Saturday, October 8, 2011

जन आन्दोलन, लोकतांत्रिक मूल्य और शिक्षण संस्थाएं

क्या लोकतंत्र का अर्थ केवल केवल एक समुदाय, एक व्यक्ति और एक प्रदेश या प्रांत के लोगों की ही आवाज़ होती है ? भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े ( भौगोलिक आकार और जनसंख्या की दृष्टि से ) लोकतांत्रिक ( राजनीतिक ) समाज में स्वतन्त्रता और लोकतंत्र की व्याख्या दुबारा करनी होगी या फिर राजनेताओं को ही इस विषय में सही जानकारी देनी होगी। लेकिन यह काम कौन करेगा ? ( बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ) । इस देश के वर्तमान राजनेता, किसकी बात सुनते हैं, किस पर उन्हें भरोसा है। राजनीति को सत्ता हासिल करने का हथियार बना दिया है इन लोगों ने हमारे देश में. हमारे इन होनहार राजनेताओं ने अपने कर्मों से सारी परिभाषाएं बदल दी हैं। राजनीति का अर्थ भ्रष्टाचार और सत्ता हथियाना भर रह गया है। जनता को किसी ने जनार्दन कहा था - किसी ने। लेकिन आज राजनेताओं की दृष्टि में जनता तो मनुष्य के दर्जे से भी निकाल बाहर कर दी गयी है।
सत्ता हासिल करने के लिए राजनेता ( नेता ) कोई भी रास्ता अख्तियार कर सकता है, उसे हर तरह की छूट है।
वह जनता को लूट सकता है, सरकारी धन का अपव्यय कर सकता है, गबन कर सकता है, अवैध खनन कर देश की भूगर्भ संपदा को कौड़ियों के मोल बेचकर अपना खजाना भर सकता है, देश में अगर उसके बैंक खाते भर जायेँ तो विदेशों के बैकों में अकूत धन इकट्ठा कर सकता है और लाखों, करोड़ों देश वासियों को भूख से मर जाने को बाध्य कर सकता है। सार्वजनिक सेवाओं को मन मरजी कीमत पर अपने परिजनों को सौंप सकता है - इस दलाली में अपने समर्थकों को भी लाभान्वित कर सकता है और दूसरी ओर गरीब जनता सब कुछ सह लेती है। उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नहीं। सरकारें, कोर्ट कचहरी, न्याय व्यवस्था, पुलिस, सब कुछ केवल अमीरों और राजनेताओं के लिए ही तो हैं हमारे देश में । मजबूर और गरीब आदमी को हमारे देश में न्याय/इन्साफ नहीं मिलता.आम आदमी इन्साफ माँगने अदालत तक नहीं पहुँच सकता क्योंकि हमारे देश में कानून और कानूनी सहायता इतनी महंगी है कि केवल धनवान ही उसकी शरण में जानेकी हैसियत रखता है।
सत्ता लोलुप राजनेता केवल सत्ता प्राप्ति के लिए देश का इतिहास बदलकर रख देना चाहते हैं। सामान्य जनता में फूट, घृणा , भेदभाव, ( जाति, भाषा, प्रांत, क्षेत्र, गाँव और शहर, शिक्षा के आधार पर ) पैदा कर, लोगों को आपस में लड़वाकर स्वयं सत्ता का सुख ( ऐयाशी के हद तक ) लूट रहे हैं। हमारे राजनेताओं ने तो अंग्रेजों को भी मात दे दिया है - क्रूरता, नृशंसता, बर्बरता, अन्याय, अत्याचार और लगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर, उन्हें गुमराह कर, देश को ही भीतर से तोड़ने के लिए षडयंत्र रच रहे हैं। इधर नफ़रत कि ऎसी आंधी इन राजनेताओं ने फैला रखी है कि हर प्रदेश में हाहाकार मचा हुआ है। इन दोनों आन्ध्र प्रदेश राष्ट्रीय पटल पर इस नफ़रत कि राजनीति का शिकार होकर लहूलुहान हो गया है। जनता तड़प रही है, बिलख रही है, लेकिन उनके आंसू, राजनीतिक दलों को दिखाई नहीं देते। राजनीतिक दलों के अपने मुद्दे हैं, जिनका कोई सरोकार जनताके हितों से नहीं है. आज हमारे राजनयिक देश को जोड़ने के बदले उसे तोड़ने के अभियान में जी जान से लगे हुए हैं। अपने क्षुद्र स्वार्थों ( लक्ष्यों ) को पूरा करने के लिए उन्होंने जो नफ़रत का जाल बिछाया है उसमें निरीह और निर्दोष जनता का दम घुट रहा है। आजादी के बाद के इन वर्षों में हमने अपनी एकता बहुत तेजी से खोई है और यह प्रक्रिया तेजी से सक्रिय है।
देश के किसी भी भूभाग का सामाजिक और आर्थिक विकास उस प्रदेश की सरकार ( राजनेता ) के हाथों होता है, इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता। जनप्रतिनिधि जनता के सेवक हैं, उनसे सही ढंग से काम लेना जनता का प्रथम अधिकार है - जनता को इस अधिकार कोई वंचित नहीं कर सकता। विकास के मुद्दे पर कभी किसी भी व्यक्ति या समूह को किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। विकास के मुद्दे पर सरकार से जवाबदेही पूछी जा सकती है। लेकिन इस विकास के मुद्दे का विकृत राजनीतिकरण करना जनता के हित में नहीं हो सकता।
देश में आर्थिक विकास की गति सभी प्रान्तों न में एक जैसी नहीं है - आर्थिक असामनता और अन्य समस्याएं बहुत सारी मौजूद हैं। इसके लिए जिम्मेदार तो सरकारें ही हैं.हमारे देश में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष में कभी संतुलन नहीं रहा। देश के विकास के मुद्दे पर कभी दोनों पक्षों में सहमति नहीं बन पाई है। राष्ट्रीय संकट के समय भी सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष एक दूसरे के खिलाफ आपसी लड़ाई में उलझे रहते हैं। यह बड़ी विडम्बना है .जनता इन स्थितियों से परेशान है। लेकिनह उसके पास कोई विकल्प नहीं है। जब भी जनता सरकार बदलकर नई सरकार लाने का प्रयास करती है तो वह नई सरकार भी सत्ता पर आने के बाद पहले से अधिक भ्रष्ट और बदतर शासन और प्रशासन ही जनता को देती है।
पिछले कुछ वर्षों से आन्ध्र प्रदेश ऎसी ही एक घातक नफ़रत की राजनीति का शिकार हुआ है। विकास के मुद्दे को छोड़कर राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने क्षेत्रीयता का मुद्दा उठाया है । एक ही भाषा, संस्कृति और रहन सहन, आचार, विचार और व्यवहार में अचानक लोगों को अलगाव और भेदभाव नजर आने लगा है। कल तक जो अपने थे वे अपने आप को अलग घोषित करने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। सन १९४७ में भारत-पाक विभाजन की परिस्थितियों याद आ रहीं है, जब कि तब हमारा दुश्मन अँगरेज़ था जिसने ह्जिंज्दुओं और मुसलमानों में फूट डालकर दो राष्ट्रों का फार्मूला देकर देश को दो टुकड़ों में बांटकर चला गया, जिसकी त्रासदी आज तक हम भुगत रहे हैं। लेकिन आज हम किसके खिलाफ लड़ रहे हैं, हमारे अपने ही लोगों के खिलाफ, अपनों को ही पराया घोषित करके यह लड़ाई किसके हित के लिए। एक देश के वासी - एक प्रांत के वासी अचानक दुश्मन कैसे हो जाते हैं ? मतभेद हो सकते हैं कुशासन या बुरे शासन के लिए या सरकारी भ्रष्टाचार के लिए आम जनता कैसे जिम्मेदार है। और आज तक की सरकारों में सभी प्रान्तों के - सभी क्षेत्रों के नेता रहे हैं। फिर किसी एक क्षेत्र के लोगों से यह नफ़रत की राजनीति क्यों खेली जा रही है। रिश्ते नाते, शादी-ब्याह आदि के सुदृढ़ बंधन में बंधे हुए हैं लोग, बरसों से सामाजिक जीवन लोगों का खुशहाल है। सामाजिक और सांस्कृतिक तौर तरीकों में स्थानीय रंगत के साथ लोगोंमें स्नेह और सौमनस्य का भाव अकूत भरा हुआ है। स्थानीय और गैर-स्थानीय के नियम को कैसे लागू किया जा सकता है।
लेकिन पिछले कुछ महीनों में आन्दोलन के नाम पर सारे प्रदेश में जो नफ़रत के बीज बोये गए हैं अब वे बीज फल देने लगे हैं। उसीका परिणाम आज हम देख रहे हैं। कल एक रेलगाड़ी में छोटी सी झड़प को लेकर एक युवक पर स्थानीय युवाओं के एक समूह ने हमला किया और आतंकित किया. इस तरह की सी स्थिति में आम आदमी का जीवन शहरों में कामकाज के स्थानों में होने लगी हैं। इस नफ़रत का प्रचार करने के लिए राजनैतिक दलों ने अपने अपने समूह बना रखे हैं। खुलकर मीडिया में भडाकाऊ भाषण दिए जाते हैं और उस पर कोई रोक नहीं होती.मौजूदा सरकार भी लाचार दिखाई दे रही है।ऎसी स्थिति में आम जीवन तहस नहस हो जाता है. आम जनता में व्यवस्था के प्रति आक्रोश की भावना जागती है। लोगों का विश्वास सरकार पर से उठ जाता है.जनता असुरक्षित महसूस करती है । जब राज्य में ऎसी कोई राजनीतिक संकट की स्थिति पैदा हो जाए तो यह सस्रकार और राजनीतिक दलों का और साथ ही जनप्रतिनिधियों ( निर्वाचित ) का कर्तव्य है कि वह इन समस्याओं को अपने स्तर पर सुलझाने के लिए कारगर कदम उठाये और जनता को राहत प्रदान करे। राज्य के विभाजन का हो या एकीकरण का या अन्य कोई भी संकट जैसे क्षेत्रीय मामले ( जल के बंटवारे का या किसानों को मुफ्त बिजली वितरण का आदि ) जो भी विवाद होते हैं उन्हें सुलझाना सरकार का कराव्या है. सरकार को प्रतिपक्ष के नेताओं के साथ मिल बैठकर बातचीत के जरिये जनता की समस्याओं को संवाद के माध्यम से सुलझाना चाहिए .लेकिन दुर्भाग्य से सरकार और अन्य राजनीतिक दलों में आज कोई तालमेल नहीं देखा जाता। प्रतिपक्ष के राजनेता सामान्य जनता की मुश्किलें हल्कराने के स्थान पर उनकी मुश्किलें और अधिक बढाने में विश्वास करते हैं। राष्ट्रीय संकट के अवसर भी सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों अपने अपने स्वार्थों को पूरा करने में ही लगे रहेते हैं।
आज आंध्र प्रदेश में पृथक तेलंगाना राज्य के गठन कि मांग जोरों पर है, यह मांग केवल तेलंगाना प्रदेश के राजनीतिक दलों की मांग है, इन राजनीतिक दलों ने इस प्रदेश की जनता को अपनी दलीले देकर विभाजन की दिशा में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है. जनता इस मांग के परिणामों से अनभिज्ञ है लेकिन यह मामला अब एक जन आन्दोलन का रूप ले चुका है। प्रदेश में लोगों के बीच कई तरह की शंकाएं पैदा हो गयी हैं। राज्य के कर्मचारी और गैर सरकारी प्रतिष्ठानों के कामगार लोग भी अब इस विचाजन की राजनीति से आहत हो गए हैं। तेलुगु भाषा की एकरूपता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। तेलुगु संस्कृति के विभिन्न आंचलिक स्वरूपों को अलगाववाद के चश्मे से दिखाया जा रहा है। आम जनता दिग्भ्रमित है। नेता लोग इस स्थिति का लाभ उठा रहे हैं। सबसे अधिक प्रभावित हैं - शिक्षण संस्थाएं । स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षा केंद्र, चाहे वह सरकारी हो गैर सरकारी, सभी शिक्षा केंद्र बंद हो गए हैं या बंद कराये गए हैं। राज्य का और प्रदेश का विकास थम गया है। आन्दोलन के नाम पर आत्महंता कार्यकलापों से सामाजिक, आर्थिक विचलन की प्रक्रियासा सर्वत्र व्याप्त हो गयी है । बिजली, पानी के सेवाएं बाधित हुई हैं। सरकार की आमदनी करोड़ों रुपयों की ख़त्म हो गयी है। परिवहन सेवाओं के हड़ताल पर चले जाने से राज्य में यातायात और आवागमन अवरुद्ध हो गया है। उधर केंद्र सरकार कोई ठोस निर्णय लेने की स्थिति में नहीं दिखाई देती। एक गतिरोध की स्थिति लोगों को परेशान कर रही है।
जिस राज्य या राष्ट्र की युवा पीढी और शैशव और किशोर आयु के छात्रों की शिक्षा इस तरह अपने ही लोगों की आपसी राजनीति का शिकार हो जाए तो उस राष्ट्र का विकास कैसे संभव है ? शिक्षण संस्थाओं को राजनीति से हमेशा दूर रखना चाहिए, आज हमें ऐसे कानून की जरूरत है। न्यायपालिका की तरह देश की शिक्षण व्यवस्था को भी स्वतंत्र होना चाहिए, तभी देश में एक प्रभावी और आदर्श शिक्षा तंत्र का विकास होगा। देश का भविष्य सुरक्षित रहेगा और देश को चलाने के लिए सुशिक्षित और सुसंस्कृत युवा पीढी तैयार होगी। राजनीतिक हस्तक्षेप से हमारी शिक्षा प्रणाली अपंग हो गयी है - निस्सहाय हो गयी है। हर छोटे बड़े मुद्दे को लेकर राजनेता शिक्षण संस्थाओं का दोहन करते हैं जो कि भारत जैसे लोकतंत्र के आअत्मघाती है। इस पर विस्तार से विचार करना चाहिए। अब समय आ गया है कि देश के शिक्षाविद इस समस्या पर गंभीरता से विचार करें और कोई ठोस समाधान देशवासियों को प्रदान करें। देश में शिक्षा के गिरते मानदंडों ( स्तर ) के प्रति माता-पिता चिंतित हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों का ह्रास तेजी से हो रहा है। सरकार की शिक्षा नीतियों पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस अपेक्षित है। शिक्षा के स्तर को कैसे ठीक किया जाए - इस पर विचार होना चाहिए। गुणवत्ता आज एक समस्या हो गयी है। राजनीतिक आन्दोलन शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित न करें - ऐसा कोई कानून शीघ्र बनना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं में छात्रों के अलावा ( जो छात्र नहीं हो, या असामाजिक तत्वों को ) अन्य को प्रवेश नहीं मिलना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं के छात्रावासों में केवल नामांकित
( अनुक्रमांकित ) छात्रों को ही रहने की अनुमति मिलनी चाहिए, अन्य को नहीं। इस नियम का कार्यान्वयन सख्ती से होना चाहिए. देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों के छात्रावासों में बाहरी लोग आकर निवास करते हैं और अराजकता फैलाते हैं, उनकी आवाजाही पर कोई रोक टोक नहीं होती. आज अधिकतर उच्च शिक्षण संस्थाओं के छात्रावासों में बाहरी लोग अनधिकृत रूप से गैरकानूनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए अपना स्थाई ठिकाना बनाकर रह रहे हैं और प्रशासन मूक दर्शक बना हुआ है।
ये स्थितियां जब तक नहीं सुधरेंगी तब तक उच्च शिक्षण की संस्थाएं अपने अकादमिक उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाएंगी। इन सुधारों के लिए सरकारको अधिक कारगर उपाय और तरीके सोचने होंगे और सख्ती से लागू करने होंगे।
शिक्षण संस्थाओं को राजनीतिक गतिविधियों से दूर या अलग रखने के लिए कानूनी प्रावधान की आवश्यकता है।

2 comments:

  1. सरदार पटेल ने ६०० छोटे राज्यों-रियासतों को जोड़ कर एक भारत का रूप दिया था। अब उन्हीं की पार्टी जो छः दशकों से राज कर रही है, वह जाति, भाषा, धर्म, लिंग आदि के नाम पर जनता को बाँट कर अंग्रेज़ॊं की ‘बांटॊ और राज करो’ की नीति पर चल रही है। पूर्व में राजनीति और तंत्र दो अलग थे और तंत्र ईमानदार हुआ करता था। अब दोनों की मिलीभगत ने देश को नाश के कगार पर खड़ा किया है। भ्रष्टाचार के ताज़ा कारनामें इस का जीता-जागता प्रमाण है। इससे देश को कौन उबारेगा यह तो ऊपरवाला ही जाने क्योंकि कहा तो यही जा रहा है कि ऊपरवाले की मेहरबानी से देश चल रहा है!!!

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