Sunday, March 18, 2012

अज्ञेय के काव्य में व्यक्ति और स्वातंत्र्य चेतना

- एम वेंकटेश्वर

अज्ञेय का साहित्यिक वर्चस्व चिन्तन के धरातल पर सदैव क्रान्तिकारी और विद्रोही रहा है । उनका सृजन प्रयोग धर्मी और नव्य वैचारिकता से भरपूर तथा चिर नूतनता का परिचायक है । उनका साहित्य सृजन बहुआयामी, बहु उद्देशीय तथा सौन्दर्यप्रधान है । उन्होने साहित्य की लगभग सभी विधाओं को अपनी सार्वभौम सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न किया । उनका गद्य और पद्य दोनों ही संवेदना एवं विचारों का अद्भुत समन्वयात्मक पारदर्शी मिश्रण है । मिथकीय परंपराओं और नव्याधुनिक पाश्चात्य चिन्तन सरणियों का विलक्षण सम्मिश्रण उनके रचना वैशिष्ट्य का आधार है ।

अज्ञेय मूलतः कवि हैं किन्तु उनका कथा साहित्य भी उतना ही प्रखर और प्रभावशाली है जितना कि काव्य ।

अज्ञेय के ललित निबंधों में उनके रचना कौशल का एक भिन्न किन्तु अत्यन्त कलात्मक वैचारिकअभिव्यंजना का रूप दिखाई देता है । छायावादोत्तर काल में हिंदी काव्य में नवीन प्रयोग के रूप में उस समय की स्थापित काव्य-रूढियों के बरक्स अज्ञेय का तारसप्तक संकलन और उसी के विस्तार में क्रमशः दूसरे, तीसरे और चौथे सप्तक का संपादन स्वयं में एक कीर्तिमान है । पत्रकारिता के क्षेत्र में ' प्रतीक ' का संपादन हो अथवा साहित्यिक रचना धर्मिता के समानान्तर आजादी से पूर्व क्रान्तिकारी दलों के सदस्य के रूप में अंग्रेजी सत्ता के विरोध में उनकी भागीदारी आदि अज्ञेय को एक अलग धरातल पर स्थापित करती है । अज्ञेय का व्यक्तित्व एकत्व में अनेकत्व का प्रतीक है । अज्ञेय का सृजन गद्य और पद्य, दोनों विधाओं में वस्तु और शिल्प के स्तरों परअद्वितीय और अप्रतिम है । उनकी रचना-धर्मिता मानवीय संवेदनाओं की सहज स्वानुभूत अभिव्यक्ति को संपोषित करती है । उनके चिन्तन में प्राच्य और पाश्चात्य दर्शन का अपूर्व सन्तुलन दिखाई देता है । उनकी रचनाओं में पाश्चात्य चिन्तन की छाप स्पष्ट दृष्टिगोचर होती

है । उनके अध्ययन का फलक अतिविस्तृत और अतिव्यापक रहा है । टी एस ईलियट से अत्यधिक प्रभावित उनका काव्य दर्शन हिंदी काव्य को नई दिशा प्रदान करता है । अज्ञेय मुख्यतः व्यक्ति स्वातंत्र्य और आत्मिक उन्मुक्तता के प्रबल पक्षधर रचनाकार हैं । अज्ञेय का सृजन व्यक्तित्व और स्वातंत्र्य की खोज का प्रमाण है । उनके काव्य तथा कथा साहित्य दोनों में उनकी यह प्रवृत्ति संवेदना तथा वैचारिकता - दोनों धरातलों पर समान परिलक्षित होती है । उनके साहित्य को व्यक्तिवादी और एकान्तिक कहा जाता है किन्तु व्यक्ति के अचेतन में छिपे संवेदना की असंख्य परतों को उद्घाटित कर उसके वैविध्य को प्रदर्शित करने में अज्ञेय ही सिद्ध हस्त हैं । वस्तुतः अज्ञेय का साहित्य जहां एक और पूर्णतः व्यक्तिनिष्ठ है वहीं वह सामाजिक रूढियों के प्रति सजग भी है । सामाजिकता का उल्लंघन कर नितान्त एकान्तिकता की खोज में शरण लेने वाले अज्ञेय के पात्र जीवन के चरम आनन्द के क्षणों को संचयित करने में अपने जीवन को सार्थक करते हैं । ( संदर्भ - नदी के द्वीप और शेखर - एक जीवनी ) । अज्ञेय के काव्य की प्रयोग धर्मिता स्वयं अपने आप सिद्ध होती है जब हम 'असाध्य वीणा ' जैसे मिथकीय संदर्भ से युक्त एक सशक्त नैरेटिव को देखते हैं । उनके प्रतीक और बिम्ब उनके रचना कौशल को स्वाभाविक रूप में रेखांकित करते हैं ।

अज्ञेय के पूरे कृतित्व में ' मुक्ति ' शब्द का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है । यह शब्द कवि - मन की मुक्ति -लालसा को व्यक्त करता है । यह मुक्ति और जीने की लालसा या स्वातंत्र्य की खोज ही अज्ञेय के काव्य की सही जमीन है, क्योंकि स्वातंत्र्य में ही व्यक्तित्व की सार्थकता बिद्ध होती है अतः अज्ञेय के व्यक्तित्व की खोज का अर्थ भी स्वातंत्र्य की ही खोज है -

अर्थ हमारा

जितना है, सागर में है

हमारी मछली में है

सभी दिशा में सागर जिसको घेर रहा है । ( अरी ओ करुणा प्रभामय )

अज्ञेय की कविता का अर्थ उस मछली में ही है, जिसे सागर सभी दिशाओं में घेर रहा है । यह ' मछली ' अज्ञेय की कविता का प्रिय प्रतीक है । ' मछली ' अर्थात अस्तित्व । मछली अर्थात जिजीविषा । जल के बाहर निकाल ली गई मछली - तड़पती, छटपटाती, ऐंठती और हांफती । वह जीना चाहती है, मुक्ति चाहती है

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'भग्नदूत' ( 1933 ) से लेकर ' क्योंकि उसे मैं जानता हूं ' ( 1970) तक अज्ञेय की काव्य यात्रा इसी मुक्ति के लिए है -

अपनी हर सांस के साथ

पनपते इस विश्वास के साथ

कि हर दूसरे की हर सांस को

हम दिला सकेंगे और अधिक सहजता

अनाकुल उन्मुक्ति, और गहरा उल्लास । ( कितनी नावों में कितनी बार )

अज्ञेय का एक पुराना प्रतीक है ' हारिल ' यह भी अस्तित्व का ही प्रतीक है, जिसमें उड़ने की आकुलता है और जिसे दसों दिशाओं में आकाश घेर रहा है -

कांप न, यद्यपि दसों दिशा में

तुझे शून्य नभ घेर रहा है । ( पूर्वा )

ध्यान देने की बात है कि मछली को सभी दिशाओं में 'सागर ' घेरता है और ' हारिल ' को ' शून्य नभ ।" ये सागर और शून्य नभ, अस्तित्व को घेरता हुआ समाज है या फिर सामाजिक - नैतिक वर्जना । इस वर्जना के विरोध में ही अज्ञेय की कविता जन्म लेकर खड़ी होती है -

' खोल दो सब वंचना के दुर्ग के ये रुद्ध सिंहद्वार ' ( इत्यलम )

अज्ञेय के प्रकृति प्रेम और क्षणवाद के मूल में भी इसी वर्जना से मुक्ति का प्रयास है । अज्ञेय की रचनाओं में शुरू से आखिर तक प्रकृति के सहज आकर्षण और उसके जीवंत चित्र प्राप्त होते हैं - हरी घास, सागर तट, नदी तट, पत्नी, चिड़िया, कली, पपीहा, ललाती सांझ, चदरीली चाँदनी, काजल पुती रात, पूनो, इन्द्रधनु, छाया, पगडंडी, लहर, झील, बदली, क्वार की बयार आदि । ये चित्र पंत में भी प्राप्त होते हैं पर दोनों में अंतर है । प्रकृति के प्रति अज्ञेय का लगाव रहस्यवादी लगाव नहीं है । यह लगाव मुक्त प्रकृति के साहचर्य में प्राप्त होने वाले ऐन्द्रिक सुख के कारण है । अज्ञेय प्रकृति की और इसलिए आकर्षित होते हैं कि वे प्रकृति के बीच मुक्त जीवन का सुख प्राप्त करना चाहते हैं । आदिम जीवन की गंध कवि-मन को आकर्षित करती है । यह शहरी जीवन की भीड़ -संस्कृति, कुंठा, यांत्रिक दबाव और उपभोक्तावादी मानसिकता से अपनी निजता को समेटकर दूर जाने का प्रयास है । ' हरी घास पर क्षण भर ' शीर्षक कविता में अज्ञेय कहते हैं -

आओ, बैठो

तनिक और सटकर, कि हमारे बीच स्नेह भर का

व्यवधान रहे, बस

नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की ।

* * *

नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से

जिनकी भाषा में

अतिशय चिकनाई है साबुन की ।

अज्ञेय की अनेक कविताओं में शहरी सभ्यता पर करारा व्यंग्य किया गया है, ' सांप ' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं -

सांप !

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया

एक बात पूछूं - ( उत्तर दोगे ? )

तब कैसे सीखा डसना -

विष कहां पाया ? ( इन्द्र धनुष रौंदे हुए )

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क्षण के प्रति जो आग्रह अज्ञेय में प्राप्त होता है, वह जीने का आग्रह है - जिजीविषा है - क्षणवाद का कोई स्वंतंत्र दर्शन अज्ञेय में नहीं -

' रोज सबेरे मैं थोड़ा सा अतीत में जी लेता हूं

क्योंकि रोज शाम को मैं थोड़ा सा भविष्य में मर जाता हूं '

क्षण का आग्रह मात्र इसलिए है कि कवि इस कुंठित सभ्यता के बीच क्षण भर की छूट मांग लेना चाहता है -

एक क्षण भर और

रहने दो मुझे अभिभूत ।

इस क्षण के आग्रह के पीछे वर्तमान को भोगने की तीव्र लालसा है । अज्ञेय के ही शब्दों में, " क्षण का आग्रह क्षणिकता

का आग़्रह नहीं है, अनुभूति की प्राथमिकता का आग्रह है । " ( आत्मने पद )

अज्ञेय के लिए अनुभूति का क्षण, सर्जना का क्षण, प्यार का क्षण और समर्पण का क्षण ही सत्य है, क्योंकि उसी में वे जीवित हैं -

सांस का पुतला हूं मैं

जरा से बंधा हूं और

मरण को दे दिया गया हूं

पर एक जो प्यार है न उसी के द्वारा

जीवन मुक्त मैं किया गया हूं । ( आँगन के पार द्वार )

अज्ञेय की जीवन मुक्ति मुख्यतः रूढ सामाजिक नैतिकता से मुक्ति की ही बोधक है । भूमि के कंपित उरोजों पर मेघों का झुकना, लाल गुलाब की तपती - पियासी पंखुड़ियों के होंठ, हरियाली का बादलों के चुंबनों से खिल उठना, कली का शरद की धूप में नहाकर निखर उठना, मंदिर के भग्नावशेष पर चंचुक्रीड़ा करते दो वनपारावत, नदी की जांघ पर सोया अंधियारा और डाह भरी चोर पैरों से उझक कर झांकती चाँदनी आदि - अज्ञेय के काव्य में प्रयुक्त यह शब्दावली यौन वर्जनाओं के विरुद्ध मुक्ति की ही शब्दावली है । ' तारसप्तक ' के अपने वक्तव्य में उन्होंने स्वयं यह स्वीकार किया है - " आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति यौन वर्जनाओं का पुंज है । " अज्ञेय के काव्य में जो एक दर्द और आत्मपीड़न का स्वर मिलता है, उसका संबंध भी इन्हीं यौन वर्जनाओं से है ।

' हारिल ' और ' मछली ' के ही समान अज्ञेय के अन्य प्रिय प्रतीक हैं - ' सागर', ' हरी घास' और ' धूप ' । ये प्रतीक ही अज्ञेय के काव्य की जटिलता को सुलझाने वाले औजार हैं । इन सबका संबंध मन के एक ही कोने से है । ' धूप ' स्वच्छन्दता, खुलापन, उस गरमाहट का प्रतीक है, जो आलिंगन में प्राप्त होता है । ' हरी घास ' कवि के ही शब्दों में अधुनातन मानव - मन की भावना की तरह, सदा बिछी है - हरी, न्यौतती । ( हरी घास पर क्षण भर )

' सागर ' -

एक भव्यता का बोध है

एक तृप्ति है, अहं की तुष्टि है, विस्तार है :

विराट सौन्दर्य की पहचान है । ( सागर मुद्रा )

तात्पर्य यह कि अज्ञेय के ये सभी प्रिय प्रतीक मुक्ति और स्वातंत्र्य से जुड़े हुए हैं तथा ये जिस अर्थ का बोध कराते हैं, वही अज्ञेय के लिए जीवन का भी अर्थ है - क्योंकि यही सब तो है जीवन

गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला

गंधवाही मुक्त खुलापन,

लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,

और बोध भव्य

निर्व्यास निस्सीम का । ( इंद्र धनुष रौंदे हुए )

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अज्ञेय को छायावादी भी कहा गया है और उनकी कविता में गैर-रोमांटिक काव्य की संभावनाओं पर भी विचार किया गया है । वैसे अज्ञेय रोमानीपन से अपने को पृथक नहीं कर पाये हैं । उनकी प्रारम्भिक रचनाएं विशेषतः " भग्नदूत ' ( 1933 ) और ' इत्यलम ' ( 1946 ) की कविताएं काफ़ी रोमांटिक हैं किन्तु अपनी परवर्ती रचनाओं जैसे ' हरी घास पर क्षण भर ' ( 1949), ' इंद्र धनुष रौंदे हुए ' ( 1957 ), ' अरी ओ करुणा प्रभामय ' ( 1959 ) तथा ' आँगन के पार द्वार ' ( 1961 ) आदि में उन्होंने रोमानीपन से अपने को बहुत कुछ अलग किया है । ईलिएट की भांति अज्ञेय भी यह स्वीकार करते हैं कि जितना ही बड़ा कलाकार होगा भोगने वाले मन और रचने वाली मनीषा का अंतर भी उतना ही स्पष्ट होगा । कला में कवि की यह निर्वैयक्तिकता और जीवन के प्रति उसकी निस्संगता उसे छायावादी बोध से अलग करती है । जीवन के प्रति कवि का भाव निस्संग समर्पण का भाव है ।

अज्ञेय के काव्य में यायावरी मुद्रा अधिक है यही स्थिति उनके कथा साहित्य में भी स्पष्ट दिखाई देती है । अज्ञेय की कविता में वह भावावेग और आसक्ति भाव नहीं प्राप्त होता जो छायावादी कविताओं का प्राण है । उनकी कविताओं में एक संयत और अनुशासित मनः स्थिति है और वे भावावेग से या अतीत के सम्मोहन से या यथार्थ के स्फीत चित्रण से भरसक बचने का प्रयास करते हैं -

याद कर सकें अनायास

और न मानें

हम अतीत के शरणार्थी हैं,

- - - - - - - - - - - - - -

और रहे बैठे तो

लोग कहेंगे

धुंधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं ।

वह हम हों भी

तो यह हरी घास ही जाने । ( हरी घास पर क्षण भर )

इस तरह अज्ञेय की बौद्धिकता उन्हें छायावादी भाव बोध से अलग करती है ।

अज्ञेय का चिंतक रूप उनकी कविताओं में सर्वथा उभरा हुआ है । यह चिंतन ही कवि को दार्शनिक और रहस्यवादी व्यक्तित्व प्रदान करता है तथा उसे कथन के लिए बाध्य करता है । अज्ञेय अपने अनुभवों को रुक रुक कर सूक्तियों के रूप में सामान्यीकृत करते हुए चलते हैं जो कहीं कहीं उपदेशात्मक होकर उनकी कविता की कमजोरी बनती है ।

अज्ञेय के परवर्ती काव्य में उनका बुद्धिवाद एक तरह के रहस्यवाद में परिणत होता है । उनके इस रहस्य के मूल में मानवीय जिज्ञासा है, जिसे कवि मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति स्वीकार करता है । शेखर कहता है " असली तपस्या तो जिज्ञासा है क्योंकि वही सबसे बड़ी पीड़ा है ।" ( शेखर - एक जीवनी, भाग दो पृः 85 ) रहस्य की यह प्रवृत्ति अज्ञेय के काव्य में आरम्भ से ही मिलती है पर परवर्ती संकलनों में यह रहस्यवाद इनकी कविताओं की रूढि के रूप में दिखाई देता है ।

अज्ञेय का चिंतन कहीं कहीं प्रार्थना का भी रूप ले लेता है किन्तु उनका रहस्यवाद कोई धार्मिक रहस्यवाद नहीं है । वे तो ईश्वर के स्वीकृत रूप पर विश्वास भी नहीं करते -

इस विकास गति के आगे है कोई दुर्लभ शक्ति कहीं

जो जग की सृष्टा है, मुझको तो ऐसा विश्वास नहीं ( पूर्वाग्रह )

अज्ञेय का रहस्यवाद बहुत कुछ वैज्ञानिक या बुद्धिवादी रहस्यवाद है । यह रहस्यवाद किसी दैवी शक्ति की खोज न करके आत्मरूप की ही खोज करता है -

मैं भी एक प्रवाह में हूं

लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की और उन्मुख नहीं है

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मैं उस असीम शक्ति से

संबंध जोड़ना चाहता हूं -

अभिभूत होना चाहता हूं -

जो मेरे भीतर है । ( इत्यलम )

यह मानवीय स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतिष्ठा या व्यक्ति स्वातंत्र्य की खोज अज्ञेय की कला - साधना की एक महत्वपुर्ण दिशा है । शेखर के जीवन दर्शन को सूत्र रूप में वे ' स्वातंत्र्य की खोज ' का ही दर्शन मानते हैं ( आत्मनेपद ) । वे मानवीय शक्ति को ही सर्जक और अंततः पूज्य मानते हैं । उसी के प्रति नमित और अर्पित होते हैं -

भीड़ों में

जब जब जिससे आंखें मिलती हैं

वह सहसा दिख जाता है

मानव

अंगारे - सा भगवान सा

अकेला । ( अरी ओ करुणा प्रभामय )

' नदी के द्वीप ' शीर्षक कविता में अज्ञेय स्वीकार करते हैं कि हम नदी के द्वीप हैं । हम बहते नहीं हैं क्योंकि बहना रेत होना है और रेत बनकर सलिल को गंदला बनाना है, अनुपयोगी बनाना है । इस मानवीय व्यक्तित्व विकास के लिए अज्ञेय समाज को साधक ही मानते हैं बाधक नहीं । और यह ' द्वीप अकेला ' ( बावरा अहेरी ) जैसी कविताओं में इकाई को समाज से जोड़ने की भी बात करते हैं । मगर यह दृष्टव्य है कि वे इकाई की सत्ता समाज से पहले स्वीकार करते हैं । उनका विश्वास है कि व्यक्तित्व को समाज द्वारा बाधित नहीं होना चाहिए अन्यथा उसकी सर्जनात्मक शक्ति समाप्त हो जाएगी । इस प्रकार वे जीवन का अर्थ ढूंढने के लिए व्यक्तित्व की खोज को अनिवार्य शर्त मानते हैं ।

" हर व्यक्ति एक अद्वितीय इकाई है और हर कोई जीवन का अंतिम दर्शन अपने जीवन में पाता है, किसी सीख में

नहीं ।" ( नदी के द्वीप - उपन्यास ) अपने एक पढे हुए विदेशी उपन्यास का स्मरण करते हुए शशि कहती है, " किसी भी एक व्यक्ति को इतना प्यार नहीं करना चाहिए कि जीवन में किसी दूसरे उद्देश्य की गुंजाइश न रह जाये - कि जीवन एक स्वतंत्र इकाई है और यदि वह बिल्कुल पराधीन हो जाये तो यह कला नहीं है क्योंकि कला के आदर्श से उतरकर है । ( शेखर - एक जीवनी ) इसी कारण अज्ञेय साम्यवादी दर्शन को अधुरा और पंगु मानते हैं तथा लोकतंत्र को अधूरा मानते हुए भी उसे साम्यवाद की तुलना में श्रेष्ठ स्वीकार करते हैं । ( आत्मनेपद ) वे अपने प्रति दायित्व को प्राथमिक मानते हैं और समाज के प्रति दायित्व को उसी से उत्पन्न। उन्हीं के शब्दों में " समता उसी समाज में होती है जो स्वतंत्र हो और समाज वही स्वतंत्र होता है, जिसका अंग व्यक्ति, स्वतंत्र हो और अपने स्वातंत्र्य के उपयोग के लिए ही सामाजिकता का वरण करता हो । " ( एक बूंद सहसा उछली )

अज्ञेय की कविताओं में इस व्यक्तित्व के खोज की बेचैनी प्रकट हुई है -

यों मत छोड़ दो मुझे, सागर

कहीं मुझे तोड़ दो, सागर

कहीं मुझे तोड़ दो ।

मेरी दीठ को और मेरे हिये को,

मेरी वासना को और मेरे मन को ।

मेरे कर्म को और मेरे मर्म को

मेरे चाहे को और मेरे जिये को

मुझको और मुझको और मुझको

कहीं मुझसे जोड़ दो । ( सागर मुद्रा )

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अज्ञेय को क्रान्तिकारी रचनाकार स्वीकार किया गया है । यह सच भी है क्योंकि रचना और चिंतन के क्षेत्र में अज्ञेय निश्चय ही घेरे के बाहर और काफी दूर तक गए हैं । पर अज्ञेय का यह विद्रोह काफी संयत और अनुशासित विद्रोह है, अराजक नहीं । विद्रोह के प्रति उनकी एक सुलझी हुई दृष्टि है । शेखर कहता है - " किसी के विरुद्ध लड़ना पर्याप्त नहीं है, किसी के लिए लड़ना जरूरी है । " अज्ञेय प्रयोग और विद्रोह का आग्रह करते हुए भी परंपरा को स्वीकार करते हैं अतीत उन्हें आलोक ही देता है, अंधकार में नहीं ले जाता । शेखर सोचता है - " अतीत से मेरी दृढता घटती नहीं, बढती है, क्योंकि जितना ही मैं उसे देखता हूं उतना ही मैं उसके भीतर की अनिवार्यता को पहचानता हूं - जानता हूं कि आज वह भूत इसलिए है कि एक दिन वह भविष्य - अवश्यं भवितव्य - था । " ( शेखर - एक जीवनी, भाग दो )

इस रूप में अज्ञेय विखण्डनकारी विद्रोही नहीं हैं । यद्यपि ' इत्यलम ' में उन्होंने कहा है -

मैं मरूंगा सुखी

मैंने जीवन की धज्जियां उड़ाई हैं । ( जन्म दिवस )

पर वे कहीं भी जीवन की धज्जियां नहीं उड़ाते । क्योंकि जीवन के प्रति अज्ञेय का भाव निस्संग समर्पण का भाव है - पूजा भाव है । उनकी कविताओं का मूल स्वर विनय, स्वीकार, शालीनता और कृतज्ञता का है । सर्जन उनकी दृष्टि में - आँचल पसार कर लेना है -

कहीं बड़े गहरे में

सभी स्वर हैं नियम,

सभी सर्जन केवल

आँचल पसार कर लेना । ( आँगन के पार द्वार )

अज्ञेय की कविता में वह विसंगति, विडंबना, तनाव, छटपटाहट, आक्रोश, क्षोभ और उत्तेजना नहीं है, जो साठोत्तर रचना की प्रमुख विशेषता है । इसका सबसे कारण है कि अज्ञेय के साथ अपने आभिजात्य संस्कार हैं जो उनकी सीमा निर्धारित करते हैं । नैतिकता की परीक्षा के लिए भी अज्ञेय व्यक्ति स्वातंत्र्य को प्रारम्भिक शर्त मानते हैं । " मनुष्य की नैतिकता का क्या अर्थ है सिवा इसके कि वह अपने कर्म के लिए उत्तरदायी है ? लेकिन जिस कर्म का उसने स्वेच्छा से वरण नहीं किया है वह उसका कर्म कैसे है ? इसलिए अगर हम मनुष्य की वरण की स्वतंत्रता नहीं मानते, तो हम उनकी नैतिकता की संभावना भी नहीं मानते । " ( आत्मनेपद ) नैतिकता के संबंध में अज्ञेय निषेध की नीति को मूल नहीं मानते । अज्ञेय का कहना है " मुझमें साधारण होकर जीने का कोई आग्रह नहीं है, केवल सहज होना चाहता हूं । (आत्मनेपद ) पर इस स्वीकृति के बावजूद अज्ञेय की कविता में एक विशिष्टता की मुद्रा प्राप्त होती है, सहजता की नहीं । उनकी शालीनता में आत्मगौरव झलकता रहता है ।

भाषा के प्रति जितने सचेत अज्ञेय हैं, उतना अन्य कोई ही कवि होगा । वे शब्द के सार्थक प्रयोग को अपने आप में एक सिद्धि मानते हैं । वे शुरू से ही यह महसूस करते रहे हैं कि शब्दों को सही और नया अर्थ प्रदान करने में ही रचना कि सबसे बड़ी शक्ति निहित है । ' ये उपमान मैले हो गये हैं ' कहकर अज्ञेय ने इसी विचार को व्यक्त किया है । उन्होंने अपनी कविताओं में नए बिंबों और प्रतीकों को अपने अनुभव का नया अर्थ दिया है । इस संबंध में उनका कथन है - " कोई भी स्वस्थ काव्य साहित्य प्रतीकों की, नये प्रतीकों की, सृष्टि करता है और जब वैसा करना बंद कर देता है, तब जड़ हो जाता है । " ( आत्मनेपद ) अज्ञेय की कविताओं में जिस तद्भव शब्दावली का प्रचुर प्रयोग हुआ है, वह सीधे जीवन से ली गई है, इसीलिए यह अत्यन्त सजीव और अर्थपूर्ण है । उसमें जातीय संस्कारों और आदिम जीवन की गंध है । अज्ञेय की गद्य कृतियों विशेषतः प्रथम दो उपन्यासों में अवश्य ही संस्कृत और अंग्रेज़ी की शब्दावली का बाहुल्य है किंतु उस शब्दावली में भी एक गहरा अनुशासन प्राप्त होता है और ऐसा लगता है जैसे लेखक अपनी गहन अनुभूतियों को अधिक से अधिक सार्थक शब्द देने के लिए सचेत है ।

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इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अज्ञेय ने न केवल छायावादोत्तर साहित्य की विविध विधाओं को अपनी रचना शक्ति से समृद्ध किया है वरन ' तारसप्तक' और अगले तीन सप्तकों की योजना तथा ' प्रतीक ' ( 1943 - 51 )

के प्रकाशन द्वारा नए साहित्य को छायावाद और प्रगतिवाद से अलग एक नई दिशा देने का प्रयास भी किया है । इन आयोजनों और स्वयं अपनी रचनाओं के द्वारा अज्ञेय ने हिंदी साहित्य को नवीन रचनात्मक और वैचारिक धरातल की ओर मोड़ने का प्रयास किया है । यह तथ्य विचारणीय है कि उस दौर में जब कि छायावाद का पतन हो चुका था और कविता प्रगतिवाद की ओर अग्रसर हो रही थी तब ऐसे समय में शायद अज्ञेय ने अकेले काव्य मूल्यों के लिए लड़ाई लड़ी । कविता की भी एक संस्कृति होती है और उस संस्कृति के प्रति अज्ञेय में निष्ठा है, ध्वंस का भाव नहीं ।

निस्संदेह अज्ञेय की कविता स्वातंत्र्य की खोज में लिखी गई कविता है, व्यक्ति - स्वातंत्र्य की खोज में जिसकी व्याख्या उनकी अनेक गद्य कृतियों में की गई है । इस संबंध में उनका अपना तर्क शास्त्र भी है ।

अज्ञेय के जन्म की शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में भारतीय साहित्य जगत की ओर से इस महामनीषी की साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रतिबद्धता के प्रति हम नत मस्तक होते हैं ।

एम वेंकटेश्वर

फ़्लैट नं 310, कंचरला टॉवर्स
गोलकोण्डा चौरास्ता

मुशीराबाद

हैदराबाद 500020

मो - 9849048156

दूरस्थ शिक्षा में संपर्क कार्यक्रम की समस्याएं

- एम वेंकटेश्वर

दूर शिक्षण प्रणाली, शिक्षा के क्षेत्र में एक नवीन क्रान्तिकारी अधिगम की पद्धति है जिसका आविर्भाव

सन् 1700 के आसपास से माना गया है । सन 1728 में बोस्टन ( अमेरिका ) नगर में इस पद्धति से अध्ययन एवं अध्यापन कार्य की संभावना से संबंधित प्रकाशित लेख का विवरण मिलता है । कालान्तर में दूर शिक्षा प्रणाली का आधुनिक स्वरूप 19 वीं सदी से प्राप्त है । सन् 1840 में ' आईज़ैक पिटमैन ' नामक व्यक्ति ने ग्रेट ब्रिटेन में पत्राचार माध्यम से ' आशुलिपि ' का शिक्षण प्रदान किया । सन् 1858 में लंदन विश्वविद्यालय ने सर्वप्रथम दूर शिक्षण माध्यम से उपाधियां प्रदान करने के लिए बाह्य - शिक्षण योजनाओं की स्थापना की । आज इसी लन्दन विश्वविद्यालय के अन्तर्गत अनेकों अन्य शिक्षण प्रतिष्ठान जैसे लंदन स्कूल ऑफ़ इकानॉमिक्स, रॉयल हॉलोवे एन्ड गोल्डस्मिथ्स आदि स्नातक, स्नातकोत्तर तथा डिप्लोमा पाठ्यक्रमों का शिक्षण अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सफ़लतापूर्वक कर रहीं हैं । इसे आज लंदन विश्वविद्यालय के अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षण कार्यक्रमों के रूप में मान्यता प्राप्त है । इसी नमूने के आधार पर अमेरिका में शिकागो विश्वविद्यालय में पारंपरिक पाठ्यक्रमों के साथ साथ शोध-कार्यक्रमों को भी प्रारम्भ किया, कोलम्बिया विश्वविद्यालय भी इस तरह के शिक्षण प्रयोगों में शामिल हुआ । आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैण्ड विश्वविद्यालय में पत्राचार द्वारा

शिक्षण प्रदान करने लिए ' पत्राचार माध्यम शिक्षण विभाग ' सन् 1911 में खोला गया । इसके पश्चात धीरे धीरे अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों ने इस क्षेत्र में नवीन प्रयोग किये। दूर शिक्षण प्रणाली किसी भी समाज के बड़े हिस्से को सुस्थापित विद्यालयी शैक्षिक अवरचना की अनुपस्थिति में भी शिक्षा उपलब्ध करा सकने वाली एक कारगर तथा उपयोगी व्यवस्था है । शिक्षक - शिक्षार्थी के प्रत्यक्ष संपर्क बिना शिक्षण की सारी सुविधाएं मुहैया कराने वाली संकल्पना है । आज विश्व में सर्वाधिक लोग इस शिक्षण विधि से लाभान्वित हो रहे हैं । इस शिक्षण पद्धति से ज्ञान विज्ञान के सभी विषय अध्ययन हेतु उपलब्ध हैं। विज्ञान के सभी विषय, समाज विज्ञान, भाषा तथा साहित्य, मानविकी, प्रबंधन, व्यापार, वाणिज्य, कला आदि ज्ञान के सारे क्षेत्रों में इस शिक्षण विधान ने मानवोपयोगी योगदान किया है ।

कालान्तर में दूर शिक्षण की विचार धारा को 'ओपन यूनिवर्सिटी ' के रूप में प्रचारित किया गया । सन् 1970 में कनाडा के अथाबास्का विश्वविद्यालय में ओपन यूनिवर्सिटी ' की स्थापना की गई । इसके बाद ओपन यूनिवर्सिटी के नाम से ही विश्व भर में अनेक विश्वविद्यालय खुले। भारत में प्रथम दूरस्थ शिक्षा विश्वविद्यालय हैदराबाद में सन् 1982 में आंध्र प्रदेश सरकार ने खोला । तत्पश्चात सन् 1985 में इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना हुई । भारत में दूर शिक्षा विश्वविद्यालयों को मुक्त अथवा सार्वत्रिक विश्वविद्यालय की संज्ञा दी गयी । आज विश्व में इस प्रणाली से शिक्षा प्राप्त कर विश्वविद्यालयी उपाधियों के द्वारा रोजगार प्राप्त कर असंख्य लोग अपनी जीविका चला रहे हैं । यह माध्यम अत्यन्त प्रभावी और कारगर सिद्ध हो चुका है । भारत जैसे विकास शील देश के लिए जहां शिक्षा के लिए आवश्यक अवरचना तथा संसाधनों का अभाव है तथा जहां जनसंख्या के अनुपात में सरकार सार्वजनिक स्तर पर स्कूल और कालेज मुहैया नहीं कर पा रही है - ऐसी स्थिति में भारत के लिए दूर शिक्षण प्रणाली अत्यन्त आवश्यक तथा प्रभावी शिक्षण का माध्यम है । दूर - शिक्षण प्रणाली, कक्षा और शिक्षक रहित शिक्षण प्रणाली होने के कारण इसमें

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छात्र को इन दोनों घटकों के अभाव की पूर्ति अन्य विधियों से करनी पड़ती है । छात्र को संबंधित विषय की अध्ययन सामग्री लिखित ( मुद्रित ) रूप में मुहैया कराई जाती है जिसे उसे स्वप्रयासों से पढकर समझकर, विषय का समुचित ज्ञान हासिल कर तत्संबंधित उपाधि हेतु परीक्षा देने के लिए सिद्ध होना पड़ता है । अर्थात छात्र को स्वाध्याय का सहारा लेना पड़ता है । इसलिए दूरस्थ शिक्षण पाठ्यक्रमों के पाठ्यांशों का निर्माण छात्रों के बोध के स्तर को ध्यान में रखकर किया जाता है । क्योंकि इस पद्धति में अधिगमित छात्र को अपना अध्ययन केवल स्वाध्याय से ही करना पड़ता है इसलिए इसके लिए पाठ्य सामग्री स्वनिर्देश पद्धति से शिक्षण प्राप्त करने के लिए निर्मित की जाती है । इसमें विषय का परिचय, पूर्व पीठिका, पृष्ठ भूमि, ऐतिहसिक विकस क्रम, प्रस्तावना, विषय प्रवेश, विषय की विशद व्याख्या, सारांश और निष्कर्ष आदि उपशीर्षकॊं में समूचे पाठ को प्रस्तुत किया जाता है । प्रत्येक पाठ्यांश अनेक इकाईयों में विभाजित किया जाता है तत्पश्चात उसका उपविभाजन पाठों में किया जाता है । प्रत्येक पाठ के अन्त में पाठ का सारांश, पुनः व्याख्या प्रस्तुत की जाती है । अनेक तरह के लघु और दीर्घ प्रश्न अभ्यासार्थ दिये जाते हैं। उन प्रश्नों के नमूने के उत्तर भी प्रत्येक पाठ के अन्त में छात्र के मार्ग दर्शन के लिए उपलब्ध रहते हैं । दूरस्थ शिक्षण प्रणाली में अधिगम की पद्धति पारंपरिक अधिगम पद्धति से सर्वथा भिन्न होती है ।

पारंपरिक पद्धति अर्थात शिक्षक - शिक्षार्थी आमने सामने पद्धति में कक्षाई अध्यापन प्रणाली शिक्षण की प्रत्यक्ष प्रणाली होती है जहां शिक्षक कक्षा में शिक्षार्थियों को प्रकट रूप में संबोधित करता है तथा शिक्षार्थियों के शंकाओं का निवारण भी तत्काल करता है । कक्षा में शिक्षक श्याम पट का समुचित उपयोग कर विषय को सरल और बोध गम्य बनाने के लिए अन्यान्य तरीकों का इस्तेमाल करता है ।

इधर जब से सूचना प्रौद्योगिकी के उपकरणों का आविष्कार हुआ है, शिक्षण, प्रशिक्षण और शोध के क्षेत्रों में इन का उपयोग अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से होने लगा है । अध्ययन - अध्यापन के क्षेत्र में कंप्यूटर प्रणाली के प्रयोग ने शिक्षण की पद्धतियों में अप्रतिम नवीनता लाई है जिससे शिक्षण व्यवस्था में परिवर्तन और सुधार हुआ है । शिक्षण के लिए सूचना प्रौद्यिगिकी तंत्र ने बहुत महत्वपूर्ण तकनीक का विकास किया है । इंटरनेट के द्वारा दूरस्थ शिक्षण प्रणाली को पहले से अधिक सक्षम तथा सुदृढ बनाया जा रहा है ।

दूरस्थ शिक्षा प्रणाली में संपर्क कार्यक्रम की आवश्यकता -

दूरस्थ शिक्षण प्रणाली में शिक्षक तथा शिक्षार्थी के मध्य मौजूद भौगोलिक दूरियों को मिटाया जा सकता है ।

इस भौगोलिक दूरी को मिटाने के लिए ही संपर्क कार्यक्रम की आवश्यकता होती है । संपर्क कार्यक्रम के द्वारा शिक्षार्थी अपने दूरस्थ शिक्षण संस्थान द्वारा आयोजित संपर्क कक्षाओं में उपस्थित होकर पाठ्यांश संबंधी संदेहों के निवारण के साथ साथ चर्चा परिचर्चा द्वारा विषय की विस्तृत जानकारी हासिल कर सकता

है । संपर्क कार्यक्रम में भाग लेने वाले छात्रों के लिए विषयगत पाठ्य सामग्री का पूर्व अध्ययन एवं चिन्तन अनिवार्य है । पूर्व-अध्ययन से ही शिक्षार्थी विषय के विभिन्न पहलुओं पर विषय विशेषज्ञ से चर्चा कर सकता है अन्यथा उसके लिए संपर्क कार्यक्रम अनुपयोगी सिद्ध होगा । संपर्क कार्यक्रम का संबंध छात्रों को वितरित पाठ्य सामग्री से गहरे जुड़ा होता है । दूर-शिक्षण प्रणाली में पाठ्य सामग्री अथवा अध्ययन सामग्री की गुणवत्ता महत्वपूर्ण होती है । अध्ययन सामग्री में व्याप्त जटिलता एवं दुरूहता को सुलझाने के लिए तथा शिक्षार्थियों के शंकाओं के निवारण हेतु अनेक तरह के संपर्क कार्यक्रमों का आयोजन दूर शिक्षण संस्थाएं

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( विश्वविद्यालय/केन्द्र ) करती हैं । ये संपर्क कार्यक्रम निश्चित अवधि के लिए नियमित तथा अनियमित दोनों प्रकार के होते हैं । पाठ्यक्रम के आधार पर इन संपर्क कार्यक्रमों का संयोजन संस्थागत नियमों के अनुसार शैक्षिक सत्र के अन्त में अथवा वर्षान्त में किए जाते हैं ।

संपर्क कार्यक्रम दो प्रकार के होते हैं - समकालिक संपर्क कार्यक्रम ( सिंक्रोनस लर्निंग ) और

अ-समकालिक संपर्क कार्यक्रम ( एसिंक्रोनस लर्निंग ) । प्रथम विधि में सभी शिक्षार्थी एक साथ एक समुदाय में एक ही स्थान पर ( निर्धारित कक्षा में ) एकत्रित होते हैं जहां संबंधित शिक्षक अथवा मार्ग दर्शक,

सलाहकार अथवा विषय विशेषज्ञ उन्हें निर्धारित अवधि में शंकाओं का निवारण करते हैं । विषय विशेषज्ञ विषय के संबंध में उचित मार्ग-दर्शन प्रदान कर, विषय की जटिलता को सुलझाते तथा विस्तृत सूचनाएं उपलब्ध कराते हैं । संपर्क कार्यक्रम पारंपरिक शिक्षण कक्षाओं की तरह ही होते हैं, जिसमें शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों अल्प समय के लिए आमने सामने होते हैं । यह कार्यक्रम बहुत ही उपयोगी, कारगर और प्रभावशाली होता है जिसमें संपर्क कार्यक्रम का छात्र शिक्षक के समक्ष अपने अध्ययन की सीमाओं का विस्तार करता है । यह संपर्क कार्यक्रम सामान्यतः छात्र समुदाय के लिए लक्षित होता है, इसके लिए विशेष रूप से विषयानुसार समयसारिणी का निर्माण तथा उपयुक्त विशेषज्ञों की सहायता ली जाती है । दूरस्थ शिक्षा के परीक्षार्थियों के गुणवत्तापूर्ण मार्गदर्शन के लिए विशेष रूप से विषय-विशेषज्ञ विद्वानों को संपर्क कक्षाओं में अध्यापन के लिए आमंत्रित किया जाता है क्योंकि दूर शिक्षण प्रतिष्ठानों में नियमित अध्यापन का प्रावधान न होने के कारण स्थाई संकाय सदस्यों की उपलब्धता नहीं होती । इसलिए संपर्क कार्यक्रमों के लिए बाह्य आमंत्रित विद्वानों से सहायता ली जाती है ।

संपर्क कार्यक्रमों की सफ़लता विषयानुकूल विशेषज्ञ संसाधकों की उपलब्धि पर निर्भर करती है ।

अधिकतर दूरस्थ शिक्षण प्रतिष्ठानों में छात्रों के लिए संपर्क कार्यक्रम अनिवार्य नहीं होते बल्कि ऐच्छिक होते हैं इसलिए कुछ विषयों में ( विशेषकर विज्ञानेतर विषयों में ) संपर्क कार्यक्रमों में प्रतिभगी छात्रों की संख्या अत्यल्प होती है । प्रतिभागी छात्रों के लिए आयोजित सामूहिक संपर्क कार्यक्रम प्रणाली से एक लाभ यह भी होता है कि छात्र आपस में वैचारिक आदान प्रदान तथा चर्चा-परिचर्चा द्वारा विषय की जटिलता को सुलझाने की प्रक्रिया में विषय को गहरे आत्मसात कर सकते हैं ।

दूर शिक्षण प्रतिष्ठान अपने अधिकार क्षेत्र के विस्तार के अनुरूप भिन्न भिन्न स्थानों में संपर्क कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं ( उस अधिकार क्षेत्र के छात्रों की सुविधा के लिए ) -ऐसे में सभी स्थानों पर विशेषज्ञ विद्वानों की उपलब्धि संभव नहीं हो पाती । उपयुक्त विद्वानों की अनुपलब्धता संपर्क कार्यक्रमों के आयोजन की मुख्य समस्या होती है । संपर्क कार्यक्रमों में समुचित रूप से अत्याधुनिक तकनीकी उपकरणों के प्रयोग की समस्या प्रमुख है । तकनीकी उपकरणों की सहायता से शिक्षण को काफ़ी प्रभावी और सरलता से बोधगम्य बनाया जा सकता है । भारत में अभी दूर शिक्षण के क्षेत्र में तकनीकी उपकरणों का प्रयोग प्रारम्भिक अवस्था में ही है । इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू ) जैसे कुछ समृद्ध तथा विकसित दूर शिक्षण प्रतिष्ठान ही इन सूचना प्रौद्योगिकी के उपकरणों का भरपूर प्रयोग, संपर्क कार्यक्रमों में कर पा रही है । संपर्क कार्यक्रमों के आयोजन की अत्याधुनिक तकनीक के अन्तर्गत एक पूर्व निर्धारित समय पर भिन्न भिन्न स्थानों के प्रतिभागी छात्र अपने अपने स्थानों से ही दूर शिक्षण केन्द्र से टेली कांफ़्रेंसिंग प्रणाली द्वारा संपर्क कार्यक्रम में भाग ले सकते हैं । इस प्रणाली के द्वारा छात्र अन्यत्र से भी केन्द्र में उपस्थित विशेषज्ञ से

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उपग्रह संचार प्रणाली द्वारा दृश्य और श्रव्य धरातल पर संवाद स्थापित कर अपने संदेहों का निवारण कर सकता है । यह प्रणाली विदेशों में स्थित दूर-शिक्षण प्रतिष्ठानों में अध्ययनरत छात्रों के लिए उपयोगी है । अनेक विदेशी दूर शिक्षण विश्वविद्यालय विश्व स्तर पर अनेक दुर्लभ विषयों पर बहुमूल्य पाठ्यक्रमों का शिक्षण इसी पद्धति से मुहैया करा रही हैं ।

हमारे देश में संपर्क कार्यक्रमों के आयोजन के लिए उपयुक्त अवरचना ( इन्फ़्रा स्ट्रक्चर ) का अभाव एक गम्भीर समस्या है । दूर-शिक्षण छात्रों के संपर्क कार्यक्रमों के आयोजन के लिए अनुकूल भवन या शिक्षण-कक्ष उपलब्ध नहीं होते। संपर्क कार्यक्रमों की सफ़लता तथा उपयोगिता के लिए अनुकूल शैक्षिक वातावरण

प्रधान अध्ययन- कक्षों की आवश्यकता होती है जिसका अभाव चारों और दिखाई देता है । अनुकूल वातावरण की अनुपलब्धता प्रतिभागी छात्रों को संपर्क कार्यक्रम में उपस्थित होने को निरुत्साहित करती करती है, जिससे छात्रों की उपस्थिति प्रभावित होती है । दूर शिक्षण प्रतिष्ठानों से भौगोलिक दूरियां तभी कम हो सकती हैं जब संपर्क कार्यक्रमों के आयोजन के लिए स्वस्थ एवं अनुकूल शैक्षिक वातावरण उपलब्ध

हो । संपर्क कार्यक्रमों में उपस्थित छात्रों के अध्ययन के लिए संस्थागत पुस्तकालय की आवश्यकता होती

है, क्योंकि संपर्क कार्यक्रम में छात्र ऐसे सुदूर अविकसित इलाकों से भी आते हैं जहां उन्हें पुस्तकालय की सुविधा उपलब्ध नहीं होती । अतः इन छात्रों को संपर्क कार्यक्रम के दौरान दूर- शिक्षण केन्द्र के पुस्तकालय के उपयोग की सुविधा उपलब्ध कराना आवश्यक हो जाता है । दूर- शिक्षण के छात्रों को पुस्तकालय में संग्रहीत ज्ञान भंडार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए ।

विज्ञान संबंधी विषयों में संपर्क कार्यक्रमों के आयोजन में प्रयोग-शालाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । विज्ञान - विषयों का अध्यापन सैद्धान्तिक तथा प्रायोगिक - दोनों धरातलों पर होता है अतः विषयनिष्ठ अध्यापन के लिए उपयुक्त कक्ष तथा प्रायोगिकी के लिए अनुकूल प्रयोग-शालाओं की उपलब्धि अनिवार्य

है । प्रयोग-शालाओं के अभाव में विज्ञान विषयों का अध्ययन एवं अध्यापन प्रयोजनकारी नहीं हो सकता ।

आज बहुत सारे दूर शिक्षण प्रतिष्ठानों में ( भारत में ) अत्याधुनिक तकनीकी सुविधाओं से युक्त प्रयोग- शालाओं का अभाव चिन्ता का विषय है । दूरस्थ शिक्षण के छात्र पारंपरिक शिक्षण व्यवस्था में अध्ययनरत छात्रों की तुलना में ऐसे अनेकों शैक्षिक सुविधाओं से वंचित रहते हैं जिसका प्रभाव उनके बौद्धिक विकास पर पड़ता है । ऐसे में कभी कभी उनमें हीनता बोध भी प्रकट होने लगता है । संपर्क कक्षाओं में छात्रों के इन मनोवैज्ञानिक जटिलताओं का भी निवारण होना चाहिए।

कुछ विश्वविद्यालयों में दूर शिक्षण के छात्रों के लिए अल्प कालीन आवासीय संपर्क कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है । इसके अन्तर्गत संपर्क कार्यक्रम के प्रतिभागी छात्र विश्वविद्यालय परिसर में निर्धारित अवधि के लिए आवासीय छात्रों के रूप में रहते हुए विशेषज्ञों के संपर्क का लाभ प्राप्त करते हैं । परिसर - आवासीय काल में इन छात्रों को सभी विश्वविद्यालयी शैक्षिक सेवायें उपलब्ध होती हैं जैसे पुस्तकालय, इंटरनेट प्रयोग-शाला और संकाय सदस्यों के साथ विचार विमर्श की सुविधा आदि । उदाहरणार्थ अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद द्वारा संचालित दूर शिक्षा पाठ्यक्रमों के लिए आयोजित संपर्क कार्यक्रम

संपर्क कार्यक्रमों के आयोजन की दूसरी विधि ' असमकालिक ' (एसिंक्रोनस ) पद्धति है । जिसके अन्तर्गत छात्र अपनी सुविधा और अपने समयानुसार दूर शिक्षण केन्द्रों से संपर्क कर अपने सन्देहों का निवारण कर सकते हैं । इसके अन्तर्गत सामूहिक संपर्क कार्यक्रम पद्धति नहीं अपनाई जाती । निजी तौर पर कोई भी छात्र

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इंटरनेट ( ई-मेल ) की सहायता से अथवा फोन या इतर प्रौद्योगिकी साधनों द्वारा अपने शिक्षण संस्थान से संपर्क स्थापित कर अध्ययन को सुगम बनाने का मार्ग तलाशता है । इस विधि का उपयोग छात्र अपने संपूर्ण अध्ययन काल में बिना समय के बंधन के कर सकता है । इस विधि में तथाकथित दूरस्थ शिक्षा केन्द्र को हर समय अपने छात्रों के सन्देह निवारण के लिए तत्पर रहना पड़ता है इसलिए तदनुसार उपयुक्त

तकनीकी सुविधाओं का विकास करना पड़ता है । कभी भी - कोई भी - कहीं से भी - मार्ग दर्शन की मांग करने वाले छात्रों के लिए दूर शिक्षा संगठनों को चौबीसों घंटे ' ऑन लाईन ' ( इंटरनेट सेवा ) सेवा प्रदान करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है । यह संपर्क कार्यक्रम छात्रों को व्यक्तिगत स्तर पर विषय संबंधी मार्ग दर्शन उपलब्ध कराता है । इस पद्धति में छात्र को मार्गदर्शन के लिए एकल सुविधा प्राप्त होती है जिसमें छात्र स्वयं अकेले ही शिक्षण संस्था द्वारा निर्धारित विशेषज्ञ से रूबरू होकर चर्चा कर सकता है । यह पद्धति अब विश्व के अनेक नामी दूरस्थ शिक्षा प्रतिष्ठानों में उपलब्ध है और बहुत लोकप्रिय हो रही है । यहां तक कि अब संपर्क कार्यक्रमों की नई तकनीक के अन्तर्गत ' ऑन लाईन ' संपर्क कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है । चीन जैसे जनसंख्या बहुल देश में लगभग 40 प्रतिशत लोग दूरस्थ शिक्षा प्रणाली के माध्यम से ही शिक्षा ग्रहण कर रही है । दूर शिक्षा प्रणाली को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकसित करने के लिए अनेक समान सोच वाले देश विभिन्न समूहों में संगठित होकर शिक्षा के लक्ष्यों की पूर्ति कर रहे हैं । दूरस्थ शिक्षा प्रणाली का भविष्य पूरी तरह ' ऑन लाईन ' शिक्षा पद्धति में देखा जा रहा है । विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार आने वाला दशक दूर शिक्षा प्रणाली के अन्तर्राष्ट्रीयकरण का दशक होगा, जिसके अन्तर्गत किसी भी देश का नागरिक विश्व में किसी भी देश के किसी भी पाठ्यक्रम का अध्ययन घर बैठे कर सकेगा और अपनी इच्छानुसार और सुविधानुसार, परीक्षा भी ' ऑन लाईन ' देकर संबंधित उपाधि प्राप्त कर सकेगा । इसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षाविद प्रयासरत हैं ।

आज भारत में दूरस्थ शिक्षा प्रणाली के द्वारा प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च एवं तकनीकी तथा वृत्तिपरक उपलब्ध है । सार्वजनिक क्षेत्र में सरकार के प्रयासों से साक्षरता अभियान से लेकर उच्च शिक्षा तक की शिक्षण सुविधायें विभिन्न प्रादेशिक सरकारों के प्रयासों से उपलब्ध हैं । विभिन्न राज्य एवं केन्द्र स्तर के विश्वविद्यालयों में दूरस्थ शिक्षा विभागों के द्वारा व्यापक धरातल पर शिक्षण का कार्य संपन्न हो रहा है । दूरस्थ शिक्षण माध्यम से प्रचारित उच्च तथा तकनीकी शिक्षा के संचालन एवं गुणवत्ता को नियंत्रित करने के लिए ' डिस्टेन्स एजुकेशन कौंसिल ' नामक संस्था का गठन भारत सरकार ने किया है जो कि देश व्यापी दूर शिक्षा माध्यम शिक्षण संस्थाओं द्वारा प्रदत्त उपाधियों के लिए मानक नियमों को लागू करती है ।

संपर्क कार्यक्रम के आयोजन के लिए उपरोक्त दोनों पद्धतियों का समन्वय छात्रों के लिए अधिक लाभकारी हो सकता है । अर्थात सामूहिक संपर्क कार्यक्रम के साथ साथ व्यक्तिगत संपर्क कार्यक्रम का सम्मिश्रित रूप दूरस्थ शिक्षण विधि को सार्थक तथा सुदृढ बनाने में सहायक हो सकता है ।

रेडियो तथा टी वी के द्वारा आयोजित संपर्क कार्यक्रम -

दूर शिक्षण संस्थाएं निर्धारित समय पर अपने छात्रों के लिए रेडियो तथा टी वी के माध्यम से पूर्व निर्धारित पाठ्यांशों पर विशेषज्ञों के साथ मिलकर संपर्क कार्यक्रमों का आयोजन करती है । रेडियो में विशेषज्ञों के साथ चर्चा, परिचर्चा और संवाद की शैली में इन कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता है । रेडियो द्वारा प्रसारित कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रश्नोत्तर का प्रावधान भी रहता है जिसके अन्तर्गत छात्र-श्रोता फोन के द्वारा कार्यक्रम में

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उपस्थित विषय विशेषज्ञ से अपने सन्देह का निवारण कर सकता है । रेडियो केवल श्रव्य माध्यम है तथा इस के चर्चा कार्यक्रम में अधिक लोग भाग नहीं ले सकते । उसी तरह टी वी के द्वारा भी संपर्क कार्यक्रमों का प्रसारण निर्धरित समयों पर होता है, जिसमें छात्र-दर्शक द्वारा फोन पर पूछे गये प्रश्नों का उत्तर विशेषज्ञ द्वारा दिया जाता है । दूर शिक्षण विश्वविद्यालय उपग्रह संचार प्रणाली द्वारा अपने टी वी चैनल भी चला सकता

है अथवा अन्य टी वी चैनलों के साथ अनुबंध करके निर्धारित समय पर अपने शैक्षिक संपर्क कार्यक्रमों का प्रसारण करता है । विभिन्न विश्वविद्यालयों में ई एम एम आर सी ( इलेक्ट्रानिक मल्टी मीडिया रिसर्च सेंटर ) के नाम से स्थापित बहु संचार माध्यम शोध केन्द्रों से विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए छात्रोपयोगी शैक्षिक सामग्री का निर्माण कर निर्धारित समय पर टी वी द्वारा प्रसारित किया जाता है । यू जी सी ( विश्व विद्यालय अनुदान आयोग ) द्वारा प्रायोजित शैक्षिक कार्यक्रम शिक्षा के क्षेत्र में बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं । ये कार्यक्रम दूर शिक्षा प्रणाली के छात्रों के लिए बहुत प्रयोजनकारी सिद्ध हुए हैं । इस तरह के बहु-संचार माध्यम शोध केन्द्रों की स्थापना के लिए विश्व विद्यालय अनुदान आयोग वित्तीय सहायता प्रदान करता है । इन केन्द्रों की स्थापना से दूर शिक्षण प्रणाली के छात्रों को अतिरिक्त सहायता मिल सकती है ।

दूर शिक्षण के छात्रों के लिए अध्ययन सामग्री में नवीनता -

आज दूरस्थ शिक्षण योजना के अन्तर्गत अध्ययन रत छात्रों के लिए निर्मित सामग्री केवल मुद्रित स्वरूप में ही नहीं बल्कि इसे श्रव्य तथा दृश्य माध्यम-युक्त बनाया जा रहा है । अब पठनीय अध्ययन सामग्री को सी डी के रूप में तैयार किया जारा है साथ ही अध्ययन सामग्री उल्लिखित तथ्यों को वीडीयो के रूप में दर्शनीय बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है । आंकड़ों और अन्य संख्यागत विवरणों को पॉवर पॉइंट द्वारा प्रस्तुत कर संपर्क कक्षाओं में विस्तार से छात्रों को समझाया जा रहा है । तकनीकी उपकरणों ने निश्चित रूप से संपर्क कार्यकर्मों को रोचक और ज्ञानवर्धक बनाने में सहायता की है । आज दूर-शिक्षा प्रणाली का छात्र अपनी पाठ्य सामग्री को एक छोटे से ' पेन ड्राइव ' में भरकर अपने साथ रख सकता है और उसका उपयोग

कहीं भी सरलता से कर सकता है । इस दिशा में ' लैप टॉप ' ( कंप्यूटर ) ने अध्ययन और अध्यापन की दिशा बदल दी है । संपर्क कार्यक्रमों में विशेषज्ञ पॉवर पॉइंट प्रस्तुति के द्वारा अधिक प्रभावशाली ढंग से

छात्रों का मार्ग दर्शन करने में सक्षम हैं ।

दूरस्थ शिक्षा माध्यम से शोध पाठ्यक्रम : दूर शिक्षा माध्यम से कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालयों में एम फ़िल तथा पीएच डी उपाधियों के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण कर शोध छात्रों को प्रवेश दिया जा रहा है । शोध के

विज्ञानेतर विषयों में दूरस्थ शिक्षण माध्यम से प्रवेश के लिए उत्सुक शोधार्थियों की संख्या ध्यान देने योग्य

है । इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय में विज्ञान विषयों पर तथा वृत्तिपरक विषयों पर ( प्रोफ़ेशनल ) भी शोध का कार्य करने का प्रावधान है । जब कि अन्य विश्वविद्यालयों में समाज विज्ञान, मानविकी, भाषा, साहित्य, व्यापार, वाणिज्य तथा प्रबंधन से संबंधित क्षेत्रों में शोध उपाधियों के लिए शोध निर्देशन निर्देशन उपलब्ध कराया जा रहा है । ये सारे शोध कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हैं साथ ही इनकी मांग भी बहुत ज्यादा है । किसी भी दूर शिक्षण पाठ्यक्रम को लागू करने के लिए भारत में डिस्टेन्स एजुकेशन कौंसिल ( डेक ) से अनुमति लेनी पड़ती है अन्यथा वह पाठ्यक्रम अमान्य घोषित होता है । इसलिए भारत के सभी दूर शिक्षा विश्वविद्यालय तथा संगठन उपरोक्त समिति से मान्यता प्राप्त हैं । इस समिति के द्वारा निर्धारित नियमों का उल्लंघन करने पर उस दूर शिक्षण संस्था द्वारा प्रदत्त उपाधियां मान्यता खो देती हैं ।

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शिक्षा के क्षेत्र में आने वाला युग दूर शिक्षण का ही युग होगा । दूरस्थ शिक्षा प्रणाली शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला चुकी है । भारतीय संदर्भ में इसकी उपयोगिता और इसका महत्व बहुत अधिक

है । मनुष्य की जिज्ञासाओं का समाधान केवल ज्ञानार्जन से ही हो सकता है और इस ज्ञान का विस्तार मुक्त रूप से उपलब्ध स्रोतों से ही सम्भव है । दूरस्थ शिक्षा प्रणाली एक ऐसा ही साधन है जिससे समाज से निरक्षरता और अज्ञान के अंधेरे को मिटाकर ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित की जा सकती है । यही एक ऐसा माध्यम है जिसमें आयु का बंधन नहीं होता । यह प्रणाली हर आयु वर्ग के स्त्री -पुरुष के लिए सदैव हर जगह उपलब्ध हो सकती है । यह शिक्षार्थी और शिक्षक तथा शिक्षण संस्थाओं के बीच की भौगोलिक दूरियों को समाप्त कर सकती है तथा एक स्वस्थ बौद्धिक जगत का निर्माण कर सकती है ।

- प्रो एम वेंकटेश्वर

पूर्व विभागाध्यक्ष

हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय

हैदराबाद।

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