाधान " विषय पर व्याख्यान प्रस्तुत किया जो कि प्रतिभागियों के लिए रोचक और लाभप्रद रहा। मैंने अपनी बात भाषा, उसकी परिभाषा, भाषा के अंग, भाषा विज्ञान का अर्थ और उसकी उपयोगिता, भाषा के प्रयोग के सामान्य और विशेष स्तर, भाषाओं के प्रकार आदि विषयों पर आधारभूत जानकारी प्रदान की जिसे प्रतिभागियों ने मनोयोग सहित ग्रहण किया। हिंदी भाषा की विशेषाटोन को वैज्ञानिकों ने सराहा और आत्मसात किया। हिंदी मे, संस्कृत कीधातुओं के साथ उपसर्ग और प्रत्यय जोड़कर शब्द निर्माण की प्रक्रिया  सोदाहरण प्रदर्शित करने से लोग प्रसन्न हुए और प्रेरित भी । हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता और अंग्रेजी से उसकी संरचनात्मक तुलना से सभी को भारतीय भाषाओं मे निहित प्रभावी संप्रेषणीयता का सशक्त आभास हुआ। पारिभाषिक शब्दों का अर्थ, भेद और उसके महत्व को समझाया गया जिससे प्रतिभागी गण प्रभावित हुए । हिंदी मे पारिभाषिक शब्दों के निर्माण करने की विधियों को विभिन्न संप्रदायों के माध्यम से समझाया गया। वैज्ञानिक पारिभाषिक शब्दावली के उदाहरणों को विपुल संख्या मे प्रदर्शित कर अंतर्राष्ट्रीय शब्दों के चयन की प्रक्रिया और उससे लाभ को दर्शाया गया। संस्कृत के तत्सदम और तद्भव शब्दों से पारिभाषिक शब्दों के निर्माण की विधियों को विस्तार से प्रतिभागियों के समक्ष प्रस्तुत किया  गया जिससे प्रतिभागी बहुत ही प्रभावित हुए। अंत मे प्रतिभागियों ने अपनी प्रतिपुष्टि मे व्याख्यान की सराहना की और भविष्य मे ऐसे कार्यशालाओं के अधिकाधिक आयोजन का प्रस्ताव रखा जिसे संयोजक महोदय ने स्वीकार किया। प्रश्नोत्तर काल मे प्रतिभागियों के जिज्ञासाओं से संबंधित प्रश्नों  के संतोषजनक उत्तर दिये गए । धन्यवाद ज्ञापन के साथ कार्यशाला सम्पन्न हुई ।
सी सी एम बी के अति विशिष्ट वैज्ञानिकों को कार्यशाला मे हिंदी भाषा संबंधी लेखन कौशल की बारीकियों को साझाने का जो अवसर मुझे प्राप्त हुआ उससे मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूँ । हमारे देश के इन होनहार वैज्ञानिकों के प्रति मैं नतमस्तक होता हूँ जो दिन रात एक कर देश की  वैज्ञानिक प्रगति के लिए कटिबद्ध और प्रतिबद्ध हैं। 

Tuesday, February 12, 2013

Revolution 2010 ( Chetan Bhagat ) - a story of unconvincin end

I started reading Chetan Bhagat as novelist with the force and inspiration of one of my friends who happens to be a big fan of Chetan Bhagat. All these years, I had a biased opinion about the Indian English witers, specially fiction writers. I was of the opinion that our Indian English writers lacked something ( undefined ) which a native English writer normally has and is able to create an impact. I almost refused to read any of these novels by Indian authors, until very recently, when we were involved in a casual chat among our friends.  My friend wanted me to read Chetan Bhagat for his sake, and he got me promised that I shall read at-least one novel of him and then talk to him. I took this challenge and wanted to buy a novel of Chetan Bhagat, but my friend himself bought me all the five novels of Chetan and gifted me to read and then talk. I said - ok, and returned home. I threw those novels for quite some time on my reading table, and I forgot. One night I could not get sleep due to some botheration in mu mind and when I switched on the light, the novels of  Chetan Bhagat were staring at me. I thought probably this is the time to start reading one of the books, and I picked up the latest of his novels ie Revolution 2020. I started slowly and felt the magnetism, slowly the sentences absorbed me in to its effect and I lost myself in the triangular love story of Gopal, Raghav and Aarati. The narration and the pace of the story dragged me to the dawn and I was surprised to feel the day light. I was so engrossed in the happenings of the novel that I became a part of the story and I found myself as one of the characters of the novel. I identified myself with Gopal some times and some times with Raghav. The progress of the plot is quite interesting and looks natural with the nostalgic depiction of the streets of Varanasi and the banks of Ganga, the boat ride and the love affair of Gopal and Aarati. Gopal's infatuation first and then the real love for Aarati, his quest to achieve her. His failures and then his success in the carer by political manipulations of Shuklaji. Raghav's academic brilliance but failure in career as journalist, the mutual plot to destroy each other reminds me of Kane and Abel ( Jeffery Archer ). 
The realistic part of the novel is about the rampant corruption prevailing in the higher education regulatory authority, which gives approvals to start institutions of higher learning, specially the professional institutions like management colleges and engineering colleges etc. This corruption is an open and well known method of getting the wrong things done. This prevailing practice in the system has been unveiled boldly by the novelist in this novel. The involvement of corrupt politicians in establishing such colleges with their corrupt earnings is a matter of concern in the present context. The way they encroach the disputed land and property from the poor and float an institution without approved infrastructure and other necessities has been truly described in the novel.
The novel moves serenely and comfortably with the anticipated curves but at the end the novel turns hostile to readers by spoiling the end or by mishandling the character which have been created so passionately.
Why should Gopal deceive Aarati by creating hate scene, why should he loose his beloved, for nothing, and presenting her to his arc rival. There is no convincing answer to this question. Similarly Aarati's character also is unstable. Her behavior seems to be motivated to grab the successful man, which she does, but her aversion to Gopal ( which is artificially created ) does not find any ground without checking the facts.
This novel is about power, love, lust and management. The corruption which is all over in the system is exposed to the hilt and the common man is satisfied when he finds that ultimately the corruption is defeated, Shukla goes to jail, Gopal looses all his property and looses his beloved also. The road to success is longer and  full of challenges but remains for ever, and the success managed by corrupt methods and ways live for a very short time and never progresses beyond a certain limit.
Still I am hurt at the way the novel has ended.
Yes now I have become a regular reader of Chetan Bhagat's novel and have started to like them. Thanks to my friend Mr Basant Prasad, Delhi.  

स्टीवेन स्पीलबर्ग की एक और अतिविशिष्ट फिल्म - लिंकन

बहुत अरसे के बाद हॉलीवुड के महान निर्माता- निर्देशक स्टीवेन स्पीलबर्ग द्वारा निर्देशित और निर्मित फिल्म ' लिंकन ' देखने को मिली । यह फिल्म इतिहास - के वर्ग मे आती है। इस फिल्म को वर्ष 2012 के ऑस्कर एवार्ड के लिए बारह वर्गों मे नामांकित किया गया है । अर्थात बारह केटेगरीज़ मे ऑस्कर के लिए  यह फिल्म नामिनेटेड है । फरवरी 23, 2013 को ऑस्कर अवार्ड प्रदान किए जाएंगे जिसमे ' लिंकन' को कितने ऑस्कर मिलते हैं - इस पर समूचे विश्व की नजर गड़ी  हुई है ।
लिंकन - अब्राहीम लिंकन की जीवनीपरक फिल्म है जिसमें 1865 मे अमेरिका मे गृह युद्ध की प्रष्ठभूमि मे 'दास प्रथा' को समाप्त करने की जो मुहिम अब्राहिम  लिंकन ने चलाई थी उसका चित्रण बहुत ही प्रभावशाली ढंग से किया है। अमेरिका का संविधान बहुत ही जटिल और क्लिष्ट है जिसे बदलना या उसमें संशोधन करना अत्यंत कठिन होता है।उस वक्त के संवैधानिक प्रावधानों मे दास प्रथा वैध थी और अमेरिका की बहुसंख्यक जनता इसके समाप्त करने के खिलाफ थी। अमेरिका मे नसलवाद अपने चरम था, इसीलिए नीग्रो लोगों और अमेरिका के श्वेत लोगों मे एक आंतरिक युद्ध शुरू होगया था जिसमे लाखों लोग मारे  जा रहे थे । इस युद्ध को रोकना आसान नहीं था। अश्वेत और श्वेत दो हिस्सों मे अमेरिका बाँट चुका था। अमेरिका टूट रहा था और इसे बचाने का उपाय किसी को नहीं सूझ रहा था । नस्ल वाद कोखत्म करने का साहस किसी राजनेता मे नहीं दिखाई दे रहा था। अमेरिका के इतिहास ऐसे कठिन और विषम समय मे ' अब्राहिम लिंकन ' इस अमानवीय और क्र्रु प्रथा को समाप्त करने का बीड़ा उठाते हैं । वे अपनी सूझ बूझ और नेतृत्व कौशल से कांग्रेस मे सनीविधान के 13 वें संशोधन के लिए कांग्रेस के सदस्यों को मानवतावादी वैचारिक तर्कों और मानवीय अस्मिता की समानता के प्राकृतिक नियम को लोगों को समझाने मे अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं । फिल्म मे सान 1865 मे 13 वें संशोधन के कांग्रेस मे चली बहस को बहुत मौलिक ढंग से फिल्माया गया है । अब्राहिम लिंकन द्वारा दिये गए व्याख्यान दर्शकों को स्तब्ध कर देते हैं । लिंकन के जीवन के वे अंतिम दिन इस फिल्म मे दर्शाये गए हैं । अंत मे लिंकन की जीत होती है और वे दास प्रथा को कानूनन समाप्त करने मे सफल हो जाते हैं लेकिन इसकी बहुत भारी कीमत उन्हें अपने प्राण गँवाकर देने पड़ते हैं । इस युगांतरकारी
ऐतिहासिक सामाजिक सुधार के लिए उनके विरोधी गोली मारकर उनकी हत्या कर देते हैं । एक महान दृष्टा, अमेरिका के इतिहास को नई दिशा देने वाला महान क्रांतिकारी हमेशा के लिए इस दुनिया से चल  बसता है लेकिन जाने से पहले वह अमेरिका को दास मुक्त कर देता है ।
यह फिल्म निश्चित ही क्लासिक फिल्मों की श्रेणी मे आती है ।




विश्वरूप कमाल हासन की अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड की जासूसी एक्शन थ्रिलर

कमाल हासन द्वारा निर्मित भारी बजट ( 99 करोड़ लागत से बनी ) विवादास्पद फिल्म जो तीन भाषाओं मे बाजार मे उतारी गयी ( हिंदी, तेलुगू और तमिल ) एक एक्शन, सफाई थ्रिलर है एस्पियोनेज से भरपूर। इसका कैनवास बहुत व्यापक है। अफगानिस्तान और  अमेरिका मे ही इसकी पूरी शूटिंग हुई है । फिल्म का कथानक बहुत ही सपाट है । हिंसा के दृश्य अतिरंजित और वीभत्स पूर्ण हैं । वास्तव मे यह फिल्म अफगानिस्तान मे पल रही एक पूरी जिहादी  पीढ़ी और उसके सरगाने ( राहुल बॉस ) द्वारा अमेरिका से अफगानिस्तान पर नेटो के हमलों  का बदला लेने के क्रूर और हिंसक कारनामों की दास्तान है । कमल हासन  ( रा का एजेंट ) अमेरिका मे  अफगानिस्तान के खूंखार आतंकवादी ( जिहादी ) उमर ( राहुलबोस ) के द्वारा अमेरिका मे न्यूक्लियर बम के विस्फोट करने के षडयंत्र को नाकाम कर उसे कानून के दायरे मे लाने के प्रयास मे विफल हो जाता है किन्तु वह उस बम को फटने से रोक लेता है। यह फिल्म मूलत: कमल हासन ने अपने अभिनय कौशल की चमत्कारी को अपने ढंग से अपनी शर्तों पर प्रदर्शित करने के लिए निर्मित की है । कमल हासन का अभिनय - एक जासूस के रूप मे खतरनाक जिहादियों के बीच रहते हुए उनके रहस्यों का पता लगाकर जिहादियों की शैली मे नर मेध करने की कलाओं से लैस होकर पूरे फिल्म मे त्राहि त्राहि मचा देता है। कमल हासन के एक्शन सीन बहुत ही रोमांचक और सनसनीखेज हैं । यह हॉलीवुडनुमा फिल्म है जो पूरी तरह उसी शैली मे निर्मित है । स्टंट्स सारे हॉलीवुड की तर्ज पर हैं।  न्यू जर्सी की सड़कों पर कार चेज़ के दृश्य  हॉलीवुड की जासूसी थ्रिलर को बरबस सामने ले आते हैं ।
फिल्म के प्रारम्भ मे कमल हासन का कथक नृत्य के गुरु का नपुंसक ( औरताना ) अंदाज़ प्रशंसनीय है । कमल हासन की असली भूमिका फिल्म के प्रारम्भ से पंद्रह मिनट बाद शुरू होती है । फिल्म यह हिस्सा मनोरंजक और रोचक है । कथक नृत्य भंगिमाओं मे कमल हासन खूब सजे हैं और बहुत ही मौलिक हैं ।
कमल हासन ने इस फिल्म मे अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन भरपूर किया है जो की स्वांत: सुखाय ही कहा जाएगा ।  फिल्म का अंत अधूरा  है क्योंकि कमल हासन को इसका दूसरा भाग भी परदे पर लाना है इसीलिए अंत मे जिहादी सरगना उमर ( राहुल बोस ) अमेरिका और भारत दोनों की खुफिया एजिंसियों के हाथोंसे बचाकर अफगानिस्तान भाग जाने मे सफल हो जाता है।
फिल्म की एडिटिंग दोषपूर्ण है । दृश्यों का क्रम और संयोजन दर्शकों को गुमराह करता है । अफगानिस्तान के बीहड़ों का फिल्मांकन सराहनीय है । एक बात अंत तक स्पष्ट नहीं हो पाई की कमल हासन कहना क्या चाहते हैं ? इस फिल्म का उद्देश्य क्या है - यह असपष्ट ही नहीं बल्कि दिशाहारा है या यूं कहें की फिल्म का कोई लक्ष्य या उद्देश्य ही नहीं है सिवाय अफगानिस्तान मे व्याप्त हिंसा और आतंक को पर पूरी वीभत्सता के साथ दिखाने के । अफगानिस्तान मे सक्रिय जिहादी दलों की गतिविधियों का अंदाजा इस फिल्म को देखकर लगाया जा सकता है। कमल हासन ने फिल्म मे उर्दू, पश्तो, अरबी और अंग्रेजी भाषाओं का इस्तेमाल देश,काल और पात्रों के अनुरूप किया/करावाया है। इसके लिए उन्होने खुद भी काफी प्रयास किया है, जिसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं। कमल हासन की सबसे बड़ी विशेषता उनके अभिनय मे मौलिकता होती है। इसे उन्होने फिर एक बार सिद्ध किया है। एक बात खटकती है - इस उद्देश्य हीं फिल्म को बनाने के लिए कमल हासन ने 99 करोड़ रुपये क्यों खर्च किए ?

Friday, February 1, 2013

विश्वरूपम के विरोध मे तमिल नाडु मे गतिरोध जारी

अपने प्रयासों के बावजूद आज तक कमल हासन अपने गृह राज्य मे अपनी सबसे महंगी फिल्म ( 93 करोड़) ' विश्वरूपम ' को रिलीज़ कराने मे कामयाब नहीं हुए । कल एक आशा की किरण कौंधी थी जब मुख्य मंत्री  सुश्री जयललिता ने इस समूचे प्रकरण स्वयं को अलग घोषित किया और स्पष्टीकरण दी की राज्य मे अनहोनी की स्थिति सेनिपटने के लिए पर्याप्त पुलिस बल उपलब्ध न होने कारण इस फिल्म के रिलीज़ को रोका गया। क्योंकि यह फिल्म राज्य मे पाँच हौ से अधिक सिनेमा घरों मे रिलीज़ होने वाली थी । राज्य सरकार तथाकथित आंदोलन कारियों से सहमी हुई है, आखिर क्यों ? फिल्म एक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है और फ़िल्मकार इस माध्यम के द्वारा अपनी सामाजिक और  राजनीतिक सरोकार को पेश करता है। समाज के प्रति अपने नजरिए को वह पेश करता है। समाज चाहे उससे सहमत हो या न हो , लोकतन्त्र मे रचनाकारों और फ़िल्मकारों को ( और आम आदमी को ) यह हक है। संविधान यह हक हमें प्रदान करती है । इसलिए ऐसे विरोध और कला सर्जकों के प्रति अवैध और अन्यायपूर्ण है ।  देश के अन्य हिस्सों मे यह फिल्म दर्शकों को भा रही है और कहीं इस फिल्म के प्रति नकारात्मक आवाज़ नहीं उठी है । फिर केवल तमिल नाडु मे ही क्यों आपत्ति है ?

कलकत्ता साहित्य सम्मेलन मे सलमान रश्दी पर प्रतिबंध

सलमान रश्दी के पीछे आजभी भारत का एक वर्ग पड़ा हुआ है वह वर्ग जब चाहे तब सलमान राशी के भारत आगमन पर हल्ला मचाता है और सरकार तथा अन्य स्वयं सेवी साहित्यिक संस्थाओं से रश्दी के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की सिफ़ारिश करता है । एक ओर लोकतान्त्रिक ताक़तें हैं जो रश्दी के विरोध को गलत और अवैध तराने की कोशिश ए जुटी हुईहाइन तो दूसरी तरफ आइडे भी लोग और संगठन हैं जो अपनी शैली मे अपनी ( सीमित ) जानकारी के सहारे आज भी उनके ' सेटानिक वर्सेज़ ' की प्रेतात्मा को ज़िंदा रखकर देश मे अराजकता फैलाने मे आनंद ले रहे हैं । इस विवाद मे इन दिनों राजनेता  और राजनीतिक पार्टियां भी सम्मिलित हो रहीं हैं । आज मीडिया मे दीदी ममता बेनर्जी के रश्दी को कलकत्ता मे प्रवेश न करने की चेतावनी है ( मीडिया के अनुसार)। अगर यह खबर सही है तो निंदनीय और शोचनीय है । बंगाल वुद्धिजीवियों और साहित्यकर्मियों तथा रंगकर्मियों का तीर्थ स्थान है जहां के साहित्य प्रेमी देश भर मे अपने साहित्य प्रेम और संस्कृति प्रेम के लिए जाने जाते हैं जहां से बड़े बड़े चिंतक, नवजागरण के पुरोधा और सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सुधारक आए और जिन्होने सदैव देश का सांस्कृतिक तथा साहित्यिक नेतृत्व किया ऐसे समाजवादी समाज मे इस तरह की वारदातें देश वासियों को दुखी करती हैं और विचलित करती हैं । तसलीमा  नसरीन के साथ भी यही हुआ और हो रहा है । कहाँ गई हमारी सहिष्णुता और सहनशीलता, हम  खुलकर से अपनी असहमितियाँ दर्ज करा सकते हैं लेकिन यह हमला करने की प्रवृत्ति कहाँ से आयी ? चंद मुट्ठी भर लोग किसी न किसी संगठन का नाम लेकर आए दिन अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मज़ाक उड़ा रहे है और देश का न्यायतंत्र मौन दर्शक बना एक कोने मे दुबका बैठा है ।
फिल्मों, पर रचनाओं पर, कला माध्यमों पर आज जीतने हमले हो रहे हैं उतने इससे पहले कभी नहीं हुए । यह किस बात की ओर इशारा कर रहा है, हमें सोचना चाहिए ।