Wednesday, November 18, 2015

प्रेम रतन धन पायो

राजश्री प्रोडक्शन का नवनिर्मित, सूरज बड़जात्या  द्वारा निर्देशित ' प्रेम रतन धन पायो ' राजश्री निर्माण संस्था की सुदीर्घ अंतराल के बाद ( नौ वर्षों के बाद )  आई हुई फिल्म है । सूरज बड़जात्या निर्देशित फिल्मों का सिनेप्रेमियों को इंतजार रहता है । राजश्री एक ब्रांड है, सांस्कृतिक मूल्यों और पारिवारिक संबंधों के प्रति दर्शकों मे नई ऊर्जा और विश्वास जगाने के लिए । 60 के दशक मे दक्षिण से प्रसाद, जेमिनी और ए वी एम स्टुडियो (निर्माण संस्थाओं ) पारिवारिक मूल्यों को संवर्धित करने वाली फिल्में बनाने के लिए मशहूर हुई थीं । राजश्री निर्माण संस्था का जन्म 1962 में 'आरती ' से हुआ जिसमें  मीना कुमारी- प्रदीप कुमार- अशोक कुमार की एक त्रिकोणात्मक प्रेम कथा के साथ साथ प्रेम और मैत्री के बीच द्वंद्व का चित्रण बहुत ही सुंदर और आकर्षक ढंग से हुआ है । उन दिनों मीना कुमारी- प्रदीप कुमार, अशोक कुमार - मीना कुमारी युगल जोड़ी बहुत लोकप्रिय थी ।   राजश्री प्रोडकशन की फिल्मों के लिए साठ और सत्तर के दशक में हिंदी फिल्म जगत के सुविख्यात निर्देशकों ने निर्देशन किया जिनमें नितिन बोस, बासु चटर्जी, लेख टंडन आदि प्रमुख हैं । उसके बाद ताराचंद बड़जात्या अपनी संस्था के लिए निर्देशन का भार संभाला और बहुत ही सफल, लोकप्रिय फिल्में बनाईं । दुल्हन वही जो पिया मन भाए, पिया का घर, उपहार, नदिया के पार, गीता गाता चल, चितचोर आदि फिल्में इनके निर्देशन मे निर्मित हुईं जो आज भी लोग याद करते हैं । राजश्री प्रोडक्शन  की फिल्मों के गीत और उनका संगीत माधुर्य और कर्णप्रियता के लिए सदाबहार होते हैं । उनके फिल्मों के गीत-संगीत की  लोकप्रियता आज तक बनी हुई है । यह एक परंपरा के रूप में हिंदी सिनेमा जगत मे समादृत होती है । सन् 2006 मे निर्मित 'विवाह ' के बाद अब
' प्रेम रतन धन पायो '  हिंदी के साथ तेलुगु  और तमिल भाषाओं मे भी डब होकर रिलीज़ हुई है ।इससे पहले की फिल्म  'विवाह ' भारतीय संस्कृति से सगाई और विवाह के बीच वर-वधू की संवेदनाओं को अत्यंत बारीकी और काव्यात्मक कलात्मकता से प्रस्तुत करती है । भारतीय समाज मे कुछ ऐसी परम्पराएँ जो लुप्त प्राय सी हो गई हैं, उन्हें राजश्री फिल्म निर्माता याद दिलाते हैं और उन्हें पुन: प्रतिष्ठापित करने के लिए कृत संकल्प हैं । सिनेमा व्यापार का एक माध्यम है, यह एक उद्योग जगत है, जहां करोड़ों और अरबों का कारोबार होता है ।  फिल्म निर्माण का मूल उद्देश्य धन अर्जित करना ही है, किन्तु ऐसे कारोबारियों मे कुछ ऐसे होते हैं जो इस सशक्त जन -माध्यम के सामाजिक सरोकारों के प्रति ईमानदारी से अपने नैतिक दायित्व का निर्वाह करते हैं । विमल रॉय, महबूब खान, सत्यजित रॉय, बी आर चोपड़ा, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ऋतुपर्णों घोष, आदि ऐसे ही फ़िल्मकार हुए हैं जिन्होंने सामाजिक- नैतिक मूल्यों को भारतीय संदर्भ मे अक्षुण्ण रखने के प्रयास से बेजोड़ संदेशात्मक और सुधारवादी फिल्में बनाईं । फिल्म का अंतर्निहित उद्देश्य सामाजिक सरोकार भी होता है । मनोरंजन के साथ इसका उद्देश्य परोक्ष रूप से दर्शकों में देश, काल, वातावरण के प्रति  जागरूकता प्रदान करना भी होता है । दुर्भाग्य से आज सिनेमा निर्माण और निर्देशन का नजरिया विशुद्ध बाजारवादी हो गया है ( कुछ अपवादों को छोड़कर ) ।  केवल सस्ते ओछे मनोररंजन के फार्मूले तैयार किए जा रहे हैं इन और उन्हीं से करोड़ों की वसूली ही फिल्म निर्माताओं का शगल बन गया है । आज भारतीय सिनेमा अधिकाधिक क्राइम थ्रिलर, एक्शन कॉमेडी, हॉरर, से भरपूर सस्ते मनोरंजन को परोसने वाली छवि निर्मित कर चुका है । अब, कभी कभार ही एकाध स्वच्छ साफ सुथरी, परिवारसहित देखने योग्य फिल्म  मिल जाती है । सिनेमा का तकनीकी विकास, सिनेमा घरों के स्वरूप मे परिवर्तन, मल्टीप्लेक्स मल्टी स्क्रीन मॉल संस्कृति का उदय आदि कारण हैं जिसने सिनेमा कीकलात्मक अभिव्यक्ति को प्रभावित किया है । हॉलीवुड में  भी अब केवल साइंस फिक्शन पर आधारित फिल्में ही अधिक निर्मित होती हैं । उनके कोश में भी सामाजिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक संबंधों और प्रेम संवेदनाओं के कथानक चुक गए हैं । इसीलिए सन् 60 के दशक से पूर्व का युग ही विश्व सिनेमा का सुवर्ण युग माना जाता है । चाहे वह भारतीय सिनेमा हो या हॉलीवुड सिनेमा - दोनों ही का सिनेमा का समाजशास्त्र अब बदल गया है । सिनेमा से धीरे धीरे कलात्मक अभिव्यक्ति दूर होती चली जा रही है । यह एक चिंता का विषय है ।उपर्युक्त विसंगतियों के बावजूद राजश्री निर्माताओं ने हिंदी सिनेमा को भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं से जोड़कर रखा । ताराचंद बड़जात्या के बाद सूरज बड़जात्या ने राजश्री संस्था की बागडोर संभाली और वे उसी भारतीयता को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है जो उनके घराने की विशेषता रही है । 'मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, हम साथ साथ हैं और विवाह ' फिल्मों ने भारतीय सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों और परम्पराओं को पुनर्जीवित कर दिया जो कहीं विलुप्त हो रही हैं । इसी क्रम मे इस बार सूरज बड़जात्या के ही निर्देशन में एक और ब्लॉक बस्टर फिल्म बनी है - प्रेम रतन धन पायो ।
इस बार सूरज बड़जात्या ने जो स्वयं इस फिल्म के निर्माता और पटकथा लेखक भी हैं, एक अलग तरह की कहानी चुनी है । 'प्रेम रतन धन पायो 'कई अर्थों मे राजश्री फिल्मों की लीक से हटकर फिल्म है । पहली बार सूरज बड़जात्या ने एक राजघराने के पारिवारिक कलह को फिल्म का विषय बनाया है । यह भी पहली बार हुआ है कि सूरज बड़जात्या ने एक पूर्व निर्मित हॉलीवुड की सन् 1952 मे निर्मित फिल्म ' द प्रिजनर ऑफ जेंडा ' को हिंदी मे थोड़े से फेर बदल के साथ पुनर्निर्मित ( रिमेक ) किया है । वास्तव मे इस फिल्म का भारतीयकरण कर दिया गया है । उपर्युक्त फिल्म एन्टोनी हॉप नामक कथाकार के द्वारा रचित ऐतिहासिक उपन्यास पर आधारित है । प्रीतमपुर के युवराज विजय सिंह (सलमान खान ) का राजतिलक, उनकी सगाई देवघर की राजकुमारी मैथिली ( सोनम कपूर ) से निश्चित हुई
है ।  युवराज विजयसिंह की दो सौतेली बहनें रियासत की संपत्ति मे अपना आधिकारिक हिस्सा पाने के लिए रूठकर चली गई हैं और वे युवराज से अपना हक मांगने के लिए कानून की धमकी देती है । युवराज विजय सिंह इस गुत्थी को सुलझाने मे असमर्थ दिखाई देते हैं । राजघराने के इस कलह से लाभ उठाते हुए रियासत को हथिया लेने के लिए युवराज के सौतेले भाई अजय सिंह ( नील-नितिन मुकेश ) अपने अनुचरों सहित युवराज के खिलाफ षडयंत्र रचते
हैं । राजतिलक से ठीक पहले युवराज पर एक घातक हमला होता है । राजघराने के विश्वासपात्र दीवान साहब युवराज को घायल अवस्था मे बचा लेते है और उनका उपचार एक खुफिया गुफा मे करवाने लगते हैं । राज घराने पर संकट आ पड़ता है । राजकुमारी मैथिली देवी (सोनम कपूर ) सगाई के लिए प्रीतमपुर पहुँचने वाली होती है और उनकी आगवानी करने के लिए युवराज का मौजूद होना आवश्यक था । इन स्थितियों मे दीवान साहब को अयोध्या की एक रामलीला मंडली का कलाकार 'प्रेम दिलवाला ' (सलमान खान - दोहरी भूमिका में ) मिल जाता है । दीवान साहब प्रेम दिलवाला को युवराज के रूप मे सारी तैयारियों और सावधानियों के साथ राजकुमारी मैथिली देवी से भेंट करावा देते हैं । कहानी के अंत तक प्रेम दिलवाला राजकुमारी के साथ युवराज के रूप में बहुत ही प्रभावशाली मनमोहक अभिनय करता है ।राजकुमारी मैथिली देवी जिसके मन में  युवराज वियजयसिंह के लिए एक कड़ुवाहट भरी यादें समाई हुई थीं औ जो एक तरह से स्वयं को इस वैवाहिक संबंध से मुक्त कर लेना चाहती थी, वह युवराज के रूप में उसका साथ देने वाले प्रेम दिलवाला के आत्मीय, प्रेमपूर्ण व्यवहार से प्रभावित होकर उससे प्रेम करने लग जाती है ।प्रेम दिलवाला युवराज के भेष मे उनकी बहनों की मांगों को भी पूरा कर राजघराने की उस समस्या को हल कर देता है जिस कारण युवराज विजयसिंह का परिवार टूट रहा था ।  असली युवराज को वापस लौटा लाने की कहनी रोचक है जो अंत में अपने स्थान पर पहुँचते हैं और प्रेम दिलवाला को राजमहल से कृतज्ञतापूर्वक विदा करते हैं । किन्तु मैथिली देवी के मन में तो प्रेम दिलवाला ही युवराज की शक्ल मे बसा हुआ था । मैथिली देवी की प्रेम कहानी को उसके सही मुकाम तक पहुंचा दिया जाता है । युवराज  स्वयं मैथिली देवी को लेकर प्रेम दिलवाला को सौंपने के लिए अपनी बहनों सहित पहुँचते हैं और फिल्म सुखांत हो जाता है ।
ताराचंद बड़जात्या ने हमेशा की ही भांति पारिवारिक मूल्यों की रक्षा करते हैं । राजा और प्रजा के बीच अंतराल को समाप्त करते हुए राजकुमारी का विवाह एक साधारण व्यक्ति से करने की पहल करते हैं । फैमिली को बचाने ही हर व्यक्ति का कर्तव्य होना चाहिए - यह सीख देते हैं । भाग्यवान वह होता है जिसकी फैमिली होती
है ।  फैमिली मे प्यार होता है तो रूठना और मनाना भी होता है  । परिवार में सुख और शांति बनाए रखने के लिए भाई और बहनों में प्यार का होना आवश्यक है । परिवार की संपत्ति में बहनों को शामिल करना, भाईयों का कर्तव्य है । इस तरह की   संदेशात्मकता फिल्म की कहानी में अंतर्निहित है ।
इस फिल्म की कहानी राजघराने की पृष्ठभूमि पर  आधारित है इसलिए बहुत ही भारी और आलीशान,  महंगे सेटों का निर्माण किया गया जो कि फिल्म में बहुत ही आकर्षक बन पड़े हैं । एक से एक खूबसूरत परिधान, भव्य अलंकरण से युक्त महल की साजसज्जा, मैथिली देवी का आकर्षक व्यक्तित्व फिल्म मे चार चाँद लगा देता है । हिमेश रेशमिया का संगीत निर्देशन वास्तव मे प्रशंसनीय है । इस फिल्म का शीर्षक गीत प्रेम रतन धन पायो - दर्शकों और संगीत प्रेमियों की पहली पसंद बन चुका है । फिल्म के गीतों और संगीत मे लोकतत्व की प्रधानता है । रामलीला का मंचन और उसका गीत मनोहारी है जो ठेठ लोक संस्कृति को उजागर करता है । सलमान ने युवराज और प्रेम दिलवाला की दोहरी भूमिका बहुत ही  कलात्मकता से निभाई है । सोनम कपूर राजकुमारी मैथिली देवी के रूप में एक सुकोमल सौन्दर्य को धारण किए हुए है । फिल्म की सिनेमाटोग्राफी उत्कृत्ष्ट कोटि की है। रंगों का चयन नयनाभिराम है । फिल्म में राजघराने की भव्यता प्रदर्शित करने  के लिए एक शीशमहल
का दृश्य है जो की सुंदर तो है किन्तु अनावश्यक लगता है । शीशमहल के प्रसंग तक आते आते दर्शकों में फिल्म के क्लाईमेक्स की उत्कंठा बढ़ जाती है इसलिए यह उबाऊ लगता है ।
फिल्म का पूर्वार्ध थोड़ा शिथिल सा है किन्तु उत्तरार्ध में अधिक रोचक और वेगवान है । फिल्म की पटकथा कुछ जगहों पर भटक गई है और शिथिल सी लगती है । फिल्म की अवधि तीन घंटे है जो कि बहुत अधिक है इसे ज्यादा से ज्यादा अढ़ाई घंटे में समेटा जा सकता था । सूरज बड़जात्या ने हॉलीवुड की फिल्म प्रिजनर ऑफ जेंडा ( 1952 ) की याद ताजा कर दी । अंतत: यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सूरज बड़जात्या ने एक बार फिर समूचे परिवार के लिए एक मनोरंजन से भरपूर संदेशात्मक, मधुर संगीत से युक्त फिल्म सिनेमा प्रेमियों को दिवाली के अवसर पर दी है । 

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