Friday, September 1, 2017

हिंदी दिवस के विशेष संदर्भ में

हिंदी दिवस का पुन: आगमन

सन् 2017 का सितंबर का महीना आ गया । सितंबर का महीना, राजभाषा अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए अत्यंत विशिष्ट होता है । 14 सितंबरको  हिंदी के राजभाषा स्वरूप और अस्तित्व पर चर्चा होती है । राजभाषा के रूप मे हिंदी की प्रगति का आकलन किया जाता है । गृह मंत्रालय सक्रिय हो जाता है । केंद्र सरकार के कार्यालय, बैंक और उपक्रमों मे हलचल होती है । हिंदी के राजभाषा स्वरूप पर देश भर मे चर्चा, परिचर्चा, आकलन, मूल्यांकन का कार्य होता है । राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा बनाम संपर्क भाषा - के अंतर संबंधों पर भाषा विद और सामान्य जन भी अपनी अपनी राय देते हैं । हर साल हिंदी के बारे मे नई नई बहसें शुरू की जाती हैं । हर सरकार अपना अलग राग आलापती है । आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी देश वासियों के सम्मुख राष्ट्रभाषा का प्रश्न अभी भी स्पष्ट नहीं हुआ है । राष्ट्रभाषा - शब्द पर इस वर्ष काफी गरमागरम बहस हो रही है । लोग राष्ट्रभाषा शब्द की नई नई व्याख्याएँ कर रहे हैं । हिंदी पक्ष और विपक्ष में लोग जुट गए हैं । रोचक बहसें सुनाई पड़  रहीं
है । हिंदी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए लोग तैयार नहीं हैं । अधिकांश जनता - अंग्रेजी बनाम हिंदी के विवाद को सुलझाने के बजाय उलझाने में मजे लेते हैं । एक राष्ट्र - एक राष्ट्रभाषा की भाषिक स्थिति पर विचार करने के लिए कई लोग तैयार नहीं हैं । बहुभाषी होने के बावजूद भी कोई भी देश उपलब्ध भाषाओं में से किसी एक भाषा को अपने देश की राष्ट्र भाषा स्वीकार कर, उसी मे शिक्षा और कामकाज कर सकता है, इस सत्या एवं तथ्य को क्यनों लोग स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं । इसमें कोई विवाद नहीं है कि भारत में 22 तो संविधान मे मान्यता प्राप्त भाषाएँ  हैं । इसके अतिरिक्त और भी अनेकों छोटी बड़ी भाषाएँ हमारे देश में अस्तित्व में हैं । किन्तु देश की राष्ट्रीयता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए, कामकाज और शिक्षा के माध्यम को समरूपीय ( एकरूपीय ) बनाने के लिए क्या हम एक राष्ट्र-एक राष्ट्रभाषा - के सिद्धान्त को नहीं अपना सकते । हिंदी क्या यह स्थान नहीं प्राप्त कर सकती ? यदि हिंदी से किसी को शिकायत हो तो अन्य भाषा को इस स्थान के लिए सुझाया जाए और एकमत सी उसे स्वीकार किया जाए। एक राष्ट्रभाषा के सूत्र को लागू करने के लिए कहीं न कहीं, कभी न कभी तो पहल करनी ही होगी । आखिर कब तक देशसी विदेशी भाषा के बोझ तले दम तोड़ते रहेंगे । विदेशी भाषा की घुटन को क्यों लोग महसूस नहीं कर पा रहे हैं । देश की एकता के लिए क्या कोई भी स्वदेशी भाषा उपलब्ध नहीं है ? हिंदी चाहे किसी भी समुदाय की भाषा हो ( जैसा कि कुछ लोग इसे वर्चस्व की लड़ाई समझते हैं ),  इसे समूचे देश के हित में स्वीकार करने से क्या नुकसान है ? आखिरकार वह भारतीय भाषा तो है ? कोई विदेशी  भाषा तो नहीं है ।  इसके लिए आवश्यक है कि हिंदी को हिंदीतर भाषियों के द्वारा  पराई भाषा न समझी जाए । मातृभाषाओं के अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए, हिंदी को एक राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । संविधान में हिंदी की चाहे जोभी स्थिति हो, लेकिन राष्ट्रवासी, राष्ट्रीयता के परिप्रेक्ष्य में इस विषय विचार करें तो देश के लिए लाभकारी होगा । देशवासियों की प्रांतीयता और स्थानीयता की संकीर्णता से निकलकर बाहर आना होगा । हिंदी के साथ ही समस्त भारतीय भाषाएँ किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई हैं । हिंदी का अर्थ तेलुगु, मलयालम, तमिल आदि सभी भाषाएँ   मानी जा सकती हैं । हिंदी की स्वीकृति का अर्थ मातृभाषाओं की अवहेलना नहीं है - इस विचार को देशवासियों के बीच व्याप्त कराना सबका कर्तव्य है । चीन और रूसजैसे बहुभाषी और अतिविशाल जनसंख्या वाले देश में एक राष्ट्र-एक राष्ट्रभाषा का सूत्र सफल हुआ है और वे सुखी हैं । अपनी भाषा में वे पढ़ाई करते और कामकाज करते हैं । वे विदेशी भाषा हमारी तरह आश्रित नहीं हैं । संसार में जो देश आज़ाद हुए, (विदेशी शासन से ) वे सारे देश स्वतंत्र होकर अपनी भाषा और अपनी संस्कृति में ही प्रगति कर रहे हैं ।
राजभाषा हिंदी ने अपने कार्य क्षेत्र में संतोषजनक प्रगति की है । हिंदी का राजभाषा स्वरूप काफी सम्पन्न और समृद्ध हो चुका है । विज्ञान संगठनों से लेकर शोध संस्थानों, प्रौद्योगिकी सम्बद्ध निकायों, बैंकों और अन्य सभी उपक्रमों में राजभाषा हिंदी का प्रशिक्षण नियमित रूप में जारी है । सभी स्तर के कर्मचारी एवं अधिकारियों में राजभाषा हिंदी के प्रति विशेष चेतना जाग गई गई जो कि उत्साहवर्धक है ।
हिंदी के प्रयोग को सभी क्षेत्रों में बढ़ीं तो धीरे धीरे इसे पहचान मिलेगी और लोगोंकी मानसिकता में बदलाव आयेगा । जब तक शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा रहेगी, यह कठिनाई बनी रहेगी और हिंदी के साथ भारतीय भाषाएँ हाशिये पर ही होंगी । इसलिए हिंदी का प्रयोग, राजभाषा के रूप में तो किया ही जाएगा, किन्तु जो अलिखित है, अर्थात राष्ट्रभाषा की संकल्पना पर धीरे धीरे देशवासियों को सोचने के लिए तैयार करना होगा । 

No comments:

Post a Comment