देश में भ्रष्टाचार के विरोध में तीव्र आक्रोश अपने चरम पर आ पहुंचा है । भ्रष्टाचार विरोधी सुनामी भारत में दस्तक दे चुकी है इसे अब कोई नहीं रोक सकता। आम जनता किसी भीतरह की कुर्बानी देनेके लिए सन्नद्ध हो गई है। लोगों ने कमर कास लिया है। भ्रष्ट राजनीति और देश कि नौकरशाही व्यवस्था के साथ साथ अपराधीकृत राजनीति का घिनौना रूप अब बेनकाब हो गया है। घोटालों की राजनीत अब अनावृत्त हो चुकी है। नामी गिरामी उद्योग घराने से लेकर व्यावसायिक दलालों का भंडाफोड़ हो गया है। न्यायपालिका अपना काम करने के लिए कमर कास ली है। आम जनता में देर से ही सही एक जनचेतना जाग गयी है। सताधारी राजनेता की नींद उड़ गयी है। सता पक्ष जन आन्दोलन को कुचलने के घिनौने हथकंडे अपना रहे हैं वह भी बेशर्मी से। रातों रात निहथ्थे, निर्दोष आम लोगों पर सशस्त्र बल अपना पौरुष प्रदर्शन करते हैं। तथाकथित गांधीजी और नेहरूजी के सिद्धांतों का पालन करने का ढोंग करने वाली तथाकथित वाली सरकार इन निहत्थों पर बल प्रयोग करते हुए ज़रा भी शर्मसार नहीं हुई। प्रधान मंत्री महोदय अनभिज्ञता की गहरी नींद सो रहे हैं। वे करें भी तो क्या, तंत्र के धागे तो किसी और के हाथों में हैं । जन समर्थित हर आन्दोलन ऐसे ही रौंदा जाता है। जन समर्थित आन्दोलन को कुचलने के लिए उसे किसी न किसी सता विरोधी राजनीतिक दल से जोड़ दिया जाता है और उसे सिद्ध भी कर दिया जाता है। सत्ता के खेल निराले होते हैं। सत्ता का विरोध, जनता के कल्याण के लिए जब किया जाए वह तब - लोकतंत्र में जायज़ होता है। लेकिन आज की हमारी सरकारें ( जो कि जनता द्वारा चयनित प्रतिनिधियों की सरकार है ) अपने आप को तानाशाही संस्कृति में ढाल चुकी है । बहुत दुःख होता है ऎसी परिस्थितियों को देखते हुए। क्या आम आदमी का कोई अधिकार ही नहीं रहा - इस देश में। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव - चाहे किसी भी विचारधारा के हों - हैं तो वे आम नागरिक ही। विरोध का स्वर दबाने के लिए सत्ता पक्ष के नेता हमेशा गड़े मुर्दे उखाड़ते हैं और सवाल का जवाब पलट वार करके करते हैं। सवाल पूछना के लिए लोकतंत्र में किसी भी अर्हता या योग्यता या पात्रता की आव्यशाकता नहीं होती लेकिन जब भी कोई सरकार को उनकी गलत नीतियोंके लिए ललकारता है तो उसे उत्पीडित किया जाता है, उसे तरह तरह से सताया जाता है,उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है, उस पर अनेक तरह के आपराधिक मामले दर्ज कर दिए जाते हैं और उसे देश द्रोही सिद्ध कर उसे ख़त्म कर दिया जाता है। लोगों में भय और आतंक का वातावरण उभर कर आ रहा है। सत्ता पक्ष लोगों को मासिक रूप से अपंग बनाना चाहती है। हर राजनीतिक दल का यही एजेंडा है। कोई भी दल आम आदमी अथवा देश में व्याप्त अराजकता, महंगाई, विदेशों में छिपाए काले धन की समस्या, सरहद पार के आतंकवादी हमले आदि के बारे कोई भी समाधान नहीं निकालना चाहते है , केवल भोली भाली जनता को सत्ता और विपक्ष की लड़ाई में उलझा कर रख देना चाहते हैं। आम आदमी के पास केवल अपनी रोज़ी रोतीकमानेभर का ही समय बड़ी मुश्किल से मिल पाता है, वह उपरोक्त समस्याओं में कहाँ से उलझेगा। उसे उम्मीद रहती है अपने जन प्रतिनिधियों से - लेकिन वे कितने भ्रष्ट हैं - इसे अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है।
पिछले दिनों की घटनाओं को सत्ता और विपक्ष दोनों अपनी अपनी राजनीति का मुद्दा बनाकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। जन लोकपाल विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने के लिए जो प्रयास हो रहे हैं, उसमें काफी अड़चनें सरकार पैदा कर रही है - यही बात जनता को समझ में आती है। सरकार क्यों इस विधेयक को जनता के अनुकूल मांगों के अनुकूल स्वीकार नहीं करती - इसका उत्तर सरकार क्यों नहीं देना चाहती ? क्यों सरकार जनता की आवाज़ को दबाना चाहती है। जब राजनेता ( सत्ता और विपक्ष - दोनों पक्षों के ) भ्रष्टाचार में डूबे हों तो वे कैसे ऐसे विधेयक को स्वीकार करेंगे जो उनके ही विरुद्ध कार्रवाई करने वाली हो । लेकिन अब समत आ गया है कि सरकार को जनता के हर सवाल का जवाब देना ही पडेगा।
राष्ट्रीय संकट के समय या राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे देश के राजनीतिक दल एकजुट कभी नहीं होते। विदेशों में ऐसे मुद्दों पर सत्ता और विपक्ष दोनों एकजुट होकर परस्पर दोषारोपण की राजनीति न करते हुए, देशवासियों के हित में समाधान ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं । अनेक अवसरों पर दोनों पक्ष एक ओर हो जाते हैं। लेकिन हमारे देश हमने कभी ऎसी स्थिति नहीं देखी। ( सिवाय बाहरी आक्रमण की स्थिति को छोड़कर ) ।
आज देश बहुत ही गहरे संकट से गुज़र रहा है। कई लाख -करोड़ रुपयों की राशि ( राष्ट्रीय संपत्ति ) काले धन के रूप में अवैध तरीके से विदेशी बैंकोंमेंजमा है जिससे राष्ट्र की सारी गरीबी दूर की जा सकती है, भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुँच चुका है, यह ऐसा समय है जब कि सभी को एकजुट होकर इस धन को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए । साथ ही देश के भीतर दमनकारी नीतियों का रास्ता छोड़कर जनता के हित में सत्ता को नीतिगत निर्णय लेने का साहस होना चाहिए।
किसने सोचा था कि गांधी, नेहरू, अम्बेडकर,फुले, दयानंद सरस्वती, टैगोर का यह देश आज ऎसी दीन और दयनीय स्थिति में होगा जहां केवल भ्रष्ट राजनीति ही देश का वर्तमान और भविष्य हो ।
हम सामान्य वर्ग के अति सामान्य नागरिकों को कब इस महामारी से मुक्ति मिलेगी।
दाई में ula
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सही कहा आपने सर कि तंत्र के धागे किसी और के हाथ में है और प्रधानमंत्रि कठपुतली बने हुए हैं। अब तो अंग्रेज़ों को जलियावाले बाग पर शर्मिंदा नहीं होना ॥
ReplyDelete`जलियावाले बाग पर शर्मिंदा नहीं होना ' को कृपया जलियांवाला बाग कांड के लिए शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा- पढें।
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