Sunday, March 18, 2012

अज्ञेय कृत ' शेखर - एक जीवनी ' का पुनर्पाठ

एम वेंकटेश्वर

प्रेमचंद के बाद हिंदी उपन्यास को नई संपन्नता देने वाले लेखकों में अज्ञेय का स्थान जितना प्रमुख है, उनके औपन्यासिक कृतित्व का मूल्यांकन उतना ही विवादास्पद है । उनके तीनों उपन्यासों ने साहित्यिक परिवेश को काफ़ी आन्दोलित किया है । यद्यपि अज्ञेय ने कविता को ही अपने लिए अभिव्यक्ति का अधिक उपयुक्त माध्यम माना है, पर लेखक के रूप में उन्हें मान्यता उनके प्रथम उपन्यास ' शेखर - एक जीवनी ' से ही प्राप्त हुई, जिसके प्रकाशित होने पर नेमिचन्द्र जैन के शब्दों में ' एक सर्वथा नवीन साहित्यिक स्तर की उपलब्धि का भाव समान रूप से हिंदी पाठक और समालोचक को हुआ था और समूचा साहित्यिक वातावरण नये आन्दोलन से स्पन्दित हो उठा था ।' ' नदी के द्वीप ' में भी एक विशेष लेखन-क्षमता का परिचय अज्ञेय ने दिया, लेकिन वह ' शेखर - एक जीवनी ' की मूल संवेदना ' से जुड़ा हुआ है । ' अपने अपने अजनबी ' फ़िर एक सर्वथा नए ढंग की कृति के रूप में सामने आया । इन तीनों कृतियों की प्रशंसा और आलोचना

दोनो खूब हुईं ।

' शेखर - एक जीवनी ' की भूमिका में लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि ' शेखर में मेरा-पन कुछ अधिक है, इलियट का आदर्श ( भोगने वाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार का अन्तर ) मुझसे निभ नहीं सका है ।' लेखक की प्रामाणिक जीवनी या आत्मकथा के अभाव में यह कहना कठिन है कि लेखक और

' शेखर ' में संपृक्ति का स्वरूप कितना और कैसा है, पर इतना असंदिग्ध रूप में कहा जा सकता है कि कृति की प्रकल्पना मूलतः औपन्यासिक है और एक कल्पनात्मक जीवन चित्र ही उसमें प्रधान है । लेखक के अनुसार वह निषेधात्मक मूल्य को लेकर नहीं चला, मानव में उसकी आस्था है और मूल-रूप में ' शेखर ' का जीवन दर्शन ' स्वातंत्र्य की खोज ' है - टूटती हुई नैतिक रूढियों के बीच नीति के मूल स्रोत की खोज ।

' नदी के द्वीप ' को लेकर उनका कहना है कि वह ' उस समाज का, उसके व्यक्तियों के जीवन का जिसका वह चित्र है, सच्चा चित्र है । ' अपने अपने अजनबी ' में उनके अनुसार मृत्यु साक्षात्कार को अन्य समस्याओं से अलग करके निस्संग रूप देखने का प्रयत्न किया गया है

हमें अज्ञेय का महत्व निर्धारित करने के लिए उनकी संपूर्ण औपन्यासिक उपलब्धि को सामने रखना होगा ; सिर्फ़ यह नहीं देखना होगा कि फ़्रायडीय अथवा असामान्य मनोविज्ञान से प्रमाणित अंतश्चेतना का उद्घाटन

अज्ञेय की कृतियों में कितना हुआ है या कि पाश्चात्य उपन्यास की कथा विधान प्रविधियों के ये कितने बड़े प्रयोगकर्ता हैं । मातृ-रति ग्रन्थि से प्रभावित पात्रों का चित्रण अनेक पाश्चात्य उपन्यासकारों ने किया है, अज्ञेय ने उसी के एक विकार को ' शेखर - एक जीवनी ' में मातृ-घृणा के रूप में चित्रित करने की विशेषता प्रकट की है ।

' शेखर - एक जीवनी ' की भूमिका के अनुसार वह एक क्रान्तिकारी की जीवनी को प्रस्तुत करने वाला उपन्यास है । मृत्यु की निश्चित संभावना को सामने पाकर ' शेखर ' के सामने प्रश्न है कि उसकी मृत्यु की

सिद्धि क्या है ? लेखक के अनुसार उपन्यास एक व्यक्ति का अभिन्नतम निजी दस्तावेज़ है, यद्यपि वह साथ ही उस व्यक्ति के युग संघर्ष का प्रतिबिंब भी है । क्या लेखक का यह वक्तव्य उपन्यास द्वारा प्रमाणित होता

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है ? उपन्यास के प्रवेश भाग में जो दृश्य है, उसके नायक के सक्रिय क्रान्तिकारी होने का आभास मिलता है । अपने उद्देश्य के लिए समर्पित एक क्रान्तिकारी जीवन का करुण अन्त का वह दृश्य है । एक त्रासदीय गरिमा के साथ लेखक उसका चित्रण करता है उसके तुरन्त बाद एक स्त्री और एक पुरुष को उस शव के आर-पार

दानवी भूख से आलिंगन करते शेखर देखता है । दो-ढाई पृष्ठों का यह दृश्य अपने में एक विस्तृत कहानी

छिपाये है, जो उपन्यास के दोनों प्रकाशित खंडों में नहीं दी गयी है । लेखक ने ' शेखर - प्रश्नोत्तरी '

में बताया है कि ' शेखर' का चित्र तीसरे भाग ( अप्रकाशित ) में पूरा हो जाता है, वह हिंसावाद से आगे बढ

जाता है । मैं समझता हूं कि वह मरता है तो एक स्वतंत्र और संपूर्ण मानव बनकर । यों उसे फ़ांसी होती है - ऐसे अपराध के लिए जो उसने नहीं किया है । तीसरे भाग के प्रकाशित होने पर शायद शेखर के व्यक्तित्व में एक क्रांतिकारी स्तर और जुड़ जाता पर प्रकाशित दोनों खण्डों के आधार पर उसे शब्द के उचित अर्थ में एक बड़ा क्रान्तिकारी कहना संभव नहीं है । तीसरा भाग अगर प्रकाशित होता तो वह भी उसी तरह एक अलग से उपन्यास के रूप में सामने आता जिस तरह दूसरा भाग पहले से स्वतंत्र- सा ( एक अर्थ में )आया

था - स्वयं लेखक की दृष्टि में वे जुड़े भी हैं और जुदा भी हैं । दोनों भागों के ‘ शेखर’ और ' नदी के द्वीप ' के ‘भुवन’ का संघर्ष आधारभूत रूप में सामाजिक नैतिकता के ( स्त्री-पुरुष संबंध या प्रेम के रिश्ते को लेकर ) प्रचलित रूप के प्रति है । दोनों नायकों का विरोध नैतिक रूढियों से है - वे चुनौती देते हैं और विद्रोह में खड़े होते हैं - नायिकायें, शशि और रेखा, भी ।

अपने वर्तमान रूप में ' शेखर - एक जीवनी ' किसी राजनीतिक विद्रोह का सशक्त चित्रण लेकर नहीं चलती और इसलिए जिस अर्थ में हम गोर्की के ' मां ' को क्रान्ति का उपन्यास कहते हैं उसी अर्थ में ' शेखर - एक जीवनी ' को क्रान्तिकारी उपन्यास नहीं कह सकते ।

उपन्यास की भूमिका में लेखक ने शेखर के व्यक्तित्व को एक प्रकार के नियतिवाद के अन्तर्गत परिभाषित किया है । स्पष्ट ही यह नियतिवाद मनोवैज्ञानिक नियतिवाद है । शेखर के बचपन का - उस पर पड़ने वाली छापों का - लेखक ने विदग्ध चित्रण किया है और ऐसे जीवन चित्र को लेकर लिखा गया यह पहला उपन्यास है । लेखक ने बाल्यकालीन प्रसंगों के चित्रण में जिस अन्तर्दृष्टि का परिचय दिया है, वह कुछ सिद्ध निष्कर्षों के आग्रह के कारण धुंधला गयी है । मां के प्रति शेखर की घृणा को इडिपस कांप्लेक्स के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त से व्याख्या की जा सकती है । उसकी घृणा इतनी तीव्र है कि अपनी गिरफ़्तारी के बाद जब उसे घर का विचार आया तब यही कि ' जब मां सुनेंगी तब इस समाचार के प्रति उसका पहला भाव तो विजय का ही होगा, जैसे मैं तो जानती थी । मैंने कभी उसका विश्वास नहीं किया, फ़िर वह दुःखी होगी .... पहला विचार तो यही होगा कि उससे यही आशा होनी चाहिए थी । और इस विचार ने उसे बड़ी सान्त्वना दी - पुलिस के अत्याचारों के प्रति सर्वथा निरपेक्ष बना दिया । ' सच पूछो तो मैं उसका भी विश्वास नहीं करती ।वह सम्भ्रान्त सा ठहर गया सा भाव, वह शेखर की और उठा हुआ अंगूठा - इसका ! - मां से संबद्ध यह स्मृति - चित्र स्थायी हो गया है । मां की मृत्यु पर दुःख का अनुभव उसे नहीं होता और जब बहुत देर बाद पिंजर को हिला देने वाले रोदन में उसे शशि पाती है तो वह अप्रत्याशित आचरण अवास्तविक लगता है ।

मानववादी मनोविद एरिक फ़्राम के अनुसार व्यक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व की और बढने की अनिवार्य शर्त

है - मातृ सुरक्षात्मक छत्र-छाया की चाह से मुक्ति । माता से जुड़ा व्यक्ति शैशव में ही रह जाता है । शेखर स्वतन्त्र नहीं हो सका है । प्रेम में भी वह मां को ही खोजता है । यदि लेखक बालक शेखर का अध्ययन एक

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असंतुलित - विकास प्राप्त बालक के रूप में ही सीमित रखता तो वह बालमन को उद्घाटित करने वाली एक यथार्थ कथा लिख रहा होता । पर उसका संकल्प उस बालक को विद्रोही में बदलने का है और इसलिए

शेखर के व्यक्तित्व में एक बुनियादी असंगति का समावेश हो गया है । मां के प्रति उसके भाव में कोई जटिलता नहीं रह पाती ।

शेखर एक जीवनी – उपन्यास के पहले भाग का मुख्य विषय है बालक शेखर के बहुत बचपन से संघटित होने वाले मानसिक संस्कारों का और सगी बहन से आरंभ होने वाले आकर्षण का उम्र के साथ आगे संपर्क में आने वाली लड़कियों के प्रति प्रसारित होना अर्थात यौनाकर्षण का चित्रण । मुमुर्ष शान्ति का शेखर के प्रति आकर्षण और शेखर का उसके प्रति करुणा युक्त लगाव ज़िन्दगी और मौत को एक बिन्दु पर खड़ा करने वाला मार्मिक प्रतीक बन जाता है । शारदा के प्रति शेखर का किशोर मोह गहरी रूमानियत लिए हुए है , लेकिन अन्ततः वह मोह टूटता है और उसके साथ रूमानियत का एक स्तर भी । दूसरे भाग में शेखर के कॉलेज के अनुभव, कांग्रेस सेवा दल में शामिल होकर जेल जाने और जेल के अनुभवों आदि का वर्णन कथा-सूत्र से विच्छिन्न है । प्रथम खंड ‘ पुरुष और परिस्थिति ‘ में शशि के पिता के देहांत से उपन्यास की वास्तविक कथा शुरू होती है, वह तीसरे खंड ‘ शशि और शेखर ‘ में आगे बढती है और अन्तिम खंड में शशि की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाती है । दूसरा भाग वस्तुतः शशि और शेखर की प्रेमकथा का है, जिसके हल्के से सूत्र प्रथम भाग में हैं । यह कथन कि ‘ शेखर मूलतः विद्रोह का आख्यान है,’ उपन्यास में वास्तविक जीवंत विद्रोह के अभाव में प्रमाणित नहीं होता । उपन्यासकार द्वारा प्रस्तुत क्रान्तिवाद का आधार बहुत कमज़ोर रहता है और फ़लतः खंड चित्रों, हलके अनुभवों तथा प्रबन्धात्मक विचारों से उपन्यास कमजोर हो जाता है ।

शशि और शेखर के प्रेम तथा रेखा और भुवन के प्रेम – शेखर –एक जीवनी और नदी के द्वीप के प्रेम – की कथायें आधारभूत संवेदना के लिहाज से पूर्वापर क्रम में रखी जा सकती हैं । दोनों में प्रचलित सामाजिक

नैतिक मान्यताओं का अस्वीकार है और व्यक्ति की दृढतर मान्यता को प्रतिष्ठित करने की कोशिश है । शशि-शेखर का प्रेम एक अधिक साहसिक आचरण है – सामाजिक मर्यादायें बाध्यकारी शक्ति के साथ विद्यमान हैं । शशि – शेखर के संबंधों में व्याप्त असहजता का परिहार स्वयं लेखक कर देता है – वह शशि को रक्त संबंध से दूर शेखर की मां की एक मान ली गयी बहिन की पुत्री घोषित करता है । महान साहित्यिक कृतियों में वैयक्तिक आकांक्षाओं और सामाजिक मान्यताओं के बीच संघर्ष में वैयक्तिक अस्तित्व के धरातल पर आहुति का चित्रण रहता है । ‘ शशि-शेखर में प्रेम सिर्फ़ एक सामाजिक रूढि के आधार पर मर्यादाहीन है जिसे वे चुनौती देते हैं – वे नई मर्यादा को स्वयं पाते हैं । जब तक वे अपने प्रेम को पहचानते और स्वीकारते हैं, शशि की मौत की घड़ी आ जाती है और यह प्रेम-कहानी दुखांत हो जाती है । रेखा और भुवन के प्रेम में सामाजिक मर्यादा की बाध्यता अनुपस्थित है । उनका प्रेम एक शारीरिक परिणति प्राप्त करता है – वे आंतरिक प्रेरणा से मिलते हैं और स्वेच्छा से दूर होते हैं । शेखर एक जीवनी में प्रेम का अवज्ञान है और नदी के द्वीप में उसके भोग का आनन्द है ।

दुनिया से भागकर प्रकृति की शरण में शेखर भी जाता है और भुवन भी – एकांत प्रकृति और एकांत प्रेम की दुनिया में जहां लेखक की भावुकता निर्बाध अभिव्यक्ति पा सके; विशेषकर प्रकृति के एकांत में एकांत

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प्रेम-व्यापार के क्षण । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शेखर और भुवन प्रेमिकाओं में एक वत्सला मां को खोजते हैं – ‘वे स्नेह शिशु ‘ बने रहते हैं – शशि, शेखर के लिए एक सप्तपर्णी छांह है, रेखा, भुवन के लिए

‘स्निग्ध, करुण, वात्सल्य भरी गरमी ‘ है और गौरा उसकी आंखों में रोमांस पैदा करने वाला एक आप्लावनकारी पात्र है जो उसके ‘ सिर-माथे पर छा गया है ‘। यहां, प्रेमिका में प्रेमी को एक वात्सल्य भरी मां की खोज भी हो सकती है, पर उसके एकांत आग्रह के कारण उपन्यास में एक सतही भावुकता आ गयी है, जो कि अज्ञेय के उपन्यासों की पहचान बन गयी है। दर्द का भी लेखक वर्णन करता है, पर जहां शशि के दर्द में बाह्य संगति थोड़ी बहुत बनी रहती है रेखा का दर्द बहुत ओढा हुआ लगता है । इसलिए मोहन राकेश का यह कहना सच है कि है कि " भुवन और रेखा की वेदना स्वीकृत हृदय को द्रव अवस्था में नहीं लाती - उसमें जीवन की संगति का अभाव है ।"

शशि- शेखर के प्रेम का रूमानियत के स्तर पर वर्णन एक साहसिक संबंध के कारण स्वीकार्य हो जाता है, परनदी के द्वीपकी रूमानियत - नौकुछिया ताल पर जब रेखा केशब्दहीन-स्वरहीन होठजब कह रहे होते हैं –‘ मैं तुम्हारी हूं, भुवन मुझे लोयथार्थ की अनुभूति को कुंठित करती है । लेखक रेखा और भुवन को एकांत प्रकृति की गोद में स्थापित कर भुवन की अभिव्यक्ति को इस प्रकार रूपायित करता है - " तब भुवन फ़ुसफ़ुसाता है, यह इन्कार नहीं है, रेखा, प्रत्याख्यान नहीं है …. जो सुन्दर है उसे मिटाना नहीं चाहिए " । यह एक निरा भावुक प्रसंग है । रोमांटिक वातावारण में ही तुलियन कैंप भी है, पर देह – भोग की अनुभूति का यहां पहली बार हिंदी में उत्सवी वर्णन हुआ है – यह वर्णन अपने आप में एक कविता है ।

एक बिन्दु पर अज्ञेय की प्रेम-संवेदना जैनेन्द्र से पिछड़ी हुई है और दूसरे बिन्दु पर आगे । जैनेन्द्र के प्रेम में पति बीच में बंधक के रूप में नहीं आता । शशि के पति को अज्ञेय बीच में प्रस्तुत करते ही हैं , ‘ नदी के द्वीप ‘ में पति के अतिरिक्त एक खलनायक और अन्य प्रेमिका भी उपस्थित है । यों शशि के पति प्रसंग से भारतीय समाज में स्त्री के प्रति अन्याय का वर्णन हो गया है, रेखा के प्रसंग में तो वह भी अप्रत्यक्ष व कमजोर है, लेकिन इससे वह मानवीय स्थिति खंडित हो जाती है जहां प्रेम नितांत वैयक्तिक अभिव्यक्ति हो जाती है

( जैसा कि जैनेन्द्र में )। लेकिन जैनेन्द्र जहां परिणति में प्लेटोनिक हो जाते हैं वहां अज्ञेय यथार्थ की भूमि पर रहते हैं । डॉ इन्द्रनाथ मदान के शब्दों में " आधुनिकता की चुनौती ‘को स्वीकार करते हैं । शशि और शेखर निकटता के वृत्त में आने वाले स्त्री-पुरुष के प्रेम की स्वीकृति है और रेखा-भुवन का प्रेम देह-भोग के स्तर पर – यथार्थ के धरातल पर – स्वतंत्र नर-नारी के प्रणय का अनुलेख ।"

अज्ञेय प्रेम में वर्णन का आश्रय लेते हैं, वहां चित्रण की प्रवृत्ति उनमें कम है । उनके पात्रों के उद्गार स्वतंत्र रूमानी कविताओं जैसे हैं । पात्र न केवल दूसरे कवियों के कविताओं का उद्धरण देते हैं बल्कि एक दूसरे से प्रेम-निवेदन भी अधिकतर लिखित डायरियों के आदान-प्रदान से करते हैं । अज्ञेय के शब्दों में अर्थगर्भिता है, मितव्ययी वे हैं पर मित कथन उनमें नहीं है । प्रेमोद्गार रूमानी प्रलाप के निकट चले जाते हैं और जैसे उपन्यास कमजोर हो जाता है ।

अज्ञेय के स्त्री पात्र, शशि, रेखा और गौरा, पुरुष में अपनी सार्थकता खोजती हैं - " एक बार मैंने मान से कहा था, क्या मेरे लिए लिख सकते हो - यह दावा नहीं था कि मैं तुम्हारे जीवन का अथ और इति हूं, अपने को अन्त मानने का दुस्साहस मैंने नहीं किया, केवल इतना था कि अपना जीवन नष्ट करके, होम कर देकर,

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राख कर देकर, मैंने मांग़ा था, चाहा था, कि वह तुममें सिद्धि पाये,तुम हो गये थे प्रतीक मेरे लिए, मेरे जीवन के प्रतीक ………। " (शशि )

" मेरे लिए यह समूचा श्रीमतीत्व मिथ्या है, कि मै तुम्हारी हूं केवल तुम्हारी, तुम्हारी ही हुई हूं – तुम्हीं मेरे गर्व हो, तुम्हारे ही स्पर्ष से ‘ सकल मम देह-मन वीणा सम बाजै ....। "( रेखा )

" किसी तरह, कुछ भी करके, अपने को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती – तो अपने जीवन को सफ़ल मानती ।" ( गौरा )

स्पष्ट है कि अज्ञेय की नारी प्रकल्पना उसे पूर्ण स्वतंत्रता से मंडित नहीं करती – उसमें पुरुष मोह है, जो स्त्री को सदैव आश्रित ( कम से कम मानसिक संस्कार में तो अवश्य ) देखना चाहता है । इस दृष्टि से प्रेमचंद ने ग्रामीण स्त्री धनिया के माध्यम से – कहीं अधिक स्वतंत्र व्यक्तित्व वाला पात्र दिया है । अज्ञेय ने स्त्री को

नैतिक रूढियों के बंधन से – परंपरागत संस्कारों की बाध्यता से अवश्य मुक्त कर दिया है । उनकी स्त्रियां सीमोन दी बूवा की शब्दावली में 'असत-आस्था' में जीने वाली ही हैं, उनकी चरितार्थता का केन्द्र पुरुष है। लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि अज्ञेय भारतीय समाज की स्त्री को स्वतंत्रता के अधिक निकट लाते हैं और अपने देश काल की अग्रगामी चेतना को प्रकट करते हैं ।

' शेखर- एक जीवनी ' को मृत्यु-दंड की निश्चित संभावना को प्राप्त नायक द्वारा अपने अतीत के प्रत्यावलोकन के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इस प्रक्रिया का आरम्भ फ़ांसी के विधान में निहित हृदयहीनता से होता है । " मुझे तो फ़ांसी की कल्पना सदा मुग्ध ही करती रही है – उसमें सांप की आंखों सा एक अत्यन्त तुषारमय, किन्तु अमोघ सम्मोहन होता है ।" – ऐसी प्रतिक्रिया उलटे मृत्यु से दूरस्थता को प्रकट करती है ।शेखर का यह प्रत्यावलोकन मृत्यु के विषाद से अछूता है । दोनों खंडों में आसन्न मृत्यु के क्षण की विद्यमानता नहीं है । यह केवल कथारंभ का एक कौशल मात्र लगता है, जो चमत्कारपूर्ण तो है, पर प्रभावी नहीं ।

'शेखर- एक जीवनी ' में राष्ट्रीय परिवेश, औपन्यासिक संरचना का अनिवार्य अंग नहीं बन सका है । लेखक की औपन्यासिक प्रकल्पना के अनुसार नायक को स्वाधीनता संघर्ष और आतंकवादी अनुभवों से गुजरना था - " आतंकवादी दल से संबद्ध रहकर भी कन्विंस्ड आतंकवादी नहीं रहा, पर मुझे इसमें बड़ी दिलचस्पी रही कि आतंकवादी का मन कैसे बनता है । " शेखर की रचना इसी से आरम्भ हुई ।‘

शेखर की जिस महानता को लेखक स्वतःसिद्ध मानकर चलता है। उसकी उपस्थिति उपन्यास के दोनों भागों में नहीं है । इसीलिए उसकी मृत्यु की संभावना में एक सच्चे क्रांतिकारी के जीवन की संपूर्ति का अहसास नहीं होता ।

भ्रष्टाचार की समस्या और उसका समाधान

आज देश मे चारों और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ज़ोरों पर है। देश की आम जनता इस भ्रष्टाचार नामक महामारी से आतंकित है। जीवन के हर क्षेत्र मे भ्रष्टाचार व्याप्त है। हमारे देश के विकास को इस भ्रष्टाचार नामक संक्रामक रोग ने ग्रस लिया है। भारतीय जन - जीवन इस भयानक रोग से अस्त - व्यस्त हो गया है। आज़ादी के बाद कुछ वर्षों तक हमारे देश का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश बहुत ही साफ-सुथरा, प्रगतिशील तथा विकासशील रहा। लेकिन समय के साथ साथ राजनीतिक परिवेश बदला और भ्रष्टाचार ने अपनी जड़ें धीरे धीरे जमानी शुरू कर दीं। यह भ्रष्टाचार रूपी राक्षस हमारी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को भीतर से खोखला करने लगा। भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है - पतित आचरण अथवा अशुद्ध, अनैतिक आचरण जो नियमों के विरुद्ध हो और समाज विरोधी हो। भ्रष्ट आचरण मानुषी को लोभी और स्वार्थी बनाता है। भ्रष्टाचार का अर्थ अवैध कार्य भी होता है। अवैध मार्ग से धन का अर्जन करना भी भ्रष्टाचार कहलाता है । गैरकानूनी रास्ते पर चलना भ्रष्टाचार कहलाता है। अन्य के हक़ को लूटना भ्रष्टाचार कहलाता है। वैसे तो इस भ्रष्टाचार की आंधी आज समस्त विश्व मे चल रही है, लेकिन भारत इससे बहुत अधिक प्रभावित हुआ है। एक सर्वेक्षण के अनुसार संसार के भ्रष्ट देशों की सूची मे हमारा देश अठारहवें क्रम पर स्थित है।

भारत को अनेक बलिदानों के फलस्वरूप स्वतन्त्रता प्राप्त हुई । स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद देश वासियों के सामने एक सुनहरे भारत का स्वप्न था । लोगों ने यही समझा था की आज़ाद भारत में बेरोज़गारी, भुखमरी, अन्याय, शोषण और अत्याचार नहीं होंगे। हर नागरिक को आजीविका के समान अवसर प्राप्त होंगे। किसानों, ऋण की समस्या से मुक्त हो जाएगा । सारे देश मे खुशहाली होगी । शिक्षा, उद्योग, कृषि, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों म्ने विकास की गति तेज़ होगी । हमारे नेता हमें एक सुस्थिर, स्वच्छ और भ्रष्टाचार-मुक्त प्रशासन प्रदान करेंगे । रिश्वतख़ोरी और दमन का चक्र समाप्त हो जाएगा । अंग्रेजों ने भारत को बहुत लूटा था । अंग्रेज़ विदेशी थे, उन्हें भारत से कोई प्रेम नहीं था, वे यहाँ केवल धन बटोरने और भारतीयों को गुलाम बनाकर यहाँ की संपत्ति अपने देश ले जाने के लिए आए थे, उन्होने वही किया। अंग्रेजों का दमन चक्र बहुत क्रूर और अमानवीय था।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे शासकों ने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने ही देश वासियों का शोषण आरंभ कर दिया । आज़ादी के प्रारम्भिक वर्षों में देश की हालत में सुधार दिखाई दिया। उस समय के राजनेता ईमानदार, कर्मठ और देशभक्त थे जिन्होने त्याग और साधना के मार्ग पर चलते हुए, गांधी जी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता प्राप्त की थी, नेहरू जी के नेतृत्व में देश का नव - निर्माण किया। लेकिन इसके उपरांत देश के राजतेताओं में स्वार्थ और लोभ की प्रवृत्ति ने उन्हें पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डुबो दिया।

आज भारत की स्थिति बहुत दयनीय है। भारतवासी अत्यधिक करों के भार से आतंकित हैं। सरकार की अनेकों योजनाएँ गरीबों को उपलब्ध नहीं हो रहीं है । लोकतन्त्र के नाम पर धनबल, राजनीतिक बल और अन्य गलत रास्तों से नेता लोग चुनाव जीतकर जनप्रतिनिधि बनते हैं और फिर उसके बाद वे भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते हैं। आज अनेक सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के पास उनकी आय से ज्यादा धन एकत्रित हुआ है । अनेक राजनेताओं के पास भी अकूत संपत्ति आ गयी है जिसका स्रोत वे नहीं बताना चाहते। एक और किसान और मजदूर तथा कार्मिक ऋणग्रस्त होकर आत्महत्याएँ कर रहे हैं, बेरोजगारी अपने चरम पर मौजूद है। महंगाई दिन पर दिन बढ़ रही है । सरकार उसे नियंत्रित करने में विफल हो चुकी है। महंगाई की मार ने आम जीवन कों त्रस्त कर दिया है। आम आदमी बेबस और लाचार है। मध्य वर्गीय जीवन नारकीय हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। सरकारी शिक्षा प्रणाली कमजोर और गुणवत्ताहीन होने से माता-पिता बच्चों कों महंगे लेकिन अनुशासनयुक्त, श्रेष्ठ कारपोरेट विद्यालयों में बहुत बड़ी रक़में देकर पढ़ाने को के लिए बाध्य हैं। ये करोपोरेट विद्यालय मनमाने ढंग से शुल्क वसूल करते हैं जीना परकिसी का अंकुश नहीं है और जिसकी कोई पूछताछ नहीं होती। स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी अस्पतालों में संतोषजनक चिकित्सा सुविधा के अभाव में आम लोगों को कारपोरेट अस्पताल की शरण में जाना पड़ता है जहां सुविधा तो उपलब्ध होती है लेकिन बहुत ही महंगी कीमतों पर जिसे आम आदमी नहीं दे सकता ।

रिश्वतख़ोरी और अवैध तरीके से धन कमाना ही भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा और सबसे घातक रूप है ।

आज हमारे देश में सरकारी तंत्र पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुका है, इस सत्य को हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी वर्ग का हो, जानता है। इस अनैतिक और भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार सारे देशवासी हैं। बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता, चाहे वह सरकारी कार्यालय हो या गैरसरकारी प्रबंधन हो । हर छोटे या बड़े काम के लिए अतिरिक्त पैसा छिप - छिपाकर लोग देते और लेते हैं। इस तरह से सारी व्यवस्था ही भ्रष्ट हो गयी है। निर्धारित शुल्क लेकर कोई काम नही करता है आजकल।

इधर हमारे अर्थ व्यवस्था एकाएक अनेकों घोटालों के उजागर होने से चरमरा गयी है। अचानक कई ऐसे तथ्य सामने आए हैं जिसने देश कों हिलाकर रख दिया है। सरकारी और गैरसरकारी दोनों क्षेत्रों में पिछलाए कुछ वर्षों में घोटालों का जो पर्दाफाश हुआ है वह चौंकाने वाला है । 'सत्यम' नामक एक सूचना प्रौद्योगिकी संस्था द्वारा सत्तर हजार करोड़ रुपयों का घोटाला जिसे उसी के मालिक ने उद्घाटित किया, जिसमें देश की अपार संपत्ति खो गयी, यह एक गैर सरकारी प्रतिष्ठान द्वारा किए गए भ्रष्टाचार का एक उदाहरण है। इस पर जांच और छानबीन चल रही है । सरकारी क्षेत्र मेन जनसंचार के क्षेत्र में बड़े बड़े संचार माध्यमों की कंपनियों कों संचार सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए लाइसेन्स के आबंटन में अनियमितताओं का पर्दाफाश हुआ है जिसकी लागस्ट हजारो। लाखों करोड़ रुपयों की है। यह पैसा जनता का पैसा है जिसे गैरजिम्मेदार तरीके से हमारे देश के सत्ताधारी राजनेताओं ने अपने निजी स्वार्थ के लिए अवैध तरीके से सारे नियमों कों ताक पर रखकर बड़ी बड़ी रक़में ( रिश्वत के रूप मेन लेकर ) बहुर ही कम कीमत अपने मित्रों ( ग्राहकों कों ) प्रसारण के अधिकार बेचे। यह एक राष्ट्रविरोधी अपराध है । इन अनियमतताओं का खुलासा ' कैग ' नामक सरकारी जांच संगठन ने किया है जो की ' टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले ' के नाम से आज सरवारा चर्चा का विषय बन गया है। उसी प्रकार राष्ट्र मण्डल खेलों के आयोजन में भी सरकार की अपार धन राशि खेल के आयोजक राजनेताओं के द्वारा डकार ली गयी जिसकी जांच आज बड़े पैमाने पर हो रही है। सर्वोच्च न्यायालय में इनसे संबन्धित न्यायिक जांच चल रही है । उपरोक्त उदाहरणो में हमारे सांसदों और जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की घटनाएँ ही देश वासियों के समूख आ रही हैं, जिससे देशवासी आहात हुए हैं। और अब इस तरह के भ्रष्टाचार कों और न सहने तथा इसका उन्मूलन करने के उपायों की और लोग सोचने लगे हैं। इससे पहले के घोटालों के वृत्तान्त अभी ताजा ही हैं जैसे से चारा घोटाला, बोफोर्स घोटाला, टेलीकाम घोटाला, स्टैम्प घोटाला आदि । सरकारी उपरणों एवं वस्तुओं की ख़रीदारी में आए दिन हम अनियमितताओं के बारे में समाचार पत्रों में पढ़ते ही हैं। इन घटनाओं से देश की छवि धूमिल हुई है ।

भ्रष्टाचार का एक और बहुत बड़ा मुद्दा आज देश के सामने - विदेशों में अवैध तरीके से संचित कालाधान है, जिसे हमारे ही धनी वर्ग के उद्योगपतियों, खिलाड़ियों, राजनेताओं और सिनेजगत की बड़ी हस्तियों ने विदेशी बैंकों में गैर कानूनी तरीके से आयकर नियमों का उल्लंघन करके किया है। यह धन भी अरबों रुपयों में है जिसका उपयोग देश के विकास के लिए जिया जा सकता है । इस धन से देश का सारा विदेशी ऋण चुकाया जा सकता है और देश की गरीबी कों दूर किया जा सकता है। यह धन देश के लिए उपयोगी है, लेकिन आज यह विदेशी बैंकों खाता -धारियों के गुप्त खातों में जमा है जिसे अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अंतर्गत प्रकट नहीं किया जा सकता। लेकिन सरकार यदि चाहे तो इसके भी उपाय तलाश कर सकती है और इस अपार धन राशि कों स्वदेश वापस ला सकती है । दुःख की स्थिति यह है की सरकार इस समस्या से निपटने के लिए तैयार नहीं दिखाई दे रही है । देश के अनेक राजनीतिक दल इसकी मांग बड़े ज़ोर शोर से कर रहे हैं लेकिन इसका कोई ठोस परिणाम नजर नहीं आ रहा । आम आदमी इस स्थिति से त्रस्त और दुःखी है।

धार्मिक प्रतिष्ठानों में अकूत धन संपदा आज अवैध मार्गों से अर्जित और संचित पड़ी हुई है। नकली साधु बाबा लोगों ने भोली भाली जनता कों धर्म और आस्था के नाम पर ठगकर अपार धन राशि जमा की है। अवैध तरीकों से सरकारी और निजी ज़मीनों कों हड़पकर उस पर अवैध तरीकों से आश्रम के नाम पर विलास केन्द्रों कों स्थापित करने वाले ऐसे अनेक नकली संत हमों हमारे देश में मिलेंगे जिनसे जनता पीड़ित है लेकिन इनके पीछे सत्ता के भी कुछ लोग शामिल दिखाई देते हैं।

कई बार राजनीतिक संकट के अवसर पर सत्ता पक्ष के अल्प मत में आ जाने पर सरकार को बचाने के लिए सांसदों या विधायकों को अपने पक्ष में लाने के लिए धन का इस्तेमाल उन्हें खरीदने के लिए करते हैं।

ऐसे कई दृष्टांत हमारे सामने हैं। पी वी नरसिम्हाराव की सरकार के अचानक अल्प मत में आ जाने से

झार खंड के सांसदों को खरीदे जाने के आरोप उन पर लगे थे जिसकी न्यायिक जांच हुई थी । उसी प्रकार हाल ही में ससंद में नोट के बदले वोट कांड हुआ था जिसकी न्यायिक जांच अभी जारी है, जिसके एक आरोपी अभी जेल में बंद हैं। राज्य स्तर भी ऐसी अनेकों घटनाएँ सामने आयी हैं जहां सरकार बचाने के लिए विधायकों की सौदेबाजी होती है । ये घटनाएँ शर्मनाक हैं और देश की लोकतान्त्रिक छवि को धूमिल करती हैं । जब देश के राजनेता ही भ्रष्ट हो जाएँ तो आम जनता किसकी और नेतृत्व के लिए देखेगी । यह हमारे देश की सबसे बड़ी त्रासदी है । अब समय आ गया है की देश के आम नागरिक जागें और अपने बलबूते पर इस भ्रष्टाचार से लादेन और इसे खत्म करें।

गैर कानूनी तरीके से अर्जित संपत्ति भ्रष्टाचार के अंतर्गत आती है । इस गैर कानूनी तरीके से अर्जित अपार संपत्ति देश के अधिकतर धनी लोगों के पास जमा है। इस संपत्ति कों प्राप्त करने के लिए अवैध तरीके अपनाए जाते हैं, मजबूर और जरूरत मंद लोगों की कमजोरी का फायदा उठाकर लोग रिश्वतख़ोरी में लिप्त होते हैं।

सामाजिक भ्रष्टाचार के भी उदाहरण हमारे सामने अनेक मौजूद हैं। भारतीय समाज में व्याप्त विवाह की एक कुरीति दहेज प्रथा है । यह भी एक प्रकार का सामाजिक और सांस्कृतिक भ्रष्टाचार ही है। वधू पक्ष वालों से बलपूर्वक दहेज की राशि वसूल करना या विवाह के उपरांत पत्नियों से धन राशि की मांग करने के दृष्टांत भी कम नहीं हैं । विवाहोपरांत ससुराल के उत्पीड़न से स्त्रियॉं की आत्महत्याओं की घटनाएँ बहुत बड़ी संख्या में घटित हो रही हैं ।

इधर पिछले कुछ समय से देश वासियों में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नई चेतना उभरकर आयी है। आज देश में सामूहिक रूप से इस बुराई से छुटकारा पाने की दृढ़ इच्छाशक्ति प्रकट हुई है । विशेषकर युवा वर्ग अब इस भ्रष्टाचार रूपी राक्षस से मुक्त होना चाहता है इसलिए इसका अंत चाहता है। एक नई मुहिम शुरू हुई है। वैसे कुछ राजनीतिक दलों ने कालाधान के मामले को राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन का रूप देने का प्रयास किया है। लेकिन अन्ना हजार का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन बहुत महत्वपूर्ण है । देश में पहली बार एक

गैर-राजनैतिक, सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा इस तरह का अभियान छेड़ा गया। इन्होंने अपने बलबूते पर सर्वप्रथम देश वासियों कों सूचना का अधिकार दिलाया। अन्ना हज़ारे का जनलोकपाल बिल अभियान देश के इतिहास मे एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक आंदोलन के रूप मे दर्ज होगा। अन्ना हज़ारे और उनके समर्थक कार्यकर्ताओं ने सरकार को चुनौती दी है- भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक सशक्त कानून बनाने के लिए। हाला की यह मुद्दा वर्षों से संसद मे विचाराधीन रहा है लेकिन आज तक इस मुद्दे पर गंभीरता से कभी विचार नहीं किया गया था । अन्ना हज़ारे के इस जनचेतना आंदोलन ने देश वासियों को एक नई उम्मीद दी है की यदि ऐसा कानून बन गया तो सरकारी और गैर -सरकारी तंत्र से भ्रष्टाचार मिट सकता है या कम हो सकता है। जनता का उत्पीड़न खत्म हो सकता है। इस तरह के कानून कों बनाने के लिए अन्न हज़ारे के आंदोलन ने सरकार को बाध्य कर दिया है। अन्ना हज़ारे ने सिद्ध कर दिया की जनता संसद से बड़ी है। अनिर्वाचित जनता भी देश के लिए कानून बनाने की प्रक्रिया मे भाग ले सकती है । संसद के सदस्य जनता के सेवक हैं। अन्ना हज़ारे के जन आंदोलन ने आम जनता मे अनेकों तरह के संदेहों को दूर किया है और सरकार से देशवासियों के उत्पीड़न को दूर करने के उपायों को तलाशने को मजबूर कर दिया है ।

भ्रष्टाचार निवारण के और भी अनेकों उपाय हो सकते हैं। ईमानदारी का संदेश और शिक्षा हमें नई पीढ़ी को देनी होगी। शिक्षण संस्थाओं मे, पाठ्यक्रम मे नैतिक शिक्षा कों शामिल किया जाना अनिवार्य कर देना चाहिए। पहले की शिक्षा प्रणाली मे नैतिक शिक्षा का अंश शामिल हुआ करता था लेकिन इधर की नई शिक्षा प्रणाली मे इसे स्थान नहीं मिला है। गैर सरकारी सगठनों को जनता कों इस दिशा मे शिक्षित करने का अभियान शुरू करना चाहिए जिससे की आम जनता मे रिश्वत देने और लेने से परहेज करने की आदत पड़े।

आवश्यकता से अधिक खर्च करने की आदत व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक धनोपार्जन की प्रवृत्ति कों प्रोत्साहित करती है इसलिए लोगों मे संयम और आत्म-संतुष्टि की प्रवृत्ति के विकास की आवश्यकता है।

आज यह प्रत्येक नागरिक कर्तव्य है की वह देश में नैतिक मूल्यों का प्रचार करे और अपने जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों का आचरण करे। परिश्रम, निष्ठा और अध्यवसाय व्यक्ति को चरित्रवान बनाते हैं । समाज से नैतिक मूल्यों के विघटन से ही भ्रष्टाचार पनपता है । इसे दूर करने के लिए देश को एक जुट होकर प्रयास करना होगा।

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वैश्वीकरण के परिदृश्य में अनुवाद की भूमिका

प्रो एम वेंकटेश्वर

संसार मे लगभग तीन हजार भाषाएँ मौजूद हैं जिनमें से कुछ भाषाएँ तेजी से लुप्त होती जा रही हैं क्योंकि उनका प्रयोग करने वाली जनजातियाँ लुप्त हो रही हैं। भाषा वैचारिक आदान प्रदान का माध्यम होती है साथ ही यही संस्कृति की वाहिका होती है। किसी भी समाज की पहचान उस समाज की भाषा से ही होती है। संसार में भाषाओं के जन्म के सही काल का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है किन्तु निश्चित रूप से इसकी पुष्टि के कोई प्रमाण भाषाविदों के पास उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन इतना सत्य है कि मानव सभ्यता के विकास के समानान्तर ही भाषाओं का विकास संसार में हुआ। भाषा ही सभ्यता के विकास का मानदंड

है ।भाषाओं का मूल प्रयोजन सम्प्रेषण है। मनुष्य अपने विचारों को, भावनाओं को, आवेग, आवेश और स्पंदन को व्यक्त करने के लिए इस मौखिक माध्यम का सहारा लेता है। भाषा के बिना मानव सभ्यता की कल्पना नहीं की जा सकती ।

मानवता की दृष्टि से सभी देशों - प्रदेशों के मनुष्य मूलत: एक हैं पर भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक , आर्थिक, और भाषिक सीमाएं उन्हें एक - दूसरे से अलग कर देती हैं । इनमें भाषा की सीमा सबसे बड़ी सीमा है । विदेशों की बात तो दूर अपने ही देश में विभिन्न प्रदेशों के लोग एक - दूसरे की भाषा न समझने के कारण एक - दूसरे से अजनबी हो जाते हैं । मानव - मन स्वभावत: सीमाओं में बंधकर रुद्ध नहीं होना चाहता, बल्कि वह इन सीमाओं को लांघकर विश्व - भर में व्यापने के लिए तड़पता रहता है । भाषा की सीमाओं को लांघने का सबसे बड़ा माध्यम अनुवाद है । अनुवाद के माध्यम से अपनी भाषा में अन्य भाषाओं की कृतियो को पढ़ने का अवसर मिलने पर व्यक्ति सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और भाषागत सीमाएं स्वाभाविक नहीं बल्कि मनुष्य निर्मित कृत्रिम सीमाएं हैं । वस्तुत: मानव समाज एक है।

भाषा हमारे विचारों एवं भावनाओं का अनुवाद कही जा सकती है । जो हम सोचते हैं, वह शब्दों के माध्यम से लेखन में समेटने का प्रयास करते हैं । भाषा किसी हद तक ही हमारे विचारों को पकड़ पाती है । हम कह सकते हैं कि आम तौर पर मूल कहा जाने वाला लेखन भी मूल न होकर लेखक की भावनाओं का अनुवाद है । यही कारण है कि बहुधा लेखक अपने स्वयं के लिखे को बार बार पढ़ते हैं, अपनी भावनाओं और उसकी अभिव्यक्ति का मूल्यांकन - पुनर्मूल्यांकन करने के बाद ही रचना को मूर्त रूप देते हैं । फिर अनुवाद तो किसी अन्य लेखक की भावनाओं की अभिव्यक्ति है । जब लेखक के लिए स्वयं की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उचित शब्द नहीं मिलते, तो अनुवादक के लिए तो यह एक तरह से 'अनुवाद के अनुवाद का अनुवाद मात्र ' होगा।

सुख और दुःख की भांति मनुष्य ज्ञान को भी दूसरों के साथ बांट लेना चाहता है । जो वह स्वयं जानता है उसे दूसरों तक पहुंचाना चाहता है और जो दूसरे जानते हैं उसे स्वयं जानना चाहता है । इस प्रक्रिया में भाषा की सीमाएं उसके आड़े आती हैं । इसीलिए अनुवाद आज ज्ञान - विज्ञान के विकास और प्रसार का अनिवार्य साधन बन गया है । सामान्यतया एक भाषा के पाठ को दूसरी भाषा में बदलने की प्रक्रिया को ही अनुवाद कहते हैं । इस संबंध में विद्वानों ने जो परिभाषाएँ दी हैं वे इस प्रकार हैं -

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1 " अनुवाद कार्य विश्व के एक खण्ड को प्रतिपादित करने वाले माध्यम से दूसरे माध्यम द्वारा लगभग वैसे ही अनुभव का पुन: सर्जन है । " - विन्टर

2 " अनुवाद एक जैसे संदर्भ में एक जैसी भूमिका निभाने वाले दो पाठों का संबंध है । " - हैलिडे

3 " स्रोत भाषा के पाठ में भी दी गयी सामाग्री को लक्ष्य भाषा के पाठ की समतुल्य सामाग्री में बदलना

ही अनुवाद है । - कैटफर्ड

4 " एक भाषा के प्रतीकों को दूसरी भाषा के भाषिक प्रतीकों द्वारा प्रतिपादित करना अनुवाद है । "

-रोमन याकोब्सन

5 " अनुवाद प्रक्रिया के अंतर्गत संग्राहक - भाषा के संदेश को अर्थ और शैली की दृष्टि से निकटतम

स्वाभाविक समतुल्यों में बदलना ही अनुवाद है । " - नाइडा

अनुवाद को स्वीकृति अथवा मान्यता प्राप्त करने के लिए सुदीर्घ संघर्ष करना पड़ा । आरंभ में लगभग सभी अनुवादों की तीव्र आलोचना की जाती थी और यह माना जाता था कि अनुवाद असंभव प्रक्रिया है । अनुवाद की प्रामाणिकता पर अनेकों तरह के लांछन लगाए गए और आज भी कुछ लोग उसका उपहास करते हैं जैसे - " अनुवाद एक स्त्री के समान है जो सुंदर होगी तो विश्वसनीय नहीं हो सकती और यदि विश्वसनीय होगी तो सुंदर नहीं हो सकती " अनूदित सामाग्री तस्कर की हुई वस्तु समझी जाती थी । अत: य अनुवाद को निस्सार और निरर्थक माना जाता था । इस धारणा के बावजूद अनुवाद की प्रक्रिया निरंतर चलती रही । आज विश्व में अनुवाद एक अपरिहार्य भाषिक रूपान्तरण का माध्यम बन गया है। वैचारिक, अभिव्यक्तियों का भाषिक रूपान्तरण केवल अनुवाद की प्रक्रिया से संभव है चाहे यह प्रक्रिया जटिल हो या सरल।

अनुवाद देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाला एक महत्तर भाषिक साधन है। विशेष रूप से यह एक औज़ार या उपकरण है जो भौगोलिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विभेदों को स्थानीय तथा वैश्विक स्तर पर दूर कर परस्पर संबंध स्थापित कर सकता है। विश्व की अनगिनत भाषाएँ आज अपनी अपनी संस्कृतियों और जीवन की विधियों को संचालित कर रही है। इन विविधताओं में समन्वय स्थापित करने का एक मात्र साधन अनुवाद ही है । भाषिक वैविध्य सांस्कृतिक और सामाजिक वैविध्य को जन्म देता है किन्तु इस वैविध्य को दूर कर विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश में सादृश्य पैदा करने की क्षमता केवल अनुवाद में ही निहित है। व्यक्ति की अभिव्यक्ति किसी भी भाषा में हो सकती है लेकिन वही अभिव्यक्ति समूचे समाज के लिए उस भाषा विशेष के ज्ञान के बिना संप्रेषणीय नहीं होगी, ऐसी अवस्था में अनुवाद ही वह एक मात्र उपकरण है जो इस कठिनाई को दूर कर सकता है ।

वैश्वीकरण का परिदृश्य -

नई सहस्राब्दी के आरंभ के साथ विश्व की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ तेजी से बदली हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के महाविनाश के बाद भी विश्व में स्थाई रूप से शांति स्थापित नहीं हो सकी ।

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आज भी महाशक्तियों के बीच परस्पर वर्चस्व की होड लगी है। अमेरिका, चीन और रूस जैसे सामरिक बल से लैस देश समस्त विश्व पर अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं इसी के परिणाम स्वरूप इन देशों ने समस्त विश्व की आर्थिक व्यवस्था को अपने वश में करने के लिए वैश्वीकरण का एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसके अनुसार राष्ट्रों की संस्कृतियाँ, व्यापार, बाजार, भाषाएँ , संचार माध्यम, शिक्षा व्यवस्था आदि में एकरूपता लाने के प्रयास होने लगे। वैश्वीकरण की सोच ने उत्तर-आधुनिक सोच को जन्म दिया। आज सारा विश्व एक वृहत बाजार में तबदील हो गया है । मनुष्य की प्राथमिकता केवल धनोपार्जन ही हो गयी है ।

आज सम्पन्न देश अपने उत्पाद बेचने के लिए बाजार ढूँढ रहे हैं । आज का वैश्वीकरण का सिद्धान्त भारतीय वसुधेव कुटुम्बकम की विचार धारा से नितांत भिन्न है। भारतीय विचार धारा, शताब्दियों से समस्त मानव समाज को भावनात्मक रूप से एकता के सूत्र में बांधने का संदेश देती है । भारतीय मनीषा मानवीय धरातल पर असमानताओं को दूर कर सारे विश्व में सुख, शांति और समृद्धि के प्रचार व प्रसार के लिए तत्पर रही। आज के वैश्वीकरण की सोच ने मनुष्य को स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया जिससे समाज मे नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास बहुत तेजी से हुआ । आज विश्व में प्रौद्योगिकी, विज्ञान, जनसंचार, व्यापार, वाणिज्य और प्रबंधन का क्षेत्र सबसे अधिक विकासशील है। निगमित व्यापार और प्रबंधन प्रणालियों ने एक नई नव-धनाढ्य सभ्यता को विकसित किया है। संचार - क्रान्ति ने विश्व को विश्व ग्राम में बदलकर रख दिया है। दूरियाँ सिमट गईं हैं। संचार क्रान्ति ने मनुष्यों को उपग्रहों के माध्यम से जोड़ दिया

है । आज घर बैठे हजारों मील दूर स्थित लोगों से पलक झपकते ही सीधे संपर्क साधा जा सकता है। मानव जीवन में एक सम्पूर्ण क्रान्ति आ गयी है। भौगोलिक दूरियाँ समाप्त हो गई हैं, लेकिन भावात्मक और भावनात्मक दूरियाँ बढ़ गईं , लोग अति व्यावाहरिक हो गए हैं। संचार क्रान्ति ने विभिन्न भाषा भाषियों को

परस्पर जोड़ने के वैज्ञानिक उपकरण तो बनाकर दे दिये लेकिन इनकी सक्षमता भाषिक विभेद को दूर करने लायक नहीं है । इस भाषिक विभेद और भिन्नता को दूर करने का एक मात्र उपाय अनुवाद ही है। अंत: संचार क्रान्ति का प्राण तत्व अनुवाद ही है। भाषाओं की बहुल स्थिति में सामंजस्य पैदा करने वाला एक मात्र माध्यम ' अनुवाद ' है । भाषिक विभेद को अनुवाद के माध्यम से दूर किया जा सकता है। विश्व के सिमटते हुए मानचित्र पर भौगोलिक दूरियाँ जैसे समाप्त हो रही हैं वैसे ही अनुवाद के द्वारा भाषिक दूरियाँ भी खत्म हो सकती हैं ।

भावनात्मक और भावात्मक एकता का माध्यम -

विश्व समाज भिन्न भिन्न राष्ट्रों, भूखंडों धर्मों, वर्णों और जातियों में विभक्त है । हर राष्ट्र और समाज की अपनी भाषिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक पहचान होती है । राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी राष्ट्र भाषा से होती है । इस विभाजित मानव समुदाय को भावात्मक और भावनात्मक धरातल पर जोड़कर उनके मध्य बनी हुई विषमता की खाई को पाटना ही अनुवाद का प्रधान लक्ष्य है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुयाद एक सेतु बन गया है । इस विभाजक अंतराल को खत्म कर विभिन्न संस्कृतियों में भावात्मक एकता स्थापित करने के लिए अनुवाद एक सशक्त साधन के रूप में उपलब्ध है । राष्ट्रीय, भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और जातीय अलगाव को खत्म कर भावात्मक एकीकरण के लिए अनुवाद की उपयोगिता आज विश्व स्तर पर सिद्ध हो चुकी है । भाषिक विभिन्नता की दरार भी अनुवाद से ही मिटाई जा सकती है। इसीलिए अनुवाद को एक सशक्त सेतु माना गया है ।भावात्मक एकता से मनुष्य में सहृदयता

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और सदाशयता का विकास और मानव जाति का कल्याण संभव है । अनुवाद के माध्यम से परस्पर एक दूसरे की सांस्कृतिक विरासत को साहित्य के माध्यम से समझकर सहिष्णुता का संवर्धन किया जा सकता

है । समाज में व्याप्त भाषिक विभाजन से उत्पन्न खाई को पाटने तथा भिन्न भिन्न संस्कृतियों के भावात्मक एकीकरण के लिए अनुवाद एक असाधारण खोज है ।

राष्ट्रीय एकात्मकता :

राष्ट्रीय एकात्मकता आज की अनिवार्य आवश्यकता है। भारत जैसे बहुभाषी देश के लिए अनुवाद अत्यंत प्रभावी और उपयोगी माध्यम है जिससे कि देश में व्याप्त भाषिक विभेद को दूरकर जन सामान्य में परस्पर एक दूसरे की भाषा और संस्कृति के प्रति सद्भावना जागृत हो सके । भारत आज भाषिक और सांस्कृतिक विखंडन की प्रक्रिया से गुजर रहा है जिसका एक प्रमुख कारण वैश्वीकरण ( बाजारवाद ) की प्रक्रिया से उत्पन्न सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास है । अनुवाद जैसे सशक्त और कारगर माध्यम की आवश्यकता सबसे अधिक भारत को ही है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समूचे विश्व को इसकी आवश्यकता है ।

अनुवाद की प्रक्रिया लक्ष्य भाषा और स्रोत भाषा दोनों के प्रति समान रूप से संवेदनशील तथा संरक्षात्मक भाव धारण किए रहती है इसलिए अनूद्य और अनूदित दोनों भाषाएँ सुरक्षित रहती हैं। किसी भी भाषा के अस्तित्व पर कोई खतरा नहीं मँडराता । भारतीय संदर्भ में प्रादेशिक और क्षेत्रीय भाषाओं को परस्पर एक दूसरे के निकट लाने का सबसे व्यवहारिक माध्यम अनुवाद ही है । किन्तु भारत में अनुवाद की स्थिति संतोषजनक नहीं है । भाषाओं की संख्या को देखते हुए तथा देश के विस्तार तथा आकार के अनुरूप भारत में अनुवाद के माध्यम से देश की संस्कृतियों को जोड़ने का संगठित प्रयास अभी बाकी है । अनुवाद के प्रति देश का शिक्षित वर्ग उदासीन है । अनूदित साहित्य को दोयम दर्जे का साहित्य मानने की मानसिकता अभी भी हमारे शिक्षित वर्ग में व्याप्त है । भाषा वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार हर भारतीय कम से कम द्विभाषिक होता है । भारत में अनेकों भाषाएँ सरलता से उपलब्ध हैं लेकिन भारतीयों में इतर भाषाओं को सीखने या स्वीकार करने की इच्छा शक्ति का अभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । विश्व के अनेक देशों में भारत जैसी बहुभाषिकता की स्थिति विद्यमान है लेकिन वहाँ आम लोगों में सभी भाषाओं के प्रति संवेदना और अपनेपन का भाव सहज रूप में परिलक्षित होता है । रूस, चीन, स्विट्जरलैंड आदि देश इसके उदाहरण हैं । भारत में साहित्यिक अनुवाद की परंपरा सशक्त होने के बावजूद पर्याप्त नहीं है । राष्ट्रीय एकात्मकता के लिए भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य का अनुवाद हिन्दी और हिन्दी साहित्य का

इतर भारतीय भाषाओं में अनुवाद राष्ट्रीय हित में आवश्यक है । भारत में संस्थागत अनुवाद कार्य की प्रगति संतोषजनक नहीं है स्वैच्छिक रूप से भाषा-प्रेमी विद्वान अपनी अभिरुचि के अनुकूल साहित्यिक अनुवाद के कार्य में संलग्न हैं लेकिन अनुवाद के क्षेत्र को सुसंगठित होने की आवश्यकता है । भारत में अनुवाद कार्य राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के द्वारा संगठित रूप से आयोजित करने की नितांत आवश्यकता है । अनुवाद कार्य को स्वैच्छिक एवं स्वच्छंद रूप से स्वीकार करना चाहिए तभी इस कारी को सही दिशा प्राप्त होगी । शिक्षित वर्ग यदि इस कार्य को नैतिक दायित्व के रूप में स्वीकार करे देश की साहित्यिक धरोहर विभिन्न भारतीय भाषाओं में सामान्य जनता को उपलब्ध होगी ।

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बाजारवाद और अनुवाद :

भारत में साहित्येतर अनुवाद की भी बहुत अधिक आवश्यकता है । साहित्येतर अनुवाद की आवश्यकता विभिन्न काम काज के क्षेत्रों के लिए उपयोगी होता है । भाषा की प्रयोजनमूलकता उसके विभिन्न

प्रकार्यात्मक अनुप्रयोगों से ही आँकी जा सकती है । भारत में अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं के मध्य अनुवाद की आवश्यकता अधिक है। क्योंकि देश में कामकाज की व्यवहारिक भाषा अंग्रेज़ी है । इसलिए काम काज के क्षेत्र में प्रयुक्त अंग्रेज़ी की अभिव्यक्तियों तथा आँय प्रकार के प्रशासनिक पाठ को जन सामान्य किए लिए बोधगम्य बनानेके लिए अनुवाद का आश्रय लेना पड़ता है । यह हमारी मजबूरी है । ऐसे विशेष कारी क्षेत्रों में कामकाजी भाषा के प्रयोग के लिए भारतीय भाषाओं में प्रशासनिक एवं अन्य विषयों में पारिभाषिक शब्दावली की आवश्यकता होती है । इसके लिए भारत सरकार ने वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग जैसे संगठनों को स्थापित किया है जो कि हिंदी और इतर भारतीय भाषाओं में प्रयोजनमूलक पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण कर, विभिन्न विषयों के कोशों द्वारा शब्दावली उपलब्ध कराती है ।

भारत में वैश्वीकरण की बाजारवादी नीति के अंतर्गत बड़ी तेजी से आर्थिक विकास हो रहा है। व्यापार एवं

वाणिज्य का क्षेत्र सबसे बड़ा क्षेत्र है जहां अनुवाद की सर्वाधिक मांग है । भारत जैसे बहुभाषी देश में विदेशी और स्वदेशी उत्पादों की बिक्री केवल किसी एक भाषा के माध्यम से नहीं की जा सकती । भाषा सम्प्रेषण का माध्यम होती है । किसी भी उत्पाद ( माल ) को बेचने के लिए वाचिक और लिखित ( मुद्रित ) रूप में विज्ञापन प्रणाली के द्वारा उस उत्पाद का प्रचार किया जाता है । यह प्रचार सामाग्री अनेक भाषाओं में पेशेवर विज्ञापन विशेषज्ञ तैयार करते हैं । विज्ञापन का बाजार अनुवाद पर ही आधारित होता है । फिल्मों से लेकर उपभोक्ता वस्तु, कृषि, सर्राफा, घरेलू वस्तु, अनाज, कपड़ा आदि हर जीवनोपयोगी वस्तुओं के क्रय - विक्रय की सारी व्यवस्था आज अनुवाद द्वारा तैयार किए गए विज्ञापनों के द्वारा ही संचालित हो रही है । विश्व का सारा बाजार अनुवाद पर आश्रित है । ये अनुवाद स्वदेशी और विदेशी भाषाओं में भी करवाए जाते हैं । इस कार्य के लिए निजी क्षेत्र में बड़ी विज्ञापन कंपनियाँ बाजार में उतर गईं हैं । इस तरह अनुवाद का भी एक बहुत बड़ा बाजार है जो कि करोड़ों रुपयों का व्यापार करता है । विज्ञापन जगत में अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर अनुवाद भी एक उद्योग के रूप में उभरा है आज ।

मीडिया और अनुवाद :

आज का युग संचार क्रान्ति का युग है । जान-संचार के माध्यम मानव जीवन पर हावी हो गए हैं । टी वी, रेडियो, इन्टरनेट, समाचार पत्र, पत्र-पत्रिकाएँ, फिल्म - ये सब आज मानव जीवन के अनिवार्य अंग बन गए हैं । विश्व में आज हर देश और हर समाज में इनका प्रवेश हो गया है। आज समाचार और संदेश चौबीसों घंटे प्राप्त होते हैं । टी वी के चैनल और रेडियो के कार्यक्रम चौबीसों घंटे चलते हैं । समाचार पत्र के एकाधिक संस्करण हर रोज निकाले जाते हैं । सम्पन्न देशों में रात्रि संस्कारण भी प्रकाशित होते है, अर्थात जनसंचार के माध्यम हर पल, हर वक्त कार्यरत रहते हैं । विश्व की अनगिनत भाषाओं में ये चैनल और स्रोत कार्य करते

हैं । स्रोत भाषाओं में एकत्रित सामग्री का अनुवाद इन संगठनों को तत्काल कर उनका प्रसारण किया जाता है ।आज विश्व के संचार बाजार में असंख्य अनुवादक निर्विराम कार्य कर रहे हैं जिनके द्वारा संसार के हर कोने का समाचार या संदेश कुछ ही क्षणों में विश्व के अन्य हिस्सों में हर भाषा में अविलंब पहुँचता है ।

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यह अनुवाद का ही चमत्कार है और अनुवाद प्रक्रिया की ही देन है । यदि अनुवाद जैसी प्रक्रिया न होती तो संचार क्रान्ति भी संभव नहीं होती । मीडिया ने नई शताब्दी में मानव जीवन में उथल पुथल मचा दी है । राष्ट्रों की राजनीति को प्रभावित किया है । राष्ट्रों के प्रमुख अपने वक्तव्यों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करते हैं तो उन्हें सारा विश्व अनुवाद के ही माध्यम से समझ पाता है और तत्काल उस पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करता है । संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच से राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के भाषण तत्काल आशु अनुवाद द्वारा विश्व की सभी भाषाओं में उपलब्ध कराया जाता है । इसमें दूरसंचार के माध्यमों की भूमिका महत्वपूर्ण है । कार्यक्रमों के सीधे प्रसारण के लिए संचार माध्यमों के द्वारा प्रयुक्त अत्याधुनिक तकनीक जिम्मेदार है जो इस तरह के उपकरण तैयार कर विश्व को तत्काल जोड़ती है । अनुवाद के बिना हम विभिन्न देशों में होने वाले परिवर्तनों को, वहाँ की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों में होने वाले बदलावों को कदापि नहीं आत्मसात कर पाते ।

अनुवाद का प्रयोजन केवल साहित्य के भाषिक रूपान्तरण के लिए ही नहीं बल्कि साहित्येतर कामकाज के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण और अनिवार्य है । अक्सर लोग अनुवाद का प्रयोजन केवल साहित्यिक रूपान्तरण के लिए ही मानते हैं, लेकिन जहां भाषिक प्रयोग और अनुप्रयोग की संभावना है वहाँ अनुवाद की अनिवार्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में अनुवाद :

अनुवाद की सबसे अधिक उपयोगिता वैश्वीकृत परिदृश्य में शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण है । शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान और विज्ञान की सामग्री अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर विश्व के सभी देश और शिक्षण संस्थाएं आपस में बांटती हैं । यह आदान - प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही होता है। अनुसंधान के परिणामों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आपस में अनुवाद के द्वारा ही साझा करते हैं । मनुष्य के कल्याण के लिए विश्व भर में जो भी शोध और अनुसंधान हो रहे हैं जिनमें असंख्य वैज्ञानिक कार्यरत हैं उनके नतीजे समूची मानव जाति तक पहुंचाने का काम अनुवाद द्वारा ही संभव है । इसीलिए सूचना प्रौद्योगिकी, अन्तरिक्ष विज्ञान, चिकित्सा और वैद्यकी, असाध्य रोगों के निवारण हेतु जो शोध कार्य हो रहे हैं उनकी जानकारी विभिन्न देशों के नागरिकों को स्थानीय भाषा में दी जाती है जिसके पीछे विशेषज्ञ अनुवादकों का परिश्रम रहता है । संसार में जितनी भाषाएँ मौजूद हैं उन सभी भाषाओं में सारी ज्ञान विज्ञान की सामग्री स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध हो रही है - इसका श्रेय अनुवाद को ही जाता है ।

वैश्वीकरण के दौर में अनुवाद के क्षेत्र में कंप्यूटर का प्रवेश :

आज का युग संचार के क्षेत्र में कंप्यूटर की प्रधानता का युग है। अनुवाद प्रक्रिया को सुगम और अत्यधिक गतिशील बनाने के लिए कंप्यूटर के प्रयोग की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान हो रहे हैं । कंप्यूटर द्वारा सम्पन्न अनुवाद को मशीन अनुवाद कहा जाता है । विश्व की अग्रणी कंप्यूटर संस्थाएं आज हर तरह के पाठ के अनुवाद के लिए कंप्यूटर का प्रयोग सफलता पूर्वक, कारगर तरीके से करने के लिए प्रयासरत हैं ।

अभी इस प्रयास में पूर्ण सफलता नहीं मिली है लेकिन बहुत जल्द यह प्रयास सफल होगा । जब विश्व की सभी भाषाओं में अंतर भाषिक अनुवाद मशीन द्वारा संभव हो जाएगा। आज कंप्यूटर साधित अनुवाद कुछ सीमित प्रकार्यों के लिए किया जा रहा है । सीमित शब्दावली के साथ विशेष क्षेत्रों में कंप्यूटर अनुवाद किया

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जा रहा है । इसके लिए विशेष रूप से कृत्रिम बौद्धिकता ( Artificial intelligence ) का विकास किया जा रहा है। वैश्वीकरण के दौर में विश्व मानव को सारे विभेदों, विषमताओं को भुलाकर यदि परस्पर निकट आना हो तो भाषिक अवरोधों को मिटाना होगा, यह केवल अनुवाद से ही संभव है । अनुवाद के क्षेत्र में आज के स्पर्धा-युक्त समाज में रोजगार की अपार संभावनाएं मौजूद हैं । फिल्मों की डबिंग ( ध्वन्यन्तरण ) और सब टाईटलिंग की प्रणाली अनुवाद की प्रक्रिया पर ही आधारित है । आज विश्व का फिल्म उद्योग अनुवाद की माध्यम से माला-माल हो रहा है ।

दुभाषिए की भूमिका आज बहु-राष्ट्रीय व्यापारिक प्रतिष्ठानों में अत्यंत महत्वपूर्ण है । यह आशु-अनुवाद नामक प्रणाली द्वारा साध्य है । आशु अनुवाद भाषणों के तत्काल अनुवाद के लिए सर्वाधिक उपयोगी है, साथ ही वार्तालाप या संवाद के तत्काल अनुवाद के लिए भी इस कला की उपयोगिता निर्विवाद है ।

है । पर्यटन के क्षेत्र में अनुवाद की भूमिका अति महत्वपूर्ण सिद्ध हो चुकी है । भिन्न भिन्न भाषा बोलने वाले सैलानियों के लिए उनकी भाषा में दर्शनीय स्थलों का परिचय देनेके लिए गाइड को अनुवाद का सहारा लेना पड़ता है । इसीलिए अनुवाद को पर्यटन -संबंधी प्रशिक्षण का अनिवार्य हिस्सा बनाया गया है । उसी तरह प्रबंधन, प्रशासन और राजनयिक गतिविधियों में तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को परिपुष्ट करने की प्रक्रिया में अनुवादक या दुभाषिए की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । अंतर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने में भिन्न भाषा-भाषी समुदायों अथवा देशों के मध्य संधि वार्ताएं, समझौते और करार आदि के लिए अनुवाद का प्रयोग किया जाता है ।आज के तेजी से बदलते हुए अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में अनुवाद की भूमिका बहुआयामी है भाषा जिस तरह से सम्प्रेषण का माध्यम है अनुवाद भी उसी सम्प्रेषण को सार्थक और सशक बनाने का सहायक औज़ार है । आज वैश्वीकरण के दौर में बहुभाषी होना समय की आवश्यकता है और बहु-भाषिकता को समन्वय के सूत्र में बांधने के लिए अनुवाद की आवश्यकता अपरिहार्य है।

अनुवाद के माध्यम से ही हमे विश्व साहित्य को पढ़ने की सुविधा प्राप्त होती है । अनुवाद के बिना हम इस धरोहर को जानने से वंचित रह जाते । आज मनुष्य पहले से कहीं अधिक जिज्ञासु और शोधपरक हो गया है। मनुष्य की जिज्ञासाओं का समाधान अनुवाद द्वारा प्राप्त सामाग्री के अध्ययन से ही संभव है । किसी भी व्यक्ति के लिए संसार की सारी भाषाओं को सीखना संभव नहीं है लेकिन विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य एवं अन्य सामाग्री का उपयोग हर व्यक्ति अनूदित पाठ के माध्यम से कर सकता है। अनुवाद ने आज अभिव्यक्ति की सीमाओं का विस्तार किया है। अनुवाद वर्तमान काल की अनिवार्य आवश्यकता है ।

भारतीय संदर्भ में अनुवाद की आवश्यकता अति महत्वपूर्ण है । भारत की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भाषिक विविधता निश्चित रूप से भारत की भावनात्मक अखंडता और एकता के लिए चुनौती है किन्तु इस वैविध्य और विभेद को दूर करने के लिए अनुवाद ही एकमात्र कारगर उपाय है जिसके द्वारा देश में वैश्वीकरण की स्थितियों से उत्पन्न सांस्कृतिक अप्सरण तथा भाषिक क्षरण की प्रक्रिया पर रोक लगाई जा सकती है ।

- प्रो एम वेंकटेश्वर

मो - 9849048156