हिंदी : वर्तमान संदर्भ में डॉ एम वेंकटेश्वर
हिंदी का वर्तमान और भविष्य आज आम देशवासियों में चर्चा का विषय नहीं रह गया, यह एक निर्विवाद सत्य है, विशेषकर हिंदी एवं इतर भारतीय भाषाओं के प्रयोग
एवं विकास के प्रति आम जनता गंभीर नहीं है । उसके पास भाषाई मुद्दों पर विचार करने
का समय और संवेदना दोनों नहीं हैं । अधिकांश भारतीय, विशेषकर सुशिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग भारत की भाषिक समस्याओं
पर विचार करने के लिए तैयार नहीं है । शिक्षित युवा पीढ़ी को हिंदी की स्थिति पर चर्चा करना समय और शक्ति की
बरबादी प्रतीत होती है । प्रौद्योगिकी-ग्रस्त
उन्मादी युवा पीढ़ी और कारपोरेट क्षेत्र के तथाकथित मुख्य कार्यकारी आधिकारीगण कुछ
अंग्रेजी के प्रयोग में सक्षम भारतीयों को
ही देश का चेहरा और विकास का पर्याय मानते हैं । इसी धारणा का प्रचार-प्रसार देश
में तेजी से किया जा रहा है । आज की युवा पीढ़ी जिन्हें अंग्रेजी माध्यम में ही
शिक्षा उपलब्ध है, जो पश्चिमी तौर तरीकों में ही पलते हैं और पाश्चात्य शैली के रहन-सहन, खान-पान, वेषभूषा को सहर्ष गले
लगाते हैं, जिनकी सामान्य बोलचाल की
भाषा फूहड़ अंग्रेजी है, वे हिंदी एवं इतर भारतीय भाषाओं के साथ अपनी मातृभाषा की हंसी
उड़ाते हुए हर सार्वजनिक स्थल पर, चमक-दमक से भरे ‘मॉल ‘ के स्टारबक्स, कॉफी डे, मैक्डोनल्ड, के एफ सी, सब वे, बारिस्टा जैसे महंगे पश्चिमी रेस्त्रों में घंटों बतियाते
और शोर मचाते हुए अपनी वाक्-स्वतन्त्रता के अधिकार का सदुपयोग करते हुए नजर आएंगे
। हिंदी की वर्तमान स्थिति को आँकने के लिए ऐसे सार्वजनिक स्थलों में आम भारतीय के
संवाद की भाषा का सर्वेक्षण किया जा सकता है । यात्रा के दौरान रेलगाड़ी और बसों
में भी थोड़ी बहुत हिंदी और स्थानीय बोलियाँ सुनाई दे जाती हैं, किन्तु यहाँ भी सुशिक्षित
युवा पीढ़ी अंग्रेजी में कुछ हिंदी एवं स्थानीय बोलियों के शब्दों की मिलावाट युक्त
सम्प्रेषण का माध्यम चुन लेती है । हवाई अड्डों और विमान यात्राओं में तो अंग्रेजी
से कमतर कोई दूसरी भारतीय भाषा लगभग नहीं सुनाई देती । हमारे देश में बिना
अंग्रेजी बोले विमान यात्रा निषिद्ध मानी जाती है, । विमान परिचारिकाओं को अपनी ओर आकर्षित करने या उनकी
ओर आकर्षित होने का एक मात्र संवाद का माध्यम अंग्रेजी (हिंगलिश ) ही है । उपर्युक्त
परिदृश्य आज भारत की भाषिक वास्तविकता है । भारतवासी सामान्य बोलचाल, कामकाज, शिक्षा, कारोबार, प्रबंधन, व्यापार एवं
वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों में आधिकारिक रूप से अंग्रेजी के प्रयोग को देश की
उन्नति और विकास का मानदंड स्वीकार कर चुके हैं । अंग्रेजी को ही राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर भारत का चेहरा बना दिया गया है । हिंदी और भारतीय भाषाओं
का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर समर्थन करने वाले लोगों की संख्या नगण्य
है और उनकी वह आवाज कोई नहीं सुनता और न ही उन्हें गंभीरता से लिया जाता है । राजनीतिक
परिदृश्य में यह वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बन गई है । हिंदी और भारतीय भाषाओं का प्रयोग और उनकी
अस्मिता को कट्टरपंथी, रूढ़िवादी, परंपरावादी, मध्ययुगीन सोच से जोड़कर हंसी उड़ाई जाती है या फिर किसी विशेष
राजनीतिक खेमे से जोड़कर उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है । देश की शिक्षानीति भी
हिंदी एवं इतर भारतीय भाषाओं की पक्षधर नहीं है । यदि अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा
नीति को असंगत माना जाए तो उसे बदलने की दिशा में आज तक कोई प्रयास नहीं किए गए और
न ही भविष्य में ऐसी कोई आशा ही दिखाई दे रही है जिससे हिंदी को वास्तव में राष्ट्रभाषा
का संवैधानिक रूप से प्राप्त हो सके । हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मनसा, वाचा, कर्मणा स्वीकार करने में देशवासियों की आपत्तियों एवं
शंकाओं पर विचार करना आवश्यक है । देश में हिंदी समर्थक समुदाय, अल्पसंख्यक हो गया है ।
हिंदी और इतर भारतीय भाषाओं की
दुर्गति का एक महत्वपूर्ण कारण, देश की शिक्षा नीति और शिक्षा का माध्यम है । शिक्षा के
माध्यम का भारतीयकरण आवश्यक है जो कि भारतीय राजनीतिज्ञों एवं नीतिकारों के लिए
चुनौती है । राष्ट्रीय एकता के प्रधान तत्वों में राष्ट्र के लिए सर्व-स्वीकृत एक
राष्ट्रभाषा का अस्तित्व अनिवार्य है । भारतीय भाषाओं में से किसी एक भाषा को हमें
देश का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा के रूप में स्वीकार करना होगा । उसी भाषा में
शिक्षा और कामकाज आदि सभी प्रकार्यों को संपन्न करना होगा । तभी हम हिंदी को भारत
का मौलिक स्वरूप प्रदान करने में समर्थ होंगे । हिंदी के समर्थन का अर्थ, प्रांतीय
भाषाओं की उपेक्षा अथवा उनके प्रति द्वेष का नहीं होगा बल्कि वह एक सेतु – भाषा का
रूप धारण करेगी। मातृभाषाओं को हिंदी के
साथ जोड़ते हुए एक सर्वस्वीकृत शिक्षा नीति का विकास करने की आवश्यकता है ।
वैश्वीकृत बाजारवाद, व्यापार एवं वाणिज्य में विदेशी निवेश आदि क्षेत्रों में हिंदी
के प्रयोग पर बल देना आवश्यक है । तभी हम अपने लक्ष्य को साध सकते हैं । उदारीकृत
बाजारवाद के नाम पर बाजार में हिंदी के बढ़ते प्रयोग को देखकर हिंदी के चहुंमुखी विकास
का भ्रम पाल रहे हैं । आज यदि बाजार में हिंदी के प्रयोग में वृद्धि हुई है तो वह केवल व्यापारिक
लाभ के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही हुई है ।
संपर्क भाषा के रूप में हिंदी भाषा प्रयोग की अपार संभावनाएँ हैं किन्तु युवापीढ़ी अंग्रेजी को ही संपर्क भाषा मान
बैठी है इसीलिए वे इसी के समर्थन में हिंदी का विरोध करते हैं । उन्हें ‘राष्ट्रभाषा’ की संकल्पना से कोई सरोकार
नहीं है । युवा पीढ़ी अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा मान बैठी हैं और इसे राष्ट्रभाषा घोषित
करने के लिए यह पीढ़ी संगठित होने लगी है । यदि हिंदी के समर्थन में कोई बात की जाए
तो उनका तर्क है कि इस हिंदी उनकी इच्छा
के विरुद्ध उन पर लादी जा रही है । यह आश्चर्य का विषय है कि आज़ादी के इन 67
वर्षों में किसी भारतीय ने आज तक यह नहीं कहा कि भारतवासियों पर अंग्रेजी क्यों लाद
दी गई ?
आज तक हिंदी रोजगार की भाषा नहीं बन सकी, जब कि अंग्रेजी रोजगार की भाषा बना दी गई है । इसीलिए युवा
पीढ़ी को हिंदी से कोई लगाव नहीं । प्रत्येक युवा आजीविका के लिए समर्थवान भाषा
माध्यम का चयन करता है, यह उसका मौलिक अधिकार है । इस उद्देश्य के लिए वह देश में उपलब्ध शिक्षा माध्यम को स्वीकार करने
के लिए बाध्य है । सरकारों की ढुलमुल, अस्पष्ट एवं
तुष्टिकरण की भाषा नीतियों ने शिक्षा के माध्यम का अंग्रेजीकरण कर देश में परोक्ष रूप
से अंग्रेजी राज को कायम रखा है । हमारी
ही
अदूरदर्शी नीतियों का दुष्परिणाम ही हिंदी की दुर्दशा है । हिंदी की मौजूदा
विचारणीय स्थिति के लिए आज का अंग्रेजी समर्थित और पोषित भारतीय मीडिया भी दोषी है
। टीवी के निजी चैनल, रेडियो के एफ एम चैनल और प्रिंट मीडिया हिंदी के नाम पर जिस तरह की भाषा का
प्रयोग कर रहे हैं वह हिंदी भाषा को पूरी तरह ध्वस्त कर उसके अस्तित्व को समाप्त
करने की मुहिम में सुसंगठित हो गए हैं । केवल सहायक क्रियाओं को लेकर पूरा का पूरा
अंग्रेजी वाक्य देवनागरी में लिपि में छापा जाता है और मौखिक व्याख्याएँ एवं
समाचार आदि भी उसी तरह की मिलावट वाली हिंदी में सुनाए जाते हैं । उदाहरण – “ट्रेफिक जाम में इन्वोल्व होकर डिले हो गया ।“ पी एम यू एस के ट्रिप और
गए । “ “बजट सेशन फ्लॉप हो गया । “ बॉक्स ऑफिस पर फिल्म हिट हुई । “ फ़ोरेन बैंक से
ब्लैक मनी लाने में गवर्नमेंट फेल । “ यह है आज की हिंदी पत्रकारिता का नमूना है ।
विज्ञापन के बाजार ने हिंदी की हत्या करने
में कोई कसर नहीं छोड़ी है । रोमन लिपि में विज्ञापनों का बाजार गरम है । सौन्दर्य
प्रसाधन पत्रिकाएँ, केवल रोमन लिपि में लिखित अंग्रेजी से ही अपनी कृत्रिम चमक व्याप्त कर रही
हैं । समय के साथ हिंदी के प्रति उदासीनता और उपेक्षा भी बढ़ी है । सतही तौर पर भाषिक प्रयोजन के लिए कुछ योजनाएँ
लागू करने के संकेत मिलते हैं किन्तु हिंदी के संरक्षण एवं उन्नयन हेतु कोई ठोस
निर्णय लेने की स्थिति में प्रशासन तंत्र नहीं है । चेतन भगत जैसे अंग्रेजी कथाकार
जब रोमन लिपि में हिंदी भाषा के प्रयोग की अवधारणा को विज्ञापित करने का प्रयास
करते हैं तो इसके विरोध में हिंदी समर्थकों का आक्रोश जिस तरह व्यक्त हुआ वह उचित
ही है ।
हिंदी भाषा की दशा और दिशा पर विचार करना केवल हिंदी भाषा-साहित्य से
जुड़े शिक्षकों, हिंदी विभागों, अनुभागों प्रकोष्ठों, और हिंदी प्रेमियों का ही कर्तव्य बनकर रह गया है ।
स्वाधीनता प्राप्ति के 67 वर्षों के बाद भी आज तक हिंदी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर
निर्विवाद रूप से समस्त भारतवासियों ने हृदय से स्वीकार नहीं किया है जो कि एक परम
सत्य है । सितंबर का महीना हिंदी भाषा के महिमामंडन का होता
है । 14 सितंबर को 1949 को संविधान
में हिंदी को राजभाषा घोषित किए जाने के उपलक्ष्य में सरकारी तौर पर हिंदी (
राजभाषा ) दिवस को समारोह-पूर्वक मनाने की परंपरा चली आ रही है । हिंदी दिवस
समारोह केवल एक प्रशासकीय पर्व के रूप में शेष रह गया है, जिसे महज औपचारिकता की दृष्टि से देखा जाता है । यह भी गौरतलब है कि हिंदी को भावनात्मक स्तर पर देश के अधिकांश
लोग राष्ट्रभाषा मानते हैं, हालाकि संविधान में कहीं भी आधिकारिक तौर पर इसका उल्लेख
नहीं मिलता । हिंदी ही राष्ट्रभाषा क्यों
अंग्रेजी क्यों नहीं हो सकती ? यह प्रश्न ज्वलंत रूप में बहस का विषय बना हुआ है । देश में अंग्रेजी की लहर ज़ोरों पर चल रही है ।
चाहे इस तथ्य को कोई माने या न माने, किन्तु शिक्षित और अशिक्षित दोनों वर्गों में अंग्रेजी के प्रति बढ़ता मोह
और सम्मोहन, हिंदी और अन्य भारतीय
भाषाओं की अस्मिता को चुनौती दे रहा है । यह भी एक स्वीकृत सच है ।
हिंदी बनाम अंग्रेजी की समस्या दिन पर दिन जटिल होती जा रही है । इसका कारण, अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व
और प्रभाव है । भाषाओं के प्रति उपयोगितावादी दृष्टिकोण ही वर्तमान स्थितियों में
व्यावहारिक
लगती है । हिंदी का वर्तमान स्वरूप बहुआयामी है । किसी भी भाषा का उपयोग महज
साहित्य सृजन के लिए ही नहीं होता बल्कि भाषा का मूल प्रयोजन संप्रेषण के माध्यम
से दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होता है । भाषा का प्रयोग दैनंदिन जीवन में
नाना रूपों में किया जाता है । साहित्य के लिए भाषा का उपयोग न्यूनतम होता है ।
भाषा का यह प्रयोजनमूलक स्वरूप किसी भी भाषा को प्रयोगजन्य और
व्यावहारिक बनाता है ।
संविधान की आठवीं अनुसूची में बाईस भाषाओं को शामिल किया गया है जिसमें हिंदी
भी एक है ।
संविधान के अनुसार ' हिंदी ' को राजभाषा का दर्जा तो हासिल हुआ है लेकिन ' राष्ट्रभाषा ' के रूप में इसका उल्लेख संविधान में नहीं हुआ है । इस तरह
संविधान में हिंदी की स्थिति नाजुक और कमजोर है ।
इसके कारण जो भी हों, किन्तु आज यही असंगति बहुत बड़ी समस्या बन गई है । अंग्रेजी
के बरक्स आज देश के कुछ हिस्सों में हिंदी के प्रति अलगाववादी नजरिया सामने आ रहा
है जो कि राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है ।
हिंदी की छोटी सी पहल भी अंग्रेजी के पक्षधर लोगों को नागवार लगती है जिससे ऐसे
समुदाय हिंदी के विरोध में लामबंद हो जाते
हैं । इस स्थिति में सरकार बेबस और बेअसर
नजर आती है । हिंदी को भारत एक बहुभाषी और संस्कृति-बहुल देश है जिसका इतिहास
अतिप्राचीन है । शताब्दियों से यहाँ विश्व के हर कोने से विभिन्न भाषिक संस्कृतियाँ
अपनी सामाजिकता के साथ आकर स्थिर हो गईं । भाषा और संस्कृतियों की बहुवचनीयता ने
इस देश में एक नई सामासिक संस्कृति को जन्म दिया जो भारत की पहचान बन गई । हिंदी
इस सामासिक संस्कृति की वाहिका है, इस सत्य को प्रत्येक भारतवासी को आत्मसात करना होगा ।
हिंदी समस्त भारतीय भाषाओं का समाहार है जिसमें भारत की सारी भाषाएँ और बोलियाँ
समाई हुई हैं । संविधान का 351 अनुच्छेद इसी भाव को सुनिर्दिष्ट करता है ।
हिंदी को राजभाषा के रूप में संविधान के अनुच्छेद 343 में स्पष्ट कर दिया गया
है । इसके कार्यान्वयन के लिए भारत सरकार
ने आधिकारिक तौर पर केंद्र सरकार के कार्यालय, उपक्रम तथा बैंकों में इसके प्रयोग को अनिवार्य कर दिया है
। इसके कार्यान्वयन के लिए अनेक निकायों
का गठन किया गया है जो कि निर्विराम हिंदी को सरकारी कामकाज में पूर्णत: प्रयोग
में लाने के लिए सरकारी संगठनों,उपक्रमों और बैंकों को दिशा निर्देश देती है । राजभाषा के कार्यान्वयन के क्षेत्र में सरकार को कुछ हद
तक सफलता प्राप्त हुई है । राजभाषा कार्यान्वयन के अंतर्गत केंद्र सरकार के
कार्यालयों, उपक्रमों और बैंकों में
हिंदी भाषा के शिक्षण, प्रचार और प्रसार का कार्य, संबंधित संस्थाओं के राजभाषा विभागों को सौंपा गया है ।
हिंदी के प्रगामी प्रयोग को कारगर बनाने के लिए राजभाषा विभाग के अधिकारियों और
कर्मचारियों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाता है । राजभाषा के कार्यान्वयन के
निर्धारित मानदंडों के अनुसार कार्यालयी कामकाज में हिंदी का प्रयोग करना अनिवार्य
है। इस दिशा में राजभाषा विभागों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले आंकड़े हिंदी की
संतोषजनक प्रगति की ओर संकेत करते हैं ।
किन्तु खेदजनक स्थिति यह है कि आज भी हिंदी में काम करने के लिए सरकार को
प्रोत्साहन योजनाओं का सहारा लेना पड़ रहा है । कर्मचारी ऐच्छिक रूप से इसे स्वीकार
करने में उत्साह नहीं दिखा रहे हैं ।
सरकारी क्षेत्रों में हिंदी भाषा का स्वरूप भिन्न भिन्न संगठनों में वहाँ
के प्रकार्य के अनुरूप होता है । इस प्रकार्यात्मक विविधता के कारण हर
कार्यक्षेत्र के लिए भिन्न पारिभाषिक शब्दावली और तकनीकी शब्दावली की आवश्यकता
होती है । पारिभाषिक शब्दावली निर्माण के लिए केंद्र सरकार ने ' वैज्ञानिक एवं तकनीकी
शब्दावली आयोग ' का गठन किया है जो
विभिन्न कार्य क्षेत्रों के लिए आवश्यक पारिभाषिक शब्दावली मुहैया कराती है ।
हिंदी में कामकाज करने में सबसे बड़ा बाधक तत्व शिक्षा का माध्यम है । भारतीय
शिक्षा प्रणाली अंग्रेजी प्रधान है । यह गौरतलब है कि स्कूली शिक्षा भले ही
मातृभाषा ( भारतीय भाषा ) माध्यम में उपलब्ध हो जाए किन्तु उच्चशिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा का माध्यम भारत में
अंग्रेजी ही है । देश की अंतराष्ट्रीय छवि के लिए तथा विश्व बाजार से जुडने के लिए
हमारी सरकारों ने भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करके हमारी अपनी भाषाओं के एवज में
अंग्रेजी को तरजीह दी और शनै: शनै:
क्षेत्रीय भाषाओं (मातृभाषा) को
विस्थापित कर अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बना दिया । जाहिर है कि जो शिक्षा का
माध्यम होगा वही कामकाज का माध्यम होगा, ऐसे में इतर भाषा में कामकाज करना कैसे संभव है ? यह अंतर्विरोध हमारे देश
में आज़ादी के समय से ही चला आ रहा है जिसका निदान सरकार आज तक नहीं ढूंढ पाई है
।
अंग्रेजी राज खत्म हो गया, देश में हमने अपनी सरकारें तो बनाईं किन्तु हम उस गुलामी की मानसकिता और तौर-तरीकों
से निजाद नहीं पा सके । अंग्रेजी शिक्षाविदों ने देश में एक भ्रम फैला दिया कि
अंग्रेजी ही सभ्यता की भाषा है, अंग्रेजी ही देशवासियों को सुसभ्य बना सकती है, आधुनिक बना सकती है, ज्ञान-विज्ञान का साहित्य
केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध है इसलिए हमें अंग्रेजी में अपने शिक्षातंत्र को
विकसित करना चाहिए ।
नब्बे के दशक में उठी वैश्वीकरण रूपी सुनामी की उत्ताल तरंगों ने राष्ट्रीय
संस्कृति और सोच को ही निगल लिया ।
बाजारवादी और उपभोक्तावादी नीतियों ने देश की भाषिक अस्मिता को गंभीर रूप से चोट
पहुंचाई है । स्वातंत्र्योत्तर शासन तंत्र
में देश की भाषाई समस्या के प्रति उदासीनता ही दर्शाई है । वोट बैंक की राजनीति ने
हर राजनीतिक दल को राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति असंवेदनशील ही बनाए रखा । हिंदी को
देश की एकमात्र प्रयोजनमूलक भाषा के साँचे में ढालकर उसे भारत की पहचान बनाने में
सभी राजनीतिक दल और उनकी सरकारें विफल रहीं । आज तक हिंदी और भारतीय भाषाओं को
शिक्षा और कामकाज के योग्य रूपायित नहीं किया जा सका है ।यह देश की आम जनता के लिए
भी चिंतन तथा आत्मावलोकन के लिए महत्त्वपूर्ण विषय है ।
भारत राष्ट्रभाषा की समस्या से जूझ रहा है । दिन पर दिन इसे अधिक जटिल बनाया
जा रहा है । राजनीतिज्ञों और सरकारों में राष्ट्रभाषा की समस्या को सुलझाने की दृढ़
इच्छा शक्ति का पूर्णत: अभाव दिखाई देता है । सरकारें इस समस्या से बचना चाहती हैं
। हिंदेतर प्रदेशों और समूहों में हिंदी के प्रति राजनीतिक विरोध का वातावरण जो
बना हुआ है उसे दूर करने की कोशिश हर भारतीय को करना चाहिए । हिंदी और हिंदेतर
समुदायों के मध्य विभेद को मिटाने के लिए हिंदी सीखने और सिखाने के लिए अभियान
चलाने की आवश्यकता है । हिंदी के लिए ' थोपने ' जैसे शब्दों के प्रयोग को स्वीकार नहीं करना चाहिए । जब कि
वास्तव में अंग्रेजी बलपूर्वक योजनाबद्ध तरीके से जनसामान्य पर थोपी गई है, जिसके संबंध में विचार
करने के लिए कोई तैयार नहीं है, यह नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है । संघीय लोक सेवा आयोग की
परीक्षाओं में अंग्रेजी के वर्चस्व पर जब जब सवाल उठता है, आयोग अपनी स्वायत्तता की धौंस जमाकर उसे कुचलकर रख देता है
। संसद बेबस और लाचार है, वहाँ वाद-प्रतिवाद के अलावा कोई समुचित समाधान नहीं मिल
पाता है । सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष इसे
वोट बैंक की राजनीति में परिवर्तित कर अपना पल्ला झाड लेते
हैं । युवा पीढ़ी शिक्षा तंत्र में
सरकार की भाषाई नीतियों से पीड़ित है । मीडिया चैनलों का अंग्रेजी के पक्ष में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विरोध में जनमत
तैयार करने के प्रयास निंदनीय हैं । एक टीवी चैनल चीख चीख कर हल्ला मचा रहा है कि 'प्रशासनिक सेवा ' के प्रत्याशियों के लिए
अंग्रेजी में प्रवीणता अनिवार्य है, इसके बिना वह भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी बनने और
कहलाने योग्य नहीं हो सकता ।
हिंदी के राजभाषा स्वरूप से भिन्न सामान्य हिंदी की स्थिति आश्चर्यजनक रीति से
दिन दूनी रात चौगुनी बेहतर होती जा रही है ।
बोलचाल की सामान्य हिंदी आज स्थानीय रंग में रंगकर हर प्रदेश में अपनी
विशेष पहचान बना रही है । शहरी संभ्रांत बैठक-खानों तक ही सीमित अंग्रेजी को
पछाड़कर हिंदी का व्यावहारिक स्वरूप बहुत तेजी से हिंदी और हिंदेतर क्षेत्रों में
फैल रहा है । हिंदी सिनेमा ने सामान्य हिंदी जिसे सिनामाई हिंदी भी कहा जा सकता है, के प्रचार में बहुत बड़ी
भूमिका निभाई है । हिंदी सिनेमा में भाषिक स्तर पर नित नए आंचलिक प्रयोग
सफलतापूर्वक हो रहे हैं । हिंदी सिनेमा ने भाषिक स्टार पर हिंदी-उर्दू मिश्रित
हिंदुस्तानी, ठेठ हिंदी और उर्दू भाषा
शैलियों को जनसामान्य में लोकप्रिय बनाया ।
सिनेमा के माध्यम से विदेशों में भी हिंदी अपनी पहचान बना चुकी है । देश के भीतर स्थानीय हिंदी लोकप्रिय हो रही है । देशवासी उसे पसंद कर रहे
हैं । बनारसी हिंदी, मद्रासी हिंदी, हरयाणवी हिंदी, पंजाबी हिन्दी, मराठी मिश्रित हिंदी, बंबइया हिंदी, बंगाली-हिंदी आदि को सहजता से पहचाना जा सकता है । आज
हिंदी का अखिल भारतीय स्वरूप स्थानीयता के साथ जुड़ गया है ।
आज हिंदी के प्रति जहां कहीं भी विरोध प्रकट हो रहा है, वह राजनीतिक उद्देश्यों
से संप्रेरित है जिसका समाधान राजनीतिज्ञों को ही करना है । भारतीयता को यदि हम
अपनी अस्मिता मानते हैं तो हमें अपनी भाषाओं को ( मुख्य रूप से हिंदी को )
राष्ट्रीय भाषा के रूप में शिक्षा, कामकाज और बोलचाल में मूल रूप से स्थापित करना होगा । इसके
लिए आवश्यक प्रयास करने होंगे, इसके लिए भाषिक नवजागरण आंदोलन आवश्यकता है । हर हाल में देश में हिंदी की स्वीकार्यता
को अनिवार्य करना होगा ।
डॉ
एम वेंकटेश्वर
पूर्व
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी
एवं भारत अध्ययन विभाग
अंग्रेजी
एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय
हैदराबाद
। मो – 9849048156
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