अराजकतापूर्ण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की आक्रोश से भरपूर
फिल्मी अभिव्यक्ति : ' चक्रव्यूह '
- एम वेंकटेश्वर
स्वातंत्र्योत्तर भारत की बढ़ती
हुई पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था और भ्रष्ट
राजनीतिक दांव पेंचों में उलझी हुई,
अपनी ज़मीनों से बेदखल जंगली
प्रदेशों में निवास करने वाली नि:सहाय जनता
के आर्तनाद की कथा है ' चक्रव्यूह ' । भ्रष्ट शासन और पुलिस के अत्याचार की बेबाक कहानी
को फिल्म के माध्यम से प्रस्तुत करने का श्रेय प्रकाश झा को जाता है । प्रकाश झा के ' चक्रव्यूह ' ने अपने सशक्त कथ्य को बेबाक शैली
में प्रस्तुत करने में सफलता हासिल की है । इधर हिन्दी में राजनीतिक रोमांच ( पोलिटिकल थ्रिलर ) की एक नई
फिल्म - विधा लोकप्रिय होने लगी है
। गेंग्स आफ वासेपुर ( भाग 1 और 2 ),
शंघाई, पान सिंह तोमर जैसी फिल्मों ने वर्तमान हिन्दी
फिल्मों की जड़ता और एकरसता को भंग कर सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की झंझावाती और
तीखी अभिव्यक्ति के लिए एक नई जमीन तलाशी है । प्रकाश झा की पूर्ववर्ती
फिल्में देश में बड़े पैमाने पर व्याप्त राजनीतिक भ्रष्टाचार को बेपरदा करने में
निरंतर कामयाब हुई हैं । भ्रष्ट राजनेताओं
के जाल में फंसी पुलिस व्यवस्था को
बेनकाब करने के लिए ' गंगाजल ' जैसी फिल्म बनाई । उन्होने
' अपहरण ' के माध्यम से देश के कारागारों मे व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा किया । इन कारागारों
में सजायाफ्ता कैदी, जुर्म के माफिया डॉन, वहीं से अपने जुर्म और फिरौतियों का साम्राज्य चलाते
हैं - जो कि आज एक सच्चाई है । अपराधीकृत
राजनीति का पर्दाफाश, प्रकाश झा ने ' अपहरण '
फिल्म के द्वारा किया है, जिसे सराहा गया । इसके बाद प्रकाश
झा की ही एक और फिल्म आई - ' आरक्षण '
। इस फिल्म ने
देश मे व्याप्त सामाजिक असमानता के प्रश्न पर
गंभीरता से विचार किया । प्रकाश झा ने पिछड़े और दलित वर्गों के लिए शिक्षा और
रोजगार के क्षेत्र में संविधान में उल्लिखित आरक्षण के प्रावधान की समीक्षा इस
फिल्म में प्रस्तुत की है, साथ ही देश में बढ़ती हुई कारपोरेट
शिक्षण संस्थाओं के वर्चस्व पर एक प्रश्नवाचक चिह्न भी लगया गया और इनके औचित्य पर
सवाल उठाए गए । आज देश में कार्पोरेट
शिक्षा संस्कृति बड़ी तेज़ी से पनप रही है । ये कारपोरेट शिक्षण संस्थाएं समाज के
केवल धनी वर्ग को शिक्षा उपलब्ध करा रही
हैं । समाज का बहुत बड़ा वर्ग जो कि
निर्धन और दमित और दलित है वह ऐसी सुविधाओं से वंचित है । उसे आरक्षण के नाम पर
केवल अपमान और तिरस्कार ही सहना पड़ता है ।
इस फिल्म में आरक्षण की समस्या का समाधान ढूँढने का प्रयास किया गया है । ' आरक्षण '
से उत्पन्न परिणामों की भी पड़ताल इस फिल्म
में की गयी है । ' आरक्षण ' सार्थक फिल्म के रूप में हिन्दी सिनेमा
में अपनी पहचान बनाने में सफल हुई है ।
' आरक्षण ' के बाद प्रकाश झा ने 'राजनीति ' बनाई जो कि शिथिल कथा वस्तु और
दोषपूर्ण संपादन के कारण असफल रही । प्रकाश झा के नाम पर इसके लिए दर्शक तो जुटे ही किन्तु उन्हें निराशा ही हाथ
लगी । धृतराष्ट्र और कर्ण के
रूपकों ने 'राजनीति ' को उबाऊ बना
कर रख दिया । शिथिल कथा-वस्तु के साथ दिशाहीन पटकथा ने बाकी काम तमाम कर दिया ।
प्रकाश झा सदा से ही सार्थक और
समानान्तर फिल्मों के निर्माण एवं निर्देशन के लिए जाने जाते हैं । उनकी ' दामुल 'से
लेकर 'चक्रव्यूह' 'तक की सभी फिल्में सामाजिक सरोकार और राजनीतिक यथार्थ को संवेदनात्मक दृश्य
शैली में प्रस्तुत करती हैं । बिहार और उत्तर भारत के आंचलिक जीवन को जमीन से
जोड़कर उन प्रदेशों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विसंगतियों का
चित्रण करने में प्रकाश झा ,बहुत प्रभावशाली हैं। शासन-तंत्र
में व्याप्त भ्रष्टाचार को निर्भीक होकर चित्रित करने में उनकी बराबरी
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करने वाले फ़िल्मकार बहुत ही कम हैं । शोषण और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध
प्रकाश झा ने सदैव अपनी आवाज़ उठाई है ।
अपनी बात कहने के लिए उन्होने
उपयुक्त कथावस्तु और परिवेश के साथ साथ अनुकूल पात्रों और कलाकारों का चयन किया है
। उनकी सारी फिल्म यूनिट में अद्भुत तालमेल होता है । पटकथा बहुत ही सशक्त होती है
जिसका रूपांतर जब सेल्यूलाइड पर होता है तब 'चक्रव्यूह ' जैसी सशक्त
चैतन्यवान फिल्म बनती है ।
' चक्रव्यूह ' की प्रतीक्षा प्रकाश झा के प्रशंसकों को काफी लंबे
अरसे से रही । इस फिल्म की शूटिंग के दौरान ही इसके ' प्रोमो' जारी किए गए । टीवी और समाचार पत्रों में इस फिल्म
के कथानक की चर्चा हुई । फिल्म के रिलीज़
होने से पहले ही ' चक्रव्यूह '
के प्रति दर्शकों में उत्साह और
प्रतीक्षा दोनों दिखाई दिए । फिल्म के
शीर्षक ने प्रतीक्षित दर्शकों के मन में कौतूहल उत्पन्न किया । इस बार ' चक्रव्यूह ' में प्रकाश झा ने देश के अनेक प्रान्तों में व्याप्त नक्सलवाद की ज्वलंत
समस्या को अपने फिल्म का विषय बनाया । आज
देश के कई राज्यों में नक्सली एवं माओवादी आंदोलन हिंसात्मक रूप धारण किए हुए है, जिसका स्थाई समाधान तलाशने में सरका आज तक विफल रही है । इस समस्या से एक राजनीतिक
गतिरोध की स्थिति पैदा हो गयी है । जंगलों
में बसे हुए जनजातियों को बेदखल कर उनकी ज़मीनों को अवैध तरीकों से छीनकर, वहाँ की वन्य संपदा और बहुमूल्य खनिज संपदा का अवैध
खनन करने के लिए सरकार और पूँजीपतियों की साँठ गांठ आज की सच्चाई है । जब जब इस अन्याय के विरोध में वन्य निवासियों
की आवाज़ अधिकार के लिए उठती है तो सरकारी तंत्र दमनकारी नीतियों से पुलिस की बेरहम
बंदूक की गोलियों से उस आवाज़ को खामोश करने की विफल कोशिश करती है । आज देश
के वन्य
प्रदेश स्थानीय ग्रामीण जनों के खून से लहू लुहान हो गया है । इन प्रदेशों
में पूँजीपतियों के द्वारा और विध्वंस का तांडव
अपने चरम पर है । आज देश के अनेक प्रांत इस चक्रव्यूह की चपेट में आ गए हैं , जहां रात दिन गोलियां चलती हैं । पुलिस के निर्मम नर संहार, बलात्कार और अत्याचारों से वहाँ के लोग परेशान हैं । पुलिस और माओवादियों के
बीच मुठभेड़ बरसों से जंगलों में जारी है । एनकाउंटर के नाम पर चुन चुनकर
आन्दोलंकारी नेताओं की गिरफ्तारी और
उनकी निर्मम हत्या जारी है ।
इसीलिए माओवादियों का विश्वास इस व्यवस्था
से उठ गया है । किन्तु माओवादियों और नक्सलवादी
दलों को नेस्तनाबूद करने की मुहिम को अंजाम देने के लिए सरकार कृत संकल्प है ।
माओवादियों और सरकार के इसी टकराहट को '
चक्रव्यूह ' प्रस्तुत करती है ।
इस फिल्म में पुलिस, सरकार ( सत्ता पक्ष ) और नक्सली समुदायों के मध्य
टकराव के त्रिकोण को विस्फोटक ढंग से दिखाया गया है । चक्रव्यूह - दो गहरे मित्रों
आदिल ( अर्जुन रामपाल ) और कबीर ( अभय देओल ) की मित्रता और उनके मध्य धीरे धीरे
पनपते सैद्धान्तिक मतभेदों से उभरे टकराव की कथा है जो अंत में विध्वंस में खत्म
होती है । सत्ता के घिनौनी राजनीति का
शिकार देश के संघर्षरत वे जन समूह हैं जिन्हें आज तक उनका न्यायपूर्ण हक नहीं
मिला। ये अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं
और सरकार इनकी लड़ाई को अवैध घोषित कर उन पर गोलियां बरसा रही है । सरकार के
विरोध में आज देश के अनेक हिस्सों में एक अंतर्युद्ध चल रहा है । यह एक ऐसा अघोषित युद्ध है जिसमे हजारों बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं । इस
युद्ध में दोनों पक्ष हमारे ही हैं । जंगलों में बसे गांवों लोगों को दोनों तरफ से
डर है । एक तरफ माओवादियों का आतंक है तो दूसरी ओर पुलिस का । इस टकराहट को ' चक्रव्यूह ' में वास्तविक धरातल पर फिल्माया गया है । माओवादियो की गतिविधियों को
नियंत्रित करने और उनके नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए एस पी आदिल को यह
ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है । एस पी आदिल एक कर्तव्यनिष्ठ ईमानदार अधिकारी है जो अपने दायित्व के प्रति प्रतिबद्ध है। उसकी
पत्नी रिया मेनन ( ईशा गुप्ता ) भी आई पी एस अधिकारी है जो खुफिया विभाग में
कार्यरत है । विभागीय कामकाज में आदिल और
रिया में सहचर्य और
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तालमेल है । कबीर इन दोनों का
मित्र है जो कि अलग किस्म का जुनूनी और फक्कड़
तबीयत का दुस्साहसी व्यक्ति है । माओवादियों की गुप्त गतिविधियों की खुफिया
सूचना आदिल को मुहैया कराने के लिए कबीर माओवादियों के गिरोह में शामिल होने का
प्रस्ताव रखता है । आदिल अपने दोस्त कबीर को इस जोखिम ने नहीं डालना चाहता लेकिन
कबीर, नक्सली मुखिया राजन ( मनोज वाजपेयी ) को पकड़ने में
आदिल की मदद करना चाहता है । इस तरह कबीर नक्सली गिरोह में शामिल हो जाता है और नक्सली हमलों की खबर पुलिस को खुफिया रूप से देकर उनके हमलों को बेअसर
करता रहता है । लेकिन धीरे धीरे कबीर को यह अहसास होने लगता है
कि नक्सलियों की यह लड़ाई जायज़ है और पुलिस के जो दमनकारी हिंसक हमले नक्सलियों पर
किए जाते हैं वे हिंसात्मक और गैर कानूनी हैं । पुलिस के हमलों में बलात्कार की
घटनाओं भी घाटी होती हैं जिससे कबीर को गहरा आघात लगता है । इधर कबीर नक्सली लड़की जूही
( अंजलि पाटील ) से भावनात्मक रूप
से जुडने लगता है । जूही का पुलिस के द्वारा बलात्कार उसे भीतर तक हिलाकर रख देता
है । उद्योगपति महंता ( कबीर बेदी ) जंगल
की जमीन पर अपना उद्योग लगाने के लिए
सरकार से उस जमीन को खाली करवाकर देने की
मांग करता है। इसके लिए वह सरकारी तंत्र को खरीद लेता है । सरकार की ओर से पुलिस
उन गांवों को खाली कराने के लिए गाँव पर हमला करती है । आदिल इस काम को अंजाम देता है लेकिन उसे भी जब
राजनीतिज्ञों के अन्याय और अत्याचार का पता चलता है तो वह सरकार और महंता का विरोध
करता है । ऐसे में आदिल को उस आपरेशन से अलग कर दिया जाता है । आदिल, कबीर को राजन और जूही को पुलिस को सौंपने के लिए
दबाव डालता है । कबीर तब तक पूरी तरह नक्सलियों ( लाल सलाम दल ) के उद्देश्यों से सहमत होकर राजन और जूही के
लिए उनकी लड़ाई में स्वयं को पूरी तरह झोंक देता है । यह बदलाव आदिल स्वीकार नहीं
कर पाता और वह कबीर के साथ अपनी मित्रता की सच्चाई मीडिया के द्वारा प्रकट कर देता
है । कबीर के आदिल के दोस्त होने की अख़बार में छपी खबर को देखकर राजन - जूही का
लाल सलाम दल कबीर को मृत्यु दंड दे देता है । इस अवसर पर कबीर अपनी सच्चाई नक्सलियों के
सम्मुख रखता है लेकिन उसकी बातों पर वे लोग यकीन नहीं कराते हैं । ठीक इसी समय पुलिस का हवाई हमला चारों ओर से
राजन - जूही के समूह पर होता है। कबीर, राजन को बचाने के प्रयास में स्वयं रिया की
गोली का शिकार हो जाता है । जूही को भी पुलिस की गोली लगती है । रिया और आदिल की
गोली से कबीर के जीवन का अंत हो जाता है । कबीर अपने साथियों की जान बचाने के
प्रयास में अपना दम तोड़ता है । वह आदिल के कंधों पर अपनी जान दे देता है । त्रासदी
यही है की आदिल अंत में कबीर को इस आपरेशन में खत्म कर देने के लिए ही पुलिस का
चक्रव्यूह रचता है क्योंकि अंत में उसे कबीर का सच मालूम हो जाता है । उसे इस बात
का अहसास हो जाता है कि कबीर नक्सलियों के साथ है और अब उसे रोकना असंभव है । इसीलिए
वह कबीर को धोखेबाज घोषित करता है । यह फिल्म दर्शकों के मन में कबीर के प्रति
सहानुभूति और दर्द का अहसास जगाती है । कबीर का नजरिया दर्शकों को उचित लगता है ।
प्रकाश झा दर्शकों के दृष्टिकोण को पूंजीवाद विरोधी आंदोलन का समर्थन दिलाने में अंशत:
सफल होते हुए दिखाई देते हैं । सरकारी
तंत्र के दोगलेपन को इस फिल्म में बखूबी बेपरदा किया गया है । दर्शकों के मन में
कबीर और उसकी कुर्बानी लंबे समय तक याद की जाएगी ।
प्रकाश झा ने बहुत साहसपूर्वक आज
के सरकारी तंत्र और पूँजीपतियों की साँठ - गांठ को निर्वस्त्र किया है, जो कि प्रशंसनीय है । समाज का मजबूर और हारा-थका हुआ
बेबस (आम ) आदमी इस फिल्म में अपनी नैतिक
जीत को देखकर कुछ पलों के लिए अवश्य राहत
की सांस लेगा।
चक्रव्यूह - हालीवुड की फिल्म ' बैकेट ' और हिन्दी में बनी ' नमक हराम ' की याद दिलाती है । जिसमें दो दोस्तों में से एक
अपने जिगरी दोस्त से अलग होकर एक बड़े लक्ष्य के लिए अपने ही दोस्त का विरोध कर
अपने प्राण त्याग देता है । ' बैकेट ' ( पीटर ओटूल - रिचर्ड बर्टन ) में चर्च के सिद्धांतों के लिए अपने सम्राट
मित्र हेनरी चतुर्थ के खिलाफ बैकेट कदम उठाता है और अंत में वह अपने ही (मित्र)
सम्राट के षडयंत्र का
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शिकार होकर प्राण खो बैठता है ।
हिन्दी में बनी फिल्म ' नमक हराम '
( राजेश खन्ना - अमिताभ बच्चन ) में राजेश खन्ना मिल मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई
में अपने ही मित्र अमिताभ बच्चन ( मिल
मालिक ) के खिलाफ आवाज़ उठाकर पूंजीवादी षडयंत्र का शिकार होकर अपनी जान गंवा बैठता
है ।
' चक्रव्यूह ' के कथानक पर
' बैकेट' की छाप को पहचाना गया था लेकिन प्रकाश झा ने
इसे स्वीकार नहीं किया । फिल्म का शीर्षक ' चक्रव्यूह '
कथाक्रम की दृष्टि से सार्थक है । फिल्म
पूरी तरह निर्माता - निर्देशक और पटकथा
लेखक प्रकाश झा के लक्ष्य को पूरे
सामर्थ्य के साथ साधता है । फिल्म के कथा-लेखक
- अंजुम राजबली और सागर पाण्ड्या हैं जिन्होने एक सशक्त कहानी प्रकाश झा को मुहैया
कराई है । फिल्म में सचिन कृष्ण की सिनेमाटोग्राफी वन्य परिवेश को जीवंत रूप में
प्रस्तुत करने में सफल है । फिल्म का
संगीत और पार्श्व-संगीत दोनों फिल्म के कथानक और परिवेश को उभारकर अतिरिक्त प्रभाव
उत्पन्न करते हैं । फिल्म के गीत लोक-संगीत
की धुनों पर निर्मित हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों के लिए आकर्षक लग सकते हैं । गीत के
माध्यम से टाटा, बिरला अंबानी और बाटा पर कसा गया व्यंग्य पूंजीपति
वर्ग को चिढ़ाता है लेकिन वास्तविकता का बखान भी करता है । अभिनय के लिए अर्जुन रामपाल, अभय देओल, मनोज वाजपेई, अंजलि पाटील और ईशा गुप्ता विशेष
प्रशंसनीय हैं जिन्होने अपनी भूमिका को
स्थानीयता के अंदाज में एक नई ऊँचाई प्रदान की है । आन्दोलन के वैचारिक सूत्रधार
के रूप में ओमपुरी की भूमिका छोटी सी ही सही किन्तु प्रखर है । फिल्म में हिंसा के
दृश्य मानवीय संवेदनाओं को उद्वेलित करने में सक्षम हैं जो कि कथानक की मांग हैं ।
' चक्रव्यूह ' इस दौर की एक सार्थक फिल्म है और बहुत समय तक याद की
जाएगी । सिनेमा जीवियों के लिए इस फिल्म
को देखना अनिवार्य है । आम लोगों के लिए भी यह विचारोत्तेजक और
उद्देश्यपूर्ण फिल्म
है ।
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इंगलिश - विंगलिश : भारतीय परिवार का भाषाई सच
-
एम वेंकटेश्वर
भारतीय परिवारों में भाषिक चेतना विचित्र असमंजस और असंतुलन
के दौर से गुजर रही है । अंग्रेजी, हिंदी और मातृभाषाओं में टकराहट की स्थिति दिखाई देती है । नई पीढ़ी पूरी
तरह से अंग्रेजी मानसिकता में अपनी अस्मिता तलाश रही है । मध्यवर्गीय परिवारों में
अंग्रेजी - हिंदी या मातृभाषा के ज्ञान और उसके प्रयोग को लेकर हास्यापाद तथा एक
दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, परिवार के छोटे - बड़े
सदस्यों में, आम रूप से दिखाई देती है । आम जीवन में
अंग्रेजी की आभिजात्य पहचान ने पारिवारिक संबंधों को बेहद प्रभावित किया है ।
बोलचाल और सामान्य व्यवहार में अंग्रेजी आज एक प्रचलित अनिवार्यता हो गयी है
। किन्तु आज भी हमारे घर - परिवार
में ऐसे कई सदस्य हैं जिनका अंग्रेजी का ज्ञान अपने साथी सदस्यों के मुक़ाबले कमजोर
या नगण्य सा होता है। ऐसी स्थिति में उन्हें हर कदम पर अपने बच्चों और अन्य
सदस्यों की अवमानना और अवहेलना को आजीवन झेलते रहना पड़ता है । विशेषकर घरेलू
स्त्रियाँ अंग्रेजी ज्ञान के अभाव में निरंतर उपेक्षा और उपहास का पात्र बन जाती हैं । यह एक वास्तविक स्थिति है जो हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है
।
इंगलिश विंगलिश - गौरी शिंदे द्वारा निर्देशित और आर बाल्की
द्वारा निर्मित एक पारिवारिक हास्य और व्यंग्यप्रधान भाषाई चेतना को प्रस्तुत करने
वाली हल्की-फुल्की फिल्म है, जिसे एक
साथ हिंदी और तमिल भाषाओं में निर्मित किया गया और साथ ही तेलुगु में डब करके
तीनों भाषाओं में एक साथ रिलीज़ किया गया । यह फिल्म कई अर्थों में विशेष है । इस
फिल्म से विगत वर्षों की लोकप्रिय अभिनेत्री श्रीदेवी की फिल्मों में वापसी
हुई है । फ्रेंच अभिनेता ' मेहदी नेबौ ' की भूमिका महत्वपूर्ण है ।
अमिताभ बच्चन और अजित कुमार ( तमिल ) ने मेहमान कलाकार के रूप दिखाई देते
हैं ।
फिल्म की कहानी ' शशि गोड़बोले ' ( श्रीदेवी ) के घरेलू जीवन के इर्द गिर्द घूमती है ।
निर्देशक गौरी शिंदे ने अपने पात्रों को पारंपरिक बानी रखने के लिए एक मराठी भाषी
परिवार को चुना है, इसीलिए परिवेश की मौलिकता के लिए उन्होने
पूना शहर में इसे फिल्माया है । गौरी शिंदे के अनुसार शशि गोड़बोले पात्र की
परिकल्पना उनकी माँ से प्रेरित है ।
शशि एक मध्यवर्गीय मराठी परिवार की घरेलू औरत है जो अपने
परिवार की देखभाल में ही अपना सारा समय पूरी तन्मयता से लगा देती है । साथ ही वह मिठाई
( लड्डू ) का छोटा - मोटा व्यापार भी कर कुछ पैसे बना लेती है । उसके हाथ के बने
लड्डू लोग पसंद कराते हैं । परिवार के प्रति उसका समर्पण, परिवार के सदस्य अपना अधिकार मानते हैं । परिवार में बच्चों
से लेकर उसके पति सतीश तक अंग्रेजी में बातचीत और हंसी मज़ाक कराते हुए शशि के
अंग्रेजी के अज्ञान की हंसी उड़ाते हैं ।
सतीश ( आदिल हुसैन ) को पत्नी के
व्यक्तित्व की कोई परवाह नहीं है । सपना मां को अपने दोस्तों और अपने स्कूल के
टीचरों से परिचय कराने के लिए भी संकोच करती है क्योंकि शशि अंग्रेजी नहीं बोल
सकती । शशि, बेटी
सपना के व्यवहार से दुःखी होती है । कदम
कदम पर शशि को अहसास कराया जाता है कि अंग्रेजी के बिना उसका जीवन निरर्थक है और
वह आज के माहौल में असंगत है । शशि इस
सत्य का सामना हर पल करती है । इस स्थिति से वह उबरना चाहती है । वह आत्ममंथन करती
है । उसे भीतर से स्वयं पर विश्वास है और वह जानती है कि उसके परिवार के सभी सदस्य
उसके प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं । इसी बीच न्यूयार्क में रहने वाली
उसकी बहन की बेटी के विवाह का समाचार उन्हें मिलता है । सतीश, पहले शशि को बहन की सहायता के लिए न्यूयार्क अकेले भेजता है । न्यूयार्क
पहुँचकर शशि, बिना घर वालों को बताए,
चुपके से
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अपने ही प्रयासों से एक व्यावहारिक अंग्रेजी की कक्षा में
दाखिला ले लेती है । लेकिन एक दिन उसकी छोटी भतीजी राधा ( प्रिया आनंद ) को शशि के
अंग्रेजी सीखने का पता चल जाता है लेकिन वह उसके ही पक्ष में
उसका साथ देती है ।
उस कक्षा में उसका परिचय अन्य विदेशी सहपाठियों से होता है, जिनमें से एक फ्रेंच पात्र
लोरेंट ( मेहदी नेबौ ) है जो शशि के प्रति विशेष मैत्री का भाव प्रदर्शित
करता हुआ उसकी मदद करता है । इस अंग्रेजी सीखने के प्रयास में शशि को अनेकों तरह
के कटु और मधुर अनुभव होते हैं । उसे काफी संवेदनात्मक उद्वेगों का सामना करना
पड़ता है । बीच बीच में जब वह फोन पर अपने
घर ( भारत ) बेटी सपना और सतीश से बात करती है तब भी सपना के व्यवहार से वह आहत
होती है ।
इस संदर्भ में शशि का आतमालाप ध्यान देने योग्य है - "
क्या हक बनता है इन बच्चों का, अपने माँ
- बाप से इस तरह बात करने का ? इज्जत का मतलब जानते ही नहीं
।
क्या कचरे की पेटी हूँ मैं ? जो मन में आया फेंक दिया - क्या रिश्ता है मेरा ?
कितनी कोशिश करते हैं हम उनको खुश रखने के लिए और वो कितनी आसानी से हमारा दिल
दुखाते हैं ।
बच्चे मासूम होते हैं - ये कसी मासूमियत है, जो हर पल हमारी कमजोरी का फायदा ही उठाते हैं ?
सब कुछ सिखाया जा सकता है - पर किसी की भावनाओं का ख्याल
रखना कैसे सिखाया जाये ?
अमेरिका
पहुँचकर शशि का आत्मविश्वास उसे इस
अपमानजनक स्थिति से मुक्त होने का संकल्प प्रदान करता है । वह दृढ़ संकल्प होकर
अंग्रेजी का अभ्यास करती है । उसके साथी उसकी मदद करते हैं । उसकी कक्षा के
मित्रों के साथ एक जीवंत और मुखर शशि का उदय होता है । उसकी भतीजी के विवाह के
अवसर पर उसका परिवार सतीश, सपना और उनका बेटा सागर तीनों न्यूयार्क
पहुँच जाते हैं । सतीश, आत्मविश्वास से भरी बदली बदली सी शशि को देखकर चकित होता है और
भीतर से पुरुष - सहज संदेह का आभास भी
कराता है । उसकी प्रच्छन्न अंग्रेजी कक्षा
- इन लोगों से आगमन से अस्त-व्यस्त हो जाती है । कक्षा में शशि की अनुपस्थिति से
उसके साथी भी विचलित होते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति कुशल
निर्देशन और कलाकारों की स्वाभाविक
अभिनयकला के द्वारा संवेदनात्मक
धरातल पर हुई है । कहानी का चरम भावुक और
अति संवेदनात्मक है । शशि की भतीजी के विवाह के दिन ही उसकी अंग्रेजी प्रवीणता की
परीक्षा की तारीख भी तय होती है । परीक्षा में सभी शिक्षार्थियों को पाँच मिनट के
लिए अंग्रेजी में बोलना होता है । इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उन्हें
प्रमाणपत्र भी प्राप्त होने वाला है शशि
किसी भी तरह से परीक्षा देने के लिए राधा की सहायता से कक्षा में पहुँचने की
तैयारी कर लेती है किन्तु एक छोटी सी घटना उसे परीक्षा से वंचित कर देती है ।
किन्तु उसके साथी और शिक्षक सभी राधा के निमंत्रण पर विवाह समारोह में अचानक
पहुँचकर शशि को चौंका देते हैं । फिल्म का क्लाईमेक्स - नव विवाहित युगल के लिए
आशीर्वचन कहने के लिए जब सभी लोग अपनी अपनी बात अंग्रेजी में कहकर अंत में शशि से
भी आग्रह कराते हैं तब सतीश का उठकर पत्नी शशि की अंग्रेजी की अज्ञानता घोषित करने
के लिए तत्परता का प्रदर्शन कराते समय शशि का
' में आई ' कहकर उठना और सहज
शैली में अंग्रेजी में वर-वधू के सुखी जीवन के लिए परिवार की अहमियत को भावुकतापूर्ण ढंग से कहना
- फिल्म को उस के लक्ष्य तक पहुंचा देता
है ।
विवाहोपरांत शशि द्वारा दिए गए इसी वक्तव्य को ही आधार
मानकर डेविड फिशर ( कोरी हिब्स ) - उनका शिक्षक शशि को वहीं प्रमाणपत्र भी प्रदान
करता है । यह दृश्य दर्शकों को भाव विह्वल कर देता है । अंग्रेजी भाषा के शिक्षक के रूप में कोरी
हिब्स का जीवंत और विनोदपूर्ण अभिनय दर्शकों को बांधकर रखता है । कक्षाओं में उसका
स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन भरा व्यवहार फिल्म को अतिरिक्त गहरी प्रदान करता है ।
शशि और लारेंट के अंतरसंबंध अनेक मानवीय संवेदना की
अपेक्षाओं को बहुत ही सूक्ष्म और कोमल धरातल पर मन को छू जाते हैं । लारेंट का शशि
की और रुझान और अपने प्रेम को फ्रेंच में व्यक्त करना जिसका उत्तर
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शशि द्वारा हिंदी
में दिया जाना जिसमे वह अपने वैवाहिक जीवन की सच्चाई को पूरे आत्मविश्वास के
साथ प्रकट करती है, प्रेरणादायक है ।
राधा को शशि का यह कथन ' मुझे प्यार की जरूरत नहीं इज्जत
( आत्मसम्मान ) की जरूरत है । लारेंट का शशि आदर करती है और
अंत में उसे वह धन्यवाद देती है क्योंकि उसने उसे स्वयं को पहचानने में मदद की ।
ये प्रसंग फिल्म में छोटे और बहुत ही साधारण से लगते हैं किन्तु
दर्शकों को बहुत कुछ सोचने को मजबूर करते हैं । पार्श्व में ' गुस्ताफ दिल ' गीत सटीक और उपायुक्त है जो कि
पात्रों की मनोदशा को परोक्ष रूप से व्यक्त करता है । शशि की सास मिसेज गोड़बोले के
रूप में सुलभा देशपांडे की उपस्थिति सास -
बहू के संबंधों में मधुरता को दर्शाते हैं । शशि - सतीश का पारिवारिक वातावरण
मध्यवर्गीय जीवन की सहजता को प्रस्तुत
करने में सफल हुआ है ।
इस फिल्म में केवल अंग्रेजी भाषा ज्ञान ही कथ्य नहीं है वरन
और भी अनेकों अंतर्लीन कथन इसमे छिपे हैं जो सूक्ष्म दर्शी दर्शकों को ही दिखाई
देंगे । स्त्री सशक्तीकरण, परिवार में माँ की स्थिति और घरेलू
स्त्रियॉं के प्रति समाज का दृष्टिकोण भी उपजीव्य तथ्यों के रूप में उभरकर आते हैं
।
अपने फ्रेंच साथी लारेंट से शशि का यह कहना ' मर्द खाना बनाए तो वह कला ( आर्ट ) है और औरत का खाना बनाना
उसका फर्ज है '
स्त्रियॉं के प्रति पुरुषवादी सोच को उद्घाटित करता है । फिल्म में कहीं कहीं पर
अंग्रेजी के प्रति भी चुटीले व्यंग्य कसे गए जो कि कि विनोदात्मक
हैं। अमरेकी दूतावास में शशि से जवाह वीज़ा अधिकारी ( अंग्रेजी में ) कहता
है कि अंग्रेजी के बिना आप अमेरिका मे कैसे ' मैनेज ; करेंगी तब एक अन्य भारतीय अधिकारी का यह कटाक्ष बहुत प्रासंगिक और चुटीला
है - जैसे आप हमारे देश में बिना हिंदी
जाने मैनेज कर रहे हैं ? '
सतीश का अमेरिकन अतिथियों से शशि का परिचय ' शी इज़ ए बोर्न लड्डू मेकर ' ( वह
पैदाइशी लड्डू बनाने वाली है ) कहकर कराना, पुरुषों का
स्त्रियॉं के प्रति उपेक्षापूर्ण और अवमाननापूर्ण मानसिकता को दर्शाता है । जिसे
सुनकर शशि के चेहरे पर एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान झलकती है । उसका मौन वहाँ पर बहुत
सारी अनकही भावनाओं को मुखर करता है । शशि
का स्वदेश वापसी के दौरान विमान में एयर
होस्टेस से हिंदी अख़बार के लिए अंग्रेजी में पूछना - लोगों के भीतर स्वभाषा के
प्रति एक विशेष भाव का संचार करता है ।
श्रीदेवी ने इस फिल्म में अभिनय कला की नई ऊँचाइयाँ छूईं
हैं । प्रौढ़ आयु की घरेलू स्त्री और
संयमित एवं समर्पित गृहिणी का जो स्वरूप इस सौंदर्य की प्रतिमूर्ति ने धारण किया
है, उसमें उन्होने अपनी परिपक्व अभिनय कला से
चार चाँद लगा दिये हैं । श्रीदेवी का नया रूप दर्शकों के हर वर्ग को मोहित कर रहा
है । हर घरेलू स्त्री स्वयं को शशि में तलाश रही है । घरेलू महिलाओं के लिए शशि एक
रोल मॉडल बन गयी है । शशि ने यह सिद्ध
किया है कि दृढ़ संकल्प और धैर्य के साथ जीवन की विषम स्थितियों को अपने अनुकूल
बनाया जा सकता है ।
निर्देशक गौरी
शिंदे जो कि इस फिल्म की कथा लेखिका और पटकथा लेखिका भी हैं, ने अपनी पहली ही
फिल्म से एक बहुत बड़ा संकेत दिया है कि उनमें एक नवीन तथा मौलिक सोच विद्यमान है ।
फिल्म में संवाद योजना बहुत ही कसी हुई और सशक्त है । प्रयोगधर्मिता उनका गुण है ।
छोटे छोटे किन्तु प्रासंगिक पारिवारिक घटनाओं का चयन कर फिल्म माध्यम के द्वारा एक
व्यापक संदेश देकर समाज को सच्चाईयो से
रूबरू कराया है, गौरी शिंदे ने, जो कि सराहनीय है । फिल्म का संगीत आकर्षक और विनोदात्मक है ।
4
संतीकार अमित त्रिवेदी की धुनें लोकप्रिय हो चुकी हैं ।
गीतकार स्वानन्द किरकिरे द्वारा रचित गीत फिल्म में संदर्भानुसार प्रभावोत्पादक
हैं । सिनेमाटोग्राफर लक्ष्मण उटेकर ने
न्यूयार्क की गगनचुंबी अट्टालिकाओं और मैनहेटन को अपनी विशेष मुग्ध कर देने वाली दृश्यांकन
कला से फिल्म को आकर्षक बनाया है ।
इस फिल्म की चर्चा वर्तमान संदर्भ में आवश्यक है क्योंकि यह
अपने रिलीज़ की तारीख से ( 14 सितंबर 2012 ) अब तक निरंतर सिनेमा घरों में
सफलतापूर्वक प्रदर्शित हो रही है । इसके दर्शक दिनों दिन अधिक हो रहे हैं ।
इसके रिलीज़ से पहले टोरोंटो
अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में इसके
प्रीमियर को देखकर फिल्म समीक्षकों ने श्रीदेवी के अभिनय को और गौरी शिंदे के
निर्देशन को मुक्त कंठ से सराहा । अब यह
एक
अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर हिट फिल्म साबित हो चुकी है ।
श्रीदेवी के लिए ' गोल्डन काम बैक ऑफ दि क्वीन ' कहा गया । यह फिल्म समूचे परिवार के साथ देखने योग्य है । यह फिल्म इस
सत्य को भी रेखांकित करती है कि आज
अंग्रेजी संबंधों को परिभाषित कर रही है और समूचा भारतीय समाज अंग्रेजी पर मानसिक
और बौद्धिक रूप से आश्रित हो गए हैं । अंग्रेजी के प्रति अतिशय सम्मोहन और
अंग्रेजी की अधीनता भारतीय जीवन विधान को पंगु बना रही है । भारतीयों के अंग्रेजी
मोह के प्रति यह फिल्म आगाह कराती है ।
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दो बार बुकर पुरस्कार से
सम्मानित इंग्लैंड की एक मात्र महिला उपन्यासकार : हिलेरी मेंटेल
हिलेरी मेंटेल इंग्लैंड की पहली महिला उपन्यासकार हैं जिन्हें दो बार बुकर सम्मान प्राप्त हो चुका
है और वे अब तीसरे बुकर सम्मान को प्राप्त करने का दावा कर रहीं हैं । हिलेरी मेंटेल
का यह दावा बहुत ही दिलचस्प है क्योंकि कोई भी लेखक अपने भावी रचना के लिए इतने
बड़े पुरस्कार पर अपना कब्जा करने का आत्मविश्वास लिए अगर लिखता है तो वह अपनी रचना
क्षमता और रचना धर्मिता के प्रति कितना आश्वस्त है, इसका पता चलता है । हिलेरी
मेंटेल ने कुछ साल पहले एक उपन्यास त्रयी लिखना प्रारम्भ किया । प्रारम्भ में इस
उपन्यास को प्रकाशकों ने नकार दिया । यह उपन्यास इंग्लैंड के राजघराने के इतिहास से संबंधित कथानक को
लेकर लिखा गया रोचक ऐतिहासिक तथ्यों से परिपूर्ण उपन्यास है । इंग्लैंड के इतिहास
में हेनरी अष्टम का शासन काल सबसे अधिक विवादास्पद और रोमांचक रहा है । यह
काल अनेक राजनीतिक षडयंत्रों तथा राजा और
इंग्लैंड के चर्च के मध्य मतभेदों एवं टकराहट का युग माना जाता है । इंग्लैंड की
राजनीति पर चर्च का दबदबा जगजाहिर है । हेनरी अष्टम ने चर्च के खिलाफ जाकर अपनी
इच्छा से राज-मर्यादाओं का उल्लंघन साधारण सामंती परिवार की सुंदरियों से विवाह कर
एक नया इतिहास रचा था । किन्तु जब उसकी प्रेमिका पत्नियों ने उसके राज्य के लिए
उत्तराधिकार (पुत्र ) को जन्म नहीं दिया
तो वह उनके कत्ले आम पर उतर आया और इस तरह हेनरी अष्टम का राजनैतिक और व्यक्तिगत
जीवन इंग्लैंड के इतिहास का सबसे खूंखार और लहू लुहान इतिहास बनकर रह गया । हेनरी
अष्टम की इसी प्रेम प्रकरण में ऐन बोलेन नामक एक सामंत- पुत्री आती है जिसे देखकर
पहली ही नजर में हेनरी उसे अंक शायनी बनाने के लिए चर्च को धिक्कार कर, उससे
विवाह कर इंग्लैंड की रानी घोषित कर देता है ।
लेकिन जब ऐन बोलेन की कोख से लड़की का जन्म होता है तो वह ऐन बोलेन का सिर
चौराहे पर गिलेटीन से कटवा देता है । ऐसे दंड का प्रावधान उन दोनों इंग्लैंड में
बहुत सामान्य था । इंग्लैंड के इतिहास के
इस रोमांचक रक्तरंजित काल की घटनाएँ
हिलेरी मेंटेल ने अपने उपन्यास ' वुल्फ़ हॉल ' के कथानक के लिए चुना,जिसे 2009 का बुकर सम्मान प्राप्त
हुआ । इस उपन्यास के प्रकाशन मे हिलेरी मेंटेल को अनेक कठिनाइयों का सामना करना
पड़ा। प्रकाशकों ने इसके गंभीर ऐतिहासिक
कथ्य को अपठनीय घोषित कर इसे छापने से इनकार कर दिया । किन्तु बुकर सम्मान के घोषित होते ही इस उपन्यास के प्रति पाठकों और प्रकाशकों की
रुचि जागी । परिणामस्वरूप ' वुल्फ़ हॉल ' की बिक्री लाखों में हुई और आज यह उपन्यास अंग्रेजी के महत्वपूर्ण चर्चित
उपन्यासों में अपनी पहचान बना चुका है ।
इसके बाद इसके कथानक को विस्तार देती हुई हिलेरी मेंटेल ने इसका दूसरा भाग ' ब्रिंग अप द बॉडीज़' मई 2012 में प्रकाशित किया ।
इसे भी बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया
गया । इन दिनों हिलेरी मेंटेल इसी कथानक की तीसरी और अंतिम कड़ी ' द मिरर एंड द लाइट ' लिख रही हैं । द्वितीय बुकर
पुरस्कार ग्रहण करते समय हिलेरी मेंटेल ने अपनी सफलता से उत्साहित होकर उपन्यास
त्रयी की तीसरी कृति के लिए भी बुकर सम्मान प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त कर
डाली । इस सम्मान में पचास हजार पाउंड की राशि विजेता को प्रदान की जाती है ।
गौरतलब है कि यह सम्मान केवल सलमान रश्दी को अलग अलग वर्गों में कई बार प्राप्त हो
चुका है ।
हिलेरी मेंटेल की यह उपन्यास त्रयी इंग्लैंड की सोलहवीं
शताब्दी के राजनैतिक षडयंत्रों का
पर्दाफाश करती है । उपन्यास का प्रथम भाग ' वुल्फ़ हॉल ' एक वृहत काय उपन्यास के कथानक की पूर्व
पीठिका के रूप में आया, दूसरे भाग '
ब्रिंग अप द बॉडीज़ ' में कथानक का विस्तार हुआ है जिसमे
प्रमुख रूप से हेनरी अष्टम के सलाहकार थॉमस क्रॉमवेल के राजनीतिक हस्तक्षेप और
राजा के जीवन में उसके प्रभाव को
चित्रित गया है। इसी भाग में महारानी ऐन
बोलेन के भयानक अंत को मार्मिक शैली में
प्रस्तुत किया गया है । इस कथानक पर सत्तर के दशक में हॉलीवुड की एक फिल्म बन चुकी
है - ' ऐन ऑफ थाउसेंड डेज़ ' । इस कथानक
को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से इस फिल्म में प्रस्तुत किया गया जो कि बॉक्स ऑफिस पर
हिट साबित हुई । वैसे तो ये तीनों ही खंड स्वतंत्र रूप से पठनीय हैं । प्रत्यके
खंड एक स्वतंत्र उपन्यास का कलेवर भी धारण किए हुए है । लेखिका का इतिहास बोध
प्रशंसनीय है जिसे पूरी कलात्मकता के साथ उन्होने अपनी इन कृतियों में प्रस्तुत
किया है । मेंटेल अपने रचनाकौशल से इंग्लैंड के इतिहास को पुनर्जीवित करने में सफल
हुई हैं । आलोचकों ने मेंटेल की तुलना डी एच लॉरेंस से की है । अंग्रेजी मीडिया की
रिपोर्टों के अनुसार हिलेरी मेंटेल अंग्रेजी की आज की सशक्त गद्य लेखिका हैं
जिन्होने स्वयं को सर्वोत्तम सिद्ध किया है ।
उनकी बुकर की दोहरी सफलता प्रशंसनीय है और उनकी तीसरी बुकर
सफलता के लिए उनके प्रशंसक आस लगाए बैठे हैं ।
हेनरी मेंटेल की अन्य औपन्यासिक कृतियाँ हैं - गिविंग अप द
घोस्ट, बियोंड ब्लेक,एवरी
डे इज़ मदर्स डे,
वेकेन्ट पज़ेशन, ए
चेंज ऑफ क्लाइमेट, ए प्लेस ऑफ ग्रेटर सेफ़्टी, इंक इन द ब्लड,
ऐट मन्थ्स ऑन गाज़ा स्ट्रीट, फ़्लड, एन एक्सपेरिमेंट इन लव, द जैंट ओबरायन और लर्निंग टु टॉक आदि ।
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हिंदी
फिल्मों में कॉमेडी के बेताज बादशाह ' भगवान दादा '
भारतीय सिनेमा का यह शताब्दी वर्ष है और साथ ही संयोग
वश हिन्दी फिल्मों के प्रारम्भिक दौर के
एक महान हास्य कलाकार 'भगवान दादा ' का भी यह जन्म शती वर्ष
है । ' भगवान दादा ' हिंदी फिल्म जगत में 'भगवान' के नाम से मशहूर हैं । भगवान आभाजी पालव का जन्म मुंबई में एक अगस्त 1913 को हुआ था । उनके पिता
कपड़े के मिल में एक साधारण मजदूर थे ।
उनका बचपन दादर और परेल की श्रमिक बस्तियों में गुजरा । खस्ता पारिवारिक हालत और
आर्थिक परेशानियों के कारण उनकी शिक्षा
चौथी कक्षा से आगे नहीं हो सकी । बचपन से ही भगवान को थियेटर, नाटक और फिल्मे देखने का शौक था, जिसके लिए उन्हें अपने पिता की नाराजगी का सामना भी करना पड़ता था। भगवान
- चार्ली चेपलिन की अभिनय शैली से न केवल प्रभावित थे बल्कि उन्होने आगे चलकर उस
शैली का अनुकरण कराते कराते उसे अपने अभिनय का हिस्सा बना लिया । अंग्रेजी फिल्मों में उन दिनों लॉरेल हार्डी की
बड़ी धूम थी । भगवान - धीरे धीरे स्वयं को उसी रूप में ढालने लगे और आगे चलकर हिंदी
फिल्मों को एक सशक्त हास्य कलाकार प्राप्त हुआ।
1930 में अठारह साल
की उम्र में भगवान को एक मूक फिल्म ' बेवफा आशिक ' में अभिनय का अवसर मिला । इसमें
उन्होने एक कुबड़े की भूमिका की । इस भूमिका से लोग उन्हें वास्तव में कुबड़ा मान बैठे और उन्हें काफी समय तक कोई काम
नहीं मिला । इसके बाद मित्रों के कहने पर वे उस समय के प्रमुख निर्माता जे पी पवार
( ललिता पवार के पति ) के पास पहुंचे जहां उन्हें पवार की चंद्रा आर्ट्स कंपनी में
काम मिला और वे उनकी फिल्मों में काम करने लगे। चालीस के दशक के एक फिल्मी शूटिंग
के दौरान अपने अभिनय को सहज बनाने के चक्कर में उन्होने ललिता पवार को इतने ज़ोर से
चांटा मारा कि उनकी एक आँख लकवाग्रस्त हो गयी । लेकिन ललिता जी ने ' भगवान ' को इसके लिए कभी दोषी नहीं ठहराया, उन्होने
' भगवान ' को न केवल
माफ किया बल्कि वे तीन साल तक अपना इलाज करवाती रहीं और आजीवन जख्मी आँख को लिए
हुए ही एक्टिंग करती रहीं । इस दुर्घटना
के बाद ललिता पवार नायिका के स्थान पर सफल
खलनायिका के रूप में फिल्मों में उभरीं ।
भगवान दादा ने अपने फिल्मी जीवन में निर्माता और निर्देशक की
भूमिकाएं भी निभाईं लेकिन उनको फिल्म निर्माण और निर्देशन दोनों ही क्षेत्रों में
सफलता नहीं मिली । वे एक महान हास्य
अभिनेता थे । उनकी हास्य कला में कहीं भी फूहड़पन अथवा ओछापन नजर नहीं आता था ।
समाज के सभी वर्गों के दर्शकों के वे चहीते
थे । फिल्मी परदे पर हास्य को अपने अभिनय से और संवादों को अपनी खास हास्य
शैली में प्रस्तुत कर वे दर्शकों को हँसाते थे । वे ऐसे हास्य कलाकार थे जिन्हें
लोगों कों हँसाने के लिए संवादों का सहारा
नहीं लेना पड़ता था, हास्यपूर्ण वातावरण को बनाने के लिए वे
अपने अभिनय का ही प्रयोग कराते थे । ' भगवान ' की कॉमेडी ऐसी ही हुआ करती थी । उनकी नाचने
की शैली मनमोहक और स्वाभाविक रूप से दर्शकों को अनायास हंसा देती थी । उनकी नाचने
की शैली का अनुकरण अमिताभ बच्चन, गोविंदा, मिथुन चक्रवर्ती जैसे दिग्गज
अभिनेताओं ने अपनाकर स्वयं को डांसर सिद्ध
किया है । ' भगवान ' का कॉमेडी का अंदाज़ निराला हुआ करता था । भगवान दादा ने एक हास्य अभिनेता के रूप में ही
अपनी छवि बनाई थी लेकिन उन्होने फिल्मों में नायक की भूमिका भी की ।
भगवान दादा ने बासठ
वर्षों के अपने फिल्मी जीवन में अनेक संघर्षों का सामना किया । उन्होने पाँच सौ से
ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया और वे 36 फिल्मों के निर्माता - निर्देशक रहे ।
भगवान दादा ने अपनी निर्माण संस्था ' जागृति पिक्चर्स ' की पताका तले अनेक कम लागत कि
फिल्मे बनाईं जिन्हें दर्शकों ने पसंद किया ।
उनकी सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय फिल्म है अलबेला ( 1951 ), इस फिल्म के निर्देशक और पटकथा लेखक स्वयं भगवान दादा थे और
वे इस फिल्म के नायक भी थे, साथ में गीताबाली फिल्म की
नायिका थीं ।
इस फिल्म के गीत आज भी लोकप्रिय हैं । भगवान को इस फिल्म के
लिए आज भी याद किया जाता है । इस फिल्म के गीत बहुत हिट हुए ।
' धीरे से आजा री अंखियन मे, निंदिया आजा री आजा, धीरे से आजा
छोटे से नैनन की बगिया में
निंदिया आजा री आजा , धीरे धीरे आजा
तारों से छुपकर, तारों से चोरी, तारों से चोरी
देती है रजनी, क्जंदा को लोरी
चंदा को लोरी
हँसता है चन्दा भी निंदिया में
'निंदिया आजा री आजा,
धीरे से आजा ' इस
फिल्म की यह लोरी आज भी सुनाई देती है और लोगों को भावुक बना देती है ।
इस फिल्म में बारह
गाने थे और सभी सुपर हिट रहे । जैसे -
' शोला जो भड़के, दिल
मेरा धड़के
दर्द जवानी का सताए बढ़ बढ़के '
इस गाने की धुन पश्चिमी संगीत पर आधारित है जिसे सी
रामचंद्र और भगवान दोनों ने मिलकर काफी मेहनत के साथ तैयार किया था ।
एक और सुंदर गीत जिसमे भगवान ने अपनी मोहक अदाकारी से लोगों
का दिल जीता था -
' ओ बेटा जी, अरे ओ
बाबूजी
किस्मत की हवा कभी नरम, कभी गरम
कभी नरम-गरम, कभी गरम - नरम
कभी नरम - गरम, कभी गरम-नरम'
इसी फिल्म का गीत ' भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे ; गीत ने लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ डाले थे ।
इस फिल्म के संगीतकार सी रामचन्द्र थे । वे चितलकर के नाम
से गाते भी थे । चितलकर रामचन्द्र संगीत
के जादूगर थे, उन्हें जीनियस कहा जाता था, लेकिन उनके साथ अनेक स्थलों पर न्याय नहीं हुआ । आज बहुत कम लोग जानते
हैं कि कवि प्रदीप द्वारा रचित और लता मंगेशकर द्वारा गए गीत " ऐ मेरे वतन के
लोगो ' को सुरों में पिरोने वाले जादूगर संगीतकार सी
रामचन्द्र थे ।
भगवान ने 1938 - 40 के बीच तीन तीन तमिल फिल्मों का
निर्देशन भी किया - 'जयकोडी, मनमोहिनी और
प्रेमबंधन ' । इन फिल्मों में संगीत उन्होने सी रामचन्द्र ही
से दिलवाया । सी रामचन्द्र और भगवान की युगल जोड़ी ने फिल्मी संगीत को एक नया आयाम प्रदान किया ।
दोनों के सम्मिलित प्रयासों से भारतीय वाद्य, खासकर हारमोनियम पर बनी धुनें उस जमाने में
बहुत लोकप्रिय हुई।
हिंदी फिल्मों के मशहूर गीतकार आनंद बक्शी को हिंदी फिल्मों
में लाने वाले भगवान दादा ही थे । उन्होने
1956 में अपनी फिल्म ' भला आदमी ' के लिए चार गीत लिखावाकर आनंद बक्शी को
फिल्मी दुनिया से परिचय कराया ।
भगवान दादा के फिल्मी जीवन का अंतिम पड़ाव बहुत करुण और दर्द
भरा था । वे आर्थिक मामलों में व्यवहारकुशल नहीं थे जिस कारण उन्हें मुंबई की
फिल्म नगरी रास नहीं आयी । आर्थिक तंगी जैसे जैसे उन्हें घेरने लगी उनके दोस्त
बिछुड़ते चले गए और अंत में वे अकेले ही रह गए । एक अग्नि कांड में उनकी सारी
फिल्मे जलकर राख़ हो गईं लेकिन किसी तरह ' अलबेला ' की प्रिंट जलने से बच गयी क्योंकि वह एक
वितरक के पास गिरवी पड़ी थी । इसके बावजूद भी भगवान दादा ने हिम्मत नहीं हारी, और वे फिल्मों में छोटे छोटे रोल कर गुजारा करते रहे । वे फिल्मों से
धीरे धीरे हटने लगे और अंत में 3 फरवरी 2002 को 89 साल की उम्र में अपने बेटे के
घर में इस वयोवृद्ध कलाकार का निधन हो गया ।
भगवान दादा का युग हिंदी सिनेमा का स्वर्णयुग था । वे स्वर्ण युग के रोल मॉडल हास्य कलाकार थे -
भगवान दादा । उनकी यादों को भास्वर भारत की ओर से विनयपूर्ण श्रद्धांजलि ।
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भारतीय कला और पुरा
वस्तुओं के अनूठे संग्राहक पद्मश्री जगदीश मित्तल की सहचरी, जीवन संगिनी - कमला
मित्तल की स्मृति में :
-
एम वेंकटेश्वर
कला वस्तुओं और पुरा वस्तुओं को संकलित करना भी एक जुनून
होता है और दीवानगी भी । भारतीय कला के इतिहास में ऐसे अनेकों जुनूनी व्यक्तित्व
मिल जाएंगे जिन्होने हमारी कला के इतिहास को सुरक्षित रखने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया ।
मुंह मांगी कीमतों पर कला की नायाब और दुर्लभ वस्तुएँ
खरीदीं और इनका संग्रह
कर उन्हें सुरक्षित रखा । इन अभूतपूर्व कला कृतियों के संग्रहण तथा संरक्षण
के लिए ऐसे विलक्षण कला पोषक बहुत ही विरले होते हैं जो स्वयं अपने निजी आय के
स्रोतों से विश्व के कला के नमूनों के लिए जीवन भर साधना करते रहे हैं । ऐसे ही
समर्पित कला तपस्वी दंपति हैं - जगदीश
मित्तल और कमला मित्तल । ये नाम भारतीय कला जगत में सर्व ज्ञात हैं । इनके निजी
संग्रह में दुर्लभ पुरा वस्तुएँ
हैं । भारतीय कला के प्रति अमिट भक्ति भाव से इस दंपति ने
अपना सर्वस्व इसी संग्रहालय के निर्माण और रख रखाव में समर्पित कर दिया । वे पिछले
पैंसठ वर्षों से अनूठे कला वस्तुओं का संग्रह अपनी कला पिपासा से प्रेरित होकर एक
वृहद कला संग्रहालय के संयोजन के उद्देश्य
से कराते रहे । इस संग्रहालय का प्रारम्भ
30 मार्च 1976 को हैदराबाद में
इनके ही निवास में हुआ । इसे एक चैरिटेबल ट्रस्ट बनाया गया जिसका जगदीश मित्तल एंड
कमला मित्तल म्यूज़ियम ऑफ इण्डियन आर्ट - नाम रखा गया । इस संग्रहालय में जो पुरा वस्तुएँ संग्रहीत
हैं उनमें सबसे अधिक संख्या लघु चित्रों की है । ' कार्ल खंडालावाला ' के मतानुसार यह संग्रहालय शोध
विद्यार्थियों के लिए नए द्वार खोलेगा क्योंकि इसके माध्यम से लघु चित्रों के
अध्ययन के अनेक नए पहलू सामने आएंगे । इस संग्रहालय में 19 वीं शताब्दी तक के काल
की सहेजी गई लगभग 1580 कला वस्तुएँ हैं । इनमें सर्वाधिक संख्या लघुचित्रों (
मीनिएचर पेंटिंग्स ) की है , जो संख्या में 570 हैं ।
लघुचित्रों के अलावा रेखाचित्र, सचित्र ग्रंथ, सुलिपि ग्रंथ ( कलिग्राफी ), लोकशिल्प , टेराकोटा,, हाथी दाँत पर बनी वस्तुएँ, जेड की बनी वस्तुएँ, बर्तन,
वस्त्र, हथियार तथा लोकशिल्प प्रमुख हैं । यहाँ नेपाली तथा तिब्बती थांका भी
हैं । संग्रहालय में सर्वाधिक संख्या जिन लघुचित्रों की है उनका काल 1200 ई॰ से
आरंभ होता है । इस संग्रह में गुजराती, राजस्थानी, सल्तनत, मुगल, पहाड़ी तथा मध्य
भारत की प्राय: सभी प्रतिनिधि शैलियों के
चित्र भी हैं । इनके अलावा दकन, दक्षिण भारत, बंगाल तथा उड़ीसा में विकसित चित्र शैलियों के प्रतिनिधि चित्रों के साथ
ही लोक कला तथा कंपनी काल की वस्तुएँ भी प्रदर्शित की गयी हैं । यहाँ रखे
लघुचित्रों का अपना विशिष्ट महत्व इसलिए है क्योंकि ये चित्र इन शैलियों के सौन्दर्य बोध को सच्चे अर्थों में
परिभाषित करते हैं । इनमें लगभग 250
रेखाचित्र विभिन्न शैलियों के हैं जिनके
आधार पर चित्रांकन की तत्कालीन विधि का ज्ञान होता है । इस संग्रह के चित्रों का
प्रकाशन प्राय: सभी प्रसिद्ध कला ग्रन्थों
में हुआ है । इस धरोहर को बड़े जतन के साथ इकट्ठा कर उसे सहेजकर रखने की भी एक कला
है जिसमें मित्तल दंपति बेमिसाल हैं। इस संग्रह की कलाकृतियों के इतिहास और उनके
कलात्मक वैभव से परिचित कराने के लिए मित्तल दंपति सदैव प्रयत्नशील रहते हैं । समय
समय पर देश विदेश में आयोजित होने वाले कला प्रदर्शनियों में मित्तल संग्रहालय की अनमोल कला वस्तुएँ प्रदर्शित की जाती हैं । इस संग्रहालय के कला
वस्तुओं की अंतर्राष्ट्रीय पहचान है ।
यह अनूठा कला संग्रहालय जगदीश मित्तल के निजी निवास में
मौजूद है जो हैदराबाद के एक मध्यवर्गीय रिहाईशी इलाके में स्थित है । इस कला धरोहर
के दर्शनार्थ जैकलीन केनेडी ओनासिस, जॉन केनेथ गालब्रेथ, फ्रेंकोई गीलो ( पेब्लो पिकासो
की पूर्व पत्नी ) जैसी अनेक बड़ी राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की हस्तियाँ
आती रहीं हैं ।
जगदीश मित्तल और
कमला जी दोनों सन् 1949 में शांतिनिकेतन
में फाइन आर्ट्स के छात्र थे । दोनों ने एक साथ कला भवन, विश्वभारती, शांतिनिकेतन से फाइन आर्ट्स
में स्नातकीय उपाधि प्राप्त कीं और सन् 1951 में विवाह सूत्र में बंध गए । कमला
गुप्ता ( विवाह पूर्व ) का जन्म सन् 1924 में चर्तवाल ( जिला - मुजफ्फर नगर ) के एक जमींदार घराने
में हुआ । हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री
की प्रेरक शक्ति विद्यमान रहती है - इस प्रचलित मुहावरे को कमला जी के सहचर्य ने
जगदीश मित्तल के जीवन में चरितार्थ किया है । हैदराबाद में अवस्थित इस अभूतपूर्व
संग्रहालय के निर्माण में जगदीश मित्तल और कमला मित्तल का साझा श्रमसाध्य प्रयास
और संघर्ष, संग्रहीत कला वस्तुओं के सौन्दर्य बोध को
द्विगुणित करता है । जगदीश मित्तल विश्व प्रसिद्ध कला पारखी और कला समीक्षक हैं ।
उनके जीवन को सर्वतोमुखी सफलता के शिखर पर स्थापित करने में कमला मित्तल का प्रेम
और समर्पण पूर्ण सहयोग बेमिसाल है ।
' जगदीश एंड कमला मित्तल म्यूज़ियम ऑफ इण्डियन
आर्ट ' की स्थापना के साथ ही इसके संस्थापक जगदीश और कमला
मित्तल दंपति ने अपने जीवन भर की संचित
कला निधि को इस न्यास को समर्पित कर इसके संरक्षण का भार स्वयं स्वीकार कर लिया
। इस कलाकार युगल की जीवन भर यही अभिलाषा रही कि वे भारतीय कला और इतिहास की
अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को भारत और सम्पूर्ण विश्व के समक्ष अपूर्व वैभव के साथ प्रस्तुत कर सकें ।
दुर्लभ कला वस्तुओं के एकत्रित करने का इनका प्रयास कठिन
चुनौतियों भरा रहा है । इन कला खंडों के संग्रह के लिए इनको देश विदेश की यात्राएं
करनी पड़ीं जो केवल इनके समर्पित और अथक मनोबल का ही परिचायक है । वे इस कार्य में
अपार आनंद का अनुभव करते हैं । संग्रहालय के प्रारम्भ से कई दशकों बाद भी जगदीश
जी और कमला जी के जीवन का हर क्षण केवल कला वस्तुओं की तलाश में
ही बीतता है और उनका मन उन कला वस्तुओं में निहित सौन्दर्य का रसास्वादन करने में
ही रमता है । कमला जी और जगदीश जी के दांपत्य जीवन की सार्थकता उन दोनों
के कला साधना के लक्ष्य की एकता में निहित है ।
इस कला संग्रहालय का संदर्शन जगदीश और कमला मित्तल के जीवन
शैली की असाधारणता और उनकी एक दूसरे के प्रति अप्रतिम विश्वास तथा समर्पण के भाव
को दर्शाता है।
जगदीश मित्तल का जन्म बुलंदशहर ( उत्तर प्रदेश ) में सन्
1925 में हुआ । उनका बचपन मसूरी और गोरखपुर में बीता । बाल्यावस्था से ही जगदीश
जी बुनकरों, स्वर्णकारों, टेरकोटा कलाकारों, कुंभकारों, काश्तकारों रंगकारों आदि की कलाकारी के
प्रति विशेष रूप से आकर्षित रहे । इस तरह
स्कूली जीवन से ही उनमें इन
कला-रूपों के प्रति विशेष जिज्ञासा जागृत
हुई । परिणाम स्वरूप आगे चलकर उन्होने
इन्हीं कला-रूपों से अपने जीवन को पूरी तरह सम्बद्ध कर लिया ।
चित्रकारी के प्रति उनका रुझान बाल्यावस्था ही रहा । इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में
छपी हुई मुगल चित्रकला के नमूने उन्हें विशेष आकर्षित करते ।
सन् 1942 से उनका परिवार देहरादून में रहने लगा । वहाँ के
प्राकृतिक सौंदर्य और वहाँ के लोगों की कला प्रियता ने जगदीश को बहुत प्रभावित
किया । दून स्कूल के कला विभाग के प्रमुख, सुप्रसिद्ध कलाकार
सुधीर खास्तगीर से इनका परिचय हुआ । यहीं जगदीश जी की भेंट देवीप्रसाद गुप्ता से
हुई जो उन दिनों शांति निकेतन के कला भवन में कला अध्ययन कर रहे थे तब तक वे
मिट्टी की कला वस्तुओं के सुविख्यात कलाकार बन चुके थे । चित्रकला और अन्य कला
वस्तुओं के प्रति जगदीश जी का लगाव यहीं से पैदा हुआ । उन्हीं दिनों इंडियन पेंटिंग्स ( पर्सी ब्राऊन ) नामक पुस्तक
जगदीश जी के हाथ आयी जिसमे प्रस्तुत कांगडा
घराने का चित्र ' एराउंड द केंप फायर ' देखकर वे इतने प्रभावित हुए कि आज तक यह उनके प्रिय चित्रों में एक है ।
वे ऐसी पुस्तकों का ब्योरा अपनी एक डायरी में लिखते जाते जिससे वे प्रेरित हो रहे
थे । इसी प्रयास में उन्होने रायकृष्ण्दास
जी द्वारा हिंदी में रचित ' भारतीय चित्रकला ' नामक पुस्तक प्राप्त की ।
रायकृष्णदास जी भारत कला भवन, बनारस
के संस्थापक निदेशक थे । जगदीश जी को ललित कलाओं के प्रति प्रेरित और
प्रोत्साहित करने में इस महान रसज्ञ कला - विद्वान रायकृष्ण्दास जी का योगदान
महत्वपूर्ण है । यहीं से जगदीश जी की कला साधना की अंतहीन यात्रा प्रारम्भ हुई ।
सन् 1945 में इंटर की परीक्षा पास करने के पश्चात जगदीश जी
ने विश्ववभारती के कला भवन, शांति निकेतन में कला अध्ययन के लिए दाखिला
लिया । उन दिनों शांति निकेतन में कला के क्षेत्र में शिक्षण प्रदान करने के लिए
नंदलाल बोस, बेनोदेबिहारी
मुखर्जी और राम किंकर बैज आदि कलाविद मौजूद थे ।
शांति निकेतन का
कला भवन अपने आप में एक वृहत कला संग्रहालय है जिसने जगदीश जी को भारतीय कला
संबंधी विषयों के गहन शोधपरक अध्ययन के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराई । कला भवन जगदीश जी के लिए प्रेरणा का प्रमुख
स्रोत बना । शांति निकेतन के आचार्यों के गंभीर संप्रेरक मार्गदर्शन से जगदीश जी
ने कला समीक्षा और कालाकृतियों को परखने के विरले गुण विकसित किए । नंदलाल बोस
अपने छात्रों को अध्ययन यात्रा हेतु बनारस लेकर जाते थे । जगदीश जी को भी इस
यात्रा का लाभ प्राप्त हुआ । यहाँ उन्होने गुप्त काल और अन्य ऐतिहासिक महत्व की
चित्रकला की बारीकियों को समझने का ज्ञान प्राप्त किया । धीर धीरे जगदीश जी में भारतीय कला वस्तुओं के
प्रति अपनी जिज्ञासाओं को शोध के माध्यम से उपशमित करने की व्याकुलता बढ़ाने लगी ।
उन्होने स्वयं बनारस कि गलियों में घूम घूम कर दुर्लभ कला वस्तुओं को खोजने का काम
शुरू किया । छोटी बड़ी दुकानों में जाकर वे विभिन्न तरह की कला कृतियों और कला
वस्तुओं को तलाशकर खरीदने लगे और धीरे धीरे वे स्वैच्छिक रूप से कला संग्राहक बनने
लगे । यहाँ उन्हें कुछ उत्कृष्ट पहाड़ी
चित्रकारी के अद्भुत नमूने प्राप्त हुए । यहीं से एक विलक्षण कला संग्राहक का जन्म
हुआ जो अपने कला संग्रहण की अनंत यात्रा पर निकल पड़ा, इस कला साधना में वे सदैव अलौकिक आनंद का अनुभव करते हैं ।
जगदीश जी के जीवन में कमला जी के प्रवेश से उन्हें अपनी
शोधपूर्ण कला साधना की सुदीर्घ यात्रा के लिए एक बहुत बड़ा संबल और साथी मिल गया
। कमला जी ने जगदीश जी के सपनों को साकार
रूप देकर उनकी कला के प्रति विद्यमान आंतरिक अनुभूतियों को साथ साथ जिया । वे
दोनों कला की सुंदरता को उजागर करने की सौंदर्यानुभूतिपूर्ण यात्रा में सहयात्री
बनकर कला शोधन के लिए साथ साथ चलते रहे । समय के साथ साथ उनमें कला वस्तुओं के
प्रति प्रेम और जिज्ञासाएँ बढ़ती ही गईं और वे निर्विराम इसी साधना में अपना
सर्वस्व समर्पित करते रहे। उनकी कला पिपासा बुझती नहीं । वे
कला वस्तुओं के संग्रहण से थकते नहीं हैं और और न ही विश्राम लेते हैं । उनकी जीवन
शैली विलक्षण और आश्चर्यजनक है ।
विवाहोपरांत सन् 1951 में उन्हें हैदराबाद के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्य, कला और संस्कृति पोषक श्री बदरीविशाल पित्ती ने उनके कला
संग्रह को प्रदर्शित करने के लिए हैदराबाद आमंत्रित किया ।
मित्तल दंपति को हैदराबाद का कलाप्रेमी माहौल खूब भा गया
परिणामत: वे यहीं बस गए । जगदीश और कमला मित्तल दोनों हैदराबाद के कला संसार के
अपरिहार्य अंग बन गए । यहाँ के कलाकारों, रंग कर्मियों, साहित्यकारों,
शिक्षाविदों ने उन्हें अपार सम्मान और आदर से अपने हृदय में बसा लिया । मित्तल दंपति हैदराबाद ही नहीं वरन देश और
विदेश में भी समान रूप से सम्मानित हैं ।
सन् साठ के दशक तक उनके संग्रहालय के संदर्शन के लिए आने
वाले अति विशिष्ट हस्तियों में डॉ वी एस अग्रवाल, डॉ मोती चन्द्र ( निदेशक - प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम - बंबई, सुप्रसिद्ध कला इतिहासकार ), कार्ल खंडालावाला, डॉ वी जी आर्चर ( कला इतिहासकार और भारतीय कला विभाग, विक्टोरिया और एल्बर्ट म्यूज़ियम लंदन के क्यूरेटर ) और मुल्कराज आनंद (
अंग्रेजी उपन्यासकार ) आदि शामिल हैं ।
हैदराबाद संग्रहालयों का शहर है । यहाँ मध्यकालीन राजे
रजवाड़ों की संपत्ति में अनमोल कला- धरोहर बिखरे पड़े हैं। समय के साथ साथ जैसे जैसे राजवंशों का खात्मा
होने लगा और उनकी संपत्तियाँ नष्ट होने लगीं तो उसके साथ ही उनकी कला संपत्ति भी
किसी न किसी रूप में बाज़ार में बिकने लगी । इनमें से ही बहुत सारे अनमोल कला खंड
मित्तल दंपति ने धन की परवाह किए बिना अपने संग्रह के लिए उपलब्ध किया है ।
प्रत्येक कला वस्तु को प्राप्त कर उसके स्रोत, बनावट, कारीगरी और उसकी प्राचीनता का शोधपूर्ण
अध्ययन जगदीश और कमला जी करते रहे हैं । इस अर्थ में वे केवल कला वस्तुओं के
संग्राहक ही नहीं बल्कि वे कला वस्तुओं के गहन परिशोधक हैं ।
सन् 1964 से मित्तल दंपति ने अपनी चित्रकारी को विराम दिया
और संग्रहालय के रख रखाव तथा विस्तार के लिए ही अपना सम्पूर्ण समय देने का संकल्प
लिया । मित्तल दंपति ने अपने निजी सुख सुविधाओं को ताक पर रखकर केवल कला वस्तुओं
की खोज, उन्हें प्राप्त करने के साधन, उससे संबंधित लेखन कार्य में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया । आज
मित्तल संग्रहालय अथवा जगदीश मित्तल और कमला मित्तल म्यूजियम ऑफ इंडियन आर्ट की पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होती है ।
कमला जी ने एक सुदीर्घ जीवन पाया । उनके जीवन मे सुख, संतोष, प्रशांतता,
संतृप्ति की कभी कमी नहीं रही । वे कला साधना के प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध रहीं और तन,मन, धन से साहित्य और ललित कलाओं के संवर्धन और
संरक्षण में जगदीश जी का हर पल साथ निभाती रहीं । अंत में 22 नवंबर सन् 2012 की
अपराह्न वेला में उन्होने इस निस्सार संसार को त्यागकर अपने परिजनों से हमेशा के
लिए बिछुड़ गईं और अनंत में विलीन हो गईं । कमला जी का यूं चले जाना जगदीश जी के
जीवन को एकाकी कर गया । कमला जी के विछोह को सह पाना कठिन है । वे जगदीश जी की
चिरसंगिनी, कला-शोधक परामर्श-दात्री,
उदारमना समाज सेवी महिला थीं । कला जगत उनके निधन से सूना हो गया । कमला जी जितनी
बड़ी कलाकार थीं उतनी ही महान मानवतावादी समाज सेविका के रूप में अपनी पहचान बना
चुकीं थी । दीन दुःखी, पीड़ित और शोषित निर्धनों की सेवा
सहायता में कमला जी की तत्परता अतुलनीय है । उनका सुकोमल,
मौन, सुदृढ़ व्यक्तित्व उनके सबल मानसिक शक्ति और क्षमता को
प्रतिबिम्बित करता था। स्त्री सशक्तीकरण की वे प्रबल समर्थक रहीं हैं । मित भाषिता
और मृदु भाषिता उनके सुगढ़ निराडंबर व्यक्तित्व के मोहक अलंकरण थे । स्व-पर के भेद
भाव से ऊपर उठाकर उन्होने अपने परिवार का विस्तार किया । निस्संतान होने के बावजूद
उनके द्वारा पोषित तीन पुत्रियाँ - जमुना देवी, राधारानी और
रमादेवी अपनी सनताओं के संग उनके विस्तरित कुटुंब का हिस्सा हैं । इन तीनों
सुपुत्रियों को ऊंची शिक्षा प्रदान कर उनको सुखी वैवाहिक जीवन इन्होने प्रदान किया
। आज मित्तल परिवार नाती-पोतों की किलकारियों से भरा एक सुखी परिवार समूह है ।
अपनी पारिवारिक सीमाओं में कमला जी बिना किसी भेदभाव के सभी को शामिल कर लिया
करतीं थीं । जगदीश और कमला मित्तल कला संग्रहालय के रख रखाव में कमला जी के संग
इनके विस्तारित परिवार के सदस्य सक्रिय रूप से काम करते हैं । संग्रहालय की सैकड़ों कलाकृतियों और कला वस्तुओं को सहेजकर रखने का दु;साध्य कार्य यह समूचा परिवार करता है। कमला जी के न रहने से अब एक बहुत
बड़ी रिक्तता मित्तल परिवार में आ गयी है । एक मार्गदर्शक और पथप्रदर्शक आलोक
स्तम्भ ढह गया ।
कमला जी को चित्रकारी से अगाध प्रेम था । वे काष्ठकला, कसीदाकारी, बटिक और सुरुचिपूर्ण कलात्मक हस्तकारी
में निपुण थीं । बटिक कला की खोई हुई
प्रतिष्ठा को वे पुन: स्थापित कर रहीं थीं । वे सूती वस्त्रों, विशेषकर मणिपुरी करघे पर निर्मित सूती कपड़ों पर महीन बुनाई करने में
सिद्धहस्त थीं जो कि देश विदेश में सराही जाती रही है । उनके बनाए हुए चित्र, सरलता और सुंदर रूप - रंग के लिए प्रसिद्ध हैं । वे अपने चित्रों
में सुरुचिपूर्ण रंग और लयबद्ध
आकृतियों के संतुलित सम्मिश्रण से एक
विशेष चित्र शैली को निर्मित करतीं थीं, जो लोगों को लुभा
लेता है । वे एक प्रयोगधर्मी चित्रकार थीं, उन्होने चित्रकला
में अनेक नए प्रयोग साहस के साथ किए । उनके चित्रों में महिलाओं के श्रमिक रूप का
अधिक रूपांकन हुआ है । घरेलू कामकाज में लिप्त महिलाएं,
प्राकृतिक रंगों में खेतों के बीजारोपण करती हुई महिलाओं के सुंदर चित्र बनाने में
उनकी विशेष अभिरुचि थी । स्त्री जीवन
विषयक चित्रों को रूपायित करने में कमला जी ने विशेष आसक्ति दर्शाई थी । उनकी
चित्रकारी के केंद्र में घरेलू वातावरण प्रधान रूप से रहा है । उनके द्वारा बनाए
गए ऐसे चित्र कला प्रेमियों में अत्यंत लोकप्रिय हुए ।
सन् 1954 में उन्होने जगदीश जी के साथ मिलकर हिंदी में ' भारतीय कसीदा ' नामक पुस्तक की रचना की
जिसे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारों द्वारा विशेष पुरस्कार प्राप्त हुए
। पचास और साठ के दशक के मध्य भारती
हस्तकलाओं पर उनके लेख लगातार धर्मयुग और साप्ताहिक हिदुस्तान में छपते रहे ।
चित्रकला, कसीदाकारी, बुनाई, हस्तकला,काष्ठकला तथा कला समीक्षा के क्षेत्र में
कमला मित्तल की ख्याति विशेष रूप से उल्लेखनीय है । कला वस्तुओं के संग्रह में
जगदीश जी के सहायक के रूप में अपने दायित्व को निभाते हुए कमला जी ने कला के
क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान अर्जित की थी । वे अपनी चित्रकला के लिए हैदराबाद
आर्ट सोसाइटी, ऑल इंडिया आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स सोसाईटी नई
दिल्ली, टैगोर सेन्टीनरी एग्ज़ीबिशन हैदराबाद, द्वारा अनेकों बार पुरस्कृत हुईं
। उनकी कलाकृतियाँ सालार जंग म्यूज़ियम, हैदराबाद, भारत कला भवन बनारस, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, नई दिल्ली और अन्य प्रमुख कला केन्द्रों में संग्रहीत हैं ।
जगदीश जी भी अनेकों राष्ट्री एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरसकारों
से सम्मानित होते रहे हैं । वे एक व्यक्ति नहीं वर्ण एक विराट संस्था हैं । कला
समीक्षा के क्षेत्र में विभीन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कला- समीक्षा
पत्रिकाओं में उनके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते हैं । कला वस्तुओं की
प्रामाणिकता जानने के लिए देश विदेश से उनके निवास पर कलाकारों का तांता लगा होता
है । उनकी अप्रतिम कला साधना के लिए भारत सरकार ने 1990 में पद्म श्री पुरस्कार से
स्दम्मानित किया । इसके अतिरिक्त उन्हें अग्रवाल समाज हैदराबाद द्वारा 'कला रत्न ' सनातन धर्म ट्रस्ट द्वारा
प्रतिभा पुरस्कार और युद्ध वीर पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
सन् 2010 में आंध्र प्रदेश सरकार ने
उन्हें लाईफ टाईम एचीवमेंट एवार्ड से सम्मानित किया ।
कला वस्तुओं के प्रति कमला जी के आत्मिक लगाव और जगदीश जी
के कला प्रेम के प्रति उनकी दृढ़ निष्ठा के बिना ' जगदीश एंड कमला मित्तल म्यूज़ियम ऑफ इंडियन आर्ट - हैदराबाद ' का अस्तित्व असंभव था । यह
प्रयास कमला जी की लौह संकल्पना शक्ति और भारतीय कला संपदा के प्रति उनका समेकित
प्रेम और उन कला वस्तुओं को संग्रहीत करने का उनका जुनून, आज
इस अद्वितीय संग्रहालय को विश्व मानचित्र पर स्थापित करने में सफल हुआ है ।
एक समर्पित अर्द्धांगिनी के रूप में भारतीय परंपराओं के
अनुकूल अपने जीवन साथी जगदीश जी में उनकी अडिग आस्था ने उन्हें एक विशिष्ट
व्यक्तित्व प्रदान किया । जगदीश जी के विचारों, आदर्शों और उनके कला के प्रति विशेष दृष्टिकोण को कमला जी ने सदैव
सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ अपना समर्थन दिया । कला वस्तुओं की गुणवत्ता को परखने में
उनका ज्ञान और उनकी शोधात्मक अंतर्दृष्टि जगदीश जी के ही समान प्रखर और
सूक्ष्मदर्शी थी । उनका औदात्य भाव उनके
आतिथ्य सत्कार में सहज ही प्रकट होता था । उनके घर में अतिथियों का स्वागत हर समय
होता है । एक आत्मीय आतिथेय के रूप में कमला जी परिजनों,
मित्रों तथा साधारण से लेकर अतिविशिष्ट अतिथियों की अत्यंत प्रीतिपात्र रहीं हैं । कला अध्येताओं, शोधकर्ताओं, छात्रों और कला के जिज्ञासुओं के लिए
जगदीश और कमला जी के द्वार हमेशा खुले रहते हैं ।
कमला जी और जगदीश जी दोनों की एक ही कामना रही है कि वे इस अमूल्य धरोहर को एक विशाल संग्रहालय
परिसर में स्थानांतरित कर इसे सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए कला अध्येताओं को उपलब्ध कराया जाए । उन्होने अनेकों बार कई
नेताओं से इसके लिए उपयुक्त भवन मुहैया कराने की प्रार्थना की लेकिन आज तक उनका
अनुरोध स्वीकृत नहीं हुआ है । आज भी जगदीश मित्तल जी इसी अभिलाषा को लेकर निरंतर, निर्विराम, अहर्निश कला संयोजन के
महायज्ञ में लगे हुए हैं । हमें देखना है कि उनकी यह राष्ट्रधर्मी मनोकामना कब
साकार होगी ।
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एम वेंकटेश्वर
9849048156
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