Saturday, November 7, 2015

राष्ट्र की उच्च शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता के मूल्यांकन की आवश्यकता

आज देश भर मे लगभग चारसौ पचास विश्वविद्यालय हैं जो कि यू जी सी के अधिकार क्षेत्र मे आते हैं , इनके अतिरिक अन्य तरह के व्यावसायिक व इतर डीम्ड यूनिवर्सिटी एवं राष्ट्रीय महत्व के संस्थान पेशाई
( प्रोफेशनल )  और गैरपेशाई ( नॉन प्रोफेशनल ) उपाधियों के लिए शिक्षण उपलब्ध करा रहे हैं । इन सबका विभाजन सरकारी और गैरसरकारी श्रेणियों मे किया गया है । सरकारी संस्थान जो मानवसंसाधन विकास मंत्रालय के अधीन, यू जी सी द्वारा अनुदानित होते हैं और जिन के अकादमिक एवं प्रशासनिक  गतिविधियों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होता है । देश मे करीब 20 केंद्रीय विश्वविद्यालय मौजूद हैं । राज्यों मे भी अपने विश्वविद्यालय हैं  जो यू जी सी और राज्य सरकारों के वित्तीय प्रबंधन से चलते हैं । पिछले कुछ दशकों से भारत सरकार ने निजी क्षेत्र में भी उच्च एवं तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षण संस्थानों को अनुमति दी है । ऐसे संस्थान यू जी सी के दायरे में नहीं आते । वे पूर्ण रूप से वित्तीय एवं इतर प्रशासनिक मामलों मे स्वतंत्र और स्वायत्त  संस्थाएं हैं । ऐसे संस्थानों के पास अत्याधुनिक संसाधन उपलब्ध हैं साथ ही इनमें बड़े पूँजीपतियों का अकूत पैसा लगा है । ये बहुत कल्पनातीत मोटी रकम फीस के रूप वसूल कर उत्तम और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करते हैं । ये अपनी डिग्रियाँ स्वयं देते हैं जो कि सारी दुनिया भर में मान्य होती हैं । आज देश मे गुणवत्ता के लिए इन्हीं शिक्षण संस्थाओं का बोलबाला है । यहाँ से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति निजी क्षेत्र की कंपनियों एवं इतर तकनीकी व गैर तकनीकी क्षेत्र में ऊंचे पदों पर अत्यंत लाभप्रद वेतन पाते हैं । आज हमारी पारंपरिक विश्वविद्यालयी व्यवस्था सवालों के घेरे में आ गई है । केंद्रीय और राज्य शासित विश्वविद्यालय दोनों इस सत्य साक्षी हैं कि पिछले दो दशकों में शैक्षिक स्तरों मे निरंतर गिरावट आई है और यह गिरावट दिनों दिन बढ़ती जारही है । इसका एक सबसे प्रमुख कारण सरकारों की उच्च शिक्षा के प्रति बढ़ती उपेक्षा । यही स्थिति स्कूली शिक्षा की भी है । सरकार इतर वोट लुभावनी आर्थिक और सामाजिक पापुलिस्ट  योजनाओं में करदाताओं का पैसा मनमाने ढंग से खर्च कर रही है और शिक्षा के क्षेत्र की अनदेखी कर रही है । परिणामस्वरूप आज देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों मे पिछले बीस - तीस बरसों से प्राध्यापकों की नियुक्तियाँ नहीं हुईहाइन , यदि कहीं कहीं हुईं भी हों तो वह नगण्य सी हुई हैं । वरिष्ठ प्राध्यापाक और प्रोफेसा लोग सेवानिवृत्त हो रहे हैं, उनकी जगहें बरसों से खाली पड़ी हैं । गुणी रचनात्मक दृष्टि के ज्ञान सम्पन्न वरिष्ठ प्रोफेसर  विश्वविद्यालयों से अवकाश प्राप्त कर जा रहे हैं, उन्हें  और कुछ समय के लिए रोक कर उनकी सेवाएँ लेने का कोई प्रावधान नहीं है, यदि कहीं किसी नियम के अनुसार उन्हें रोक रखना भी चाहें तो विश्वविद्यालयी प्रशासन तथाकथित छात्र एवं अन्य राजनीतिक संगठनों के खौफ से डरकर उत्तम कोटि के सेवा निवृत्त प्राध्यापकों/प्रोफेसरों की सेवाएँ लेने मे असमर्थ हैं । कई राज्यों मे प्राध्यापकों की सेया निवृत्ति की आयु केवल 55 या 58 या 60 वर्ष है  । जब कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों मे यह आयु सीमा 65 वर्ष तक की है ।  इस प्रकार की असमानता से भी अनेक असंगतियाँ उपजी हैं । 65 वर्ष के बाद भी कई प्राध्यापक/प्रोफेसर अध्ययन-अध्यापन और शोध मे सिद्धहस्त हैं किन्तु उन्हें उन्हीं के विश्वविद्यालय सेवानिवृत्ति के दूसरे ही दिन से त्याग देते हैं, उनके प्रति अपंणाजनक व्यवहार किया जाता है । एक ओर विभागों में रिक्तियाँ बढ़ रहीं हैं, दूसरी ओर अस्थाई तौर पर ही सही, रिक्तियों की भर्ती, इन सेवानिवृत्त आचार्यों की सेवाएँ  ली जा सकती हैं, किन्तु ऐसा नहीं हो रहा है जिससे एक बड़ी शून्यता और अंतराल आ गया है । दक्ष, योग्य, ज्ञानी, शोधदृष्टि संपन्न वरिष्ठ आचार्यों की सेवा से देश की उच्च शिक्षा की संस्थाएं वंचित हो रही हैं । यदि सेवानिवृत्त पदों पर नियमित  रूप से हर वर्ष    प्राध्यापकों की नियुक्तियाँ हों तो यह समस्या पैदा नहीं होगी । जैसा कि पचास और साठ के दशक तक होता रहा है । आज शिक्षा के क्षेत्र मे नियमित तौर पर नियुक्तियाँ नहीं हो रहीं है और सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं जा रहा है या सरकाएँ जानबूझकर इसकी आवश्यकता की अवज्ञा कर रहीं हैं । सरकारों की यह उदासीनता केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर एक समान है । वार्षिक निर्धारित वित्तीय आबंटन आज विश्वविद्यालयों के लिए सरकार नियमित रूप से नहीं कर रही है। शिक्षा के लिए निर्धारित योजना राशि अन्य जनलुभावनी योजनाओं के लिए डाइवर्ट कर दिया जाता है । विश्वविद्यालय प्रशासन सरकारों के हाथों मजबूर है । राज्य के अधीन विश्वविद्यालयों की वित्तीय हालत बहुत दयनीय है । कई सरकारें विश्वविद्यालयों को ही अपने खर्चे के स्रोतों  ( अपने आंतरिक संसाधनों से ) को तलाशने की सलाह देकर अपना पल्ला झाड रही है ।
नवगठित तेलंगाना राज्य मे विश्वविद्यालयों का हाल बहुत ही चिंताजनक है । लगभग दो वर्षोंसे दस विश्वविद्यालयों मे कुलपति की नियुक्तियाँ नहीं हुई हैं, कुलपति के बिना विश्वविद्यालयी व्यवस्था ठप्प हो गई है । शैक्षिक प्रशासन थम गया है । इस सबी विश्वविद्यालयों को सचिवालय के प्रधान सचिवों के हवाले कर दिया गया है, आई ए एस अधिकारियों को विश्वविद्यालयों का प्रभारी कुलपति बना दिया गया है जो किसी विषेयविद्यालय परिसर मे प्रवेश नहीं करते और अपने अधीन विश्वविद्यालयों का संचालन अपने ही कक्ष में  बैठकर करते हैं । छात्र परेशान हैं, प्राध्यापक परेशान हैं, कोई निर्णय समय पर नहीं हो पाता, प्रीक्षाएँ और अकादमिक गतिविधियां अवरुद्ध हो गई हैं लेकिन किसी को कोई चिंता नहीं है । रह रहकर छात्र आंदोलन कराते हैं, उनकी अनेकों समस्याएँ हैं, किन्तु कोई ध्यान देने वाला जिम्मेदार प्रशासक उपलब्ध नहीं ।
इधर केंद्र मे शोचछात्रों की फ़ेलोशिप को लेकर आंदोलन शुरू हो गया है।  नॉन नेट फ़ेलोशिप को निरस्त करने का विचार सरकार कर रही है जिसके विरोध मे शोधार्थी भड़क उठे हैं । जिस देश मे छात्र और प्राध्यापक वर्ग और शिक्षा तंत्र असंतुष्ट, अपर्याप्त और अव्यवस्थित होगा उस राष्ट्र का शैक्षिक भविष्य क्या होगा ? इसकी कल्पना की जा सकती है । हम अक्सर अपने देश के शिक्षण संस्थाओं को विश्व के प्रथम सौ में कहीं न पाकर दुखी हो जाते हैं लेकिन उनके कारणों की जांच कर उनका समाधान नहीं करना चाहते । सामाजिक असामानता, सामाजिक भेदभाव, वोट बैंक की राजनीति ही हमारी शासन प्रणाली के लिए सबकुछ है । हम चीन से प्रतिस्पर्धा की कल्पना करते हैं किन्तु हम अपने सकाल घरेलू उत्पाद ( GDP ) का केवल दो प्रतिशत ही शिक्षा पर व्यय कर रहे हैं ( लगभग ) ( सही आंकड़ों कि जांच करनी होगी ) वहीं चीन करीब आठ प्रतिशत धन व्यय करता है ।
शोध और उच्च शिक्षा की परीक्षाओं की प्रामाणिकता और गुणवत्ता पर सवाल उठ रहे हैं । पारंपरिक विश्वविद्यालयों मे स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में मूल्यांकन प्रणाली गंभीर रूप से विचारणीय है । मूल्यांकन प्रणाली  त्रुटिपूर्ण है जो दशकों से चली आ रही है । मनमाने ढंग से उत्तरपुस्तिकाएँ जाँची जाती हैं और अंक दिए जाते हैं जो कि निर्विवाद सत्य है । इस कारण प्रथम श्रेणी और विशेष योग्यताप्राप्त छात्र भी औसत दर्जे के साबित होते हैं ।  साक्षात्कारों में इन छात्रों की योग्यता का पर्दाफाश हो जाता है तो काफी निराशा होती है । शोध उपाधियाँ जब से यूनिवर्सिटी मे अध्यापक वृत्ति  के लिए अनिवार्य कर दी गयी, तब से शोध का स्तर बुरी तरह से प्रभावित हुआ है । यह एक अति महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिस ओर शिक्षाविदों का ध्यान जाना चाहिए और तत्काल इसे दुरुस्त करना होगा ।  आज हमारे देश मे कहीं कुछ गुणवत्ता बची है तो वह आई आई एम  और आई आई टी संस्थानों में ही बची है, ऐसा माना जाता है । किन्तु इनकी भी गणना विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं में नहीं होती, यह विचारणीय है । आज़ादी के बाद हमें उत्तरोत्तर हर क्षेत्र में बेहतर से बेहतर बनाना चाहिए था, किन्तु ठीक इसके उलट हो रहा है । शिक्षा के क्षेत्र मे हमने गुणवत्ता के क्षेत्र मे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर होने के बजाय श्रेष्ठ से निम्नतम की ओर जा रहे हैं । यह चिंता का विषय है । निजी विश्वविद्यालय और विदेशी विश्वविद्यालय जो कि हमारे देश मे आर्थिक उदारीकरण, बाजारवाद, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति के अंतर्गत जो अपना जाल फैला रहे हैं , वहीं अपेक्षित गुणवत्ता देखी जा सकती है । लेकिन ये विदेशी विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थाएं भीषण रूप से महंगी हैं जिनमें सामान्य व्यक्ति अपने बच्चों को नहीं दाखिल कर सकता ।

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