Friday, July 31, 2009

प्रेमचंद की छवि से खेल बंद हो - लेख - स्वतंत्र वार्ता - दि 31

आज प्रेमचंद का पावन जनम दिन है । हमारे यहां के प्रमुख हिन्दी अखबार स्वतंत्र वार्ता में के विक्रम राव द्वारा प्रस्तुत लेख " प्रेमचंदा की छवि से खेल बंद हो " लेख पढ़कर मन आनंद से भर उठा । विक्रम राव साहब को इस लेख के लिए बधाई देना चाहूंगा . बहुत ही सटीक लेख है और उनके विचार भी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । आज समय आ गया है कि प्रेमाचना साहित्य को नई दृष्टि से पढा जाए और उस पर पुन: विचार किया जाए . प्रेमचनद के लेखन का एक बहुत बड़ा हिस्सा उनकी निर्भीक पत्रकारिता का था । जिसे लोग नज़रन्दाज़ कर देते हैं । विभिन्न पत्रिकाओं में उनके
द्वारा लिखे गए लेख उनकी साहित्यिक दृष्टि को और अधिक साफ करते हैं । उन्हें ज़बरदस्ती मार्क्सवादी खेमें में खींचना घोर अन्याय है । उसी तरह उन्हें कट्टरतावादी घोषित करना भी एक तरह का अपराध ही होगा । के विक्रम राव ने अपने लेख में प्रेमचंद के चिंतन के कुछ भिन्न पहलुओ को प्रस्तुत किया है । देश में भिन्न विचारधाराओ वाले राजनीतिक परिवेश में भी प्रेमचंद बहुत ही सहज हो कर अपनी ही कार्य शैली में अपने साहित्य के माध्यम से देश सेवा में लगे हुए थे . वे एक महान सुधारवादी मानवतावादी संत थे । जिन्होंने कबीर की शैली में समाज को जागृत करने का बीडा उठाया । उनके चिंतन का विकास सुधारवादी चेतना से क्रांतिकारी चेतना की ओर अग्रसर हुई ॥ बहुत ही सारगर्भित और उपयोगी विचार हैं लेखक के .

Kargil War was emphatically won by Indian Army.

This is with reference to the article published in Deccan Chronicle dt 31 July 2009, by Balbir K Punj. The article reveals the true spirit of a victorious nation which has fought back valiantly and prevented the intrusion.We can not ignore the supreme sacrifice of our troups ( Army and Airforce). As it is rightly reminded by Mr Balbir K Punj, this is the occasion for India's celebrations in a big way. We should have honored the families of those who have given away their lives for the Nation. Why the celebrations be so luke warm importance when we have every right to rejoice and celebrate to acquint our younger generation with the heroic ddeds of our Armed forces. Kargil battle was not so easy one and we have proved again and again that no invader will be allowed to occupy any inch of our mother land. Why do we not celebrate at a national level instead of party level or only within the particular Army core. Why the Giovernment of India is silent. yes, We the citizens of India are entitled to know the reason for this kind of silence over our own victory. It is to demean the supreme sacrifice of our Jawans and it is an insult if do not recognise their valor. These are moments when India should take pride and be proudful.
It is sad thet we Indians always devide ourselves in to small fractions always and instead of uniting ourselves, we creatre divisions even in our achievements. We never behave as a notion, but like small groups of idealogical and political fractionists. If kargil War was won, it was by Indian soldiers and by the then ruling party NDA or any other party.We should learn to stand collectively in joys andd sorrows. When will we learn this ?

Thursday, July 30, 2009

Controvery over India Diplomacy

It is very unfortunate that our leaders in the parliament have raised the issue of Prime Minister Manmohan Singh's statement at the India-Pakistan diplomatic talks held recently. opposition parties in the Parliament always forget that they are also part of the system and when it comes to foreign policy matters and dealing with foreign affairs, we all have to be with the PM, who so ever he or she is. We hae to be united in such matters and not send wrong signals to other countries
specially to a country like Pakistan, who is always watching us, day in and day out, through their intelligence system and their planted spies all over the country. They watch every word uttered within our country and Parliament, more so if it is on the subject of terrorism. It is unfortunate that our diplomates have utterly failed in delivering the goods. As per P.C.Alexander's observation (as appeared in DeccanChronicle ), our diplomates could not even draft the document properly and they have done it in great hurry, without proper preparation. Thereby comitting gross mistakes, which have led to the situation where in Pakistanis could create an issue of Baluchistan, from no where !!! It is our own loop-hole which they have caught and played agaisnt us, they have hit us by our own shoes. They have been very good at this art. And we are not careful. In my view, we have to support our leader, more in crisis and should not isolate him and effect assaults on him. We all have to shoulder the responsibility of success as well as failures some times.

क्या पुस्तक लोकार्पण समारोह सार्थक हैं ?

पिछले दिनों एक लोकार्पण समारोह में जाने का अवसर मिला । ऐसे ही कुछ और पुस्तक लोकार्पण समारोहों में जाने के अवसर कभी कभी मिला जाते हैं । बहुत आश्चर्य होता है जब हम देखते हैं कि इन समारोहों में केवल निरर्थक बातें होती हैं । अपनी मित्र मंडली को ही आमंत्रित करा लिया जाता है और समाचारपत्रों के संपादकों को अवश्य
बुलाया जाता है ताकि समारोह कि तस्वीर जरूर छाप जाए । कोई भी वक्ता लोकार्पित पुस्तक की सही समीक्षा भी नहीं कर पाता । अनेक अवसरों पर पुस्तकें मंच पर ही समीक्षकों को दी जाती हैं . ऐसे ऐसे वक्ताओंको जमा कर लिया जाता है कि उपस्थित अतिथि शर्म से अपना सिर नीचे कर लेते हैं । स्वयं भू कवि और रचनाकार आज साहित्य में बहुत बडी संख्या में चारों और दिखाई दे रहे हैं । जिनके पास पैसा है उनको कवि बनने की अधिक ललक है । आज ऐसे अनेक कवि साहित्य के बाज़ार में विद्यमान हैं जिनके अकूत धन है , इस धन से वे अपनी रचास्नाओम को साहित्य घोषित कर रहे हैं और ख्याति प्राप्त समीक्षकों से बलपूर्वक समीक्षा करवाकर अपनी रचना को प्रमाणीकृत करवा रहे हैं । धन्य हैं ऐसे रचनाकार और धन्य हैं उनकी रचनाए । हिन्दी के क्षेत्र में यह बीमारी बहुत ज्यादा फैली हुई है । क्या एक अच्छी रचंना लोकार्पण समारोह के बिना श्रेष्ठ सिद्ध नही हो सकती ?
आज जितने महान उपन्यास और काव्य जो जगत प्रसिद्ध हैं, क्या उन साहित्यिक ग्रंथो का लोकार्पण समारोह सम्पन्न हुआ था ? एक तरह से आज जो स्थिति है उससे तो यही बात सामने आ रही है कि जो रचनाए कमजोर होती हैं उनहीं रचनाओं का लोकार्पण करवाया जाता है लोगों का ध्यान आकर्षित कराने के लिए । लेकिन ऐसे समारोहों की चमक कुछ ही दिनों की होती है । लोग पुस्तकों को भी भूल जाते हैं और शायद केवल समारोह ही याद रह जाता है । हिन्दी के लेखकों को ऐसे आडम्बर पूर्ण दिखावे से बचने का प्रयास करना चाहिए । ऐसे छद्म लेखक इन समारोहों में पैसा भी बहुत खर्च करते हैं । काश, हमारे बुद्धिजीवी लेखक और पाठक दोनों ही वर्गों के लोग इसा तरह के दिखावे से दूर रहने का प्रयास करें और ऐसे लोकार्पण समारोहों का बहिष्कार करें तो साहित्य का बहुत भला होगा । रचनाए अपनी उत्कृष्टता के दम पर लोकप्रिय होती हैं , लोकार्पण समारोहों के कारण नहीं ।
क्या ख्याल है आप लोगो का ?

Tuesday, July 21, 2009

इस बीच ऊटी में पाठ्यक्रम लेखन की एक कार्यशाला में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ । यहाँ अपने आप में एक रोमांचक अनुभव रहा । दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास के तत्वावधान में इस कार्यशाला का आयोजन
हिन्दी में दो महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों के निर्माण के लिए किया गया था । दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास इन
दिनों स्नातक एवं स्नातोत्तर स्तर पर दूर शिक्षण माध्यम से ' बहु संचार और जनसंचार माध्यम ' विषयों पर पाठ्यक्रम का निर्माण कर रही है । यह एक बहुत ही कठिन और श्रमसाध्य कार्य है । इस दुसाध्य कार्य को सम्पन्न करने के लिए सभा के कुल सचिव प्रो दिलीप सिहं जी ने राष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञों का एक दल बनाया है जिसमें ख्याति प्राप्त भाषाविद और शिक्षाविद् शामिल हैं । इनमें कुछ युवा मित्र भी थे जो बहुत ही उत्साह के साथ इस लेखन कार्यशाला में भाग लेने के लिए हमारे साथ ऊटी पहुंचे थे । युवा शिक्षक मित्रों का उत्साह वास्तव में काबिले तारीफ़ था । कड़कती ठण्ड में ख़राब मौसम में घनघोर बारिश में भी लोग बहुँत ही तन्मयता के साथ निर्दिष्ट पाठ्य इकाइयों का लेखन कार्य करते रहे । बीच बीच में चर्चा परिचर्चा भी होती रहती । आपस में संदेहों का निवारण भी करते रहे थे । बारह से पंद्रह लोगों ने मिलकर एक बहुत ही आत्मीय वातावरण बना लिया था ।
अध्ययनशीलता और शोधपरक अनुभव का एक बहुत ही उच्च स्तर का अकादमिक वातावरण वहा पहाड की उन अपरिचत ऊँचाईयों में हमने मिलकर बना लिया था । हमारे पाठ्य लेखन के विषय अनेक क्षेत्रो को जोड़ रहे थे ।
जिसमें सिनेमा, संगीत, रेडियो, टेलिविज़न, पत्रकारिता आदि से जुड़े अनेक रोचक प्रसंग शामिल थे । इन विषयों से संबंधित ज्ञान विज्ञान की सूचनाओं को पाठ- सामग्री में शामिल करने के लिए सभी लोग मिलकर जो प्रयास कर रहे थे, वह अपने आप में एक अभूतपूर्व अनुभव था । छ: दिनों में हम लोगों ने अपने लक्ष्य को लगभग पूरा करा लिया । बहुत ही संतोषजनक कार्य हुआ । शाम के समाया मित्र लोगों के साथ ऊटी शहर में घुमाने का प्रयत्न करते थे । कभी बारिश में भीगते हुए तो ठण्ड में ठिठुरते हुए ही आसपास के बाग़ बगीचे और पहाड़ के कुछ शिखरों को तो हम नाप आये थे । कुछ नए मित्र भी बने । वहां के स्थानीय लोगो से हम लोगों ने मित्रता भी की । उन्होंने हमारा काफी सम्मान किया । १३ जुलाई की शाम को जब हमारा काफिला ऊटी की पहाडियों से नीचे उतर रहा था
तो सभी लोग उदास हो गए थे कुछ ही दिनों में ही हम लोग ऊटी के वातावरण और वहा के लोगों के साथ इतने घुल मिल गए थे कि हमें वहां से लौटने में एक विचित्र उदासी का अनुभव होने लगा था । दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के शिक्षण महाविद्यालय के प्राचार्य डा सतीष पांडे जी का आत्मीयता से भरा हुआ आतिथ्य कभी भी भुलाए नही भुलाया जा सकेगा । उनके सभी सहयोगी मित्रो का हमारे प्रति प्रेम और सौहार्द्र पूर्ण व्यवहार एक मिसाल बना गया ।