यह बहुत ही चिंता का विषय है कि छात्रों में (स्कूल और कॉलेज ) में भारतीय भाषाओं और हिंदी की संवैधानिक स्थिति के संबंध में ज्ञान पूरी तरह शून्य है । इधर मुझे कई विद्यालयों मे जाने का अवसर मिला । हिंदी के छात्रों को संविधान में हिंदी से संबंधित अनुच्छेदों के बारे में अनभिज्ञता देखकर दुख और आश्चर्य हुआ । हमारे देश के शिक्षित नागरिकों भी इन तथ्यों के बारें जानकारी नहीं । लोग इसे जानना महत्वपूर्ण नहीं मानते। हमारा देश बहुभाषी देश है । संस्कृतिबहुलता इस देश की मूल प्रकृति है । संविधान में 22 भाषाओं का उल्लेख आधिकारिक रूप से आठवीं अनुसूची में हुआ है । बहुत कम लोगों को इन बाईसों भाषाओं की जानकारी है । अधिक लोग नहीं जानते कि इन बाईस भाषाओं की सूची में अंग्रेजी नहीं शामिल की गई है । जब कि अंग्रेजी साहित्य, भारतीय साहित्य का गौरवशाली हिस्सा है । भारतीय अंग्रेजी लेखन विश्व ख्याति प्राप्त है । चेतन भगत, अनीता देसाई, मुल्कराज आनंद, किरण देसाई, विक्रम सेठ, शोभा डे, खुशवंत सिंह, आदि सुविख्यात भारतीय लेखक अंग्रेजी साहित्य को भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया ।
इसके अलावा, लोगों मे इस तथ्य के प्रति भी उदासीनता है कि हिंदी को संविधान मे राजभाषा का ही दर्जा दिया गया है । संविधान मे कहीं भी हिंदी के लिए 'राष्ट्रभाषा ' शब्द का प्रयोग ही नहीं किया गया है। यह बहुत बड़ी त्रुटि है या सरकार (संविधान समिति की ) 'नीति ' - इसका खुलासा कहीं नहीं हुआ है जो कि कष्टदायक है और विवादों को जन्म देने वाला हथियार है । देशवासियों को भावनात्मक स्तर पर इसे राष्ट्रभाषा स्वीकार करने की अपेक्षा करना 'तकनीकी ' दृष्टि से सही नहीं लग सकता है । ऐसे तर्क की गुंजाईश तो है । वैसे आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी 22 भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ ही हैं, लेकिन हिंदी ही राष्ट्रभाषा कहने का कोई मजबूत तर्क नहीं दिखाई दे रहा है। यही कारण है कि देश के कई लोग इसे वैसे राष्ट्रभाषा मानने से इनकार करते हैं । संविधान का अनुच्छेद 351 - जो कि एक निर्देश है - में देश में हिंदी को प्रमोट करने के लिए निर्देश दिए गए हैं साथ ही इसमें हिंदी के स्वरूप को परिभाषित किया गया है । जो कि (1) सरल (2) हिन्दुस्तानी हो (3) सामासिक संस्कृति का प्रतीक हो (4) शब्द भंडार की समृद्धि - मूलत: संस्कृत और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द लिए जाएँ । ये निर्देश ही हिंदी को स्थूल रूप से राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की ओर संकेत मात्र करता है । हिंदी के स्वरूप को हिन्दुस्तानी रखने पर इस अनुच्छेद में बल दिया गया है ।
एक और महत्वपूर्ण सत्य/तथ्य की ओर ध्यान नहीं जाता है - अनुच्छेद 348 - जो न्यायपालिका की भाषा को निर्धारित करता है । इसके अनुसार न्यायपालिका और संसद की भाषा अंग्रेजी होगी । ( कामकाज की भाषा ) । यह बहुत ही विचित्र है । भारत जैसे देश में जहां अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है चाहे इसकी क्षमता दुनिया को जीतने की ही क्यों न हो, भारत के लिए तो यह एक विदेशी भाषा ही है और रहेगी। कोर्ट कचहरियों में कामकाज इसीलिए अंग्रेजी में ही होता है । इसीलिए कोई भी आम भारतीय कचहरी में अपना मामला ले जाने के लिए डरता है । फैसला भी नगइनत पृष्ठों मे अंग्रेजी में दिया जाता है जिसे समझने के लिए वकीलों को बड़ी रकम देनी पड़ती है । हिंदी को हालाकि संविधान के अनुच्छेद 343 में संघ की राजभाषा घोषित किया गया है (देवनागरी लिपि और अंतर्राष्ट्रीय अंकों के साथ ) फिर भी इसके साथ अंग्रेजीमें कामकाज करने की छूट का भी प्रावधान बहुत ही होशियारी से जड़ दिया गया है । यह अंग्रेजी वाली शर्त केवल 15 वर्षों के लिए थी, किन्तु इसे भी हमेशा के लिए बढ़ा दिया गया । इसीलिए मूलत: राजभाषा के रूप में भी केवल खानापूरी कर रही है और अंग्रेजी मूल राजभाषा बनकर राज कर रही है । संविधान के अनुच्छेदों में ऐसे कई विरोधाभास हैं कि उन्हें समझने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है और अंत में जो बात समझ में आती है वह यही कि हमें अंग्रेजी में कामकरने की संवैधानिक छूट मिली हुई है । ( इसमें कोई दो राय नहीं )।
राजभाषा हिंदी कार्यान्वयन में उलझनें पैदा करने के लिए कई समितियां, उपसमितियाँ, आयोग, बनाए गए हैं । इनके नियम समयसमय पर संशोधित होते रहे हैं जिस कारण वर्तमान में लागू नियमों या अधिनियमों के बारेमें स्पष्ट जानकारी हासिल करना असंभव है ।
एक और विडम्बना यह भी है कि राजभाषा कार्यान्वयन का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है जब कि संसाधन जुटाने और हिंदी प्रशिक्षण एवं हिंदी की अन्य गतिविधियों को प्रमोट करने का दायित्व मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंपा गया है । इसमें भी काफी भ्रामक स्थितियाँ हैं । केंद्रीय हिंदी निदेशालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान और वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा आयोग, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो - ये सभ मानव संसाधन विकास के आढ़ें हैं । देश भर के केंद्र सरकार के कार्यालय, बैंक और उपक्रम - ये गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन के लिए बाध्य हैं ।
एक सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति यह है कि हिंदी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है बल्कि यह केवल एक तबके का सिर दर्द बनकर रह गया है और वह तबका है - हिंदी पढ़ने लिखने वालों का और हिंदी पढ़ाने वालों का । इनके सिवाय कोई हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के संबंध में न सोचता है और न ही इस राष्ट्रीय समस्या/मुद्दा मानता है । इस ओर समूचे देश को सोचना होगा ।
एम वेंकटेश्वर
इसके अलावा, लोगों मे इस तथ्य के प्रति भी उदासीनता है कि हिंदी को संविधान मे राजभाषा का ही दर्जा दिया गया है । संविधान मे कहीं भी हिंदी के लिए 'राष्ट्रभाषा ' शब्द का प्रयोग ही नहीं किया गया है। यह बहुत बड़ी त्रुटि है या सरकार (संविधान समिति की ) 'नीति ' - इसका खुलासा कहीं नहीं हुआ है जो कि कष्टदायक है और विवादों को जन्म देने वाला हथियार है । देशवासियों को भावनात्मक स्तर पर इसे राष्ट्रभाषा स्वीकार करने की अपेक्षा करना 'तकनीकी ' दृष्टि से सही नहीं लग सकता है । ऐसे तर्क की गुंजाईश तो है । वैसे आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी 22 भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ ही हैं, लेकिन हिंदी ही राष्ट्रभाषा कहने का कोई मजबूत तर्क नहीं दिखाई दे रहा है। यही कारण है कि देश के कई लोग इसे वैसे राष्ट्रभाषा मानने से इनकार करते हैं । संविधान का अनुच्छेद 351 - जो कि एक निर्देश है - में देश में हिंदी को प्रमोट करने के लिए निर्देश दिए गए हैं साथ ही इसमें हिंदी के स्वरूप को परिभाषित किया गया है । जो कि (1) सरल (2) हिन्दुस्तानी हो (3) सामासिक संस्कृति का प्रतीक हो (4) शब्द भंडार की समृद्धि - मूलत: संस्कृत और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द लिए जाएँ । ये निर्देश ही हिंदी को स्थूल रूप से राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की ओर संकेत मात्र करता है । हिंदी के स्वरूप को हिन्दुस्तानी रखने पर इस अनुच्छेद में बल दिया गया है ।
एक और महत्वपूर्ण सत्य/तथ्य की ओर ध्यान नहीं जाता है - अनुच्छेद 348 - जो न्यायपालिका की भाषा को निर्धारित करता है । इसके अनुसार न्यायपालिका और संसद की भाषा अंग्रेजी होगी । ( कामकाज की भाषा ) । यह बहुत ही विचित्र है । भारत जैसे देश में जहां अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है चाहे इसकी क्षमता दुनिया को जीतने की ही क्यों न हो, भारत के लिए तो यह एक विदेशी भाषा ही है और रहेगी। कोर्ट कचहरियों में कामकाज इसीलिए अंग्रेजी में ही होता है । इसीलिए कोई भी आम भारतीय कचहरी में अपना मामला ले जाने के लिए डरता है । फैसला भी नगइनत पृष्ठों मे अंग्रेजी में दिया जाता है जिसे समझने के लिए वकीलों को बड़ी रकम देनी पड़ती है । हिंदी को हालाकि संविधान के अनुच्छेद 343 में संघ की राजभाषा घोषित किया गया है (देवनागरी लिपि और अंतर्राष्ट्रीय अंकों के साथ ) फिर भी इसके साथ अंग्रेजीमें कामकाज करने की छूट का भी प्रावधान बहुत ही होशियारी से जड़ दिया गया है । यह अंग्रेजी वाली शर्त केवल 15 वर्षों के लिए थी, किन्तु इसे भी हमेशा के लिए बढ़ा दिया गया । इसीलिए मूलत: राजभाषा के रूप में भी केवल खानापूरी कर रही है और अंग्रेजी मूल राजभाषा बनकर राज कर रही है । संविधान के अनुच्छेदों में ऐसे कई विरोधाभास हैं कि उन्हें समझने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है और अंत में जो बात समझ में आती है वह यही कि हमें अंग्रेजी में कामकरने की संवैधानिक छूट मिली हुई है । ( इसमें कोई दो राय नहीं )।
राजभाषा हिंदी कार्यान्वयन में उलझनें पैदा करने के लिए कई समितियां, उपसमितियाँ, आयोग, बनाए गए हैं । इनके नियम समयसमय पर संशोधित होते रहे हैं जिस कारण वर्तमान में लागू नियमों या अधिनियमों के बारेमें स्पष्ट जानकारी हासिल करना असंभव है ।
एक और विडम्बना यह भी है कि राजभाषा कार्यान्वयन का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है जब कि संसाधन जुटाने और हिंदी प्रशिक्षण एवं हिंदी की अन्य गतिविधियों को प्रमोट करने का दायित्व मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंपा गया है । इसमें भी काफी भ्रामक स्थितियाँ हैं । केंद्रीय हिंदी निदेशालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान और वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा आयोग, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो - ये सभ मानव संसाधन विकास के आढ़ें हैं । देश भर के केंद्र सरकार के कार्यालय, बैंक और उपक्रम - ये गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन के लिए बाध्य हैं ।
एक सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति यह है कि हिंदी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है बल्कि यह केवल एक तबके का सिर दर्द बनकर रह गया है और वह तबका है - हिंदी पढ़ने लिखने वालों का और हिंदी पढ़ाने वालों का । इनके सिवाय कोई हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के संबंध में न सोचता है और न ही इस राष्ट्रीय समस्या/मुद्दा मानता है । इस ओर समूचे देश को सोचना होगा ।
एम वेंकटेश्वर
कृपया अपनी मेल आई डी या फोन न दें
ReplyDeleteपवन विजय
9540256597
pkmkit@gmail.com