Thursday, March 15, 2012

दक्षिण भारत में हिंदी में शोध की समस्याएँ

- एम वेंकटेश्वर

भारत एक बहुभाषी देश है । आज़ादी के बाद की एक जनगणना के आधार पर कहा जा सकता है कि इस देश में एक हजार से अधिक मातृभाषाएँ विद्यमान हैं । जिनको दो सौ वर्गीकृत भाषाओं में बांटा जा सकता

है । यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं है कि हमारे देश में साक्षर व्यक्तियों की संख्या अनुपात में कम होने तथा भाषा शिक्षण की किसी निश्चित योजना-बद्ध अध्ययन-अध्यापन के अभाव के बावजूद भी बहुभाषिकता देश की संचार व्यवस्था की प्रमुख शक्ति है । भारत में बहुभाषिकता किसी समस्या के रूप में नहीं रही , जैसा कि कुछ लोगों का विचार है । यहाँ की संचार ( संप्रेषण ) व्यवस्था समाज की अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप जिस प्रकृति में ढलती गई उसमें बहुभाषिक स्थिति एक सहज और प्राकृतिक लक्षण के रूप में उभरी । यही कारण है कि न केवल भारत, एक देश के रूप बहुभाषी देश है वरन् हर भाषावार प्रदेश भी एक बहुभाषी प्रदेश है ।

भारत की बहुभाषिकता की स्थिति की यह प्रकृति समुदायपरक है न कि व्यक्तिपरक । व्यक्तिपरक बहुभाषिकता, एक भाषा-भाषी समुदाय में देखी जाती है जहां अन्य व्यक्ति अपने ज्ञान या अन्य वैयक्तिक प्रयोजनों के कारण अन्य भाषा को स्वीकार करता और उसके प्रयोग को सीखता है । उदाहरण के लिए जब कोई विदेशी अपने देश में जब हिंदी या अन्य कोई भारतीय भाषा सीखने की और प्रवृत्त होता है तब उसकी यह आवश्यकता उसके समाज की संचार (संप्रेषण ) व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनती , बल्कि इसके विपरीत समुदायपरक बहुभाषिकता, एक बहुभाषी देश के समाज की व्यापक संचार ( संप्रेषण ) व्यवस्था का एक भाग बन जाती है । पारिवारिक व्यवहार, संप्रेषणीयता, दैनिक आचरण आदि के संदर्भ में जब समाज एक से अधिक भाषाओं के प्रयोग को सहज और स्वाभाविक स्तर पर स्वीकार करने लगे तब समुदायपरक बहुभाषिकता की स्थिति उभरती है । इस दृष्टि से देखें तो जिसे हम भारत में हिंदी प्रदेश कहते हैं, वह भी एक समुदायपरक बहुभाषी प्रदेश के रूप में ही सामने आता है ।

बहुभाषिकता के संदर्भ में यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि हर भाषा, समाज के हर प्रकार के दायित्व को नहीं निभाती । अगर बहुभाषिकता की प्रकृति व्यक्तिपरक न होकर समुदायपरक है तब विभिन्न भाषाओं का प्रयोग अपने एक निश्चित सामाजिक संदर्भ की अपेक्षा रखेगा । उसी संदर्भ में उस भाषा का प्रयोग सहज और सामान्य माना जाएगा । जिस प्रकार किसी एक भाषा के भीतर कई शैलियाँ होती हैं और हर शैली एक विशेष सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ की मांग करती है ।

भारतीय समाज न केवल बहुभाषी समाज है बल्कि वर्गीकृत होने के कारण उसकी भाषाओं में शैलीभेद सामाजिक प्रयोजनों के साथ सम्बद्ध होकर सामने आते हैं । इन भाषाओं में ' डायग्लोसिया ' ( भाषा-द्वैत ) की स्थिति स्पष्ट दिखाई देती है । बंगाली भाषा में ' चालित ' और ' साधुभाषा ' तेलुगू में ' व्याहारिक ' और ' ग्रांथिका ' शैली अथवा तमिल में ' पेच्चु ' और ' सेन्न तमिल ' - की दो स्पष्ट शैलियाँ प्रचलित हैं। ' चालित' ' व्यावहारिक ' और पेच्चु ' आदि शैलियाँ वस्तुत: इन भाषाओं की आधारभूत शैलियाँ हैं जिन्हें सामान्य व्यक्ति सहज रूप में सीख लेता है । इसके विपरीत ' साधुभाषा ' ' ग्रांथिका ' अथवा ' सेन्न तमिल ' इन भाषाओं की वह शैली है जिसे अधिक प्रतिष्ठा मिली है और जिसके न जानने से व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं माना जाता अथवा उस भाषा का उसका ज्ञान अधूरा समझा जाता है ।

हिंदी की स्थिति इन भाषाओं से जटिल इस अर्थ में है कि इसमे आधारभूत शैली के अतिरिक्त एक नहीं अपितु दो आरोपित शैलियाँ मौजूद हैं । आधारभूत शैली को प्राय: सामान्य हिंदी या हिंदुस्तानी की संज्ञा दी

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जाती है और आरोपित शैलियों को संस्कृतनिष्ठ या शिष्ट अथवा उच्च हिंदी और फारसी -अरबीनिष्ठ या उर्दू शैलियाँ कहा जाता है । हिंदी और उर्दू के बीच गहरी खाई का काम करने वाले दो प्रमुख तत्व रहे हैं - लिपि और साहित्यिक परंपरा । हिंदी नागरी लिपि की मुखाक्षेपी है और उर्दू फारसी लिपि की । हिंदी की परंपरा भारत की उस जातीय संस्कृति का संवहन कर रही है जो संस्कृत भाषा से अबाध गति से संचालित और परिवर्धित हुई है जब कि उर्दू फारसी की भाषिक परंपरा को आत्मसात करती रही है । पर लिपि भाषा नहीं होती और लिपि भेद को भाषा भेद का आधार नहीं बनाया जा सकता । इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि इन दोनों आरोपित साहित्यिक शैलियों का मूल आधार एक ही है - हिंदुस्तानी , जो न केवल दोनों ही लिपियों में लिखी जा सकती है बल्कि नागरी में लिखित पाठ को एक वर्ग हिंदी से जोड़ता है तो फारसी लिपि में लिखित उसी पाठ को दूसरा वर्ग उर्दू कहता है ।

भारत जैसे देश में जहां बहुभाषिकता इतिहास समर्थित रही है और जहां भाषा - सहिष्णुता सामाजिक संस्कृति का निर्वाहक तत्व रहा है वहाँ आज भाषा वैमनस्य को भावना का तीव्र उद्रेक निश्चय ही भाषा नियोजन की किसी गहरी भूल का परिणाम ही माना जा सकता है । भाषा नियोजन के लिए यह निश्चित करना आवश्यक है कि अन्य भाषा अथवा द्वितीय भाषा के रूप में कोई भाषा किन प्रयोजनों को साधती है और इस दृष्टि से आज की भाषाई स्थिति में हिंदी किन प्रयोजनों को लेकर प्रदेश अथवा संघ की स्वीकृत भाषा बन सकती है । भारत के अधिकतर प्रदेशों में हिंदी की स्थिति द्वितीय,भाषा अथवा अन्य भाषा के रूप में व्यवहरित हो रही है। भले ही इसे संविधान में राजभाषा का दर्जा प्राप्त है लेकिन अभी भी यह तकनीकी दृष्टि से संविधान में राष्ट्रभाषा के रूप में उल्लिखित नहीं है । इसके बावजूद भी हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन - अध्यापन देश के हर हिस्से में सक्रिय रूप से हो रहा है । हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन, अध्यापन और शोध रोजगार की संभावनाओं से लैस है । अन्य भारतीय भाषाओं के अध्ययन- अध्यापन की ही भांति भारत में हिंदी तथा हिंदेतर प्रदेशों में स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा स्तर तक इसकी व्याप्ति है । अन्य भाषा अथवा द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी भाषा के प्रयोग के चार प्रमुख प्रयोजन देखे जा सकते हैं -

1 सहायक भाषा : ( Auxiliary language )

जब अन्य भाषा या द्वितीय भाषा ( मातृभाषा से इतर भाषा ) सामाजिक संप्रेषण के लिए काम में न लाई जाए और उसे केवल ज्ञान के माध्यम के रूप में ही स्वीकार किया जाए तब ऐसी भाषा को सहायक भाषा की संज्ञा दी जा सकती है । विभिन्न विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्ययन, भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य की जानकारी के लिए उपकरण के रूप में की जाती है । इस तरह के प्रशिक्षण से उस तरह के द्विभाषी निकलते हैं जो ज्ञान के धरातल पर तो हिंदी सीख लेते हैं पर समाज के वास्तविक संदर्भों में इनका व्यावहारिक उपयोग नहीं कर पाते । इस सहायक भाषा को पुस्तकालयी भाषा रूप भी कहा जाता है ।

2 संपूरक भाषा : ( Supplimentary language )

जब अन्य भाषा या द्वितीय भाषा, व्यवहार में तो प्रयुक्त हो लेकिन जिन आवश्यकताओं के लिए अपनाई जाती है वह अपनी प्रकृति में अस्थाई तथा अपने प्रयोग में अत्यंत सीमित हो ( जैसे पर्यटकों के उपयोग तक सीमित भाषा ) तब उसे संपूरक भाषा की संज्ञा दी जाती है । इस दृष्टि से पढ़ाई जाने वाली भाषा आंशिक क्षमता वाले द्विभाषियों को ही पैदा कर सकती है । भाषा का सहायक और संपूरक प्रयोजन व्यक्तिपरक और

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व्यक्तिसाधक है न कि समाजपूरक और समाजसाधक । ये दोनों प्रयोजन किसी भाषा समाज की संप्रेषण व्यवस्था की आवश्यकता पर आधारित नहीं होते ।

3 परिपूरक भाषा ( Complimentary language )

अन्य भाषा के रूप में प्रयोग में आने वाली भाषा प्रथम या मातृभाषा के परिपूरक प्रयोजन में सिद्ध तब मानी जा सकती है जब वही भाषा निर्धारित भाषा-समाज के सीमित, परंतु निर्दिष्ट सामाजिक संदर्भों में स्वभावत: प्रयुक्त की जाये । इस दृष्टि से यदि हम अंग्रेज़ी के प्रयोग पर ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाता है कि वह भारतीय भाषा समाज के परिपूरक प्रयोजन के लिए सिद्ध है । वस्तुत: अंग्रेज़ी इसी संदर्भ में एक अक्षेत्रीय लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर व्यवहार में लायी जाने वाली संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई ।

4 समतुल्य भाषा ( Equative language )

जब अन्य भाषा या द्वितीय भाषा उन सभी सामाजिक संदर्भों में प्रयुक्त होने लगे जिसमे मातृ-भाषा प्रयोग में लायी जाती है तब उसे समतुल्य भाषा प्रयोजन की संज्ञा दी जा सकती है । ऐसी स्थिति में कोई भी द्विभाषी धीरे धीरे एक-भाषी बन जाता है, क्योंकि उसके लिए मातृभाषा एक अर्थहीन भाषा बन जाती है । यह स्थिति अमेरिका जैसे देशों में प्राय: देखने को मिलती है, जहां दूसरे भाषा-समाज के लोग वहाँ बसने के एक या दो पीढ़ी के बाद अपनी मातृभाषा को आनुषंगिक और बाद में अर्थहीन देखकर उसे त्याग देते हैं और अंत में वहाँ की भाषा को ही अपनी प्रथम भाषा के रूप में स्वीकार कर लेते हैं ।

हिंदेतर ( अहिंदी ) भाषी क्षेत्रों में हिंदी शिक्षण का सही दृष्टिकोण परिपूरक प्रयोजनों के लिए होना चाहिए । हर प्रदेश की अपनी मातृभाषा तो है ही इसलिए हिंदी का शिक्षण उन संदर्भों में करना अनुचित होगा जिनके लिए पहले से ही मातृभाषा का प्रयोग होता रहा है । ऐसा न करने पर हिंदी अनावश्यक रूप से अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिद्वंद्विता में उलझ जाएगी ।

भारतीय समाज भाषा वैविध्य को बिना मिटाये हुए भाषा की एकता पर बल देता रहा है । भाषा सहिष्णुता उसकी जातीय एवं सांस्कृतिक चेतना की आंतरिक शक्ति के रूप में स्थित रही है । हिंदी भाषा शिक्षण का सही संदर्भ यही है कि हम पहले भारतीय समाज की बहुभाषिकता की प्रकृति को ठीक से समझें और तदनुरूप विभिन्न भाषा प्रयोजनों के संदर्भ में हिंदी का अन्य भाषाओं के साथ संबंधों का सही आकलन करते हुए भाषा शिक्षण को सार्थक बनाएँ ।

दक्षिण के चार राज्यों में हिंदी अन्य भाषा अथवा द्वितीय भाषा का स्थान लिए हुए है । इन राज्यों में तेलुगू, तमिल, कन्नड और मलयालम मातृभाषा के रूप में प्रयुक्त होती हैं । हिंदी भाषा और साहित्य का शिक्षण इन राज्यों में प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तर पर द्वितीय और तृतीय भाषा के रूप के रूप में होता है । द्वितीय भाषा शिक्षण की पद्धति के द्वारा दक्षिण में हिंदी का अध्यापन राज्य स्तरीय विद्यालयों तथा केंद्र शासित शिक्षा विधान के अंतर्गत होता है । हिंदेतर प्रदेश होने के कारण तेलुगू अथवा अन्य राज्य की भाषाओं के समतुल्य हिंदी भाषा का शिक्षण नहीं हो पाता । इसके अनेक कारण हैं । हिंदी की वर्तमान लोकप्रियता तथा भावनात्मक रुझान के बावजूद शिक्षण के स्तर पर महानगरों के अतिरिक्त कस्बाई क्षेत्रों में हिंदी भाषा का शिक्षण कठिन और बड़ी चुनौती से भरा कार्य है । दक्षिण के कुछ महानगर विशेषकर राजधानी नगरों में हिंदी भाषा की मौजूदगी सांस्कृतिक सामासिकता के कारण तथा व्यापार- वाणिज्य, बाजार और सिनेमा के प्रभाव से हिंदी बोलचाल के स्तर पर स्वीकृत अवश्य है और इसका

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व्यावहारिक प्रयोग भी आशाजनक है, वैसे ही शिक्षण के स्तर भी महानगरीय वातावरण में हिंदी भाषा का शिक्षण अपेक्षाकृत सकारात्मक दिखाई पड़ता है । कुछ वर्षों तक दक्षिणी राज्यों में दसवीं कक्षा में हिंदी में उत्तीर्णता अनिवार्य नहीं हुआ करती थी किन्तु अब इस स्थिति में परिवर्तन कर दिया गया है और आंध्र प्रदेश में राज्य शिक्षा मंत्रालय द्वारा हिंदी (भाषा ) में उत्तीर्णता अनिवार्य कर दी गयी है । इस कारण अब प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर के छात्र हिंदी के प्रति अधिक सतर्क हो रहे हैं । दक्षिण भारतीय वातावरण में स्थानीय भाषा का प्रभाव पूरी तरह छात्रों पर हावी रहता है जिससे हिंदी भाषा के शिक्षण में अनेकों समस्याएँ शिक्षकों के सम्मुख उपस्थित होती हैं । जहां एक और मातृभाषा स्वाभाविक रूप से बालक परिवार और परिवेश से अनायास और सहज ही ग्रहण कर लेता है वहीं उसे द्वितीय और तृतीय भाषाओं को सीखने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता होती है जो कि अनेकों संदर्भों में माता-पिता और छात्र को अनावश्यक और निरर्थक लगती है । इसलिए इस अतिरिक्त परिश्रम से बचने के लिए हिंदी ( द्वितीय या तृतीय भाषा ) को सीखने में छात्रों का एक बड़ा समुदाय उत्साह का प्रदर्शन नहीं करता। दूसरी और हिंदी की उपयोगिता का प्रश्न भी दक्षिण के छात्रों के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि अंग्रेज़ी का सर्वव्यापी वर्चस्व और उसकी व्यावहारिक उपयोगिता हिंदी के प्रयोजन को धुंधला कर देती है । दक्षिण के छात्र स्कूली धरातल से ही द्वितीय भाषा को महत्वहीन मानते हैं और वे अंग्रेज़ी, जो की प्रथम भाषा का स्थान ले चुकी है, उसे साधने और दक्षता हासिल करने में अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं । भारत की उच्च शिक्षा तथा वृत्तिमूलक ( व्यावसायिक अथवा प्रोफेशनल एजुकेशन ) शिक्षा प्रणाली केवल अंग्रेज़ी में ही उपलब्ध होने के कारण, हिंदी भाषा को द्वितीय भाषा के रूप में स्वीकार करने में छात्रों तथा अभिभावकों को कोई दूरगामी लाभ नहीं दिखाई देता।

आज का जीवन उपभोक्तावादी संस्कृति से पूर्णत: प्रेरित, प्रभावित तथा संचालित है । इसलिए भाषाओं का व्यवसायीकरण आज बड़े पैमाने पर हो रहा है । भारतीय भाषाओं की खपत केवल बाजार में है जहां हिंदी एवं अन्य भाषाओं के माध्यम से बाजार से अधिक से अधिक धन कमाया जा सके। इसके लिए आवश्यकतानुसार वस्तु-विषय-केन्द्रित भाषा शिक्षण बाजार में उपलब्ध है जिसको अधिगम के रूप में ग्राहकों को उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न तरह के शिक्षण केंद्र व्यावसायिक दृष्टि से खुल गए हैं । भाषा और साहित्य का अध्ययन किसी भी देश और समाज की संस्कृति को जानने के लिए किया जाता है जो कि सांस्कृतिक अध्ययन का एक अंग होता है । भाषा संस्कृति की वाहिका होती है और भाषा विचारों का संवहन करती है। भाषा का मूल उद्देश्य संप्रेषण होता है। किसी भी भाषा का ज्ञान इस भाषा से जुड़े हुए साहित्य तथा समाज का अध्ययन करने की क्षमता प्रदान करता है । भाषिक कौशल आज हर व्यक्ति के लिए सफलता की कुंजी बन गई है । भाषिक कौशल अथवा भाषिक सक्षमता के अभाव में व्यक्ति की अभिव्यक्ति एवं संप्रेषण की क्षमता प्रभावित और कुंठित हो जाती है और वह पेशे में अपनी अलग पहचान नहीं बना सकता इसलिए आज भाषा कौशल जो कि संप्रेषण कौशल का अभिन्न अंग है, महत्व बढ़ गया है ।

शिक्षा का क्षेत्र रोजगार का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमे उत्तम शिक्षकों की आवश्यकता अनंत काल से हर युग में हर समाज में रही है । भाषा कौशल सफल और प्रभावशाली शिक्षक का विशिष्ट गुण होता है, जिसे उसे अर्जित करना पड़ता है । विशेष रूप से जब वह शिक्षक एक द्वितीय भाषा का शिक्षण कर रहा हो तो उसे अतिरिक्त रूप से अपने संप्रेषण कौशल को स्व-प्रयासों से साधने की आवश्यकता होती है । उच्चारण के

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स्तर पर मुख्य रूप से उसे मातृभाषा के प्रभाव से स्वयं को स्वतंत्र व मुक्त रखना होता है। दक्षिण भारतीय भाषा-भाषी शिक्षक के लिए हिंदी भाषा का शिक्षण एक चुनौती बन जाती है यदि वह अपनी भाषिक क्षमता को मूल-भाषिक स्तर पर न ला पाता हो । भाषा विज्ञान के पर्यवेक्षण के अनुसार भाषिक उच्चारण को प्रभावित करने वाले तत्वों में प्रमुख भूमिका जहां मातृभाषा की अधिक होती है वहीं भौगोलिक और सामाजिक परिवेश भी उच्चारण क्षमता पर असर करती है। भाषा के अधिगम में शिक्षार्थी को इस बात की और ध्यान देना आवश्यक हो जाता है । दक्षिण भाषी शिक्षार्थी और शिक्षक, दोनों में इस प्रकार के विकार स्पष्ट दिखाई देते हैं, जो कि मातृभाषा के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं साथ ही भौगोलिक परिवेश के कारण भी लोग कुछ ध्वनियों के उच्चारण में कठिनाई का अनुभव करते हैं । दक्षिण में हिंदी भाषा की ध्वनियों के उच्चारण दोषों मे मुख्यत: महाप्राण ध्वनियों का स्पष्ट उच्चारण एक बड़ी समस्या है । उसी प्रकार हिंदी के संयुक्ताक्षरों के उच्चारण में भी दक्षिण भारतीयों को कठिनाई का सामना करना पड़ता है । दक्षिण की भाषाएँ उच्चारण के धरातल पर स्वरांत भाषाएँ हैं अर्थात प्रत्येक शब्द अकारांत होने के बावजूद भी आकारांत की ध्वनि के साथ उच्चरित होता है । जब कि हिंदी में ऐसा नहीं है । हिंदी के अकारांत शब्दोंका उच्चारण हलंत युक्त ध्वनि के रूप में किया जाता है । तेलुगू भाषियों के लिए इस तथ्य को सतर्कता के साथ इसकी सूक्ष्मता के प्रति सचेत रहते हुए भाषा शिक्षण की प्रक्रिया को स्वीकार करना चाहिए ।

कारक चिह्नों के प्रयोग में विशेष रूप से दक्षिण भारतीयों को हिंदी के कर्ताकारक के चिह्न ' ने ' के प्रयोग में विशेष कठिनाई होती है । इस कारक चिह्न के प्रयोग को जब तक उन्हें व्याकरणिक रीति से समझाया नहीं जाएगा, वे हिंदी के वाक्यों में ' ने' कारक चिह्न का सही प्रयोग करने में असमर्थ होंगे। उसी प्रकार हिंदी के क्रिया पदों के प्रयोग की समस्या भी जटिल है । इस ओर भी दक्षिण भारतीय हिंदेतर भाषियों के लिए विशेष भाषिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । दक्षिण भारतीय भाषी लोगों के लिए हिंदी में लिंग और वचन के सही प्रयोग की समस्या जटिल है। इनके लिए हिंदी के अप्राणीवाचक शब्दों के लिंग निर्धारण और उसके सही प्रयोग की समस्या भी एक गंभीर समस्या होती है । इस तरह हम देखते हैं कि द्वितीय भाषा अथवा अन्य भाषा के रूप में हिंदी भाषा के शिक्षण की समस्याएँ, उच्चारण और लेखन - दोनों स्तरों पर शिक्षण में बाधक होती हैं जिनका निवारण शिक्षक को करना पड़ता है ।

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षण के लिए जो अर्हताएँ निर्धारित कि गयी हैं उनमें नियमों के अनुसार शोध की उपाधि अनिवार्य कर दी गयी है । अर्थात विश्वविद्यालयी शिक्षण के लिए शिक्षक के लिए शोध की उपाधि

( एम फिल अथवा पीएच डी ) अनिवार्य है । हिंदी भाषा और साहित्य संबंधी विषयों पर शोध की उपाधि, आज हिंदी के उच्च शिक्षा की शिक्षण प्रणाली के लिए अनिवार्य है । इसलिए स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के उपरांत उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश पाने के इच्छुक शिक्षार्थी शोध की उपाधि हासिल करने के लिए विश्वविद्यालयों में इन उपाधिगत पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेते हैं । हिंदी भाषा और साहित्य से संबंधित विषयों पर शोध करने वाले दक्षिण भारतीय शोधार्थियों की समस्याएँ अन्य भाषी क्षेत्रों के शोधार्थियों से अनेक अर्थों मे भिन्न हैं ।

शोध एक जटिल और संष्लिष्ट प्रक्रिया है जिसमे अल्प ज्ञात, एवं अज्ञात तथ्यों की खोज ही शोध का उद्देश्य होता है । ज्ञान विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के विषयों पर शोध के लिए भिन्न भिन्न शोध-प्रविधियां अपनाई जाती हैं । साहित्यिक तथा भाषागत शोध की एक अलग शोध-प्रविधि निर्धारित है जिसकी सैद्धांतिकी का

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ज्ञान प्रत्येक शोधार्थी लिए अनिवार्य है । दक्षिण भारत मे हिंदी मे शोध की समस्याओं का आकलन निम्नलिखित आधार पर किया जा सकता है -

1 विषय चयन की समस्या ( हिंदी मे भाषा कौशल के अभाव के कारण )

हिंदी मे साहित्यिक एवं भाषागत शोध विषय के चयन के लिए शोधार्थी का भाषा कौशल एवं भाषिक निपुणता बहुत महत्व रखती है । हिंदी साहित्य की परिसीमाएँ अतिविस्तृत होने के कारण हिंदी के ही अंतर्गत ब्रज, अवधी, राजस्थानी, डिंगल, पिंगल भाषाओं के साहित्य को समाविष्ट किया गया है । मध्ययुगीन हिंदी साहित्य मुख्यत: उपरोक्त भाषा समूहों मे रचित है, जिनका स्वरूप खड़ी बोली हिंदी के स्वरूप के अति निकट होते हुए भी नितांत भिन्न है । आज हिंदी का खड़ी बोली स्वरूप व्याहारिक तथा शैक्षिक धरातल पर मानक हिंदी के रूप मे मान्य है । दक्षिण भारतीय शोधार्थी हिंदी को उसी रूप मे स्वीकार करता है क्योंकि द्वितीय भाषा के रूप मे सीखकर आने वाले शोधार्थी के लिए खड़ी बोली हिंदी अपेक्षाकृत सरल तथा बोधगम्य लगती है । परिणाम स्वरूप दक्षिण भारतीय मातृभाषा के छात्र ब्रज, अवधी जैसी भाषाओं मे रचित साहित्य का अध्ययन करने से पीछे हटते हैं साथ ही वे ऐसे भाषिक विषयों का चयन शोध हेतु नहीं कर पाते।

इसीलिए अक्सर यह देखा जाता है कि दक्षिण भारतीय शोधार्थी सरल खड़ी बोली हिंदी रचित साहित्यिक विधाओं पर आधारित विषयों को ही शोध हेतु चुनते हैं ।

दक्षिण भारतीय छात्रों के लिए हिंदी की आंचलिक बोलियों या भाषाओं मे रचित साहित्य की बोधगम्यता एक बहुत बड़ी समस्या है । भारत के विभिन्न अंचलों मे स्थानीय (आंचलिक) भाषाओं का व्यवहार मे प्रचलन है । ऐसी स्थानीय आंचलिक भाषाओ का साहित्य हिंदी मे बहुत चर्चित तथा लोकप्रिय है जिसमे लोक संस्कृति के तत्व प्रचुर मात्रा मे उपलब्ध होते हैं । भारत की लोक सांस्कृतिक धरोहर का अध्ययन आंचलिक भाषाओं मे रचित साहित्य के अध्ययन और शोध से ही संभव है, किन्तु दक्षिण भारतीय हिंदेतर भाषी छात्र के लिए यह कठिन और दुर्बोध हो जाता है । इस कारण दक्षिण भारत मे आंचलिक साहित्य एवं लोकसाहित्य संबंधी विषयों पर शोध कार्य संभव नहीं हो पाता है । वैसे भी किसी भी आंचलिक भाषा की बोधगम्यता का सीधा संबंध उस भूखण्ड के मूल निवासियों के जीवन से जुड़ा हुआ विषय होता है। उदाहरण के लिए ' रेणु ' के ' मैला आँचल ' उपन्यास को दक्षिण भारतीय ( हिंदेतर भाषी ) छात्र के लिए समझ पाना कठिन है । यहाँ तक कि खड़ी बोली हिंदी के प्रयोक्ता भी पूर्णिया जिले की आंचलिक भाषा को पूरी तरह समझ पाने मे असमर्थ दिखाई पड़ते हैं । भाषिक बोध की कठिनाईके कारण हिंदेतर भाषी शोधार्थी, हिंदी की साहित्यिक कृतियों तथा इतर आलोचना एवं सहायक ग्रंथों के पढ़ने में एक तरह की मानसिक आलस्य से ग्रस्त पाए जाते हैं । स्वाध्याय का अभाव तथा शोध के लिए आवश्यक पूर्व - ज्ञान का अभाव इसी भाषा बोध की कठिनाई से उत्पन्न दुष्परिणाम ही हैं ।

हमारे देश मे आज हिंदी शिक्षण का अर्थ खड़ी बोली हिंदी भाषा का शिक्षण माना जाता है । केवल खड़ी बोली हिंदी का शिक्षण हिंदी के विभिन्न आंचलिक भाषा रूपों को समझने मे सहायक नहीं होता। इसके लिए हिंदी मातृभाषा वाले शोधार्थी ही उपयुक्त सिद्ध हो सकते है ।

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2 सामाग्री संकलन मे कठिनाई

हिंदेतर भाषी शोधार्थी शोध सामाग्री के संकलन मे भी भाषिक कठिनाइयों से जूझता है । साहित्यिक शोध मे सामाग्री संकलन, मूलत: अध्ययन केन्द्रित होता है इसलिए अधिक से अधिक सामाग्री, परीक्षण और सही वर्गीकरण तथा विश्लेषण, भाषिक कौशल एवं सामाग्री संबंधी बोध पर निर्धारित होता है । भाषिक सक्षमता या अक्षमता का असर गुणवत्ता -पूर्ण सामाग्री के संकलन पर पड़ता है जिससे शोध कार्य बाधित होता है तथा इसका दूरगामी प्रभाव शोध प्रबंध की उत्कृष्टता पर स्पष्ट दिखाई देता है ।

शोध सामाग्री के संकलन के लिए शोधार्थी को यदि हिंदी क्षेत्र में जाने की आवश्यकता पड़े तो वहां पर विषय संबंधी विचार विमर्श के लिए उसे अपने संप्रेषण कौशल पर निर्भर रहना पड़ता है जिसके अभाव में उसे संबंधित क्षेत्र से समुचित सहायता न मिल पाने की संभावना अधिक रहती है । हिंदेतर भाषी छात्रों में हिंदी भाषा का व्यावहारिक प्रयोग कराते समय विशेष संकोच का भाव दिखाई देता है, जो कि उनमें मौजूद हीनता बोध और आत्मविश्वास की कमी को प्रदर्शित करता है । इसके लिए आवश्यक है वे इस दुर्बलता का निवारण मानसिक सुदृढ़ता तथा अथक परिश्रम से भाषा कौशल को अर्जित करके करें । हिंदी भाषा के व्याहारिक प्रयोग में संकोची प्रवृत्ति शोध के प्रयासों को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करती है । अधिकतर हिंदेतर भाषी छात्र ( द्वितीय भाषा स्तर की भाषिक क्षमता रखने वाले ) अकसर अपने विचारों को सटीक और सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाते । वे अपने विचारों को मूलत: मातृभाषा में संकल्पित कर उसे ( अन्य भाषा अथवा द्वितीय भाषा ) हिंदी में रूपांतरित कराते हैं जिसमे गलतियां होती है और अशुद्ध अभिव्यक्तियां प्रकट होती हैं । वैचारिक आदान-प्रदान के लिए हिंदी में वार्तालाप आवश्यक होता है किन्तु भाषिक अक्षमता संप्रेषण में बाधक बनती है । हिंदेतर भाषी प्रदेशों में हिंदी भाषा और साहित्य संबंधी शोध सामाग्री का पूर्णत: अभाव देखा गया है । इन प्रदेशों में हिंदी की पुस्तकें ( मूल रचानाएं, सहायक ग्रंथ, संदर्भ ग्रंथ और पत्र-पत्रिकाएँ आदि ) दुर्लभ होती हैं । यह महत्वपूर्ण समस्या है । हिंदी की शोध सामाग्री के लिए दक्षिण भारतीय शोधार्थियों को सुदूर उत्तर भारत में स्थित प्रकाशकों एवं विश्वविद्यालयों और अन्य स्रोतों की और ताकना पड़ता है । यहां के सार्वजनिक पुस्तकालयों में भी हिंदी भाषा एवं साहित्य संबंधी पुस्तकों का नितांत अभाव है जो हिंदी में शोध में शोध कार्य को बाधित करता है । दक्षिण भारत के महानगरों के सिवाय प्रदेश के भीतरी भागों में हिंदी में शोध की सुविधाएं नगण्य है । ऐसे में हिंदेतर भाषी शोधार्थी को अपने भाषा ज्ञान को समृद्ध कर उसे शोध प्रबंध लेखन योग्य बनाने में कठिनाई होती है ।

3 शोध प्रबंध लेखन में मौलिक भाषा के प्रयोग की समस्या -

शोध की समूची प्रक्रिया - विषय चयन, प्रतिपादन, व्याख्या, सिद्दांत निरूपण, पृष्ठभूमि निर्माण, वर्गीकरण, विश्लेषण, तथा निष्कर्ष को लिखित प्रबंध के रूप में प्रस्तुत करने से संपन्न होती है । यह समूची प्रक्रिया लेखन पद्धति से की जाती है । हिंदी में शोध प्रबंध की प्रस्तुति की सफलता तथा गुणवत्ता, शोधार्थी के मौलिक शोधपरक हिंदी भाषा के प्रयोग की क्षमता पर निर्भर करती है । अधिकांश हिंदेतर भाषी शोधार्थी भाषा कौशल के अभाव में मौलिक रूप से शोध प्रबंध लेखन में कठिनाई का अनुभव करते हैं जिसका मूल कारण उनका अपर्याप्त भाषा ज्ञान, अपर्याप्त भाषा कौशल होता है । हिंदेतर भाषी छात्रों की उत्तर भारतीय सांस्कृतिक संदर्भों को समझने में कठिनाई का अनुभाव होता है जिसकी व्याख्या साहित्यिक शोध में आवश्यक होती है । अधिकांश हिंदेतर भाषी शोधार्थियों के लेखन में कारक चिह्नों के प्रयोग तथा संयुक्त

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क्रिया पदों के प्रयोग की समस्या स्पष्ट परिलक्षित होती है । शोध प्रबंध लेखन में शोध कि एक निर्दिष्ट भाषा शैली की अपेक्षा की जाती है । शोधार्थी की भाषा में मौलिकता का गुण प्रधान होता है । विषयानुकूल भाषा नियोजन भी दक्षिण भारत में प्रमुख समस्या के रूप में विद्यमान है । इन समस्याओं का समाधान हिंदी भाषा शिक्षण प्रणाली में हिंदी भाषा के महत्व को स्वीकारते हुए शिक्षा प्रणाली में नीतिगत परिवर्तन करने की आवश्यकता है ।

आज हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में जारी संस्थागत शोध की गुणवत्ता पर अनेकों प्रश्न चिह्न लग रहे हैं । इसलिए गुणवत्ता में गिरावट के कारणों की जांच अपेक्षित है । संस्थागत शोध निर्धारित ( सीमित ) अवधिगत होते हैं इसलिए उस निर्धारित कालावधि में उपाधि हासिल करने हेतु जल्दबाज़ी में गुणवत्ता -विहीन शोध प्रबंधों को जमा करने की अनुमति दिये जाने के अनेक उदाहरण दृष्टव्य हैं । विश्वविद्यालयों एवं अन्य ऐसे ही शोध संस्थानों में प्रस्तुत किए जाने वाले शोध प्रबंधों की मूल्यांकन प्रणाली भी समस्या एवं संकटग्रस्त दिखाई देती है । शोध प्रबंधों के मूल्यांकन की समस्याएँ महत्वपूर्ण हैं जिनका निवारण संबंधित संगठन द्वारा अनुशासनयुक्त कड़े नियमों के अनुपालन से संभव है । विद्वानों का अभिप्राय है कि शोध के स्तर की गिरावट के लिए शोध प्रबंध मूल्यांकन की ढीली-ढाली प्रणाली जिम्मेदार है । एक तरह से दूषित और भ्रष्ट मूल्यांकन प्रणाली शोध के स्तर में गिरावट का कारण हो सकता है । हिंदी में शोधार्थियों की संख्या में निरंतर वृद्धि के कारण उपयुक्त शोध निर्देशकों का अभाव - एक प्रमुख समस्या है । दक्षिण भारत में हिंदी भाषा में निष्णात विषय विशेषज्ञों का अभाव, एक गंभीर समस्या है । संस्थागत शोध को सफल और उत्कृष्ट स्वरूप प्रदान करने में गुणवान और विद्वत्तापूर्ण शोध निर्देशक की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है । शोध निर्देशक में हिंदी भाषा कौशल तथा भाषा ज्ञान का होना अति आवश्यक है । इन गुणों के अभाव में निर्देशक शोधार्थी को प्रभावपूर्ण मार्गदर्शन देने में असमर्थ सिद्ध होगा जिससे शोधार्थी का शोध कार्य प्रभावित होगा ।

हिंदेतर भाषी प्रदेशों में हिंदी भाषा कौशल को कारगर बनाने के लिए हिंदी भाषा शिक्षण पर विशेष ध्यान देना चाहिए और भाषा शिक्षण की विशेष व्यवस्था विकसित कर हिंदी भाषा शिक्षण की एक गुणवत्तापूर्ण प्रणाली को शिक्षा के सभी स्तरों पर लागू करने की योजना बनाने के लिए सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को संप्रेरित करना चाहिए । हिंदेतर प्रदेश के हिंदी छात्रों तथा शोधार्थियों में भाषा प्रवीणता विकसित करने के लिए सभी संभव प्रयास आवश्यक हैं जिसके अंतर्गत विशेष प्रशिक्षण योजनाओं का कार्यान्वयन शामिल

हो । भारत की बहुभाषिक सामाजिक स्थिति के संदर्भ में हिंदी के जातीय महत्व स्थिरता प्रदान करने के लिए हिंदी भाषा शिक्षण को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए । हिंदी रोजगार का प्रभावी और महत्वपूर्ण साधन तथा माध्यम है इसलिए इसके प्रति सरकारी और गैरसरकारी व्यवस्था तंत्र में जागरूकता लाना अनिवार्य है ।

प्रो एम वेंकटेश्वर

पूर्व -अध्यक्ष

हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय

हैदराबाद ।

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