इधर कुछ महत्वपूर्ण संस्थाओं और विद्वानों के द्वारा टैगोर रचित राष्ट्रगान के पाठ की पुनर्व्याख्या की जा रही है ।
जो लांछन इस गीत पर लगा है की यह गीत जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा/लिखवाया गया था, इस कलंक को मिटाने का भरसक प्रयास सत्ताधारी बेटा कराने में काफी दिनों से लगे हुए हैं .इस विषय पर काफी परिशोधन भी हो रहा है। अभिलेखागारों से पुराने दस्तावेज़ निकालकर खंगाले जा रहे हैं। अनेक प्रकार के प्रमाणों को जुटाने के प्रयास जारी हैं .इस विषय को सही रूप से समझने के लिए दिनांक ८ नवम्बर २००९ के ' स्वतंत्र वार्ता ' ( हिन्दी समाचार पत्र -रविवारीय पन्ना ) पठनीय है । यह लेख अत्यन्त सारगर्भित और मौलिक स्थापनाओं सहित लिखा गया लेखा है। यह लेख इस विषय से जुड़े अनेक भ्रमो को दूर कर सकता है. इस लेख में इसे स्पष्ट कर दिया गया है कि प्रस्तुत गीत (जिसे स्वतंत्र भारत में राष्ट्र गान का दर्जा मिला है ), यह निश्चित ही जार्ज पंचम के स्वागत में ही लिखवाया गया था - कांग्रेस पार्टी के द्वारा । इस गीत में अधिनायक की जय जयकार करवाई करवाई गयी है। यहां अधिनायक 'सम्राट जॉर्ज पंचम ही हैं । इस लेख में इस तथ्य का भी खुलासा किया गया है कि अधिनायक शब्द की व्याख्या रवीन्द्रनाथ से ' ईश्वर ' के अर्थ में एक पत्र के माध्यम से करवाई गयी थी ( केवल आलोचना से बचने के लिए )। अब यह सत्य भी उजागर हो चुका है । लेकिन यह व्याख्या अपने आप में असंगत है और अमान्य भी । ' गाहे तव जय गाथा ' - पंक्ति पर यदि विचार करें तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है। ' यहाँ जय गाथा - सम्राट जॉर्ज पंचम ' ही की है , न कि ईश्वर की ? तब फ़िर यह जय गान सम्राट के प्रति नही तो और किसके प्रति है ?
इस लेख के लेखक दा राधेश्याम शुक्ला हैं जिन्होंने अप्रतिम प्रयासों से खोज पूर्ण दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है। उनके इस प्रयास के लिए वे साधुवाद के पात्र हैं.
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इतिहास और हकीकत को झुठलाना इतना सरल नहीं है।गोएबल की सच्चाई सच्चाई थोडे ही बन जाएगी :)
ReplyDeleteसच हमेशा कड़वा होता है. और यह स्वीकार्य भी नहीं. शुक्ल जी सच में साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने इतनी मेहनत से यह लिखा. मैंने भी इसे पढ़ा. आपने ब्लाग के माध्यम से तो मैंने सीधे तौर पर लोगों को इस बारे में बताया. वे भी इसे पढ़कर और जानकर छला हुआ महसूस कर रहे थे. हमारा आम आदमी आज भी आम ही है. जिसे जो चाहे जब चाहे दबा और मसल सकता है. चूस कर फेंक सकता है. कितनी शिद्दत और गंभीर संवेदना से शुक्ल जी ने इसे लिखा. पर, इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है. न सरकार न जनता, सब अपने आप में मसरूफ हैं. कितनी पीढ़ा और टीस से उन्होंने इसे एक से ज्यादा बार लिखा लेकिन .... जहॉं तक वंदेमातरम का सवाल है, उनका केवल एक सिंगल प्वाइंट एजेण्डा है कि कुरान, इस्लाम या शरीयत के नाम पर इस देश के संविधान और कानून की जितनी फजियत की जा सकती है करें. वह भी जितने तीखे व आक्रमक तरीके से हो अच्छा है. और हम जैसे आम जन लाचारी से यह सब सहते रहें. सारा सर्वधर्मसमभाव केवल आप और हम पर ही लागू है. अन्य किसी पर नहीं. सभी एक जैसे हैं. कोई सत्ता में रह कर धर्म और जात-पात के नाम पर रोटियॉं सेंक रहा है तो कोई सत्तारूढ़ होने के लिये. आपने महाराष्ट्र विधान सभा की हिन्दी में ली गयी शपथ की घटना पर जो कुछ लिख है वह स्वार्थपरक राजनीति का एक घृणित उदाहरण है. अस्मिता के नाम पर दुर्व्यवहार और किसी देश की राजभाषा का सरेआम विरोध अपमान और जुर्म से कम नहीं. स्वतंत्र देश में किसी भी भाषा का प्रयोग दूसरी भाषाओं का सम्मान है न कि अपमान. जबरदस्ती किसी का सम्मान नहीं करवाया जा सकता. अब यह होगा कि जितने मराठीभाषी महाराष्ट्र के बाहर हैं उन्हें अपनी मराठी छोड़ वहॉं की प्रांतीय भाषाएं अपनाने पर मजबूर किये जायेंगे और एक नया फसाद शुरू हो जायेगा. समय आ गया है कि शिक्षकों को शासन से लोहा लेना होगा. शिष्टाचार, मर्यादा या मूल्य इन्हें अच्छी तरह सीखाये जाने की जरूरत है अन्यथा किसी दिन बेवजह सामान्य जन इनकी जबरदस्ती के शिकार होंगे और सब माथा पीटते हुए लाचार बैठे ग़म मनाने के सिवा कुछ नहीं कर पायेंगे. ....... हो़श.
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