Monday, December 21, 2009

त्रिभाषा सूत्र के सख्ती से अनुपालन की सिफारिश - भाषा आयोग द्वारा

आज एक हिन्दी दैनिक में राजभाषा आयोग द्वारा भारत में त्रिभाषा फार्मूले की सख्ती से अमल करने की सिफारिश संबंधी समाचार देखने/पढ़ने को नसीब हुआ। ऐसे समाचार आये दिन छपते ही रहते हैं और कोई इसे गंभीरता से नही लेता । भाषा एक मजाक है हमारे देश में । (कुछ ) अखबार वालो को मुख पृष्ठ पर छपने के लिए सुर्खियों की तलाश रहती है और फिर, भारतीय भाषाओं ( हिंदी ) संबंधी खबरें केवल हिन्दी के अखबारों में अपना किंचित स्थान पा लेने में सफल हो जाती हैं । इसी सिलसिले मम हाल ही में धारवाड़ में संपन्न ' शिक्षा में भाषा ' विषय पर आयोजित द्विदिवसीय एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धारवाड़ केंद्र में सम्पन्न हुआ । दिनांक १० और ११ दिसंबर २००९ को। यह संगोष्ठी अनेक अर्थों में बहुत ही सार्थक और सारगर्भित संगोष्ठी रही। मुझे भी इस राष्ट्रीय महत्व के बौद्धिक विमर्ष में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ । दो दिनों के इस आयोजन में देशा की राजधानी से भी प्रमुख भाषाविद, और साहित्यकारों ने ईमानदारी से हिस्सा लिया । परिणाम स्वरुप कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष उपलब्ध हुए । साथ ही बहुत ही स्तरीय प्रपत्रों से भी मुखातिब होने का सुयोग मिला ।
शैक्षिक दृष्टि से भी इस संगोष्ठी में शिक्षा के माध्यम से जुड़ी अनेक समस्याओं पर प्रभावी चर्चा हुई .
प्रो दिलीप सिंह , प्रो वी आर जगन्नाथन, प्रो गंगा प्रसाद विमल, प्रो डिमरी, प्रो ऋषभदेव शर्मा, प्रो विजयराघव रेड्डी, प्रो अमर ज्योति, प्रो नारायण राजू तथा अन्य अनेक प्रबुद्ध शिक्षाविदों ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में ' भारतीय भाषाओं की वर्त्तमान स्थिति पर विचार किया । इस संगोष्ठी में सभी विद्वानों की एक ही सामान्य चिंता दिखाई दी - हमारे ही देशा में शिक्षा के लिए प्रयुक्त भाषा माध्यम पूरी तरह से असंगत और अनुपयोगी हैं। अंग्रेज़ी भाषा का अनाधिकारिक दबदबा, त्रिभाषा सूत्र के अनुपालन में कोताही ( और बेईमानी ) , असंतुलित और मनमाने ढंग से भाषा माध्यमो के साथ खिलवाड़ - जैसी असंख्य अनियामितिया खुलकर सामने आई । हिन्दी की वर्त्तमान दशा - शिक्षा के माध्यम के रूप में - बहुत ही हाशिये पर है। भारतीय भाषाओं को शिक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध किया जा रहा है । शिक्षा के माध्यम को लागू करनी की कोई कारगर (एक ) नीति आज तक हमारे देशा में नही
बन पाई है । इससे अधिक दुर्भाग्य इस देश का और क्या हो सकता है ? संसार के किसीभी दशा में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नही है - सिवाय भारत के ? इस मुद्दे पर विचार करने के लिए आज हमारे देश के नेता और नौकरशाह लोग सोचने के लिए तैयार ही नही हैं । संविधान के अनुच्छेद में राजभाषा को तो परिभाषित किया गया है लेकिन राष्ट्रभाषा (शब्द) को बहुत ही सफाई से बाईपास कर दिया गया है ? आखिर क्यों ? क्यों आज भी हमारे नेता और नौकरशाह लोग हिन्दी को खुलकर राष्ट्रभाषा, शिक्षा के माध्यम की भाषा और कामकाज की भाषा स्वीकार नही करते ? हिन्दी के साथ अन्य सभी भारतीय भाषाओं को यह दर्जा हासिल करने का पहला हक़ है । फिर क्यों सारा ऎसी गहरी नींद सो रहा है की वह साथ सालो के बाद भी जाग सकने की स्थिति में नही है। अंग्रेज़ी को हम एक महत्वपूर्ण विदेशी भाषा के रूप में सर पर बिठा सकते हैं -इतना ही लेकिन उसे हम अपनी आम अभिव्यक्ति का माध्यम कैसे बना सकते हैं ? हम अंग्रेज़ी का विरोध उस अर्थ में नही करना चाहते । लेकिन उसकी भूमिका को स्पष्ट करना होगा और उसके हस्तक्षेप को सीमित करना होगा। उसकी दादागिरी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर नही चलने देंगे । प्रत्येक ब्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का जन्मसिद्ध अधिकार मिलना ही चाहिए। इसके लिए सरकार का कर्त्तव्य है की वह ऎसी व्यवस्था करे जिससे हर नागरिक को उसका भाषा का अधिकार स्वाभाविक रूप से उसे उपलब्ध हो . यह एक बहुत ही लम्बी राह है - चुनौती से भरी हुई । उत्तर के लोगो द्वारा दक्षिण की भाषाओं की उपेक्षा भी एक बड़ा विवाद का मुद्दा है जिसे जल्द से जल्द सुलझाने से ही हम एक सुनिश्चित दिशा में आगे बढ़ सकेंगे . भारत वासियों को परस्पर एक दूसरे की भाषाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना होगा तभी हम देश में भारतीय भाषाओं के मध्य व्याप्त दूरियों को समाप्त कर पायेंगे .साक्षरता अभियान में भारतीय भाषाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिलाना होगा। शिक्षा का आधार हिन्दी और भारतीय भाषाए होना चाहिए तभी हम भी चीन और जापान की तरह स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में उभर सकेंगे .जो देश अपनी भाषामें अपने नागरिको को शिक्षा उपलब्ध कराता है वही देश शक्तिशाली बन सकता है. भारतेंदु बाबू ने इसीलिए ' निज भाषा से ही उन्नति संभव है ' का नारा बरसों पहले दिया था इस देश को । आज हमें वही काम करना है । दशा में एक जनांदोलन की आवश्यकता है - भाषिक आन्दोलन- एक और नवजागरण - भाषिक जन जागरण, यही एकमात्र उपाय है अपनी अस्मिता की रक्षा का ।

4 comments:

  1. इस बार तो कमाल कर दिया मान्यवर!
    मैं धारवाड़ से चित्र आने की प्रतीक्षा करता रहा ; और आपने चर्चा भी कर डाली संगोष्ठी की.
    सच ही, यह संगोष्ठी बड़े काम की रही.जैसा कि विमल जी ने कहा , सच्चाई यही है कि शिक्षा में अपनी भाषाओं को प्रतिष्ठित करने में हम असफल रहे हैं.
    मुझे तो लगता है कि हमारे यहाँ लोकतंत्र की असफलता भी इसी असफलता का अनिवार्य परिणाम है.
    उद्घाटन के चित्र आ गए हैं. समय मिलते ही रिपोर्ट लिखूँगा.

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  2. भाषा अब राजनीति का विषय बन कर रह गई है। त्रीभाषा क्यों? दो भाषाएं ही काफ़ी है देश की समस्याओं को समझने के लिए - राष्ट्रभाषा और स्थानीय भाषा [ यदि देश तक सीमित हो] अंग्रेज़ी ओप्शनल हो सकती है... पर यहां स्थिति उलटी है, यही देश का और भाषा का दुर्भाग्य है॥

    संगोष्ठी सफल रही, आशा है कि परिणाम भी फलिभूत होंगे॥

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  3. tribhasha ya dwibhasha bas eak mudda hi ban kar rah gaya hai aakhir kab tak ham ise sanghoshathi tak simit rakhkar ya ispar charcha kar apna kartavya pura ho gaya samjhenge.aisa hona chahiye...waisa hona chahiye....ye ham un naukarshaho par chod rahe hai jo sadiyon se suptavastha me hai aur aage bhi unke jagne ki koi gunjais nahi hai........ab hame galti kiski hai ispar charcha karne se jyada jaroori hai,. ..bhashaik navjagran ki is dish me murt roop se koi kadam uthane ki.

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  4. समकालीन संस्कृत बनाम जर्मन भाषा के विमर्श के संदर्भ में यह लेख पढ़ा। इससे त्रिभाषा फार्मूला पर समझ विकसित हुई है। त्रिभाषा फार्मूला के तकनीकि पत्र को थोड़ा और अधिक विश्लेषित किया जाय तो चीजें और अधिक स्पष्ट होंगी।

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