Wednesday, November 4, 2015

सहिष्णुता और असहिष्णुता पर बहस और जमीनी सच्चाई -

यह अत्यंत दुखद स्थिति है कि आज देश में एक विचित्र तरह की बहस हो रही । कौन सहिष्णु है और कौन असहिष्णु ? विचारधाराओं  की टकराहट लोकतन्त्र में सामान्य है और होनी चाहिए । सिद्धान्त, मान्यताएँ और और विचाधाराएँ असंख्य होती हैं और सभी मान्यताओं और विचारधाराओं को स्वाभाविक रूप से विकसित होने का माहौल लोकतंत्र की बुनियादी मांग होती है । आपसी खंडन-मंडन किया जा सकता है किंतु इस बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में हिंसा एवं प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होता । सत्ता हो या अन्य विपक्षी राजनीतिक दल हों, किसी को जन सामान्य पर हमला करने या जान लेने का अधिकार संसार का कोई भी सभ्य समाज नहीं देता । भारत एक महान सभ्यता है क्योंकि यह अनेक समुदायों का समुच्चय है और इतने वैविध्य वाले लोगों मे कई विषयों पर  मतैक्य असंभव है । परंतु मतभेद का अर्थ किसी पर भी हमला करना नहीं होता । हर सामान्य नागरिक को जीवन जीने का मौलिक अधिकार प्राप्त है जिसे हमारा संविधान पुष्ट करता है । निजी खान-पान, आचार-विचार-व्यवहार की छूट और अधिकार हर नागरिक को इस देश मे प्राप्त है, फिर कोई समुदाय अन्य समुदाय के लोगों पर केवल उस समुदाय विशेष के खान-पान के तौर तरीकों को मुद्दा बनाकर अपने सामुदायिक अथवा वैचारिकता को सिद्ध करने के लिए अराजकता फैलाना कहां का न्याय है ? आज देशवासियों को गाय और गोमांस - का मुद्दा विकराल भयावह शक्ति बनकर आतंकित कर रहा है । इतने बरसों तक यह कभी मुद्दा नहीं बना था, फिर आज क्यों बन गया ? आज तक किसी को पड़ोसी की रसोई मे क्या पाक रहा है, पड़ोसी क्या खाता है, इसकी चिंता कभी नहीं थी । यह कोई बहस का वियशय कभी नहीं था । फिर आज क्यों हो गया ? क्या तथाकथित सत्ता पक्ष  और अन्य लोग भी यह भूल गए हैं हैं की भारत की सांस्कृतिकता बहुआयामी और बहुलतावादी है । मजहब, मान्यताएँ मनुष्य के बनाए होते हैं और ये सिद्धान्त मनुष्य के लिए होते हैं। मनुष्य सिद्धांतों के लिए नहीं होता । मजहब भी मनुष्य के लिए निर्मित एक आस्था है, मनुष्य- मजहब के लिए नहीं होता । मजहब मनुष्य के लिए होता है । मनुष्य की सत्ता, अस्तित्व और अस्मिता इन सबसे ऊपर है, सुप्रीम
है । मनुष्यत्व को ताक पर रखकर धर्म, मजहब के उन्माद में अपनी बात को ज़बरदस्ती मनवाने की कोशिश करना और यदि न मानें तो उन्हें नेस्तनाबूद करने का प्रयत्न करना इस देश के लिए घातक है । ऐसी अवसर पर समाज मे सदभावना और विश्वास पैदा करने के लिए लोकनायक ( जो भी है ) उसे आगे आकार मोर्चा संभालने की आवश्यकता है ।शीर्ष पर बैठे नेताओं का यह कर्तव्य है की जनता में फैले भय और अनिश्चितता की स्थिति को संभालें और ऐसे लोगों को नियंत्रण मे लाएँ जो देश की उदारवादी सांस्कृतिक चेतना को भंग करते हैं, निर्दोष जन सामान्य पर हमले करते हैं और हिंसा का मानौल रचते हैं । विरोश प्रदर्शन के तरीकों पर भी काफी जमकर बहस हो रही है । विरोधी स्वरों पर सवाल किए जा रहे हैं । विरोध सामयिक ही तो होता है, यदि इससे पूर्व की घटनाओं पर, उस समय इस तरह की प्रतिरोध की संस्कृति नहीं पनपी थी तो क्या आज कोई विरोध नहीं कर सकता  क्या ? वर्तमान की स्थितियों पर विचार करने के बदले लोग विरोध करने वालों की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं और उन्हें अपनी क्षिदर राजनीति से जोड़ कर विरोध के महत्व को कमतर आँकने का षडयंत्र रच रहे
हैं । जो भी हो, आज देश मे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर खतरा तो मंडरा रहा है, इसमें दो राय नहीं है ।
राजनेता सारे के सारे पार्टी लाईन पर ही बहस करते हैं और परस्पर तू तू मैं मैं ही करते रह जाते हैं, एक दूसरे पर कीचड़ उछलने के सिवाय राजनेता जन सामान्य की भावनाओं को समझ पाने में नितांत असमर्थ और असहाय ढंग से पेश आ रहे हैं । नेताओं को धैर्य के साथ जनता की भावनाओं को समझकर उनका साथ देना होगा । जनता और नेता यदि आमने सामने हो जाएँ - तो परस्पर टकराहट ही होगी । और यह टकराहट लोकतन्त्र के लिए घातक है । जनप्रतिनिधि का यह कर्तव्य है की वह अपनी प्रजा के घावों पर मलहम लगाकर उसका उपचार करे, न कि उसके घावों को कुरेदकर उसे अधिक तकलीफ पहुंचाए । 

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