Tuesday, March 11, 2014

देश मे चुनावी सरगर्मी और देश की हालत

देश मे चुनावी माहौल गरमा रहा है । सभी राजनीतिक दल सत्ता पर आसीन होने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रहीं हैं । देश का लोकतन्त्र केवल सत्ता हासिल करने की होड तक सीमित होकर रह गया है । देश की चिंता, विकास, जनता की सेवा - जैसे विचार और सिद्धान्त नदारद हो गए हैं । सत्ता की भूख - प्यास ने सब कुछ भुला दिया है । तथाकथित दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां - दोनों ही दिशा विहीन और लक्ष्य से भटक गई हैं । सारी राजनीतिक व्यवस्था घोटालों मे ही सिमटकर रह गई है । चाहे कोई भी पार्टी हो केवल सत्ता के लिए ही लालायित है । पैसा - पैसे से ताकत और फिर ताकत से पैसा - यही चक्र है जिसमें हर राजनेता उलझा हुआ है । देश - राष्ट्र और राष्ट्रीय चरित्र केवल किताबों मे  बंद हो कर रह गया है । विभाजन और विखंडन की राजनीति ही आज का मूल मंत्र है । जनता भी एक प्रकार से लाचार हो गई है । उनकी आवाज़ कोई सुनने वाला ही नहीं है । आंध्र प्रदेश का जिस तरह से विभाजन हुआ वह सिद्धांतविहीन सत्ता लोलुप मंशा की एक दुर्दांत कहानी है ।  न लोकतन्त्र का लिहाज और न ही दोनों पाक्स की भावनाओं और समस्याओंके प्रति संवेदनशीलता !ऐसी जल्दबाज़ी की कोई दूसरा न कहीं इस महा-विभाजन का श्रेय न ले ले । कितनी दयनीय हो गई है राष्ट्रीय पार्टी की हालत । बँटवारे मे दोनों पक्षों के हिट का ख्याल रखा जाना चाहिए लेकिन यहाँ तो सभी निर्णय एकतरफा और असंवेदनशील रहे । लोगों को मझधार मे छोड़कर अपनी गद्दी की दौड़ मे बेतहाशा दौड़ रहे हैं राजनेता। और फिर इतना होने और करने के बावजूद जो लक्ष्य था उसे तो कांग्रेस वाले हासिल ही नहीं कर पाए।
फिर यह अफरा-तफरी करने की क्याजरूरत थी ?
खैर अब जो हुआ सो हुआ लेकिन क्या दोनों प्रान्तों की जनता को इसके आगे सुशासन प्राप्त होगा ? पानी, बिजली, शिक्षा और रोजगार की समस्याएँ क्या खत्म होंगी या और अधिक बढ़ेंगी ? कहाँ से लाएंगी सरकारें
( दोनों ओर की ) इतनी नौकरिया, और धन - नई राजधानी का निर्माण,  और नए सिरे से एक राज्य को निर्मित करने का अभियान ? ये कैसा निर्णय है ?
सामान्य जनता मे घृणा और नफरत फैलाकर नफरत की राजनीति की नींव पर दो राज्यों का गठन क्या इतना जरूरी था ? क्या समझौते करने कराने के रास्ते सभी बंद हो गए थे या बंद कर दिये गए ? शांति स्थापित करने के लिए समय की आवश्यकता होती है, युद्ध तो एक पल मे घोषित हो सकता है लेकिन शांति वार्ता धीरे धीरे रंग लाती है और काफी समय लगता है इसे आत्मसात करने मे । फिर हम क्यों हम यह मौका  चूक गए ।
चुनाव के बाद क्या होगा ?
कांग्रेस, बीजेपी और आप - ये तीन पार्टियां देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करती नजर आ रहीं हैं । और फिर प्रातीय पार्टियां - अपना राग अलग आलाप रहीं हैं । इधर की घटनाएँ - नौसेना मे सिलसिलेवार दुर्घटनाएँ - रक्षा उपकरणों की खरीदी मे विलंब और घोटाले - कितनी शर्मनाक स्थिति बना दी है हमारी सरकारों ने । देश की सुरक्षा व्यवस्था के साथ समझौता या कुशासन की अदूरदर्शिता के संक्रामक रोग से ग्रस्त यह सरकार - अपने ही सैनिकों की हत्या कर रही है । आई एन एस सिंधुरत्न पर हुई दुर्घटना और फिर उसी क्रम मे अन्य दुर्घटनाओं मे मृत नौसैनिक - हमारी रक्षा नीतियाँ क्या इतनी बदहाल हैं ? क्या हम समय रहते और पहले से अपनी सेनाओं को आधुनिकतम हथियारों और अन्य उपकरणों से लैस नहीं कर सकते ?
देश की रक्षा के लिए हम क्यों समुचित धनराशि मुहैया कराने मे असमर्थ हो रहे हैं ?
आम जनता बहुत ही उलझन भरी मानसकिता से गुजर रही है ,उद्भ्रांतियां ही उद्भ्रांतियां  हैं चारों ओर ।
ये रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री, गृह मंत्री और प्रधान मंत्री - आदि क्या कर रहे हैं ?