भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं का उल्लेख हुआ है जिसमें अंग्रेजी नहीं है । इन 22 भाषाओं में हिंदी की बोलियों को शामिल कर इन्हें हिंदी से पृथक और स्वतंत्र दर्जा दिए जाने की पहल चल रही है, जो की हिंदी की अस्मिता और अस्तित्व के घातक है । यदि अवधी, भोपुरी, ब्रज, बुड़ेली, मागधी, राजस्थानी आदि बोलियों को हिंदी समांतर भाषा का दर्जा देकर आठवीं अनुसीची मे स्वतंत्र भाषा के रूप मे स्थापित कर दिया जाए तो इन भाषाओं मे रचित साहित्य हिंदी साहित्य की गरिमामय सांस्कृतिक विरासत से छिटककर अलग थलग पद जाएगा और ये सब हिंदेतर भाषाओं के साटी कहलाएंगे । रामचरित मानस और सूरसागर तथा मीरा के काव्य को हिंदी साहित्य नहीं माना जाएगा और ये हिंदी से बहिष्कृत हो जाएंगी । यही नहीं बल्कि हिंदी भाषा जो कि इन्हीं सब बोलियो के समुच्चय से ही हिंदी का एक व्यापक अखिल भारतीय स्वरूप है जो भारत उपमहाद्वीप में सदियों से हिंदी साहित्य के नाम से ही अपनी पहचान बना चुका है । हिंदी का मध्यकालीन साहित्य अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी आदि बोलियों मे रचित महत्वपूर्ण साहित्य है । समूचा भक्तिकाल ब्रज, अवधी और राजस्थानी तथा मैथिली के साथ अनेक स्थानीय बोलियों में रचा गया जिनके सम्मिलन और समावेश से ही हिंदी का एक विलक्षण सर्वसमावेशी स्वरूप निर्मित हुआ है जो कि अब खतरे मे है । हिंदी की बोलियों को हिंदी से अलग नहीं किया जा सकता जिसे आज के राजनेताओं को समझने की जरूरत है । केवल वोट बैंक की राजनीति खेलने के लिए देश की अस्मिता और पहचान, जो भारतीयता का प्रतीक है, हिंदी, उसे यदि उसकी बोलियों से वंचित कर, उसे एकाकी कर दिया जाए तो यह बहुत बड़ी भूल होगी और भारतीय भाषिक अस्मिता के लिए बहुत ही बड़ा खतरा होगा । हिंदी एक व्यापक और विराट स्वरूप को धारण किए हुए है जिसमें अनेकानेक बोलियाँ और संस्कृतियाँ समाई हुई हैं जिन्हें पहचानना आवश्यक है । स्थानीयता और क्षेत्रीयता की संकीर्णतावादी विचारधारा के प्रसार को रोकना होगा । इसके लिए समस्त भारत को कटिबद्ध होकर एकता की भावना से हिंदी की रक्षा करने के अभियान में स्वयं को समर्पित करना होगा ।
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