अरुण यह मधुमय देश हमारा : (1)
एम वेंकटेश्वर
इधर कुछ अरसे से मुझे अरुणाचल प्रदेश में स्थित
राजीव गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से अल्पकालिक अध्यापन के लिए
निमंत्रण आ रहे थे और मैं अपनी अकादमिक व्यस्तताओं के कारण इस निमंत्रण को मानसिक
रूप से स्वीकार करने के बावजूद कार्यान्वित नहीं कर पा रहा था । लेकिन पहली बार भारत
की उत्तरी सीमाओं के प्रहरी इस विस्मयकारी सौदर्यपूर्ण प्रदेश में सन् 2012
के नवंबर महीने में एक सप्ताह के लिए
संकोचपूर्ण अन्यमनस्कता के साथ जब मैंने प्रवेश किया,
तो वह अनुभव अन्य यात्राओं से कई दृष्टियों से नितांत भिन्न और रोचक रहा । आज़ादी
प्राप्त करने के बाद देश में ऐसे भी अंचल और भू प्रदेश हैं,
जो सरकारी तंत्र की इस कदर उपेक्षा का पात्र
हो सकती हैं - देखकर मन भर आया । यही वह इलाका है जिसने 1960-61 में चीन के
आक्रमण का सामना किया था । यहाँ की राजनीतिक अराजकता और प्रशासकीय शिथिलता को देखकर
पर्यटकों को आश्चर्य होता है । सुपरिपालन और
न्यूनतम जनसुविधाओं के अभाव से ग्रस्त
यहाँ के गाँव और कस्बे सरकार की उपेक्षा का दंश आज़ादी के समय से ही झेल रहे हैं । गुवाहाटी से ईटानगर पहुंचने के लिए केवल सड़क
मार्ग ही उपलब्ध है । ईटानगर नियमित विमान और रेल सेवाओं से आज तक वंचित है । दुर्गम पर्वतीय प्रदेश होने के कारण सड़क मार्ग
भी सुगम और सुविधाजनक नहीं है । पर्वतों पर बनी सड़कों पर भूस्खलन की समस्या गंभीर है,
जिस कारण घनघोर वर्षा से अक्सर घाटी प्रांत में
घुमावदार संकरी सड़कें भूस्खलन से अवरुद्ध
हो जाती हैं । इस मार्ग पर जलभराव की स्थिति आम है । सारे राजमार्ग नियमित रखरखाव
के अभाव में जगह जगह पर ऊबड़-खाबड़ कच्चे
रास्तों मे तबदील हो गए हैं । हल्के और भारी
वाहन इन्हीं रास्तों पर आकस्मिक दुर्घटनाओं की आशंका में किसी तरह अपनी मंज़िल तक पहुँचते हैं ।
इस मार्ग पर नदी नालों की बहुतायत से जगह जगह अंग्रेजों के जमाने में निर्मित से छोटे बड़े सँकरे
पुल मौजूद हैं । इनमें से अधिकांश की हालत दयनीय है । इसलिए सरकार की उदासीनता के प्रति लोगों का आक्रोश स्वाभाविक
है । इन्हीं रास्तों से गुवाहाटी से राजीव गांधी यूनिवर्सिटी, ईटानगर
तक की दूरी हमने लगभग बारह घंटों में तय की थी । राजीव गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय वास्तव में
ईटानगर से पहले दोईमुख गाँव में रोनो हिल्स पहाड़ी पर स्थित है । दोईमुख से ईटानगर
की दूरी करीब तीस किलोमीटर की है । रोनो हिल्स एक पहाड़ी है जिस पर प्राकृतिक
सुंदरता के मध्य खूबसूरत सा एक बड़ा सपाट
भूभाग है जहां इस विश्वविद्यालय परिसर को विकसित
किया गया । असम राज्य से अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करने के लिए बंदरदेवा नामक कस्बे
से होकर जाना पड़ता है । यहाँ सैनिक चौकी में लोगों को अपना पहचानपत्र और प्रवेश के
लिए सरकारी अनुमतिपत्र दिखाना पड़ता है । यह चौकी ही अरुणाचल प्रदेश का प्रवेश
द्वार है। अरुणाचल प्रदेश में बाहर के लोगों के लिए स्वच्छंद प्रवेश की अनुमति नहीं है जिस कारण उन्हें विशेष अनुमति-पत्र प्राप्त करना होता है । यह अनुमति
पत्र गुवाहाटी एवं दिल्ली स्थित अरुणाचल प्रदेश के गृह-मंत्रालय के अधिकृत
कार्यालय द्वारा जारी किया जाता है । इस संबंध में मुझे विश्वविद्यालय के
अधिकारियों ने पहले ही आगाह कर दिया था इसलिए
मैं राजीव गांधी विवि द्वारा जारी आधिकारिक पत्र साथ ले आया था । इस पत्र की जांच
के बाद मुझे आगे जाने की अनुमति मिल गई । मुझे यह सब कुछ अजीब सा लगा। साधारणत: विदेशी
प्रदेश में प्रवेश करने के लिए वीज़ा का नियम लागू होता है लेकिन अपने ही देश के
किसी राज्य में प्रवेश करने के लिए ऐसी प्रणाली की मौजूदगी आश्चर्य पैदा करती है ।
वह 2012 का नवंबर का महीना था । मौसम काफी
ठंडा था । राजीव गांधी विवि पहुँचने की मेरी
वह पहली यात्रा थी । मैं हैदराबाद से गुवाहाटी
विमान से पहुंचा था । वहाँ से ईटानगर की यात्रा मुझे सड़क मार्ग से करनी थी
। इस यात्रा के लिए विश्वविद्यालय के मित्रों ने मेरे लिए कार की व्यवस्था कर दी
थी । गुवाहाटी से हमें कोलयाबोरा होते हुए तेज़पुर और फिर वहाँ से ईटानगर की सड़क
पकड़नी थी । गुवाहाटी से तेजपुर तक का सड़क
मार्ग कुछ छुटपुट बदहाली के बावजूद कष्टदायक नहीं लगा । लेकिन उसके बाद सड़कों का
बहुत बुरा हाल नजर आया । जिस कारण हमारी गति बहुत धीमी हो गई । ड्राइवर लाचार था ।
मैं सड़कों की बदहाली के बारे में उससे पूछताछ करता रहा लेकिन उसने केवल धीरज रखने
का उपदेश देकर अपनी गाड़ी को संभालने में लग गया । बातों बातों में मुझे पता चला कि
वह ड्राइवर भी उस रास्ते पर पहली बार जा रहा था इसलिए वह भी दुःखी था । धीमी रफ्तार से चलते हुए हम रात के दस बजे के
आसपास मंज़िल के करीब पहुँचकर रास्ता भटक गए । अरुणाचल में शाम को अँधेरा जल्दी हो
जाता है । शाम होते ही सड़कों पर सन्नाटा छा जाता है और तब भटके हुए राहगीर को रास्ता बताने वाला भी दुर्लभ हो जाता
है । हमें इस संकट से मेरे मित्र डॉ ओकेन लेगो ने उबारा । वे फोन द्वारा हमारा
मार्गदर्शन करते
रहे । अंतिम पड़ाव पर तो वे स्वयं अपनी मोटर– बाईक पर हमारे साथ हो लिए । रोनो हिल्स
के घुमावदार धूल भरे सँकरे पहाड़ी रास्ते पर
ओकेन जी अपनी बाईक पर आगे आगे चलते रहे और हम उनके पीछे उनका अनुसरण करते
करते रात के बारह बजे राजीव गांधी विवि के गेस्ट हाऊस पहुंचे थे । दूसरे दिन से मैंने
विश्वविद्यालय में काम करना शुरू कर दिया । मैंने सप्ताह भर हिंदी के छात्रों के
लिए कुछ विशेष व्याख्यान दिए । उस एक
सप्ताह के प्रवास में मैं विश्वविद्यालय परिसर के बाहर की दुनिया से नहीं जुड़ पाया
। एक सप्ताह के बाद मैं अपने गृहनगर लौट गया ।
संयोग से मुझे उसी विश्वविद्यालय ने मार्च 2013
में पुन: आने का निमंत्रण भेजा, जिसे मैं अस्वीकार नहीं कर सका । मुझे मार्च में तीन सप्ताह के लिए जाना
था । पहली बार के अनुभव ने मुझमें इस
मनमोहक नैसर्गिक सौंदर्ययुक्त प्रदेश के प्रति विशेष भावनात्मक लगाव पैदा कर दिया
था, जिससे मैं मार्च के महीने में गुवाहाटी - ईटानगर मार्ग
की सारी असुविधाओं और विषम स्थितियों के बावजूद
राजीव गांधी विवि परिसर की ओर खिंचा चला आया । पहली बार के अनुभव से मैंने इस
बार काफी अच्छी तैयारी की । कुछ गरम कपड़े भी रख लिए ।
मैं हैदराबाद से
विमान द्वारा बेंगलोर होते हुए सीधा गुवाहाटी पहुंचा, जहां से मुझे विवि द्वारा मुहैया की गयी
कार में फिर वही 400 किलोमीटर लंबा रास्ता
तय करते हुए राजीव गांधी विवि पहुंचना था । इस यात्रा में मुझे नई इन्नोवा कार के
साथ एक युवा उत्साही ड्राइवर का साथ मिला । गुवाहाटी हवाई अड्डे से निकलते ही उसने
कार की रफ्तार तेज़ करके अपने ड्राइविंग कौशल का परिचय दे दिया । वह असमिया भाषी
कार चालक मुझे प्रदेश के भूगोल की विस्तृत जानकारी देता हुआ मेरा मार्गदर्शन करने
लगा । बहुत जल्द मुझे विश्वास हो गया कि वह मनमौजी किस्म का बातूनी व्यक्ति है जो मेरी
इस सुदीर्घ यात्रा को सरस बनाने की हर कोशिश में लगा है । उसने मुझे कुछ कर्णप्रिय
असमिया संगीत से परिचय कराया । हम बहुत तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे । तीन
घंटों तक कार सौ कि मी की रफ्तार से दौड़ती रही । इस बीच मैंने कुछ झपकियाँ ले लीं
। मौसम सुहावना था । असम और अरुणाचल का मौसम मार्च के महीने में खुशनुमा हो जाता
है । हवा में एक खास तरह की नमी थी जिससे बाहर का वातावरण ठंडा मालूम हो रहा था । तेज़पुर हाईवे पर हम चल रहे थे और नौगांव नामक एक
कस्बे के बाहरी इलाके में सड़क किनारे के एक ढाबे में भोजन करने के लिए हम वाहन से
उतरे । हाईवे के उस ढाबे का नाम भी हाईवे ढाबा ही था जिसमें मेरे कार चालक ने
सस्ता किन्तु बढ़िया भोजन खिलाया ।
मैं नई जगहों पर
स्थानीय भोजन और वहाँ की खान-पान की शैलियों की जानकारी लेने में आनंद का अनुभव
करता हूँ । यहाँ के लोग चावल ( भात ) और मछली पसंद से खाते हैं और यही उनका
सामान्य भोजन है । मैं भी मछली पसंद करता हूँ लेकिन उस नई जगह में मछली का सालन
मंगाने मे मुझे संकोच हुआ और इसलिए मैंने दाल
रोटी से ही स्वयं को संतुष्ट कर लिया । हमने अपनी आगे की यात्रा उसी रफ्तार से
शुरू की लेकिन आगे का रास्ता बहुत ही खराब होने के कारण हमारी रफ्तार बहुत धीमी हो
गयी । इस रास्ते में हमें ब्रह्मपुत्र नद को पार करना होता है । मैं इसी की
प्रतीक्षा में था । अपनी पहली यात्रा में मैं ब्रह्मपुत्र के दर्शन नहीं कर पाया
था क्योंकि हम रात के अंधेरे में नदी पार किए थे । इस बार मैं ब्रह्मपुत्र के
दर्शन से नहीं चूकना चाहता था और अभी शाम का काफी उजाला शेष था । तेजपुर में प्रवेश करने से पहले ब्रह्मपुत्र
नद का वह अद्भुत दृश्य दिखाई देता है जिसे देखकर कुछ पलों के लिए सांस थम जाती है
। इसे नद कहें या नदी, इसकी विशालता और इसके पाट की
चौड़ाई विस्मय और भय पैदा करने वाली है। इस नदी पर बना अति विस्तृत चार किलोमीटर
लंबा पुल पार करते समय भीतर से एक सनसनाहट पैदा होती है । यह पुल तेजपुर पुलिस और
भारतीय सेना की देखरेख में है जो इस पुल पर की आवाजाही को नियंत्रित करते हैं ।
पुल पार करते ही काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान का थोड़ा सा हिस्सा कुछ दूर तक चलता है
और फिर हम तेजपुर में प्रवेश करते हैं । तेजपुर असम का महत्वपूर्ण शहर है जहां
फौजी छावनी के साथ साथ सेना का आयुध भंडारागार
स्थित है । तेजपुर सामरिक महत्त्व का शहर
माना जाता है क्योंकि भारत चीन की सीमा यहाँ से निकट होने के कारण किसी भी स्थिति
में तेजपुर सैनिक छावनी से ही अविलंब कार्यवाही की जाती है । इस शहर में चप्पे
चप्पे पर सेना का पहरा है ।
इस बार की मेरी यात्रा
सुखद रही और बिना किसी कठिनाई के मैं अपने गंतव्य तक पहुँच गया। इस बार कुछ नया
नहीं था । विश्वविद्यालय के सभी विभागीय प्राध्यापक पहले ही मेरे मित्र बन चुके
थे। विभाग में
एम ए, एम फिल और पीएच डी के छात्रों से मेरा परिचय पूर्व-सत्र में हो चुका था ।
राजीव गांधी विवि में हिंदी विभाग में प्रति वर्ष 45 छात्रों को प्रवेश मिलता है
जिसमें लड़कियों की संख्या दो तिहाई होती है। यहाँ के छात्रों में मुझे अतिरिक्त
रूप से अध्ययन के प्रति रुचि, उत्साह और एक विशेष तरह का अनुशासन देखने को मिला । इन विद्यार्थियों की
कक्षाओं को पढ़ाने में मुझे एक विशेष प्रकार के आनंद और संतोष का आभास हुआ जो कि
मेरे पूर्व-अध्यापकीय अनुभव से भिन्न
प्रतीत हुआ । अपने प्रवास में मैंने यहाँ के निवासियों के जीवन के सामाजिक,आर्थिक और सांस्कृतिक पक्ष को जानने के उपाय किए । विभागीय साथियों और छात्र-छात्राओं से बातचीत कर
मैंने अरुणाचल प्रदेश के भूगोल, इतिहास और संस्कृति को समझने
का प्रयास किया । इस प्रयास में मेरा एक
तरह से बौद्धिक प्रक्षालन और अनेकों भ्रांतियों का निवारण हुआ । यहाँ निवास करने वाली आबादी में बड़ी
संख्या मुख्य रूप से बाईस जनजातियों की है जिनके जीवन-शैली की विशेषताओं की जानकारी मुझे पहली बार मिली । इन
जनजातीय समुदायों में सामाजिक और सांस्कृतिक भिन्नता होते हुए भी उनमें अरुणाचल की अपनी संस्कृति
को विशेष पहचान दिलाने की उत्कट अभिलाषा विद्यमान है । यहाँ की प्रत्येक जनजाति एक
अलग भाषा समुदाय है । ये भाषा समुदाय अपनी भाषाओं को बचाकर बड़े जतन से इसे संपोषित
कर रहे हैं । आदी, अपातानी, तांग्सा, तागीं, गालो,ईदु-मिशिमी, न्यीशी और नोक्ते इत्यादि कुछ प्रमुख जनजातियों के संबंध में मैंने महत्त्वपूर्ण
जानकारियाँ हासिल की । इनमें से प्रत्येक
जनजाति का रहन-सहन,आचार-विचार, तीज-त्योहार, परंपराएँ , भाषा, पहनावा और
वेश-भूषा अपने मूल रूप में आज भी सुरक्षित
है ।
इस प्रवास में मुझे विभागीय साथियों ने ईटानगर और उसके
आसपास के इलाकों का भ्रमण कराया । ईटानगर में पहाड़ी पर एक खूबसूरत उद्यान में स्थित बौद्ध मठ देखने का
पहला अवसर मुझे यहाँ प्राप्त हुआ जिसकी स्थापना दलाईलामा ने की थी । आज वहाँ दूर
दूर से बौद्ध भिक्षु आकार ध्यान करते हैं । कुछ महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रन्थों का
संग्रह भी वहाँ सुरक्षित है । उसी क्रम में ईटानगर के सुविख्यात जनजातीय संग्रहालय
को देखने का सुअवसर मुझे मिला । इस
संग्रहालय में अरुणाचली जनजातियों की उद्भव काल से आज तक की पारंपरिक पोशाकें, उनके हथियार,
खाने-पीने और पकाने के बर्तन इत्यादि को संग्रह करके रखा गया है । ये कला-वस्तुएँ यहाँ की सभ्यता और
उनकी विरासत को सुरक्षित रखे हुए हैं । इस संग्रहालय में विभिन्न जनजातियों की धार्मिक
प्रथाओं और रीति-रिवाजों की झाँकियाँ, उनके काम के औज़ार और
शिकार तथा युद्ध के अस्त्र-शस्त्र आदि प्रदर्शित किए गए हैं । यह अपने आप में एक
अनूठा और विरला संग्रहालय है जो यहाँ की कला और संस्कृति का आईना है । ईटानगर इस
राज्य का राजधानी नगर है ।
पर्वतीय क्षेत्र होने
के कारण यह शहर सीढ़ीनुमा भूमि पर निर्मित हल्के- फुल्के एक-मंज़िले मकानों
में बसा हुआ है । पहाड़ों के ढलान पर सीढ़ियों की अनेक परतों में बसा यह छोटा सा शहर दूर से खिलौनों के ढेर दिखाई देता है । इसमें एक विचित्र आकर्षण निहित है जो
पर्यटकों को बरबस यहाँ खींच लाता है । यहाँ का प्रकृतिक सौन्दर्य अकलुषित और
स्वच्छ है । यहाँ पर्यटन-उद्योग को संवर्धित करने की संभावनाएँ अनंत हैं ।
ध्यातव्य है कि ईटानगर के लिए अभी तक नियमित विमान सेवा उपलब्ध
नहीं है । अति विशिष्ट ऊंचे ओहदे के सरकारी अफसरों की सुंदर कोठियां यहाँ पहाड़ों
पर बनी हैं जो दूर से आकर्षक दिखाई देती हैं । ये दृश्य दूर से चित्रात्मक और मनोहारी
लगते हैं । अरुणाचल प्रदेश और असम के कुछ हिस्से तीव्र भूकंपीय क्षेत्र के अंतर्गत
आते हैं इसलिए इस प्रदेश में मकान
इकमंज़िला ही होते हैं । यहाँ के रिहाइशी मकानों में लकड़ी और टीन के साथ हल्की
सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है । मकानों के छत त्रिकोणीय ढलान वाले होते
हैं जिससे वर्षा का जल आसानी से नीचे बह जाए । असम और अरुणाचल
प्रदेश का बड़ा हिस्सा चाय बागानों से भरा है । मीलों दूर तक मुख्य मार्ग के दोनों
ओर चाय के सुंदर दो फुट ऊंचे पौधे एक विशेष आकार के दिखाई देते हैं जो देखने में
बहुत ही आकर्षक होते हैं । चाय के ये पौधे
एक ही ऊँचाई में बढ़ते हैं और इनकी कोमल ( कोंपलों )पत्तियों को स्थानीय औरतें अपनी
रंग-बिरंगी पारंपरिक पोशाक ( गाले ) पहने
सुकोमल नाज़ुक उँगलियों से विशेष निपुणता के साथ हल्के से तोड़कर पीठ पर बंधे
हुए विशेष आकार की लंबी टोकरियों में पीछे
की ओर डालती जाती हैं । ये उँगलियाँ खास तरह के पके हुए और एक खास रंग की पत्तियों को ही तोड़ती हैं । इन बागानों में स्थानीय
औरतें अपनी रंग-बिरंगी पारंपरिक पोशाक में चाय पत्तियों को तोड़ती हुई दूर से सुंदर
और आकर्षक दिखाई देती हैं । ये ही दृश्य हमें फिल्मों में दिखाई देते हैं । मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए इस
तरह के दृश्य मनमोहक होते हैं । मैं जगह जगह गाड़ी रोककर इन दृश्यों को निहारता और
फिर आगे बढ़ जाता ।
राजीव गांधी विवि में मेरा इस बार का प्रवास मुझे भावनात्मक
धरातल पर अरुणाचल प्रदेश के अधिक निकट ले
गया । मेरे भीतर इस प्रदेश के निवासियों के प्रति भावुकतापूर्ण सहानुभूति और
आत्मीयता का भाव जाग उठा । यह गौरतलब है कि अरुणाचल प्रदेश की राजभाषा अंग्रेजी है
और संपर्क भाषा हिंदी । अपनी निजी जनजातीय भाषाओं के साथ यहाँ के निवासियों में
हिंदी के प्रति विशेष प्रेम और लगाव है । बोलचाल में हिंदी का प्रयोग यहाँ
स्वैच्छिक रूप से होता है, जिसे देखकर मुझे सुखद आश्चर्य और
प्रसन्नता हुई । विवि परिसर में हिंदी लोकप्रिय है, सार्वजनिक
स्थानों में हिंदी ही सुनाई देती है और लोग हिंदी में बातचीत पसंद करते हैं । परिसर
में सभी छात्र आपस में अपनी जनजातीय भाषाओं का इस्तेमाल करते हैं किन्तु अन्य
लोगों के साथ हिंदी में व्यवहार करते हैं । यहाँ बोलचाल की हिंदी स्थानीय रंग और
शब्दों के साथ विशेष लहजे में सुनाई देती है, जो पहले तो
थोड़ी अटपटी लगती है लेकिन धीरे धीरे कर्णप्रिय हो जाती है । इसका कारण यहाँ के लोगों की सरलता और उनका
निश्छल मन है ।
इस विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग विशेष उल्लेखनीय है
क्योंकि यहाँ स्नातकोत्तर स्तर का पाठ्यक्रम देश के अन्य प्रमुख विश्वविद्यालयों
में चालू पाठ्यक्रमों की तुलना में गरिष्ठ दिखाई देता है । मुझे यहाँ के पाठ्यक्रम
को पढ़ाने में विशेष आनंद का अनुभव हुआ। विशेषकर छात्रों की अनुशासनपूर्ण ग्राह्य
शक्ति प्रशंसनीय है । शहरी
माहौल से दूर प्रकृति की रमणीयता के मध्य स्थित होने के कारण इस परिसर में केवल
अध्ययन और अध्यापन के कार्यकलाप ही संभव हैं । विश्वविद्यालय में बड़ी संख्या में अतिथि
प्राध्यापक आमंत्रित किए जाते हैं जो यहाँ के छात्रों के लिए अपनी सेवाएँ प्रदान
करते हैं ।
विश्वविद्यालय का गेस्ट हाऊस प्रांगण स्वच्छ साफ सुथरा और
सुंदर पृष्ठभूमि में बना हुआ है । इसमें न्यूनतम सुविधाएं अतिथियों के लिए उपलब्ध
हैं । मैं भी अपने प्रवास के दिनों में यहीं ठहरता हूँ । यहाँ के कर्मचारी और अन्य
परिचारक गण सौम्य और सौहार्द्र पूर्ण हैं । ये सभी अपने अतिथियों की देखभाल आत्मीय
भाव से करते हैं । समूचे विश्वविद्यालय परिसर
में महिला कर्मियों की संख्या अधिक है । इस प्रदेश में महिलाएं पूरी तरह आत्मनिर्भर
हैं । गेस्ट हाउस में सेमसन, कृष्णा और कृष्णा - ये लोग रसोईघर के कामगार
हैं । ये सभी मेरे आत्मीय हो गए हैं । मेरे प्रति उनका व्यवहार विशेष आत्मीयता भरा
है । जिससे मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि वे मुझे पसंद करते हैं ।
यहाँ परिसर का प्रात:कालीन दृश्य मनोहारी और रमणीय होता है
। सुदूर उगते सूरज की हल्की उजियारी किरणें देखने के लिए मैं पाँच बजे उठकर गेस्ट
हाऊस के फाटक तक पहुंचता हूँ, सुबह की ताजी ठंडक गालों को छूकर नम कर देती है । कुछ दूर यूं ही पैदल चलने
लगता हूँ । सामने खुला मैदान है, जिसमें सुबह टहलने वाले स्त्री-पुरुष रंग बिरंगे शाल और
अन्य ऊनी आवरण ओढ़े, चहलकदमी करते हुए दिखाई देते हैं । मैं
उस मैदान का एक चक्कर लगाकर लौट आता हूँ । यह सिलसिला मैं कुछ ही दिन जारी रख पाया
। बढ़ती ठंड ने मुझे सुबह के समय बाहर नहीं निकलने दिया और देर सुबह तक गर्म बिछौने से चिपके रहने का लोभ संवरण मैं नहीं कर
पाया ।
राजीव गांधी विश्वविद्यालय परिसर में प्रवास के दिनों में
मैं अपनी दिनचर्या को कुछ नए सिरे से रूपायित करने लगा क्योंकि यहाँ मेरा अध्यापकीय
कार्य बहुत आसान था । यहाँ सुबह 9.30 बजे
से मध्याह्न 2 बजे तक कक्षाएँ चलतीं हैं । मेरे लिए आबंटित विषयों का अध्यापन कर
मैं दोपहर दो बजे के आसपास गेस्ट हाउस की राह लेता । हमारा विभाग गेस्ट हाऊस से
नजदीक ही है इसलिए मुझे यहाँ किसी वाहन की जरूरत नहीं पड़ती है । गेस्ट हाऊस
पहुँचकर कभी-कभार दोपहर का भोजन करता या फिर यूं ही कुछ हल्का-फुल्का खाकर काम चला
लेता । मेरी शामें अकेले गुजरतीं । सामने के मैदान के दूसरी छोर पर एक छोटा सा काम
चलाऊ कैंटीन है जहां शाम को पराठे अच्छे मिलते हैं । वहीं जाकर रोज शाम को दो पराठे खा लेता । कुछ
दिनों में उस कैंटीन की मालकिन से मेरा परिचय हो गया, फिर यह परिचय दोस्ती में
बादल गया । इसका
आभास मुझे उसके व्यवहार में दिखाई देने लगा था । मेरा वह विशेष ख्याल रखने लगी ।
शाम को मेरे देर से पहुँचने पर भी मेरे लिए वह कुछ न कुछ खाने के लिए बचाकर रखतीं
। मैं उसके घर का हालचाल पूछता । कभी कभी मैं उस अधेड़ उम्र की स्नेहिल औरत को
ध्यान से देखता । उसके नैन नक्श, सपाट नाक और गोल चेहरे में सुंदर लगते थे । कैंटीन चलाने का उसका कौशल और
उसकी व्यावहारिकता मुझे बांधे रखती । उस औरत के तीन बच्चे हैं जो कैंटीन में उसके
काम में मदद करते हैं और साथ ही ईटानगर
में पढ़ते भी हैं । उस के पति भी कभी कभी
नजर आ जाते । उनसे भी मेरी दोस्ती हो
गई । अब रोज शाम को
वे मेरा इंतजार करते । उस कैंटीन के पराठों से मेरा रागात्मक संबंध स्थापित हो गया
। बीच में कभी कभी मुझे ‘मैगी’ भी बनाकर
दे देते वे लोग । इधर गेस्ट हाऊस में मेरे न खाने से वहाँ के लोग थोड़ा खिन्न हुए
लेकिन जब मैंने अपनी मजबूरी बताई कि मुझे गेस्ट हाउस का भोजन नहीं भाता है तो
उन्होने मेरे प्रति सहानुभूति दर्शाई और मेरी उस गुस्ताखी को माफ कर दिया ।
शनिवार और रविवार के दो दिन छुट्टी के होते हैं । इन दिनों
में मैं अकेले आसपास की जगहों को देखने के लिए निकल पड़ता और पैदल ही परिसर के
भीतरी इलाकों में झांक आता । परिसार का अधिक हिस्सा रुद्राक्ष और बांस के जंगल से
भरा पड़ा है । यहाँ बांस की कई नस्लें उगती हैं जिनकी लंबाई बहुत ज्यादा होती है ।
इनमें मोटे और पतले दोनों तरह के बांस होते हैं जो ज़्यादातर यहाँ के लोगों के घर
बनाने के काम आते हैं । स्थानीय लोग बांस से निर्मित घरों में ही सुखी जीवन बिताते
हैं । ये घर जमीन से कोई दो फुट की ऊचाई
पर बांस से निर्मित चौकोर आकार के मंच पर बनाए जाते हैं । घरों के फर्श भी बाँसों
को जोड़कर बनाया जाता है । साधारण और
संपन्न, दोनों तरह के लोगअपना जीवन
इन्हीं बांस निर्मित घरों में रहकर बिताते हैं । इन घरों की बनावट में यहाँ की
संस्कृति मुखर होती है । यहाँ के घर अरुणाचली ( जनजातीय ) परंपरा में बनाए जाते
हैं । घर के केंद्रीय हिस्से में एक चौकोर
सा बड़ा कक्ष होता है जिसके बीचो-बीच एक छोटा सा अग्निकुंड हमेशा जलता रहता है ।
शीत प्रदेश होने के कारण यही समूचे घर में उष्णता फैलाता है । घर के लोग इसी के
चारों ओर इकट्ठे होकर भोजन आदि करते हैं ।
यहाँ के लोग शत-प्रतिशत मांसाहारी होते हैं । बाहरी मेहमान के लिए विशेष व्यवस्था की जाती है । यहाँ के लोगों
में अतिथि सत्कार की भावभीनी परंपरा मन को छू लेती है । इस अग्निकुंड के एक ओर
मेहमान को बिठाया जाता है । मेहमान के बैठने की दिशा निश्चित होती है । शाकाहारी
भोजन के लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है । मैं यहाँ शाकाहारी ही रहा । यहाँ के
भोजन में गाय,सूअर, बकरा और मुर्गी का मांस
ज़्यादातर इस्तेमाल किया जाता है । ‘ मिथुन’ अरुणाचल प्रदेश का एक लुप्तप्राय जानवर है जिसे अरुणाचली सभ्यता में
पवित्र माना जाता है और विशेष अवसरों पर इसकी बलि दी जाती है । मुझे पता चला कि
इसका मांस बहुत स्वादिष्ट और महंगा होता है । इन दिनों इसके शिकार पर रोक लगी हुई
है । यह दिखने में गाय या भैंस जैसा ही होता है ।
दोईमुख से निरजुली होते हुए नाहरलागन के रास्ते जब हम
उन्हीं पहाड़ी ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर होते हुए कुछ चढ़ाई पर पहुँचते हैं तो वहाँ चारों
ओर बांस के जंगल में छिपी झील के दर्शन होते हैं । यह ‘गंगा झील ‘ कहलाती है और सैलानियों के प्रमुख आकर्षण का
केन्द्र मानी जाती है । इसकी प्राकृतिक बनावट ज्वालामुखी पर्वत से निर्मित क्रेटर
की याद दिलाता है । जमीन की सतह से बहुत गहरे नीचे बड़े कटोरे के आकार का यह झील
अपनी प्राकृतिक छटा के लिए मशहूर है । इसमें नौका विहार की सुविधा भी उपलब्ध है ।
गर्मियों में यहाँ सैलानियों की तादाद बढ़ जाती है । यहाँ पहुँचने के लिए सार्वजनिक
परिवहन के अभाव में प्रकृति प्रेमियों को निजी साधन जुटाने पड़ते हैं । मेरे तो मार्गदर्शक ओकेन लेगो साथ थे जिनके पास पहाड़ी
प्रदेश के दुर्गम रास्तों को तय करने के लिए बड़ी मारुति बोलेरो कार उयापलब्ध थी । यह
हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई । उस दिन विभाग के अन्य मित्र अमरेन्द्र जी भी
हमारे साथ थे । ओकेन जी ने मुझे अपनी इस गाड़ी में आसपास के दर्शनीय स्थलों का
भ्रमण कराया । मैं उनकी सज्जनता का कायल
हूँ । एक रात स्वयं भोजन बनाकर उन्होने मुझे अपने घर आमंत्रित किया । वे विश्वविद्यालय के क्वार्टर में अपने छोटे
भाई को पढ़ाने के लिए साथ रखे थे । उनके माता-पिता और पत्नी गाँव में रहते हैं ।
अपने अध्यापन के दौर में मैं अपने छात्रों से वहाँ के रीति
रिवाजों के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल करने की कोशिश करता रहा । मेरे सभी
छात्र जिसमें लड़कियां ही अधिक हैं, बहुत ही सद्भाव के साथ मेरे सवालों का जवाब देते । गोल गोल चेहरों में
सपाट नाक के दोनों ओर दो छोटी छोटी आँखें खुले सीप सी दिखाई देतीं जिनमें आँखों की
पुतलियाँ जैसे मोती के दाने हों । गौर वर्ण की ये लड़कियां अपनी सादगी और
सम्मानपूर्ण व्यवहार के लिए मुझे सदा याद रहेंगी ।
उन दिनों ‘ ओकेन लेगो ‘ हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे । अवकाश के
समय हमारी लंबी बातचीत होती । वे मेरी जिज्ञासाओं को अच्छी तरह पहचानते थे ।
इसीलिए बहुत ही संयम से वे मुझे अरुणाचली समाज, वहाँ के मूल
निवासी जनजातियों की सामाजिकता आदि को समझाते चलते । मेरे प्रति उनका आदर और स्नेह
का भाव मुझे विचलित कर देता । ओकेन जी स्थानीय प्राध्यापक हैं इसलिए उन्हें अपने
विभाग और छात्रों के भविष्य की अतिरिक्त चिंता है जिस कारण वे विभाग में अकादमिक
वातावरण के विकास के लिए प्रति पल सक्रिय रहते हैं । वे अपने छात्रों को अद्यतन
ज्ञान दिलाने के लिए देश के मुख्य भू भाग से अधिक से अधिक विद्वानों आमंत्रित करते
हैं । राह की दुर्गमता और सुविधाओं के अभाव के कारण मुख्य भू भाग से शैक्षिक जगत के प्रमुख
लोग यहाँ आने के लिए संकोच करते हैं । मेरे भीतर का जीवट इंसान ऐसी ही स्थितियों
में अपना सर्वश्रेष्ठ देने के जुनून में दर-बदर भटकता है । दुर्गम यात्राएं सदैव
मेरे लिए चुनौती और आकर्षण का केंद्र रहीं हैं । फिर पढ़ाने में मुझे जो आनंद मिलता
है उसे साधारण शब्दों में बयान करना मेरे लिए मुश्किल है । नागार्जुन, अज्ञेय, यशपाल और राहुल सांकृत्यायन की यायावरी
मुझे हिम्मत और सांत्वना देती है । राहुल सांकृत्यायन जब एकाधिक बार नेपाल की पैदल
यात्रा कर सैकड़ों बौद्ध ग्रन्थों का खजाना पटना तक ढोकर ला सकते
थे तो मैं क्या हूँ – इन दिग्गजों के सम्मुख । हाँ, लेकिन
वैसा ही कुछ कर गुजरने का हौसला जरूर मौजूद है मुझमें, इसीलिए
सेवा निवृत्ति के बाद भी मैं काम की तलाश में रहा हूँ । ‘
जमुना बीनी ‘ यहाँ की महिला प्राध्यापक हैं जिनसे मेरी
अकादमिक वार्ता के साथ साथ हिंदी अंग्रेजी कथा साहित्य पर विषद चर्चा होती थी ।
हिंदी साहित्य के प्रति उनकी लगन और उनका श्रमपूर्ण अध्ययन मुझे काफी प्रेरित कर
गया । हैदराबाद में दो साल पहले एक पुनश्चर्या पाठ्यक्रम
में मैंने हिंदी और विदेशी कथा साहित्य की चर्चा की थी । उसी समय मारग्रेट मिशेल
द्वारा रचित वृहत्काय अंग्रेजी उपन्यास ‘ गान विथ द विंड’ ( Gone with the Wind ) का जिक्र किया था
और इसे पढ़ने की सलाह दी थी । मुझे सुखद आश्चर्य तब हुआ जब जमुना बीनी ने मेरे
सुझाव पर इस उपन्यास को अंग्रेजी में पढ़ा और इसे सराहा । हम दोनों इस उपन्यास में
वर्णित अमेरिकी गृह युद्ध की स्थितियों और उपन्यास की नायिका ‘स्कारलेट ओहारा ‘ की चारित्रिक विशेषताओं पर काफी
देर तक बतियाते रहे । उपन्यास के नायक ‘ रिट बट्लर’ के प्रति हम दोनों समान रूप से सम्मोहित नजर आए । मुझे उस सुदूर पर्वत
प्रदेश में अपने सम-वैचारिक साथी को पाकर बेहद खुशी
हुई । मुझे ताज्जुब इस बात का हुआ कि इतनी सामाजिक और सांस्कृतिक
और भौगोलिक दूरियों के बावजूद भी साहित्य के आस्वादन में ये कैसी समदृश्यता है । इस
तरह का कौतूहल और नई चीजों को पढ़ने की ललक मैंने वहाँ के छात्रों में देखी । यह
मेरे लिए सुखद अनुभव था ।
इस भूभाग में महिलाओं की आत्मनिर्भरता एक मिसाल है ।
अरुणाचली महिलाएं पुरुष समाज पर निर्भर नहीं होतीं । सभी महिलाएं काम काजी होती
हैं । वे खेतीबाड़ी से लेकर कार्यालयी काम काज तक कुशलतापूर्वक संपन्न करने की
क्षमता रखती हैं । यहाँ एक चौंका देने वाला सत्य मेरे सामने आया । इस समाज में महिलाओं
के प्रति हिंसा और बलात्कार की घटनाएँ नहीं के बराबर हैं । महिलाएं आत्मरक्षा में पूरी तरह से सक्षम हैं ।
स्त्री-पुरुष संबंध नितांत व्यक्तिगत होते हैं । कोई बाहरी व्यक्ति इसमें दखल नहीं
कर सकता । लड़कियों के विवाह उनकी पसंद से किए जाते हैं । स्त्री-पुरुष मित्रता वर्जित नहीं है । स्त्रियॉं
को शिक्षा से वंचित नहीं रखा जाता । यहाँ का समाज कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य
अपराधों से दूर है । इस प्रदेश में महिला सशक्तीकरण की स्थिति देश के मुख्य भूभाग से
काफी बेहतर दिखाई देती है । किन्तु एक कटु सत्य का सामना हमें यहाँ भी करना पड़ेगा, और वह है गरीबी का । गरीबी में भी यहाँ की
आम आबादी खुश है । भारत सरकार से अपेक्षाएँ अनंत हैं लेकिन ये कभी पूरी नहीं होंगी
– इसका भी अहसास इन लोगों को है ।
राजनीतिक स्थितियाँ सारे देश की एक जैसी हैं तो यहाँ यह कैसे भिन्न हो सकती है । भ्रष्टाचार
और अपराधीकृत राजनीति का यहाँ भी बोलबाला है । भ्रष्टाचारी व्यवस्था से यहाँ के आम लोग भी उसी तरह त्रस्त हैं जैसे
मुख्य भू भाग के लोग । समूचे उत्तर पूर्व में सक्रिय राजनीति में छात्रों की
भागीदारी असरदार है । असम और अरुणाचल प्रदेश में छात्र संगठन राजनीतिक स्तर पर
बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली हैं ।
मुझे डॉ ओकेन लेगो के सौजन्य से राजीव गांधी विश्वविद्यालय
के कुलपति प्रो तामो मिबांग से भेंट करने का सुअवसर प्राप्त हुआ । वह मेरे प्रवास का आखिरी दिन था, जब मेरा परिचय ओकेन जी ने कुलपति महोदय से
उनके कार्यालयी कक्ष में कराया । ‘ इतिहास’ विषय के विद्वान ‘ आदि ‘
जनजाति के प्रो तामो मिबांग हमसे बहुत ही सहज भाव से मिले। बातचीत में हिंदी के
प्रति उनका गहरा प्रेम स्पष्ट झलक रहा था
। ओकेन जी ने मेरे बारे में पहले ही उन्हें अवगत करा दिया था इसलिए वे मुझे ‘ सेलिब्रिटी ‘ के रूप में ही देख रहे थे । मैं उनकी
स्नेहिल आत्मीयता से अभिभूत हो रहा था ।
उन्होंने आग्रहपूर्वक हमारे लिए कॉफी
मंगाई जिसे हम शिष्टतावश मना नहीं कर सके और संकोच के साथ हमने उसे ग्रहण किया । उस विश्वविद्यालय में हिंदी
के अध्ययन-अध्यापन और शोध के स्तर में वृद्धि के उपायों को जानने के लिए वे उत्सुक
थे । मैंने अपनी ओर से कुछ सुझाव दिए जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया । लगभग बीस
मिनट की हमारी वह भेंट मेरे लिए चिरस्मरणीय बन गई । ऐसे सरल और निराडंबर कुलपति से
भेंट करने का यह मेरा प्रथम अवसर था ।
वक्त कभी किसी के लिए नहीं थमता । मेरे तीन सप्ताह पूरे
होने को आ रहे थे । मुझे घर लौटने की जल्दी
थी । वहाँ की एकरसता ने धीरे धीरे मुझमें ऊब पैदा कर दी । दिन में मन लग जाता लेकिन शाम को मुझे उदासी घेर
लेती । पढ़ने में अधिक से अधिक समय बिताता लेकिन फिर भी घर की याद सताती । फिर इतने
सारे लोग मेरे साथ जुड़े हुए हैं जिनकी दूरी खलती थी ।
मेरे इस प्रवास में यहाँ विभाग में मैंने इक्कीस दिन
अध्यापन का कार्य किया । मैं समझता हूँ की छात्र मेरे अध्यापन से लाभान्वित हुए ।
मैंने भारतीय साहित्य, हिन्दी कहानी, उपन्यास और शोध प्रविधि जैसे विषयों को लगन और मेहनत के साथ पढ़ाया । यहाँ
सबका व्यवहार मेरे प्रति सौहार्द पूर्ण
रहा । फिर अगले सत्र में आने का वादा करके मैं अपने गृहनगर के लिए वापस चल पड़ा ।
एम
वेंकटेश्वर
No comments:
Post a Comment