Tuesday, November 13, 2012

भारतीय परिवार का भाषाई सच


इंगलिश - विंगलिश :  भारतीय परिवार का भाषाई सच
-       एम वेंकटेश्वर

भारतीय परिवारों में भाषिक चेतना विचित्र असमंजस और असंतुलन के दौर से गुजर रही है । अंग्रेजी, हिंदी और मातृभाषाओं में टकराहट की स्थिति दिखाई देती है । नई पीढ़ी पूरी तरह से अंग्रेजी मानसिकता में अपनी अस्मिता तलाश रही है । मध्यवर्गीय परिवारों में अंग्रेजी - हिंदी या मातृभाषा के ज्ञान और उसके प्रयोग को लेकर हास्यापाद तथा एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, परिवार के छोटे - बड़े सदस्यों में, आम रूप से दिखाई देती है । आम जीवन में अंग्रेजी की आभिजात्य पहचान ने पारिवारिक संबंधों को बेहद प्रभावित किया है । बोलचाल और सामान्य व्यवहार में अंग्रेजी आज एक प्रचलित अनिवार्यता हो गयी है ।    किन्तु आज भी हमारे घर - परिवार में ऐसे कई सदस्य हैं जिनका अंग्रेजी का ज्ञान अपने साथी सदस्यों के मुक़ाबले कमजोर या नगण्य सा है। ऐसी स्थिति में उन्हें हर कदम पर अपने बच्चों और अन्य सदस्यों की अवमानना और अवहेलना को आजीवन झेलते रहना पड़ता है । विशेषकर घरेलू स्त्रियाँ अंग्रेजी ज्ञान के अभाव में निरंतर उपेक्षा और  उपहास का पात्र बन जाती हैं । यह एक वास्तविक  स्थिति है जो हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है ।
इंगलिश विंगलिश - गौरी शिंदे द्वारा निर्देशित और आर बाल्की द्वारा निर्मित एक पारिवारिक हास्य और व्यंग्यप्रधान भाषाई चेतना को प्रस्तुत करने वाली हल्की-फुल्की फिल्म है, जिसे एक साथ हिंदी और तमिल भाषाओं में निर्मित किया गया और साथ ही तेलुगु में डब करके तीनों भाषाओं में एक साथ रिलीज़ किया गया । यह फिल्म कई अर्थों में विशेष है । इस फिल्म से विगत वर्षों की लोकप्रिय अभिनेत्री श्रीदेवी की फिल्मों में वापसी हुई  है । फ्रेंच अभिनेता ' मेहदी  नेबौ ' की भूमिका महत्वपूर्ण है ।  अमिताभ बच्चन और अजित कुमार ( तमिल )  मेहमान कलाकार के रूप दिखाई देते हैं ।
फिल्म की कहानी  ' शशि गोड़बोले ' ( श्रीदेवी )  के घरेलू जीवन के इर्द गिर्द घूमती है । निर्देशक गौरी शिंदे ने अपने पात्रों को पारंपरिक बनाए  रखने के लिए एक मराठी भाषी परिवार को चुना है, इसीलिए परिवेश की मौलिकता के लिए उन्होने पूना शहर में इसे फिल्माया है । गौरी शिंदे के अनुसार शशि गोड़बोले पात्र की परिकल्पना उनकी माँ से प्रेरित है ।
शशि एक मध्यवर्गीय मराठी परिवार की घरेलू स्त्री है जो अपने परिवार के लिए ही समर्पित है , अपना सारा समय परिवार मे पूरी तन्मयता से लगा देती है । साथ ही वह मिठाई ( लड्डू ) का छोटा - मोटा व्यापार भी कर कुछ पैसे बना लेती है । उसके हाथ के बने लड्डू लोग पसंद करते हैं । परिवार के प्रति उसके  समर्पण को  परिवार के सदस्य अपना अधिकार मानते हैं । परिवार में बच्चों से लेकर उसके पति सतीश तक अंग्रेजी में बातचीत और हंसी मज़ाक करते हुए शशि के अंग्रेजी के अज्ञान की हंसी उड़ाते  हैं । सतीश  ( आदिल हुसैन ) को पत्नी के व्यक्तित्व की कोई परवाह नहीं है । बेटी - सपना मां को अपने दोस्तों और अपने स्कूल के टीचरों से परिचय कराने के लिए भी संकोच करती है क्योंकि शशि अंग्रेजी नहीं बोल सकती । शशि,  सपना के व्यवहार से दुःखी होती  है । कदम कदम पर शशि को अहसास कराया जाता है कि अंग्रेजी के बिना उसका जीवन निरर्थक है और वह आज के माहौल में असंगत है ।  शशि इस सत्य का सामना हर पल करती है । इस स्थिति से वह उबरना चाहती है । वह आत्ममंथन करती है । उसे भीतर से स्वयं पर विश्वास है और वह जानती है कि उसके परिवार के सभी सदस्य उसके प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं । इसी बीच न्यूयार्क में रहने वाली उसकी बहन की बेटी के विवाह का समाचार उन्हें मिलता है । सतीश, पहले शशि को बहन की सहायता के लिए न्यूयार्क अकेले भेजता है । न्यूयार्क पहुँचकर शशि, बिना घर वालों को बताए, चुपके से  अपने ही प्रयासों से एक व्यावहारिक अंग्रेजी की कक्षा में दाखिला ले लेती है । लेकिन एक दिन उसकी छोटी भतीजी राधा ( प्रिया आनंद ) को शशि के अंग्रेजी सीखने का पता चल जाता है लेकिन वह उसके ही पक्ष में

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उसका साथ देती है ।  उस कक्षा  में  उसका परिचय अन्य  विदेशी सहपाठियों से होता है, जिनमें से एक फ्रेंच पात्र  लोरेंट ( मेहदी नेबौ ) है जो शशि के प्रति विशेष मैत्री का भाव प्रदर्शित करता हुआ उसकी मदद करता है । इस अंग्रेजी सीखने के प्रयास में शशि को अनेकों तरह के कटु और मधुर अनुभव होते हैं । उसे काफी संवेदनात्मक उद्वेगों का सामना करना पड़ता है ।  बीच बीच में जब वह फोन पर अपने घर ( भारत ) बेटी सपना और सतीश से बात करती है तब भी सपना के व्यवहार से वह आहत होती है ।
इस संदर्भ में शशि का स्वगत-संवाद  ध्यान देने योग्य है - " क्या हक बनता है इन बच्चों का, अपने माँ - बाप से इस तरह बात करने का ? इज्जत का मतलब जानते ही नहीं । 
क्या कचरे की पेटी हूँ मैं ? जो मन में आया फेंक दिया - क्या रिश्ता है मेरा ? कितनी कोशिश कराते हैं हम उनको खुश रखने के लिए और वो कितनी आसानी से हमारा दिल दुखाते हैं ।
बच्चे मासूम होते हैं - ये कसी मासूमियत है, जो हर पल हमारी कमजोरी का फायदा ही यथाते हैं ?
सब कुछ सिखाया जा सकता है - पर किसी की भावनाओं का ख्याल रखना कैसे सिखाया जाये ? 
 अमेरिका पहुँचकर  शशि का आत्मविश्वास उसे इस अपमानजनक स्थिति से मुक्त होने का संकल्प प्रदान करता है । वह दृढ़ संकल्प होकर अंग्रेजी का अभ्यास करती है । उसके साथी उसकी मदद करते हैं । उसकी कक्षा के मित्रों के साथ एक जीवंत और मुखर शशि का उदय होता है । उसकी भतीजी के विवाह के अवसर पर उसका परिवार सतीश, सपना और उनका बेटा सागर तीनों न्यूयार्क पहुँच जाते हैं । सतीश, आत्मविश्वास से भरी  बदली बदली सी शशि को देखकर चकित होता है और भीतर से पुरुष - सहज संदेह का आभास  भी कराता है । उसकी अंग्रेजी सीखने का उपक्रम इन लोगों के आगमन से भंग हो जाता  है । कक्षा में शशि की अनुपस्थिति से उसके साथी भी विचलित होते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति कुशल निर्देशन और कलाकारों की स्वाभाविक  अभिनयकला के द्वारा  संवेदनात्मक धरातल पर हुई है ।  कहानी का अंत  भावुक और अति संवेदनात्मक है । शशि की भतीजी के विवाह के दिन ही उसकी अंग्रेजी प्रवीणता की परीक्षा की तारीख भी तय होती है । परीक्षा में सभी शिक्षार्थियों को पाँच मिनट के लिए अंग्रेजी में बोलना होता है । इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उन्हें प्रमाणपत्र भी प्राप्त होने वाला है  शशि किसी भी तरह से परीक्षा देने के लिए राधा की सहायता से कक्षा में पहुँचने की तैयारी कर लेती है किन्तु एक छोटी सी घटना उसे परीक्षा से वंचित कर देती है । किन्तु उसके साथी और शिक्षक सभी राधा के निमंत्रण पर विवाह समारोह में अचानक पहुँचकर शशि को चौंका देते हैं । फिल्म का क्लाईमेक्स - नव विवाहित युगल के लिए आशीर्वचन कहने के लिए जब सभी लोग अपनी अपनी बात अंग्रेजी में कहकर अंत में शशि से भी आग्रह कराते हैं तब सतीश का उठकर पत्नी शशि की अंग्रेजी की अज्ञानता घोषित करने के लिए तत्परता का प्रदर्शन कराते समय शशि का  ' में आई ' कहकर उठना और सहज शैली में अंग्रेजी में वर-वधू के सुखी जीवन के लिए  परिवार की अहमियत को भावुकतापूर्ण ढंग से कहना - फिल्म को उस के लक्ष्य तक  पहुंचा देता है ।
विवाहोपरांत शशि द्वारा दिए गए इसी वक्तव्य को ही आधार मानकर डेविड फिशर ( कोरी हिब्स ) - उनका शिक्षक शशि को वहीं प्रमाणपत्र भी प्रदान करता है । यह दृश्य दर्शकों को भाव विह्वल कर देता  है । अंग्रेजी भाषा के शिक्षक के रूप में कोरी हिब्स का जीवंत और विनोदपूर्ण अभिनय दर्शकों को बांधकर रखता है । कक्षाओं में उसका स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन भरा व्यवहार फिल्म को अतिरिक्त गहरी प्रदान करता है ।
शशि और लारेंट के अंतरसंबंध अनेक मानवीय संवेदना की अपेक्षाओं को बहुत ही सूक्ष्म और कोमल धरातल पर मन को छू जाते हैं । लारेंट का शशि की और रुझान और अपने प्रेम को फ्रेंच में व्यक्त करना जिसका उत्तर

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शशि द्वारा  हिंदी में दिया जाना जिसमे वह अपने वैवाहिक जीवन की सच्चाई को पूरे आत्मविश्वास के साथ  प्रकट करती है,  प्रेरणादायक है । राधा को शशि का यह कथन ' मुझे प्यार की जरूरत नहीं इज्जत
( आत्मसम्मान ) की जरूरत है । लारेंट का शशि आदर करती है और अंत में उसे वह धन्यवाद देती है क्योंकि उसने उसे स्वयं को पहचानने में मदद की । ये प्रसंग फिल्म में छोटे और बहुत ही साधारण से लगते हैं किन्तु
दर्शकों को बहुत कुछ सोचने को  मजबूर करते हैं ।  पार्श्व में ' गुस्ताफ दिल ' गीत सटीक और उपायुक्त है जो कि पात्रों की मनोदशा को परोक्ष रूप से व्यक्त करता है । शशि की सास मिसेज गोड़बोले के रूप में  सुलभा देशपांडे की उपस्थिति सास - बहू के संबंधों में मधुरता को दर्शाते हैं । शशि - सतीश का पारिवारिक वातावरण मध्यवर्गीय जीवन की सहजता को  प्रस्तुत करने में सफल हुआ है ।
इस फिल्म में केवल अंग्रेजी भाषा ज्ञान ही कथ्य नहीं है वरन और भी अनेकों अंतर्लीन कथन इसमे छिपे हैं जो सूक्ष्म दर्शी दर्शकों को ही दिखाई देंगे । स्त्री सशक्तीकरण, परिवार में माँ की स्थिति और घरेलू स्त्रियॉं के प्रति समाज का दृष्टिकोण भी उपजीव्य तथ्यों के रूप में उभरकर आते हैं ।
अपने फ्रेंच साथी लारेंट से शशि का यह कहना ' मर्द खाना बनाए तो वह कला ( आर्ट ) है और औरत का खाना बनाना उसका  फर्ज है ' स्त्रियॉं के प्रति पुरुषवादी सोच को उद्घाटित करता है । फिल्म में कहीं कहीं पर अंग्रेजी के प्रति भी चुटीले व्यंग्य कसे गए जो कि  कि विनोदात्मक  हैं। अमरेकी दूतावास में शशि से जवाह वीज़ा अधिकारी ( अंग्रेजी में ) कहता है कि अंग्रेजी के बिना आप अमेरिका मे कैसे ' मैनेज ; करेंगी तब एक अन्य भारतीय अधिकारी का यह कटाक्ष बहुत प्रासंगिक और चुटीला है -  जैसे आप हमारे देश में बिना हिंदी जाने मैनेज कर रहे हैं ? '
सतीश का अमेरिकन अतिथियों से शशि का परिचय ' शी इज़ ए बोर्न लड्डू मेकर ' ( वह पैदाइशी लड्डू बनाने वाली है ) कहकर कराना, पुरुषों का स्त्रियॉं के प्रति उपेक्षापूर्ण और अवमाननापूर्ण मानसिकता को दर्शाता है । जिसे सुनकर शशि के चेहरे पर एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान झलकती है । उसका मौन वहाँ पर बहुत सारी अनकही भावनाओं को मुखर करता है ।  शशि का स्वदेश वापसी के दौरान  विमान में एयर होस्टेस से हिंदी अख़बार के लिए अंग्रेजी में पूछना - लोगों के भीतर स्वभाषा के प्रति एक विशेष भाव का संचार करता है ।
श्रीदेवी ने इस फिल्म में अभिनय कला की नई ऊँचाइयाँ छूईं हैं । प्रौढ़ आयु की घरेलू स्त्री  और संयमित एवं समर्पित गृहिणी का जो स्वरूप इस सौंदर्य की प्रतिमूर्ति ने धारण किया है, उसमें उन्होने अपनी परिपक्व अभिनय कला से चार चाँद लगा दिये हैं । श्रीदेवी का नया रूप दर्शकों के हर वर्ग को मोहित कर रहा है । हर घरेलू स्त्री स्वयं को शशि में तलाश रही है । घरेलू महिलाओं के लिए शशि एक रोल मॉडल बन गयी है ।   शशि ने यह सिद्ध किया है कि दृढ़ संकल्प और धैर्य के साथ जीवन की विषम स्थितियों को अपने अनुकूल बनाया जा सकता है ।
 निर्देशक गौरी शिंदे जो कि इस फिल्म की कथा लेखिका और पटकथा लेखिका भी हैं,  ने अपनी पहली ही फिल्म से एक बहुत बड़ा संकेत दिया है कि उनमें एक नवीन तथा मौलिक सोच विद्यमान है । फिल्म में संवाद योजना बहुत ही कसी हुई और सशक्त है । प्रयोगधर्मिता उनका गुण है । छोटे छोटे किन्तु प्रासंगिक पारिवारिक घटनाओं का चयन कर फिल्म माध्यम के द्वारा एक व्यापक संदेश देकर समाज को सच्चाईयो सेरूबरू कराया है, गौरी शिंदे ने, जो कि सराहनीय है ।  फिल्म का संगीत आकर्षक और विनोदात्मक है ।संगीतकार  अमित त्रिवेदी की धुनें लोकप्रिय हो चुकी हैं । गीतकार स्वानन्द किरकिरे द्वारा रचित गीत फिल्म में संदर्भानुसार प्रभावोत्पादक हैं । सिनेमाटोग्राफर लक्ष्मण उटेकर ने  न्यूयार्क की गगनचुंबी अट्टालिकाओं और मैनहेटन को  अपनी विशेष मुग्ध कर देने वाली दृश्यांकन कला  से फिल्म को आकर्षक बनाया है । 
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इस फिल्म की चर्चा वर्तमान संदर्भ में आवश्यक है क्योंकि यह अपने रिलीज़ की तारीख से ( 14 सितंबर 2012 ) अब तक निरंतर सिनेमा घरों में सफलतापूर्वक प्रदर्शित हो रही है । इसके दर्शक दिनों दिन अधिक हो रहे हैं । इसके  रिलीज़ से पहले टोरोंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में  इसके प्रीमियर को देखकर फिल्म समीक्षकों ने श्रीदेवी के अभिनय को और गौरी शिंदे के निर्देशन को मुक्त कंठ से सराहा । अब  यह अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर हिट फिल्म साबित हो चुकी है । श्रीदेवी के लिए ' गोल्डन कम बैक ऑफ दि क्वीन ' कहा गया । यह फिल्म समूचे परिवार के साथ देखने योग्य है । यह  फिल्म दर्शको के लिए  आखिर मे एक सवाल छोड़ जाती है - क्या हमारे रिश्तों को अंग्रेजी - नियंत्रित नहीं कर रही है ? 

Thursday, September 13, 2012

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद का यूं चले जाना .........

अंतत: चंद्रमौलेश्वर प्रसाद विषम स्थितियों में काल से निरंतर लड़ते लड़ते, मृत्यु से आँख मिचौनी खेलते हुए, हर क्षण जिजीविषा को जीवित रखते हुए, भयानक यातना को सहते हुए, उत्कट जुझारूपन के साथ साहसी योद्धा बनकर मृत्यु का आलिंगन किया . हिंदी जगत से चंद्रमौलेश्वर प्रसाद का हमेशा हमेशा के लिए इस लीलामय संसार से प्रस्थान एक दुखद घटना है . हैदराबाद का साहित्य जगत आज अपार शोक में डूब गया है . चंद्रमौलेश्वर प्रसाद का इस तरह  जाना, मार्मिक और ह्रदय विदारक है . वैसे इधर कुछ समय से उनके तेजी से गिरते स्वास्थ्य के प्रति  परिजन  एवं आत्मीय मित्र चिंतित रहे। पक्षाघात से पीड़ित रहकर भी चंद्रमौलेश्वर जी में एक विशेष बौद्धिक हठधर्मिता मौजूद थी . अचेतन और अर्द्ध चेतन मानसिक स्थितियों में भी चंद्रमौलेश्वर जी की अंत:चेतना सतत  सक्रिय दिखाई पड़ती थी . यह एक अद्भुत चमत्कारी अविश्वसनीय शक्ति उनमें विद्यमान थी जो उनकी जिजीविषा को सींच रही थी . उसी चमत्कारी आत्मविश्वास के सहारे ही उन्होंने अपने अंत को कुछ देर और दूर तक टाले  रखा . आज विश्वास ही नहीं होता कि अब चंद्रमौलेश्वर जी हमारे बीच नहीं रहे . उनकी उपस्थिति का आभास अभी भी हो रहा है . हैदराबाद के साहित्य जगत के अभिन्न अंग रहे वे . बरसों से अनेकों स्वैच्छिक संस्थाओं से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से आजीवन जुड़े रहे . एक निस्संग व्यक्तिव के वे धनी रहे . अजातशत्रु  थे वे . हैदराबाद की  सभी साहित्यिक संस्थाओं के वे लोकप्रिय सदस्य थे . बैंक की नौकरी से स्वच्छन्द सेवा निवृत्ति लेकर हिंदी की सेवा में सम्पूर्ण रूप से जुट गए थे . विदेशी साहित्य का हिंदी में और हिंदी साहित्यिक विधाओं का अंग्रेजी अनुवाद करने में सिद्ध हस्त थे। एक  सफल अनुवादक के रूप में चंद्रमौलेश्वर जी को अखिल भारतीय पहचान प्राप्त हो चुकी थी . हिंदी सी सभी प्रमुख पत्रिकाओं में चंद्रमौलेश्वर प्रसाद  का नाम बहुत ही लोकप्रिय रहा है . चंद्रमौलेश्वर प्रसाद एक प्रभावशाली समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं. हिंदी में इंटरनेट के माध्यम से ब्लॉग लेखन में वे अत्यधिक सक्रिय रहे . हर तरह के ब्लॉग लेखकों के लेखन को बड़े ही उत्साह के साथ तत्काल अपनी टिप्पणी से अवगत कराते थे . उनका प्रेम और स्नेह सभी साहित्य बन्धुओंको सामान रूप से उपलब्ध हुआ करता था . आज एक स्नेहिल साहित्य बंधु हमसे बिछुड़ गया .
उस महान आत्मा को अश्रुपूरित नेत्रों से हम भाव भीनी श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं .

Friday, July 20, 2012

राजेश खन्ना के प्रति

राजेश खन्ना का यूं जाना हिन्दी फिल्म जगत ही नहीं लाखों,  सिनेमा प्रेमियों के लिए उदासी और मायूसी का चिर स्मरणीय माहौल छोड़ गया। राजेश खन्ना एक ऐसे कलाकार थे जिनहोने अपने अभिनय से हर उमम्र के दर्शकों को उत्साहित किया, जीवन के प्रति एक नई आशा और उमंग को भर देने वाली उनकी अदाएं और उनका अंदाज, सिर्फ उनका ही अपना था। उनकी सारी फिल्में बहुत ही सुंदर, स्वस्थ और सुहावने गीतों से  सजे होते थे, जो कि हर  समय लोगों  को को ताजगी प्रदान करते हैं । उनका अभिनय और उनकी अदाकारी कभी न भूलने वाली है । फिल्मों मे उन्होने पहनावे की  एक नई शैली विकसित की  थी जिसका अनुकरण सत्तर के दशक से लेकर आज तक लोग करते हैं। वे एक नई परंपरा के सर्जक थे । ट्रेंड सेटर थे । उनका रोमांस देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार के रोमांस के अंदाज से बहुत अलग था। वे स्त्री दर्शको के जितने  चहेते थे उतने ही पुरुष वर्ग के भी । उनके सभी पात्र रोमांटिक होते थे और कहीं भी उनकी फिल्मों हिंसा के लिए जगह न थी ।  उन्होने कभी कोई एक्शन फिल्म नहीं  की । 180-185 के लगभग फिल्मों मे उन्होने अभिनय किया किन्तु उनकी सारी फिल्में सामाजिक-प्रेम ( सोशल रोमांस ) से युक्त  हल्की मनोरंजन से भरी फिल्मे रहीं । उनके निधन पर देश भर मे जिस तरह की प्रतिक्रिया  देखी गयी वह कभी किसी फिल्मी सितारे के निधन पर नहीं देखी गयी । सारे टीवी चैनलों ने  मीडिया ने (अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के ) निरंतर उनके जीवन और उनकी फिल्मों को याद दिलाया। केवल उन्हीं पर केन्द्रित प्रसारण लगातार एक रात और दो दिनोंतक्छलता रहा। यह अभूतपूर्व लोकप्रियता की एक बहुत बड़ी मिसाल है और साथ ही देश वासियों का उनके प्रति प्रेम का प्रमाण है । विडम्बना यही रही कि ऐसे रोमांटिक व्यक्तित्व  का जीवन एकाकी ही रहा । विवाह के कुछ ही समय बाद उनका पत्नी डिम्पल से बिछोह  हुआ तब से जीवन के अंतिम पड़ाव तक उन्होने घातक अकेलेपन के सहारे ही जीवन बिताया । अंत समय मे पत्नी, पुत्री और जामाता का संबल अवश्य प्राप्त हुआ लेकिन इस रोमांटिक कलाकार का जीवन कितना आरोमांटिक रहा । उनके निधन पर जिस तरह से बालीवुड के अतीत,  वर्तमान और भविष्य के छोटे - बड़े सितारे और कलाकार इकट्ठा हुए उसे देखकर फिर से मनुष्यता के प्रति एक नई आस जाग गयी है । एक महान, संवेदनशील कलाकार के प्रति इस सामूहिक श्रद्धांजलि से बढ़कर और कोई दूसरी सौगात  नहीं हो सकती ।
एम वेंकटेश्वर .

Monday, June 11, 2012

सचिन एक मिसाल

सचिन तेंदुलकर ने राज्य सभा के सदस्य की रूप में शपथ लेकर भारतीय संसद की गरिमा में वृद्धि की है। यह देश के खेल जगत के लिए गौरव का विषय है। सचिन निश्चित रूप से इस गौरव और सम्मान के हकदार हैं। सचिन एक परिपक्व, सुलझे हुए विचारों के मानवतावादी खिलाड़ी हैं . उनमे खेल भावना कूट कूट कर भारी हुई है। सर्वोच्च नैतिक मानदंडों के समर्थक व संस्थापक सिध्ह किया अहै उन्होंने अनेकों बार। खेल के मैदान में और निजी जीवन में भी . अब एक और बेहतरीन मिसाल उन्हेंने दी है - सांसद के रूप में। यह युवा खिलाड़ी पूरी तरह से स्वयं को भारतीय नैतिक मूल्यों के संवर्धक और वाहक के रूप में निजी स्वार्थ त्याग का आदर्श उदाहरण बन गया है। और यह उस समय हुआ जब उन्होंने दिल्ली में आबंटित ( सासदों के लिए - विशेष ) आवास ( भव्य बंगला ) दिल्ली के प्रवास के दिनों के लिए, ठुकरा दिया और स्वेच्छा से उन्होंने अपने खर्चे पर दिल्ली के किसी होटल में ठहराने की सार्वजनिक घोषणा की . यह एक बहुत ही भावुक किन्तु सार्थक और कारगर कदम है जिसे उन्होंने ठीक ऐसे समय जभारात्वासियों के सम्मुख प्रस्तुत किया है जब की देश भ्रष्टाचार की चरम और परम सीमा कू लांघ चुका है। अब जनता की सहनशीलता भी ख़त्म हो चुकी है। राजनेताओं के   चरित्र   कलंकित हो चले हैं और ईमानदार नीता को ढूँढ़ पाना कठिन हो रहा है। आम आदमी की आस्था और विश्वास राजनेताओं के प्रति डगमगाने लगी है - ऐसे में इस प्रकार का चारित्रिक प्रदर्शन नेताओं के लिए चौंकाने वाला हो सकता है। आज दिल्ली में मुफ्त मिलने वाली सुविधा कौन नहीं चाहता ?  फिर सांसदों तो यह हक़ है . लेकिन आज का सांसद  वेतन और भत्ते के रूप में जितनी सुविधाएं प्राप्त करता है - क्या उतनी सुविधाएं यह गरीब देश उस बोझ को उठा सकता है ? आज त्याग और स्वार्थरहित जीवन का आदर्श स्वीकार करने की हिम्मत और चारित्रिक बल बहुत कम लोगों में दिखाई देता है, सचिन उन विराक्ले लोगों में से हैं जिन्होंने बहुत ही सही अवसर पर अपने चारित्रिक सदाशयता को देशवासियों के सामने रखा। इस प्रकरण से सचिन के प्रति देशवासियों का सम्मान और  प्रेम कई गुना बढ़ा है। सचिन को समस्त देशवासियों की और इस साहसपूर्ण निर्णय पर बधाई और शुभ कामनाएं .

Tuesday, June 5, 2012

विवादों की राजनीति से आम आदमी परेशान

विवादों की राजनीति से देश गरमा रहा है। आज किसी भी मुद्दे पर  पर न तो सरकार में और न ही  गैर सरकारी सस्थाओं में किसी भी तरह की सामान वैचारिक एकता दिखाई पड़ती है। हर राजनीतिक दल केवल सत्ता की राजनीति  करते हुए दिखाई देते हैं और इन सबके बीच आम आदमी परेशान है। किसी भी मुद्दे पर आम सहमति नहीं बनती है।
देश महंगाई से त्राहि त्राहि कर रहा है और सत्ताधारी राजनीतिज्ञों को अपनी कुर्सी की राजनीति करने से फुरसत नहीं है। महंगी, और भ्रष्टाचार ने सभी सीमाएं पार कर ली हैं। देश विखंडन के दौर से गुजर रहा है और कोई भी राजनीतिक दल देश की आतंरिक सुरक्षा, महंगाई, बढ़ती कीमतों से देशवासियों की बदहाली, शिक्षा के गिरते स्तर, देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि, फैलते भ्रष्टाचार  पर नियंत्रण करने की इच्छा शक्ति का पूर्णत: अभाव - जैसी स्थितियों से देश गुजर रहा है। हर राजनीतिक दल स्वयं की स्थापनाओं को सही सिद्ध करने की होड़ में देश की जनता के प्रति उदासीन हो गया है। जनता या आम आदमी का अस्तित्व  ही गायब हो गया है- हमारे देश के राजनीतिक परिदृश्य से - आज राजनीतिक ताकत ही सर्व - प्रबल हो गयी है। सही-गलत में कोई भेद नहीं रहा, निर्दोष और अपराधी में अंतर समाप्त हो गया है। अपराध करके कोई भी अपराधी बहुत ही आसानी से जमानत पर छुट सकता है और फिर उसके आरोपों की जांच के लिए बरसों लग जाते हैं - इस बीच वह आरोपी बहुत ही चालाकी से न्याय व्यवस्था तक को झुठलाकर या खरीदकर स्वयं को पाक साफ़ सिद्ध कर लेता है .जमानत पर रिहा होने की विचित्र परम्परा हमारे देश की न्याय व्यवस्था ने अपराधियों को वरदान के रूप में प्रदान किया है। आज देश में एक से बढाकर एक  अक्षम्य किस्म के घोटाले खुलकर सामने आ रहे हैं जिनमें सत्ता पक्ष के और प्रतिपक्ष के भी अनेक नेतागण  शामिल  हैं। मीडिया की सक्रियता और खोजी पत्रकारिता तथा सूचना के अधिकार के द्वारा अनेक खुफिया जानकारियाँ देश के सामने प्रकट हो रही हैं जिसके द्वारा हमारे सामने राजनीतिज्ञों का एक बहुत ही भ्रष्ट - घिनौना चेहरा सामने आ रहा है - भ्रष्टाचार में लिप्त इन राजनेताओं को जल्द से जल्द सजा मिलनी चाहिए - तत्काल दंड का प्रावधान हमारी न्याय व्यवस्था में होना चाहिए। कई दशकों तक चलने वाले मुकदमे - अपराधी और अपराध दोनों को संरक्षण प्रदान करते हैं .
सरकार से जब कोई आम आदमी सीधे सवाल पूछता  है तो सरकार तिलमिला जाती है और उस प्राश्निक पर ही हमला बोल देती है। एक और तो हम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की दुहाई देते है लेकिन दूसरी और जनता की आवाज को  किसी न किसी तकनीकी पेचीदगी में उलझाकर दबा देते हैं। क्या यही लोक तंत्र है ? यह तो नाम मात्र का लोक तंत्र है। भ्रष्टाचार पर किये जाने वाले हर सवाल को - केवल भ्रष्टाचार की अतिव्याप्ति के उदाहरण देकर- परस्पर दोषारोपण करते हुए मूल मुद्दे से लोगों को भटका दिया जाता है। आखिर इस देश में आम आदमी को न्याय कब मिलेगा ?



Sunday, March 18, 2012

अज्ञेय कृत ' शेखर - एक जीवनी ' का पुनर्पाठ

एम वेंकटेश्वर

प्रेमचंद के बाद हिंदी उपन्यास को नई संपन्नता देने वाले लेखकों में अज्ञेय का स्थान जितना प्रमुख है, उनके औपन्यासिक कृतित्व का मूल्यांकन उतना ही विवादास्पद है । उनके तीनों उपन्यासों ने साहित्यिक परिवेश को काफ़ी आन्दोलित किया है । यद्यपि अज्ञेय ने कविता को ही अपने लिए अभिव्यक्ति का अधिक उपयुक्त माध्यम माना है, पर लेखक के रूप में उन्हें मान्यता उनके प्रथम उपन्यास ' शेखर - एक जीवनी ' से ही प्राप्त हुई, जिसके प्रकाशित होने पर नेमिचन्द्र जैन के शब्दों में ' एक सर्वथा नवीन साहित्यिक स्तर की उपलब्धि का भाव समान रूप से हिंदी पाठक और समालोचक को हुआ था और समूचा साहित्यिक वातावरण नये आन्दोलन से स्पन्दित हो उठा था ।' ' नदी के द्वीप ' में भी एक विशेष लेखन-क्षमता का परिचय अज्ञेय ने दिया, लेकिन वह ' शेखर - एक जीवनी ' की मूल संवेदना ' से जुड़ा हुआ है । ' अपने अपने अजनबी ' फ़िर एक सर्वथा नए ढंग की कृति के रूप में सामने आया । इन तीनों कृतियों की प्रशंसा और आलोचना

दोनो खूब हुईं ।

' शेखर - एक जीवनी ' की भूमिका में लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि ' शेखर में मेरा-पन कुछ अधिक है, इलियट का आदर्श ( भोगने वाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार का अन्तर ) मुझसे निभ नहीं सका है ।' लेखक की प्रामाणिक जीवनी या आत्मकथा के अभाव में यह कहना कठिन है कि लेखक और

' शेखर ' में संपृक्ति का स्वरूप कितना और कैसा है, पर इतना असंदिग्ध रूप में कहा जा सकता है कि कृति की प्रकल्पना मूलतः औपन्यासिक है और एक कल्पनात्मक जीवन चित्र ही उसमें प्रधान है । लेखक के अनुसार वह निषेधात्मक मूल्य को लेकर नहीं चला, मानव में उसकी आस्था है और मूल-रूप में ' शेखर ' का जीवन दर्शन ' स्वातंत्र्य की खोज ' है - टूटती हुई नैतिक रूढियों के बीच नीति के मूल स्रोत की खोज ।

' नदी के द्वीप ' को लेकर उनका कहना है कि वह ' उस समाज का, उसके व्यक्तियों के जीवन का जिसका वह चित्र है, सच्चा चित्र है । ' अपने अपने अजनबी ' में उनके अनुसार मृत्यु साक्षात्कार को अन्य समस्याओं से अलग करके निस्संग रूप देखने का प्रयत्न किया गया है

हमें अज्ञेय का महत्व निर्धारित करने के लिए उनकी संपूर्ण औपन्यासिक उपलब्धि को सामने रखना होगा ; सिर्फ़ यह नहीं देखना होगा कि फ़्रायडीय अथवा असामान्य मनोविज्ञान से प्रमाणित अंतश्चेतना का उद्घाटन

अज्ञेय की कृतियों में कितना हुआ है या कि पाश्चात्य उपन्यास की कथा विधान प्रविधियों के ये कितने बड़े प्रयोगकर्ता हैं । मातृ-रति ग्रन्थि से प्रभावित पात्रों का चित्रण अनेक पाश्चात्य उपन्यासकारों ने किया है, अज्ञेय ने उसी के एक विकार को ' शेखर - एक जीवनी ' में मातृ-घृणा के रूप में चित्रित करने की विशेषता प्रकट की है ।

' शेखर - एक जीवनी ' की भूमिका के अनुसार वह एक क्रान्तिकारी की जीवनी को प्रस्तुत करने वाला उपन्यास है । मृत्यु की निश्चित संभावना को सामने पाकर ' शेखर ' के सामने प्रश्न है कि उसकी मृत्यु की

सिद्धि क्या है ? लेखक के अनुसार उपन्यास एक व्यक्ति का अभिन्नतम निजी दस्तावेज़ है, यद्यपि वह साथ ही उस व्यक्ति के युग संघर्ष का प्रतिबिंब भी है । क्या लेखक का यह वक्तव्य उपन्यास द्वारा प्रमाणित होता

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है ? उपन्यास के प्रवेश भाग में जो दृश्य है, उसके नायक के सक्रिय क्रान्तिकारी होने का आभास मिलता है । अपने उद्देश्य के लिए समर्पित एक क्रान्तिकारी जीवन का करुण अन्त का वह दृश्य है । एक त्रासदीय गरिमा के साथ लेखक उसका चित्रण करता है उसके तुरन्त बाद एक स्त्री और एक पुरुष को उस शव के आर-पार

दानवी भूख से आलिंगन करते शेखर देखता है । दो-ढाई पृष्ठों का यह दृश्य अपने में एक विस्तृत कहानी

छिपाये है, जो उपन्यास के दोनों प्रकाशित खंडों में नहीं दी गयी है । लेखक ने ' शेखर - प्रश्नोत्तरी '

में बताया है कि ' शेखर' का चित्र तीसरे भाग ( अप्रकाशित ) में पूरा हो जाता है, वह हिंसावाद से आगे बढ

जाता है । मैं समझता हूं कि वह मरता है तो एक स्वतंत्र और संपूर्ण मानव बनकर । यों उसे फ़ांसी होती है - ऐसे अपराध के लिए जो उसने नहीं किया है । तीसरे भाग के प्रकाशित होने पर शायद शेखर के व्यक्तित्व में एक क्रांतिकारी स्तर और जुड़ जाता पर प्रकाशित दोनों खण्डों के आधार पर उसे शब्द के उचित अर्थ में एक बड़ा क्रान्तिकारी कहना संभव नहीं है । तीसरा भाग अगर प्रकाशित होता तो वह भी उसी तरह एक अलग से उपन्यास के रूप में सामने आता जिस तरह दूसरा भाग पहले से स्वतंत्र- सा ( एक अर्थ में )आया

था - स्वयं लेखक की दृष्टि में वे जुड़े भी हैं और जुदा भी हैं । दोनों भागों के ‘ शेखर’ और ' नदी के द्वीप ' के ‘भुवन’ का संघर्ष आधारभूत रूप में सामाजिक नैतिकता के ( स्त्री-पुरुष संबंध या प्रेम के रिश्ते को लेकर ) प्रचलित रूप के प्रति है । दोनों नायकों का विरोध नैतिक रूढियों से है - वे चुनौती देते हैं और विद्रोह में खड़े होते हैं - नायिकायें, शशि और रेखा, भी ।

अपने वर्तमान रूप में ' शेखर - एक जीवनी ' किसी राजनीतिक विद्रोह का सशक्त चित्रण लेकर नहीं चलती और इसलिए जिस अर्थ में हम गोर्की के ' मां ' को क्रान्ति का उपन्यास कहते हैं उसी अर्थ में ' शेखर - एक जीवनी ' को क्रान्तिकारी उपन्यास नहीं कह सकते ।

उपन्यास की भूमिका में लेखक ने शेखर के व्यक्तित्व को एक प्रकार के नियतिवाद के अन्तर्गत परिभाषित किया है । स्पष्ट ही यह नियतिवाद मनोवैज्ञानिक नियतिवाद है । शेखर के बचपन का - उस पर पड़ने वाली छापों का - लेखक ने विदग्ध चित्रण किया है और ऐसे जीवन चित्र को लेकर लिखा गया यह पहला उपन्यास है । लेखक ने बाल्यकालीन प्रसंगों के चित्रण में जिस अन्तर्दृष्टि का परिचय दिया है, वह कुछ सिद्ध निष्कर्षों के आग्रह के कारण धुंधला गयी है । मां के प्रति शेखर की घृणा को इडिपस कांप्लेक्स के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त से व्याख्या की जा सकती है । उसकी घृणा इतनी तीव्र है कि अपनी गिरफ़्तारी के बाद जब उसे घर का विचार आया तब यही कि ' जब मां सुनेंगी तब इस समाचार के प्रति उसका पहला भाव तो विजय का ही होगा, जैसे मैं तो जानती थी । मैंने कभी उसका विश्वास नहीं किया, फ़िर वह दुःखी होगी .... पहला विचार तो यही होगा कि उससे यही आशा होनी चाहिए थी । और इस विचार ने उसे बड़ी सान्त्वना दी - पुलिस के अत्याचारों के प्रति सर्वथा निरपेक्ष बना दिया । ' सच पूछो तो मैं उसका भी विश्वास नहीं करती ।वह सम्भ्रान्त सा ठहर गया सा भाव, वह शेखर की और उठा हुआ अंगूठा - इसका ! - मां से संबद्ध यह स्मृति - चित्र स्थायी हो गया है । मां की मृत्यु पर दुःख का अनुभव उसे नहीं होता और जब बहुत देर बाद पिंजर को हिला देने वाले रोदन में उसे शशि पाती है तो वह अप्रत्याशित आचरण अवास्तविक लगता है ।

मानववादी मनोविद एरिक फ़्राम के अनुसार व्यक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व की और बढने की अनिवार्य शर्त

है - मातृ सुरक्षात्मक छत्र-छाया की चाह से मुक्ति । माता से जुड़ा व्यक्ति शैशव में ही रह जाता है । शेखर स्वतन्त्र नहीं हो सका है । प्रेम में भी वह मां को ही खोजता है । यदि लेखक बालक शेखर का अध्ययन एक

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असंतुलित - विकास प्राप्त बालक के रूप में ही सीमित रखता तो वह बालमन को उद्घाटित करने वाली एक यथार्थ कथा लिख रहा होता । पर उसका संकल्प उस बालक को विद्रोही में बदलने का है और इसलिए

शेखर के व्यक्तित्व में एक बुनियादी असंगति का समावेश हो गया है । मां के प्रति उसके भाव में कोई जटिलता नहीं रह पाती ।

शेखर एक जीवनी – उपन्यास के पहले भाग का मुख्य विषय है बालक शेखर के बहुत बचपन से संघटित होने वाले मानसिक संस्कारों का और सगी बहन से आरंभ होने वाले आकर्षण का उम्र के साथ आगे संपर्क में आने वाली लड़कियों के प्रति प्रसारित होना अर्थात यौनाकर्षण का चित्रण । मुमुर्ष शान्ति का शेखर के प्रति आकर्षण और शेखर का उसके प्रति करुणा युक्त लगाव ज़िन्दगी और मौत को एक बिन्दु पर खड़ा करने वाला मार्मिक प्रतीक बन जाता है । शारदा के प्रति शेखर का किशोर मोह गहरी रूमानियत लिए हुए है , लेकिन अन्ततः वह मोह टूटता है और उसके साथ रूमानियत का एक स्तर भी । दूसरे भाग में शेखर के कॉलेज के अनुभव, कांग्रेस सेवा दल में शामिल होकर जेल जाने और जेल के अनुभवों आदि का वर्णन कथा-सूत्र से विच्छिन्न है । प्रथम खंड ‘ पुरुष और परिस्थिति ‘ में शशि के पिता के देहांत से उपन्यास की वास्तविक कथा शुरू होती है, वह तीसरे खंड ‘ शशि और शेखर ‘ में आगे बढती है और अन्तिम खंड में शशि की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाती है । दूसरा भाग वस्तुतः शशि और शेखर की प्रेमकथा का है, जिसके हल्के से सूत्र प्रथम भाग में हैं । यह कथन कि ‘ शेखर मूलतः विद्रोह का आख्यान है,’ उपन्यास में वास्तविक जीवंत विद्रोह के अभाव में प्रमाणित नहीं होता । उपन्यासकार द्वारा प्रस्तुत क्रान्तिवाद का आधार बहुत कमज़ोर रहता है और फ़लतः खंड चित्रों, हलके अनुभवों तथा प्रबन्धात्मक विचारों से उपन्यास कमजोर हो जाता है ।

शशि और शेखर के प्रेम तथा रेखा और भुवन के प्रेम – शेखर –एक जीवनी और नदी के द्वीप के प्रेम – की कथायें आधारभूत संवेदना के लिहाज से पूर्वापर क्रम में रखी जा सकती हैं । दोनों में प्रचलित सामाजिक

नैतिक मान्यताओं का अस्वीकार है और व्यक्ति की दृढतर मान्यता को प्रतिष्ठित करने की कोशिश है । शशि-शेखर का प्रेम एक अधिक साहसिक आचरण है – सामाजिक मर्यादायें बाध्यकारी शक्ति के साथ विद्यमान हैं । शशि – शेखर के संबंधों में व्याप्त असहजता का परिहार स्वयं लेखक कर देता है – वह शशि को रक्त संबंध से दूर शेखर की मां की एक मान ली गयी बहिन की पुत्री घोषित करता है । महान साहित्यिक कृतियों में वैयक्तिक आकांक्षाओं और सामाजिक मान्यताओं के बीच संघर्ष में वैयक्तिक अस्तित्व के धरातल पर आहुति का चित्रण रहता है । ‘ शशि-शेखर में प्रेम सिर्फ़ एक सामाजिक रूढि के आधार पर मर्यादाहीन है जिसे वे चुनौती देते हैं – वे नई मर्यादा को स्वयं पाते हैं । जब तक वे अपने प्रेम को पहचानते और स्वीकारते हैं, शशि की मौत की घड़ी आ जाती है और यह प्रेम-कहानी दुखांत हो जाती है । रेखा और भुवन के प्रेम में सामाजिक मर्यादा की बाध्यता अनुपस्थित है । उनका प्रेम एक शारीरिक परिणति प्राप्त करता है – वे आंतरिक प्रेरणा से मिलते हैं और स्वेच्छा से दूर होते हैं । शेखर एक जीवनी में प्रेम का अवज्ञान है और नदी के द्वीप में उसके भोग का आनन्द है ।

दुनिया से भागकर प्रकृति की शरण में शेखर भी जाता है और भुवन भी – एकांत प्रकृति और एकांत प्रेम की दुनिया में जहां लेखक की भावुकता निर्बाध अभिव्यक्ति पा सके; विशेषकर प्रकृति के एकांत में एकांत

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प्रेम-व्यापार के क्षण । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शेखर और भुवन प्रेमिकाओं में एक वत्सला मां को खोजते हैं – ‘वे स्नेह शिशु ‘ बने रहते हैं – शशि, शेखर के लिए एक सप्तपर्णी छांह है, रेखा, भुवन के लिए

‘स्निग्ध, करुण, वात्सल्य भरी गरमी ‘ है और गौरा उसकी आंखों में रोमांस पैदा करने वाला एक आप्लावनकारी पात्र है जो उसके ‘ सिर-माथे पर छा गया है ‘। यहां, प्रेमिका में प्रेमी को एक वात्सल्य भरी मां की खोज भी हो सकती है, पर उसके एकांत आग्रह के कारण उपन्यास में एक सतही भावुकता आ गयी है, जो कि अज्ञेय के उपन्यासों की पहचान बन गयी है। दर्द का भी लेखक वर्णन करता है, पर जहां शशि के दर्द में बाह्य संगति थोड़ी बहुत बनी रहती है रेखा का दर्द बहुत ओढा हुआ लगता है । इसलिए मोहन राकेश का यह कहना सच है कि है कि " भुवन और रेखा की वेदना स्वीकृत हृदय को द्रव अवस्था में नहीं लाती - उसमें जीवन की संगति का अभाव है ।"

शशि- शेखर के प्रेम का रूमानियत के स्तर पर वर्णन एक साहसिक संबंध के कारण स्वीकार्य हो जाता है, परनदी के द्वीपकी रूमानियत - नौकुछिया ताल पर जब रेखा केशब्दहीन-स्वरहीन होठजब कह रहे होते हैं –‘ मैं तुम्हारी हूं, भुवन मुझे लोयथार्थ की अनुभूति को कुंठित करती है । लेखक रेखा और भुवन को एकांत प्रकृति की गोद में स्थापित कर भुवन की अभिव्यक्ति को इस प्रकार रूपायित करता है - " तब भुवन फ़ुसफ़ुसाता है, यह इन्कार नहीं है, रेखा, प्रत्याख्यान नहीं है …. जो सुन्दर है उसे मिटाना नहीं चाहिए " । यह एक निरा भावुक प्रसंग है । रोमांटिक वातावारण में ही तुलियन कैंप भी है, पर देह – भोग की अनुभूति का यहां पहली बार हिंदी में उत्सवी वर्णन हुआ है – यह वर्णन अपने आप में एक कविता है ।

एक बिन्दु पर अज्ञेय की प्रेम-संवेदना जैनेन्द्र से पिछड़ी हुई है और दूसरे बिन्दु पर आगे । जैनेन्द्र के प्रेम में पति बीच में बंधक के रूप में नहीं आता । शशि के पति को अज्ञेय बीच में प्रस्तुत करते ही हैं , ‘ नदी के द्वीप ‘ में पति के अतिरिक्त एक खलनायक और अन्य प्रेमिका भी उपस्थित है । यों शशि के पति प्रसंग से भारतीय समाज में स्त्री के प्रति अन्याय का वर्णन हो गया है, रेखा के प्रसंग में तो वह भी अप्रत्यक्ष व कमजोर है, लेकिन इससे वह मानवीय स्थिति खंडित हो जाती है जहां प्रेम नितांत वैयक्तिक अभिव्यक्ति हो जाती है

( जैसा कि जैनेन्द्र में )। लेकिन जैनेन्द्र जहां परिणति में प्लेटोनिक हो जाते हैं वहां अज्ञेय यथार्थ की भूमि पर रहते हैं । डॉ इन्द्रनाथ मदान के शब्दों में " आधुनिकता की चुनौती ‘को स्वीकार करते हैं । शशि और शेखर निकटता के वृत्त में आने वाले स्त्री-पुरुष के प्रेम की स्वीकृति है और रेखा-भुवन का प्रेम देह-भोग के स्तर पर – यथार्थ के धरातल पर – स्वतंत्र नर-नारी के प्रणय का अनुलेख ।"

अज्ञेय प्रेम में वर्णन का आश्रय लेते हैं, वहां चित्रण की प्रवृत्ति उनमें कम है । उनके पात्रों के उद्गार स्वतंत्र रूमानी कविताओं जैसे हैं । पात्र न केवल दूसरे कवियों के कविताओं का उद्धरण देते हैं बल्कि एक दूसरे से प्रेम-निवेदन भी अधिकतर लिखित डायरियों के आदान-प्रदान से करते हैं । अज्ञेय के शब्दों में अर्थगर्भिता है, मितव्ययी वे हैं पर मित कथन उनमें नहीं है । प्रेमोद्गार रूमानी प्रलाप के निकट चले जाते हैं और जैसे उपन्यास कमजोर हो जाता है ।

अज्ञेय के स्त्री पात्र, शशि, रेखा और गौरा, पुरुष में अपनी सार्थकता खोजती हैं - " एक बार मैंने मान से कहा था, क्या मेरे लिए लिख सकते हो - यह दावा नहीं था कि मैं तुम्हारे जीवन का अथ और इति हूं, अपने को अन्त मानने का दुस्साहस मैंने नहीं किया, केवल इतना था कि अपना जीवन नष्ट करके, होम कर देकर,

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राख कर देकर, मैंने मांग़ा था, चाहा था, कि वह तुममें सिद्धि पाये,तुम हो गये थे प्रतीक मेरे लिए, मेरे जीवन के प्रतीक ………। " (शशि )

" मेरे लिए यह समूचा श्रीमतीत्व मिथ्या है, कि मै तुम्हारी हूं केवल तुम्हारी, तुम्हारी ही हुई हूं – तुम्हीं मेरे गर्व हो, तुम्हारे ही स्पर्ष से ‘ सकल मम देह-मन वीणा सम बाजै ....। "( रेखा )

" किसी तरह, कुछ भी करके, अपने को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती – तो अपने जीवन को सफ़ल मानती ।" ( गौरा )

स्पष्ट है कि अज्ञेय की नारी प्रकल्पना उसे पूर्ण स्वतंत्रता से मंडित नहीं करती – उसमें पुरुष मोह है, जो स्त्री को सदैव आश्रित ( कम से कम मानसिक संस्कार में तो अवश्य ) देखना चाहता है । इस दृष्टि से प्रेमचंद ने ग्रामीण स्त्री धनिया के माध्यम से – कहीं अधिक स्वतंत्र व्यक्तित्व वाला पात्र दिया है । अज्ञेय ने स्त्री को

नैतिक रूढियों के बंधन से – परंपरागत संस्कारों की बाध्यता से अवश्य मुक्त कर दिया है । उनकी स्त्रियां सीमोन दी बूवा की शब्दावली में 'असत-आस्था' में जीने वाली ही हैं, उनकी चरितार्थता का केन्द्र पुरुष है। लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि अज्ञेय भारतीय समाज की स्त्री को स्वतंत्रता के अधिक निकट लाते हैं और अपने देश काल की अग्रगामी चेतना को प्रकट करते हैं ।

' शेखर- एक जीवनी ' को मृत्यु-दंड की निश्चित संभावना को प्राप्त नायक द्वारा अपने अतीत के प्रत्यावलोकन के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इस प्रक्रिया का आरम्भ फ़ांसी के विधान में निहित हृदयहीनता से होता है । " मुझे तो फ़ांसी की कल्पना सदा मुग्ध ही करती रही है – उसमें सांप की आंखों सा एक अत्यन्त तुषारमय, किन्तु अमोघ सम्मोहन होता है ।" – ऐसी प्रतिक्रिया उलटे मृत्यु से दूरस्थता को प्रकट करती है ।शेखर का यह प्रत्यावलोकन मृत्यु के विषाद से अछूता है । दोनों खंडों में आसन्न मृत्यु के क्षण की विद्यमानता नहीं है । यह केवल कथारंभ का एक कौशल मात्र लगता है, जो चमत्कारपूर्ण तो है, पर प्रभावी नहीं ।

'शेखर- एक जीवनी ' में राष्ट्रीय परिवेश, औपन्यासिक संरचना का अनिवार्य अंग नहीं बन सका है । लेखक की औपन्यासिक प्रकल्पना के अनुसार नायक को स्वाधीनता संघर्ष और आतंकवादी अनुभवों से गुजरना था - " आतंकवादी दल से संबद्ध रहकर भी कन्विंस्ड आतंकवादी नहीं रहा, पर मुझे इसमें बड़ी दिलचस्पी रही कि आतंकवादी का मन कैसे बनता है । " शेखर की रचना इसी से आरम्भ हुई ।‘

शेखर की जिस महानता को लेखक स्वतःसिद्ध मानकर चलता है। उसकी उपस्थिति उपन्यास के दोनों भागों में नहीं है । इसीलिए उसकी मृत्यु की संभावना में एक सच्चे क्रांतिकारी के जीवन की संपूर्ति का अहसास नहीं होता ।