Friday, September 15, 2017

14 सितंबर 2017

14 सितंबर 2017, आज के हिंदी अखबारों के पन्ने हिंदी दिवस के आलेखों से भरे पड़े हैं । एक होड सी दिखाई दी, विशेषकर राजनेताओं, मुख्य मंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों ने हिंदी दिवस के महत्व पर स्वयं की भावनाओं को उंडेलकर रख दिया । आज देश भर के हिंदी और स्थानीय भाषा के अखबारों मे हिंदी दिवस की प्रतिष्ठा को पुन: एक बार ( सालाना जश्न के रूप में ) स्थापित करने का भरूपर प्रयास दिखाई दिया । किन्तु भारतीय अंग्रेजी के अखबार यथावत खामोश रहे । हिंदी का मुद्दा जैसे केवल हिंदी पढ़ाने वाले शिक्षकों और हिंदी का कामकाज देखने वाले कर्मचारियों एवं अधिकारियों तक ही सीमित हो । एक अजीब सी मानसिकता देश में व्याप्त है । एक मुख्यमंत्री ने अपने बधाई संदेश में केवल हिंदी भाषा-भाषियों को ही हिंदी दिवस की बधाई प्रेषित की ( अखबार के जरिये ) । यही विडम्बना है हमारे राजनेताओं की । उन्हें यह भी नहीं  मालूम है कि हिंदी दिवस का क्या अर्थ है ? राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अंतर को अभी तक न समझने वालों की संख्या कल्पनातीत है । अभी भी लोगों में राजभाषा हिंदी और राष्ट्रभाषा हिंदी, को लेकर काफी भ्रम और गलतफहमी मौजूद है । लोग राजभाषा और राष्ट्रभाषा के स्वरूप को एक ही मान लेते हैं ।
मुझे भी प्रतिवर्ष की भांति ही इस वर्ष भी (कल 14 सितंबर को ) केंद्र सरकार के एक प्रतिष्ठित  उपक्रम में हिंदी दिवस के उपलक्षया में आयोजित समारोह में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ ।
कार्यक्रम काफी सुनियोजित और उत्सावपूर्ण ढंग से आयोजित किया गया । राजभाषा विभाग के हिंदी अधिकारी और कर्मचारियों ने अपने प्रतिष्ठान में 'राजभाषा हिंदी ' के कार्यान्वयन को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया । पिछले एक वर्ष में हिंदी के प्रगामी प्रयोग संबंधी आंकड़ों को प्रस्तुत किया गया जो कि ध्यानाकार्षक था । प्रतिष्ठान के सभी वरिष्ठ अधिकारी, वैज्ञानिक एवं इतर कर्मचारी व अधिकारी गण इस कार्यक्रम में उपस्थित हुए । प्रतिष्ठान के प्रमुख, निदेशक महोदय (तेलुगु भाषी ) थे, किन्तु हिंदी के प्रति उनका समर्पण गौरतलब था । ARCI ( Advanced research center ) नामक यह संस्था छोटे बड़े उद्योगों के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के छोटे-बड़े कलपुर्ज़े  विकसित करती है, यांत्रिकी और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में युवा उद्यमियों को प्रशिक्षित भी करती है । यहाँ वैज्ञानिकों के साथ अनेक क्षेत्रों के तकनीकी विशेषज्ञ भी कार्यरत हैं जो अंग्रेजी मे अपनी पढ़ाई करके यहाँ कार्यरत हैं । राजभाषा कार्यान्वयन योजना के अंतर्गत यहाँ प्रशासनिक कार्य के साथ साथ अन्य प्रकार्यों के लेखन में भी हिंदी के प्रयोग पर बल दिया जा रहा है जो कि अत्यंत सार्थक और प्रासंगिक दिखाई पड़ा । मैंने अपने वक्तव्य में प्रशासनिक प्रयोजन के साथ साथ हिंदी का प्रयोग इतर कार्य  क्षेत्रों, वैज्ञानिक शोध लेखों के लेखन आदि में करने के लिए, उपस्थित जनसमुदाय को प्रेरित किया । इसका असर सकारात्मक दिखाई दिया ।हिंदी में विज्ञान संबंधी लेखन में उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर चर्चा हुई । विज्ञान विषयक लेखन में मूलत: पारिभाषिक शब्दावली की जटिलता और कठिनाई को सुलझाने के उपायों पर चर्चा हुई । मैंने प्रतिष्ठान के हिंदी विभाग को दिल्ली में स्थित ' वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा आयोग के संबंध  में जानकारी दी । जहां से वे लोग पारिभाषिक शब्दावली कोश प्राप्त कर सकते हैं । चर्चा के केंद्र में मैंने मूल रोप से राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अंतर को समझाया, जिसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दिया । प्रश्नोत्तर काल में एक श्रोता ने अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव पेश किया जिसे लोगों ने सिरे से खारिज कर दिया और इस प्रस्ताव पर खूब हंसी उड़ाई गई । हिंदी प्रतियोगिताओं के विजेताओं को नकद धनराशि पुरस्कार स्वरूप प्रदान की गई । हिंदी मे विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन हिंदी पखवाड़े के कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है ।
अंत में धन्यवाद ज्ञापन के साथ समारोह के पूर्वाह्न का कार्यक्रम समाप्त हुआ । मेरे लिए यह एक सुखद और यादगार अनुभव रहा । अब हम मान सकते हैं कि राजभाषा के रूप में हिंदी अब प्रतिष्ठित हो चुकी है और निरंतर इसमें प्रगति हो रही है ।



Saturday, September 2, 2017

शांति के अमर दूत - नेल्सन मंडेला

आज मुझे नेल्सन मंडेला की आत्मकथा ' लोंग वॉक टु फ़्रीडम ' पर आधारित फिल्म देखने का अवसर मिला । इस आत्मकथा को पढ़ने के लिए मैं काफी दिनों से प्रयासरत हूँ ।कई पुस्तकों की दुकानों मे इस पुस्तक को खरीदने की कोशिश की लेकिन यह यहाँ कहीं उपलब्ध नहीं हो सका। आखिर इसे ऑन लाईन खरीद रहा हूँ । हर भारतीय के लिए महात्मा गांधी के जीवन और स्वाधीनता संग्राम में भूमिका को  जानना जितना आवश्यक है, उसी तरह दक्षिण आफ्रिका को अंग्रेजों की रंगभेदी और नस्लवादी अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के उनके संघर्ष को जानना भी हर सभ्य देश के नागरिकों के लिए (मुझे लगता है की ) जरूरी है । नेल्सन मंडेला की लड़ाई, गांधीजी की लड़ाई से भी कहीं ज्यादा अन्याय, आतंक, अत्याचार, हिंसा से भरपूर 27 वर्षों तक सश्रम कारावास का दंड (जिसे अन्यायपूर्वक उनको दिया गया था ) सहते हुए  भी जिस व्यक्ति ने अपनी लौह आत्मशक्ति के बल पर घोर अमानवीय हिंसायुक्त रंगभेदी शासन से उत्पीड़ित जनता के लिए उन्होंने जिस तरह से अहिंसा के रास्ते, अपने समूची जाति को नया मुक्त, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार दिलाया, यह विश्व के पराधीन देशों की आज़ादी की लड़ाइयों के इतिहास में सर्वोन्नत स्थान रखता है । जिस तरह से रॉबिन द्वीप के नारकीय कारागार में बंदी के रूप में उन्हें 18 वर्षों तक भयानक हिंसात्मक तरीके से रखा गया, किसी भी व्यक्ति से उन्हें मिलने का अधिकार नहीं दिया गया, उस दौरान उनकी पत्नी से अंग्रेज़ पुलिस ने दुराचार किया, उन्हें बिना कारण जेल में बंद रखा गया, ( कुछ समय तक ) उनके बच्चों के साथ निर्मम व्यवहार किया गया, उनके पुत्र की मृत्यु की खबर तो उन्हें दी गई किन्तु उन्हें पुत्र के अंतिम संस्कार के लिए भी नहीं रिहा किया गया, साल मे केवल दो चिट्ठियाँ लिखने की उन्हें सुविधा दी गई और उनके लिखे हुए पत्र उनकी पत्नी तक नहीं पहुँचते थे ।
फिर भी वे ऐसे कारागार में केवल अपने मनोबल पर ही जीवित रहे । 18 वर्ष के बाद उन्हें रॉबिन द्वीप के एकांतिक कारागार से मुख्य भूभाग के अन्य कारागार में कुछ सुविधाओं के साथ आजीवन कारावास के दंड को पूरा करने के लिए स्थानांतरित किया गया । उनके साथ आजीवन कारावास का दंड भोगने वाले उनके सात,आठ साथी भी थे । इन सब पर आरोप था, सरकार के खिलाफ बगावत करने का और देशवासियों को सत्ता के खिलाफ हिंसा के लिए भड़काने का ।
नेल्सन मंडेला एक सक्षम वकील थे । उन्होंने कानून की पढ़ाई की थी । वे एक कुशल वक्ता, दृढ़ और मजबूत नायकत्व के लक्षणों से भरपूर बहादुर नेता बने ।
उन्होने जो यातनाएँ सहीं, गांधी बापू को उतनी यातनाएँ नहीं झेलनी पड़ीं । किन्तु मंडेला के सामने गांधी जी का उदाहरण मौजूद था । अत्याचारी गोरों  को उन्होंने अपनी सहनशीलता और दृढ़ता से 28 वर्षों के बाद ही सही रिहा करने के लिए मजबूर कर दिया । इस बीच उनके संगर्ष को अंतर राष्ट्रीय समर्थन मिला और अंत में प्रिटोरिया की गोरी अन्यायी, रंगभेदी सरकार को नेल्सन मंडेला ( जो जेल में सजा काट रहे थे ) बातचीत के लिए बाइज्जत, बुलाना पड़ा।   नेल्सन मंडेला एक महान राजकर्मी statesman के रूप में उन्होंने शांति वार्ता की । अंग्रेजों को डर था, कि यदि मंडेला की शर्तों के अनुसार आफ्रिका के मूल निवासियों को आज़ादी दे दी जाए तो वे उन पर पलटवार करनेगे और उन्हें मार डालेंगे, जो कि वास्तव में वहाँ के मूल निवासी अपने खून का बदला लेना ही चाहते थी, किन्तु मंडेला ने इसे खारिज किया और शांति के लिए ही उन्होंने आदी और समानता की मांग की । इससे पहले अंग्रेजों ने मंडेला को सत्ता का लोभ दिया, उन्हें सरकार में शामिल करने का प्रस्ताव रखा और उन्हें रिहा करने की बात काही, किन्तु मंडेला व्यक्तिगत आज़ादी नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने सिरे से ऐसे प्रस्ताव को तिरस्कृत कर दिया । इस तरह अंग्रेज़ शासकों और मंडेला के बीच कई दौर की बातचीत हुई । आखिर दक्षिण आफ्रिका के ब्रिटिश शासकों को मंडेला के शांति प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा । इधर मंडेला के देशवासी अंग्रेजों के साथ समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे । वे खून का बदला खून से ही लेना चाहते थे, यहीं पर नेल्सन मंडेला का अहिंसावादी नेतृत्व बिश्व के इतिहास में एक मिसाल बन गया । उन्होंने अपने साथियों और देशवासियों को अंग्रेजों द्वारा किए अन्यायपूर्ण व्यवहार और सदियों के अत्याचार के बावजूद उन्हें माफ कर देने के लिए प्रतिहिंसा की भावना से भरे हुए युवाओं और बुजुर्गों को मनाया । उन्हें शांति की सीख दी । उन्हें समझाया कि यदि वे इस अवसर को हिंसा में तबदील करेंगे तो उन्हें कभी शांतिपूर्ण जीवन नसीब नहीं हो सकेगा, उनके सन्तानें कभी जीवित नहीं रह सकेंगी, उन्हें हिंसा और शांति में से शांति का ही मार्ग स्वीकार करना होगा । नेल्सन मंडेला लोकनायक बन चुके थे । वे किसी भी शर्त पर देश को हिंसा और नफरत की आग में नहीं जलते देखना चाहते थे । वे गृह युद्ध नहीं होने देना चाहते थे । उनके इस शांति के प्रस्ताव का विरोध उनकी पत्नी ने भी किया जिस कारण उन्हें पत्नी से भी अलग होना पड़ा । उन्होंने पत्नी को शांति का मार्ग अपनाकर उनका साथ देने के लिए आग्रह किया, किन्तु वे नहीं मानीं, वह अंग्रेजों के साथ युद्ध करना चाहती थीं, जो कि आत्मघाती था ।
नेल्सन मंडेला की शर्त के अनुसार चुनाव करवाए गए । पहली बार एक व्यक्ति एक वोट का अधिकार हरेक वयस्क आफ्रिका निवासी को प्राप्त हुआ, जिसका दक्षिण  आफ्रिकावासियों  ने भरपूर किया । मंडेला राष्ट्रपति के रूप में चुन लिए गए । और फिर उन्होंने एक ने समाज, राष्ट्र का निर्माण किया । वे जीवनपर्यंत हिंसा और अन्याय के विरोध मेह ही खड़े रहे । 95 वर्ष की आयु तक वे देश वासियों की सेवा करते रहे । उन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । सन्र 2013 में उनकी मृत्यु हुई । उनकी मृत्यु पर सारा संसार शोक में डूब गया । एक महान राजनयिक, अहिंसावादी महामानव ने एक पूरी जाति को नस्लवादी नफरत और हिंसा के रास्ते से दूर कर उन्हें शांति के मार्ग पर स्थिर किया । 

Friday, September 1, 2017

हिंदी दिवस के विशेष संदर्भ में

हिंदी दिवस का पुन: आगमन

सन् 2017 का सितंबर का महीना आ गया । सितंबर का महीना, राजभाषा अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए अत्यंत विशिष्ट होता है । 14 सितंबरको  हिंदी के राजभाषा स्वरूप और अस्तित्व पर चर्चा होती है । राजभाषा के रूप मे हिंदी की प्रगति का आकलन किया जाता है । गृह मंत्रालय सक्रिय हो जाता है । केंद्र सरकार के कार्यालय, बैंक और उपक्रमों मे हलचल होती है । हिंदी के राजभाषा स्वरूप पर देश भर मे चर्चा, परिचर्चा, आकलन, मूल्यांकन का कार्य होता है । राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा बनाम संपर्क भाषा - के अंतर संबंधों पर भाषा विद और सामान्य जन भी अपनी अपनी राय देते हैं । हर साल हिंदी के बारे मे नई नई बहसें शुरू की जाती हैं । हर सरकार अपना अलग राग आलापती है । आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी देश वासियों के सम्मुख राष्ट्रभाषा का प्रश्न अभी भी स्पष्ट नहीं हुआ है । राष्ट्रभाषा - शब्द पर इस वर्ष काफी गरमागरम बहस हो रही है । लोग राष्ट्रभाषा शब्द की नई नई व्याख्याएँ कर रहे हैं । हिंदी पक्ष और विपक्ष में लोग जुट गए हैं । रोचक बहसें सुनाई पड़  रहीं
है । हिंदी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए लोग तैयार नहीं हैं । अधिकांश जनता - अंग्रेजी बनाम हिंदी के विवाद को सुलझाने के बजाय उलझाने में मजे लेते हैं । एक राष्ट्र - एक राष्ट्रभाषा की भाषिक स्थिति पर विचार करने के लिए कई लोग तैयार नहीं हैं । बहुभाषी होने के बावजूद भी कोई भी देश उपलब्ध भाषाओं में से किसी एक भाषा को अपने देश की राष्ट्र भाषा स्वीकार कर, उसी मे शिक्षा और कामकाज कर सकता है, इस सत्या एवं तथ्य को क्यनों लोग स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं । इसमें कोई विवाद नहीं है कि भारत में 22 तो संविधान मे मान्यता प्राप्त भाषाएँ  हैं । इसके अतिरिक्त और भी अनेकों छोटी बड़ी भाषाएँ हमारे देश में अस्तित्व में हैं । किन्तु देश की राष्ट्रीयता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए, कामकाज और शिक्षा के माध्यम को समरूपीय ( एकरूपीय ) बनाने के लिए क्या हम एक राष्ट्र-एक राष्ट्रभाषा - के सिद्धान्त को नहीं अपना सकते । हिंदी क्या यह स्थान नहीं प्राप्त कर सकती ? यदि हिंदी से किसी को शिकायत हो तो अन्य भाषा को इस स्थान के लिए सुझाया जाए और एकमत सी उसे स्वीकार किया जाए। एक राष्ट्रभाषा के सूत्र को लागू करने के लिए कहीं न कहीं, कभी न कभी तो पहल करनी ही होगी । आखिर कब तक देशसी विदेशी भाषा के बोझ तले दम तोड़ते रहेंगे । विदेशी भाषा की घुटन को क्यों लोग महसूस नहीं कर पा रहे हैं । देश की एकता के लिए क्या कोई भी स्वदेशी भाषा उपलब्ध नहीं है ? हिंदी चाहे किसी भी समुदाय की भाषा हो ( जैसा कि कुछ लोग इसे वर्चस्व की लड़ाई समझते हैं ),  इसे समूचे देश के हित में स्वीकार करने से क्या नुकसान है ? आखिरकार वह भारतीय भाषा तो है ? कोई विदेशी  भाषा तो नहीं है ।  इसके लिए आवश्यक है कि हिंदी को हिंदीतर भाषियों के द्वारा  पराई भाषा न समझी जाए । मातृभाषाओं के अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए, हिंदी को एक राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । संविधान में हिंदी की चाहे जोभी स्थिति हो, लेकिन राष्ट्रवासी, राष्ट्रीयता के परिप्रेक्ष्य में इस विषय विचार करें तो देश के लिए लाभकारी होगा । देशवासियों की प्रांतीयता और स्थानीयता की संकीर्णता से निकलकर बाहर आना होगा । हिंदी के साथ ही समस्त भारतीय भाषाएँ किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई हैं । हिंदी का अर्थ तेलुगु, मलयालम, तमिल आदि सभी भाषाएँ   मानी जा सकती हैं । हिंदी की स्वीकृति का अर्थ मातृभाषाओं की अवहेलना नहीं है - इस विचार को देशवासियों के बीच व्याप्त कराना सबका कर्तव्य है । चीन और रूसजैसे बहुभाषी और अतिविशाल जनसंख्या वाले देश में एक राष्ट्र-एक राष्ट्रभाषा का सूत्र सफल हुआ है और वे सुखी हैं । अपनी भाषा में वे पढ़ाई करते और कामकाज करते हैं । वे विदेशी भाषा हमारी तरह आश्रित नहीं हैं । संसार में जो देश आज़ाद हुए, (विदेशी शासन से ) वे सारे देश स्वतंत्र होकर अपनी भाषा और अपनी संस्कृति में ही प्रगति कर रहे हैं ।
राजभाषा हिंदी ने अपने कार्य क्षेत्र में संतोषजनक प्रगति की है । हिंदी का राजभाषा स्वरूप काफी सम्पन्न और समृद्ध हो चुका है । विज्ञान संगठनों से लेकर शोध संस्थानों, प्रौद्योगिकी सम्बद्ध निकायों, बैंकों और अन्य सभी उपक्रमों में राजभाषा हिंदी का प्रशिक्षण नियमित रूप में जारी है । सभी स्तर के कर्मचारी एवं अधिकारियों में राजभाषा हिंदी के प्रति विशेष चेतना जाग गई गई जो कि उत्साहवर्धक है ।
हिंदी के प्रयोग को सभी क्षेत्रों में बढ़ीं तो धीरे धीरे इसे पहचान मिलेगी और लोगोंकी मानसिकता में बदलाव आयेगा । जब तक शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा रहेगी, यह कठिनाई बनी रहेगी और हिंदी के साथ भारतीय भाषाएँ हाशिये पर ही होंगी । इसलिए हिंदी का प्रयोग, राजभाषा के रूप में तो किया ही जाएगा, किन्तु जो अलिखित है, अर्थात राष्ट्रभाषा की संकल्पना पर धीरे धीरे देशवासियों को सोचने के लिए तैयार करना होगा ।