भारत की बहुभाषिकता और संस्कृति बहुलता स्वाधीनता के पश्चात भी सुई तरह से कायम है जैसे स्वतन्त्रता के पहले मौजूद थी । आज़ादी से पूर्व भारत उपमहाद्वीप अथवा यह भूखंड अनगिनत राजे-रजवाड़ों मे विभाजित था और हर राज्य का अपना विशेष राज्यध्वज, अपनी भाषा और अपनी धार्मिक आष्टा एवं परंपरा हुआ करती थी । राज्य विस्तार के लिए निरंतर युद्ध होते थे और जय-पराजय का निर्विराम सिलसिला यूं ही चलता रहता था । हर राज्य अपनी राज्य भाषाओं को सुनिश्चित और घोषित करता और उसी मे राजकाज, शिक्षा, व्यापार, वाणिज्या एवं इतर कामकाज सारे उसी भाषा मे बिना किसी व्यवधान या अवरोध के संपन्न होते रहते थे । हर राज्य पूर्णत: संप्रभुतासंपन्न सार्वभौम राज्य हुआ करता था जहां अपनी भाषा अर्थात राज्य की, जनता की मातृभाषा के प्रयोग पर किसी तरह प्रतिबंध अथवा प्रतिरोध नहीं होता था । ऐसे ही अनेकों छोटे बड़े राज्यों के समूह का विलीनीकरण भारत राष्ट्र में सन् 1947 मे जब हुआ तो किसी ने कल्पना नहीं की थी कि इस सुविशाल उपमहाद्वीपीय भूखंड को राष्ट्र का दर्जा प्राप्त होते ही राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक के रूप मे कोई एक भी भाषा सर्वसम्मति से उपलब्ध नहीं होगी । भारत राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं के भीतर कहने को तो भाषाओं की बहुलता अकल्पनीय और संख्यातीत हैं किन्तु यह राष्ट्र दुर्भाग्य से किसी एक भाषा को राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक के रूप मे विश्व के सम्मुख आज तक घोषित नहीं कर सका है । इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है । संविधान में भाषाओं को राष्ट्रीय दर्जा दिलाने के लिए कुछ प्रमुख भाषाओं का चयन किया गया जिसकी संख्या 14 से बढ़कर आज 22 कर दी गई । सविधान मे कहीं भी भारत मे शिक्षा के माध्यम को घोषित नहीं किया गया । हिंदी को सबसे बड़ी भाषा के रूप मे स्वीकार तो किया जाता है किन्तु उसे राष्ट्र-भाषा की पहचान नहीं प्राप्त हुई । वह 22 राष्ट्रीय भाषाओं में एक है । हिंदी का प्रयोग करने वालों की संख्या सर्वाधिक माना जाता रहा है किन्तु जैसे मैथिली, ब्रज, अवधी, भोजपुरी राजस्थानी, बुन्देली आदि उपभाषाओं ( बोलियों के रूप मे ख्यातिप्राप्त ) को हिंदी से पृथक भाषा की मान्यता प्रदान कर संविधान में ( आठवीं अनुसूची में ) शामिल करने की दिशा मे होने प्रयासों के अनुमान से हिंदी की स्थिति पहले से अथिक कमजोर हो जाएगी । स्वाधीनता प्राप्त से पूव तक उपर्युक्त भाषाओं मे रचित साहित्य को हिंदी साहित्य का ही महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया । कबीर, सूर (ब्रज), तुलसी ( अवधी ), विद्यापति ( मैथिली ) आदि को हिंदी के ही कवियों की पहचान मिली हुई है । अब इन्हें हिंदी निकाल बाहर करना होगा और ऐसी स्थिति मे हिंदी भाषी अल्पा संख्यक हो जाएंगे और हिंदी भी अल्पसंख्यकों की भाषा बनकर रह जाएगी जिससे इसकी राष्ट्रभाषा की दावेदारी भी शिथिल पड़ जाएगी ।
भारत की भाषिक समस्याओं मे से सबसे प्रधान समस्या है देश मे शिक्षा के माध्यम की । सन् 1947 और 1950 से देश आज बहुत आगे निकल आया है । गांधी और नेहरू युग कभी का भुला दिया गया । स्वदेशी भाषा अभियान के आंदोलनकारी, महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, दयानंद सरस्वती, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मोटूरी सत्यनारायण, बंकिम, रवीन्द्र और शरत, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गुलेरी, राजा लक्ष्मण सिंह, राजा शिवप्रसाद, जैसे कर्मठ मातृभाषा प्रेमी, स्वभाषा प्रेमी जननायकों और भारतीयतावादी चिंतकों और मनीषियों को आज भूमंडलीकरण, उदारीकृत बाजारवाद और पाश्चात्य-वादी रुग्ण मानसिकता की आत्मघाती बौद्धिक परंपराओं ने देश की भाषिक बुनावट को तहस-नहस कर डाला है । आज़ादी के 69 वर्षों बाद भी हम अपने देश के लिए कोई एक अपनी भाषा मे अपनी शिक्षा प्रणाली का (पूर्ण स्वदेशी शिक्षा प्रणाली ) निर्माण नहीं कर पाए हैं । स्वतंत्र भारत के लिए महात्मा गांधी की भाषा नीति, भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए अत्यंत कारगर और उपयुक्त थी जिसे नवभारत के कर्णधारों ने अनदेखी कर दी और अंग्रेजी के क्षणिक मोह मे पड़कर देश की शिक्षा नीति का सर्वनाश कर दिया । समय के साथ साथ अंग्रेजी पक्षधरों की संख्या अपने अप बढ़ाने लगी और आज स्थिति बहुत ही गंभीर है । आज की पीढ़ियाँ अपने आप को भारत मे अंग्रेजी से पृथक करके नहीं कल्पना कर सकतीं । इसकी जिम्मेदार हमारी अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा प्रणाली है । अंग्रेजी को जब रोजगार ई भाषा बना दिया गया तो फिर भारतीय भाषाओं का अस्तित्व दोयम दर्जे का हो ही जाता है । हिंदी और भारतीय भाषाएँ केवल अनुवाद के लिए ही प्रयोजनकारी होकर रह गई हैं । किसी भी विषय का ज्ञान का साहित्य भारत मे किसी भी भारतीय लेखक विशेषज्ञ द्वारा किसी भी भारतीय भाषा मे मूल रूप से नहीं लिखा जाता, क्योंकि उसे बाजार नहीं मिलता और उसकी उपयोगिता शिक्षा जगत मे नहीं है । आज अंग्रेजी माध्यम के कारण लाखों ग्रामीण छात्र (अंग्रेजी के पर्याप्त कौशल के अभाव मे ) शहरी परिवेश के अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के सम्मुख अपनी योग्यता सिद्ध करने मे असमर्थ और लाचार दिखाई देते हैं । शिक्षा आ सर्वोत्तम माध्यम मातृभाषा ही हो सकती है जो कि वैश्विक स्तर पर भाषाविदों द्वारा स्वीकृत सत्य है जिसे भारतीय राजनीतिक व्यवस्था नहीं जानना चाहती । भारत कि सर्वांगीण विकास का माध्यम अंग्रेजी को ही मानने वाले देश के नीतिकारों का ध्यान इस ओर कब जाएगा ? इसका अनुमान लगाना कठिन है । किन्तु हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं और अपने देशवासियों के हितों को अवरुद्ध कर रहे हैं । चीन, जापान, कोरिया, रूस, जर्मनी, फ्रांस, ( यूरोप के तमाम अंग्रेजेतर देश ) , सभी ने तकनीकी और वैज्ञानिक, व्यापारिक और वाणिज्यिक प्रगति अपनी भाषाओं के माध्यम से ही हासिल की है । वे अंग्रेजी को केवल एक विदेशी भाषा के रूप मे ही देखते और सीखते हैं, उनके देशों मे कहीं भी कभी भी, विदेशी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं रही है और भविष्य मे कभी नहीं रह सकती । इन देशों के उदाहरणों से हमे कुछ तो सीख लेनी चाहिए ? तुर्की ने यूरोप के बहुत बड़े भूभाग पर बहुत लंबे समय तक राज किया किन्तु जब उन्नीसवीं सदी के मध्य मे उनका शासन जब समाप्त हुआ तो उसके बाद उन स्वाधीन देशों मे कहीं भी उनके पूरवा शासक अर्थात तुर्कों की तुर्की भाषा का नामोनिशान उन यूरोपीय देशों मे आज कहीं नहीं पाया जाता । इतनी सारी मिसालें काया कम हैं ? अभी भी हमें उस गहरी मादक नींद से जागना होगा और अंग्रेजी के भूत को जिसने हमारी आत्मा को जकड़ रखा है, उसे भगाना होगा, तभी हमारे लिए मुक्ति का मार्ग खुल सकता है । हम तभी सच्चे अर्थों मे अंग्रेजी उपनिवेशवादी मानसिकता से आज़ाद होंगे ।
भारत की भाषिक समस्याओं मे से सबसे प्रधान समस्या है देश मे शिक्षा के माध्यम की । सन् 1947 और 1950 से देश आज बहुत आगे निकल आया है । गांधी और नेहरू युग कभी का भुला दिया गया । स्वदेशी भाषा अभियान के आंदोलनकारी, महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, दयानंद सरस्वती, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मोटूरी सत्यनारायण, बंकिम, रवीन्द्र और शरत, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गुलेरी, राजा लक्ष्मण सिंह, राजा शिवप्रसाद, जैसे कर्मठ मातृभाषा प्रेमी, स्वभाषा प्रेमी जननायकों और भारतीयतावादी चिंतकों और मनीषियों को आज भूमंडलीकरण, उदारीकृत बाजारवाद और पाश्चात्य-वादी रुग्ण मानसिकता की आत्मघाती बौद्धिक परंपराओं ने देश की भाषिक बुनावट को तहस-नहस कर डाला है । आज़ादी के 69 वर्षों बाद भी हम अपने देश के लिए कोई एक अपनी भाषा मे अपनी शिक्षा प्रणाली का (पूर्ण स्वदेशी शिक्षा प्रणाली ) निर्माण नहीं कर पाए हैं । स्वतंत्र भारत के लिए महात्मा गांधी की भाषा नीति, भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए अत्यंत कारगर और उपयुक्त थी जिसे नवभारत के कर्णधारों ने अनदेखी कर दी और अंग्रेजी के क्षणिक मोह मे पड़कर देश की शिक्षा नीति का सर्वनाश कर दिया । समय के साथ साथ अंग्रेजी पक्षधरों की संख्या अपने अप बढ़ाने लगी और आज स्थिति बहुत ही गंभीर है । आज की पीढ़ियाँ अपने आप को भारत मे अंग्रेजी से पृथक करके नहीं कल्पना कर सकतीं । इसकी जिम्मेदार हमारी अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा प्रणाली है । अंग्रेजी को जब रोजगार ई भाषा बना दिया गया तो फिर भारतीय भाषाओं का अस्तित्व दोयम दर्जे का हो ही जाता है । हिंदी और भारतीय भाषाएँ केवल अनुवाद के लिए ही प्रयोजनकारी होकर रह गई हैं । किसी भी विषय का ज्ञान का साहित्य भारत मे किसी भी भारतीय लेखक विशेषज्ञ द्वारा किसी भी भारतीय भाषा मे मूल रूप से नहीं लिखा जाता, क्योंकि उसे बाजार नहीं मिलता और उसकी उपयोगिता शिक्षा जगत मे नहीं है । आज अंग्रेजी माध्यम के कारण लाखों ग्रामीण छात्र (अंग्रेजी के पर्याप्त कौशल के अभाव मे ) शहरी परिवेश के अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के सम्मुख अपनी योग्यता सिद्ध करने मे असमर्थ और लाचार दिखाई देते हैं । शिक्षा आ सर्वोत्तम माध्यम मातृभाषा ही हो सकती है जो कि वैश्विक स्तर पर भाषाविदों द्वारा स्वीकृत सत्य है जिसे भारतीय राजनीतिक व्यवस्था नहीं जानना चाहती । भारत कि सर्वांगीण विकास का माध्यम अंग्रेजी को ही मानने वाले देश के नीतिकारों का ध्यान इस ओर कब जाएगा ? इसका अनुमान लगाना कठिन है । किन्तु हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं और अपने देशवासियों के हितों को अवरुद्ध कर रहे हैं । चीन, जापान, कोरिया, रूस, जर्मनी, फ्रांस, ( यूरोप के तमाम अंग्रेजेतर देश ) , सभी ने तकनीकी और वैज्ञानिक, व्यापारिक और वाणिज्यिक प्रगति अपनी भाषाओं के माध्यम से ही हासिल की है । वे अंग्रेजी को केवल एक विदेशी भाषा के रूप मे ही देखते और सीखते हैं, उनके देशों मे कहीं भी कभी भी, विदेशी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं रही है और भविष्य मे कभी नहीं रह सकती । इन देशों के उदाहरणों से हमे कुछ तो सीख लेनी चाहिए ? तुर्की ने यूरोप के बहुत बड़े भूभाग पर बहुत लंबे समय तक राज किया किन्तु जब उन्नीसवीं सदी के मध्य मे उनका शासन जब समाप्त हुआ तो उसके बाद उन स्वाधीन देशों मे कहीं भी उनके पूरवा शासक अर्थात तुर्कों की तुर्की भाषा का नामोनिशान उन यूरोपीय देशों मे आज कहीं नहीं पाया जाता । इतनी सारी मिसालें काया कम हैं ? अभी भी हमें उस गहरी मादक नींद से जागना होगा और अंग्रेजी के भूत को जिसने हमारी आत्मा को जकड़ रखा है, उसे भगाना होगा, तभी हमारे लिए मुक्ति का मार्ग खुल सकता है । हम तभी सच्चे अर्थों मे अंग्रेजी उपनिवेशवादी मानसिकता से आज़ाद होंगे ।