कल रात अकस्मात खबर मिली कि हैदराबाद के एक अस्पताल मे ' रावूरि भारद्वाज ' का निधन हो गया । अरुणाचल प्रदेश के राजीव गांधी विश्वविद्यालय परिसर मे स्थित अतिथिगृह के अपने कमरे के एकांत मे जब मैं अपने अरुणाचल प्रवास के संस्मरणों को कलमबद्ध करने का प्रयास कर रहा था तो इस खबर ने मुझे हतप्रभ कर दिया और मैं भावुक होकर रावूरि भारद्वाज के सादगी भरे उदार व्यक्तित्व और उनके सामाजिक सरोकार से युक्त कथा साहित्य की उदात्तता के चिंतन मे खो गया। रावूरि भारद्वाज को मैंने हमेशा एक संत के रूप मे देखा है । उनकी जुझारू और श्रम पूर्ण गरिमामय कद काठी - उनके जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष को बिना किसी दुराव या छिपाव के व्यक्त करती रही । उनकी अति साधारण जीवन शैली और और उनकी गरिमामय वाणी ने आज़ादी के बाद की कई पीढ़ियों को प्रेरित किया है । अपनी कहानियों से वे आम आदमी के बहुत करीब रहे । वे सच्चे अर्थों मे एक स्थितप्रज्ञ संत थे। श्रमिक और मजदूर जीवन से गुजरते हुए उन्होने स्वाध्याय और स्वानुभव से जीवन की विसंगतियों को ही अपना पाठ प्रदर्शक स्वीकार कराते हुए कबीर और वेमना, रविदास और दादू के पद चिह्नों पर चलते हुए गरीबों के हिमायती बनाकर आजीवन मानवीय मूल्यों के लिए संघर्षरात रहे । उनका कथा साहित्य ( कहानी और उपन्यास ) दोनों सर्वहारा वर्ग के शोषण और उत्पीड़न की कहानी कहता है । हाल ही मे तेलुगु साहित्य को उनके आजीवन योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने प्रतिष्ठात्मक ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया । यह उनके जीवन के अंतिम दिनों मे उन्हें नसीब हुआ । एक तरह से उनकी उपेक्षा होती रही लेकिन उन्होने कभी पुरस्कारों की राजनीति के अंग नहीं बने। वे आजीवन मौन मुनि बनकर साहित्य सृजन मे लगे रहे । सक्रिय काल मे वे आकाशवाणी से जुड़े रहे । तेलुगु मे आकाशवाणी के लिए उन्होने बाल कार्यक्रम ' बाला नंदम ' की परिकल्पना उन्होने ही की थी जो कि आज भी लोकप्रिय है और आकाशवाणी के लोकप्रिय कार्यक्रमों मे अपनी विशेष पहचान रखती है । फिल्मी जगत की विसंगतियों पर उनका उपन्यास ' पाकुडु राल्लु ' आधुनिक तेलुगु उपन्यास साहित्य मे मील का पत्थर माना गया है । ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कर उन्हें संतोष का अनुभव हुआ और वे बहुत प्रसन्न थे । ज्ञानपीठ पुरस्कार से इधर मीडिया मे वे काफी चर्चित होने लगे थे । यह अत्यंत दुख और चिंता का विषय है कि उनके निधन का समाचार और उनके प्रति किसी राष्ट्रीय समाचार पत्रों और टीवी चैनलों ने नहीं प्रसारित किया । ( अब तक - इस लेख के लिखे जाने तक )आखिर यह उपेक्षा क्यों ? भारतीय भाषाओं के लेखकों ( साहित्यकारों ) के प्रति यह उपेक्षा का भाव मन को दुखी करता है । इस अकिंचन की ओर से उस साहित्यकर्मी, समाज के उपेक्षित वर्ग के मसीहा को नमन । उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ।
एम वेंकटेश्वर
एम वेंकटेश्वर
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