Wednesday, October 5, 2011

देश का सरकारी तंत्र कितना भोला है ?

भारत सरकार ने देश की गरीबी रेखा तय करने के लिए जो फार्मूला अपनाया है वह न केवल हास्यापद है बल्कि अत्यंत लज्जाजनक तथा अपमानजनक भी है। मान्टेक सिंह आहलूवालिया जैसे तथा कथित अर्थ शास्त्री और प्रधान मंत्री के वित्त सलाहकार कहे जाने वाले मेधावी वित्त प्रबंधक के नेतृत्वा में भारतीय आर्थ प्रणाली की इस तरह की विडम्बना -पूर्ण व्याख्या बहुत हीआक्रोशजनक है। देश की जनता दुखी है इस तरह की सूचनाओं को जाकर। भला हो मीडिया का जो आजकल हर छोटी और बड़ी सूचनाओं को देश वासियों के समक्ष उजागर कर रहा है। सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत भी बहुत साँरी महत्वपूर्ण सूचनाएं आज जनता तक पहुँच रहीं हैं इसीलिए बहुत सारे घोटाले जनता के विचार-क्षेत्र में आ रहे हैं। गरीबी की रेखा को तय करने के लिए शहरी आदमी की आय ३२/- रुपये और ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के लिए महज २५/- रुपये तय करना कितना अमानवीय है और क्रूर है इसका अंदाजा हम इसी से लगा सकते हैं कि जब यह खबर सामने आयी तो वित्त मंत्रालय में हड़कंप मच गया और सारे वित्त प्रबंधकों ने तत्काल उसकी सफाई दे डाली कि ये आंकड़े सही हैं और इसे उचित सिद्ध करने के तकनीकी कारणों को रेखांकित करने में लग गए। ( यहाँ मान्टेक सिंह साहब की सक्रियता भी गौरतलब है ) । किसी ने बहुत सही चुनौती दे दी उनको कि वे ३२/- रुपये में एक दिन गुज़ार कर दिखाएँ इस देश में आज की तारीख में। सरकार को इस बात का भय है कि अगर इस राशि को बढ़ा दिया जाए तो गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या में भारी इजाफा हो जाएगा जिससे देश की तथा कथित ( कृत्रिम ) छवि बिगड़ जायेगी.इन ३२/- रुपयों में प्रतिदिन के अनुमानित खर्च का आबंटन भी बहुत उदारता के साथ दर्शाया गया है। जिसमें भोजन के अलावा, मकान का किराया, बच्चों की पढाई का खर्च, नौकरी के लिए आवागमन का खर्च, कपड़ों का खर्च आदि शामिल हैं। यह निर्धारित राशि कितनी मजाक उडाती है, हमारे लोकतंत्र का। जब कि सस्ता खाना केवल भारत के संसद भवन में केवल सांसदों को ही उपलब्ध है वह भी रियायती कीमतों पर। ३२/- रुपये वाला खाना बढ़िया खाना केवल संसद भवन के भोजनालय में उपलब्ध है जहां आम आदमी सपने में नहीं पहुँच सकता। हमारे देश का अमीर सांसद सबसे सस्ता भोजन संसद में करता है जब कि उनका करदाता ( जिसके पैसे से ये सांसद मन पसंद महँगा भोजन करते हैं ) भूखे और नंगे रहते हैं। वाह रे लोकतंत्र तेरी दुहाई है दुहाई। सांसदों के ऐशो आराम का सामान आम आदमी अपना पेट काटकर अनेकों तरह के त्याग और परिश्रम से जुटाता है और वह खुद भूखा रह रहा है। आज कि बढ़ती हुई महंगी के प्रति कोई भी राजनेता संवेदनशील नहीं दिखाई देता। राजेंता आम आदमी को, सरकारी कर्मचारियों को अपने स्वार्थ के लिए जन आन्दोलनों में झोंक देते हैं, उन्हें कार्यालयों में काम से बहिष्कार करने के लिए उकसाते हैं ( भड़काते हैं ), बिना वेतन के हड़ताल करने के लिए मजबूर करते हैं और जब महीने के अंत में उन्हें काम बिना वेतन नहीं - की मार झेलनी पड़ती है तो ये नेता अपना पल्ला झाड लेते हैं। राजनेताओं के लिए ऎसी कोई शर्त लागू नहीं होती। उन्हें हर महीने ( कम से कम एक लाख रूपये ) वेतन के रूप में प्राप्त हो ही जाता है। आज सरकारी कर्मचारी से लेकर निजी क्षेत्र के अनेकों कर्मचारी और अधिकारी गण ऐसे ही एक बड़े आन्दोलन का हिस्सा ( जबरदस्ती ) बनाए गए हैं उनका वेतन कट गया है। वे लाचार और बेबस हैं, उनसे जबरदस्ती इस नि:सहाय स्थिति को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया है। जब कि सांसद और विधायक अपना पूरा वेतन ले रहे हैं। अब देखना है कि केंद्र सरकार इस गरीबी की रेखा के लिए कितनी राशि निर्धारित करती है ( पुनर्विचार तो करना ही होगा ) इनकी क्या समझ है। ऐसे निर्णयों पर सरकार के सारे प्रतिनिधि खामोश क्यों रहते हैं। आम आदमी हमारे देश का बहुतही लाचार और बेबस है । उसे सहनशीलता का अमृत पिला दिया गया है। वह सब कुछ सह लेता है और अपनी नियति मानकर ज़िंदगी बसर कर लेता है।
इस विषय पर सही सोच वाले नागरिकों की बहुत तीखी प्रतिक्रया सामने आयी है। अब धीरे धीरे देश जाग रहा है।
( ऐसा कभी कभी अचानक लगने लगता है ) अन्ना हजारे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता और आन्दोलन कारियों ने इधर हमारे देश की सामान्य जनता को भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत दी है और इस महामारी से मुक्त होने के लिए सारे देश ओ संगठित किया है। अंतत: एक ऐसा नेतृत्व उभरकर सामने आया है जो कि आगामी दिनों में कारगर उपाय निकाल लेगा, देश की ऎसी समस्याओं से जूझने का। आज हमें अपने नेताओं को उनके कर्तव्य को याद दिलाने का अवसर आ गया है। लोगिन में धीरे धीरे हिम्मत जुट रही है लेकिन अभी बहुत लम्बी दूरी तय करनी है। साधारण लोगो का विश्वास सरकारी तंत्र पर से पूरी तरह से उठ गया है। इसे फिर से बहाल करने के लिए हमें व्यवस्था में परिवर्तन लाना होगा। अन्ना ने सही कहा है कि हमें एक और आजादी की लड़ाई लड़नी है। हमें भ्रष्टाचार मुक्त समाज के स्वरुप को साकार करने के लिए परस्पर विभेदों को भुलाकर एक जुट होना पडेगा, जो कि कठिन है लेकिन असंभव नहीं। अब वह समय आ गया है जब हम अपने जन - प्रतिनिधियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाएं ।
हमें देश में हर स्तर पर सुशासन की आवश्यकता है जो आज तक हमें उपलब्ध नहीं हुई। लेकिन अब समय आ गया है कि हम अपने राजनेताओं से ( जो कि जनता के सेवक भी हैं ) सुशासन की मांग करें और उनसे सुशासन ही करवाएं।
( गुड गवर्नेंस ) अन्ना हजारे ने जनालोकपाल बिल को अगले शीतकालीन सत्र में संसद में प्रस्तुत करने की मांग की है, अन्ना हजारे की इस मांग में सारादेश शामिल है। आज अन्ना की आवाज देश कीआवाज बन गयी है। निश्चित रूप से अन्ना की यह आवाज और अन्ना का यह दृढ संकल्प सरकार के लिए चेतावनी है। अन्ना ने देशवासियों को आन्दोलन का नया अर्थ दिया है। आन्दोलन का अर्थ हिंसा या तोड़फोड़ नहीं होता। आन्दोलन का अर्थ विरोध प्रदर्श लेकिन शालीन और शांतिपूर्ण तरीके से, बातचीत के जरिये अपनी मांगों को मनवाने का तरीका ही आज का जन आन्दोलन होना चाहिए। इस प्रक्रिया में निश्चित ही समय लगता है। दोनों पक्षों को एक आम सहमति बनानी पड़ती है। आम सहमति से ही विभेद सुलझाते हैं। आम सहमति ही सब विभेदों का हल हो सकती है ।

3 comments:

  1. आपका गुस्सा हम सबका गुस्सा है और हम सबका गुस्सा जनता का गुस्सा है....

    ''भरे जेब में पत्थर कब से घूम रही है
    किस किस के सिर साधे जनता परेशान है!'' [ऋषभ]

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  2. आयवरी टवर में बैठे लोग ज़मीनी हकीकत क्या जाने। अब शायद तेवर दिखाने का समय आ गया है गुलेंलें हाथ में लेकर! बहुत समय बाद आये सर, पर एक ज्वलंत समस्या को उजागर किया है आपने।

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  3. यह खबर देखने के बाद जो बेचैनी और छटपटाहट पैदा हुई थी वह आपके विचारों से व्‍यक्‍त हो गई है. 'हो गई पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए'.......

    होमनिधि शर्मा

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