Monday, July 18, 2016

                   नवजागरण के परिप्रेक्ष्य में भारत की भाषाई अस्मिता                                                                                                          डॉ  एम वेंकटेश्वर

नवजागरण एक विश्वव्यापी सामाजिक और सांस्कृतिक अवधारणामूलक क्रान्ति थी जो समूचे उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से बीसवीं शताब्दी के अंत तक विश्व के विभिन्न समाजों में निरंतर क्रियाशील रही । विश्व के सभी हिस्सों में इस क्रान्ति ने, सभ्यताओं को मध्ययुगीन जीवन विधान और चिंतन परंपराओं से मुक्त कर, आधुनिकता की नींव राखी ।  आधुनिकता और आधुनिक बोध ने मनुष्य की सामाजिकता को नए ढंग से परिभाषित किया । मानवीय सभ्यता को मध्ययुगीन रूढ़िवादी चिंतन की सरणियों से निकालकर आधुनिक चिंतन और नवीन जीवन विधान में अंतरित करने वाली महाशक्ति का नाम ही नवजागरण है । भारतीय  संदर्भ में नवजागरण, पुनर्जागरण अथवा नवोत्थान की परिकल्पना अत्यंत व्यापक धरातल पर की गई । भारतीय नवजागरण का मुख्य लक्ष्य इस भूखंड की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना में क्रांतिकारी बदलाव लाना था । भारतीय नवजागरण की प्रक्रिया एक उभरते हुए शक्तिशाली आंदोलन के रूप में भारत के विस्तृत भूभाग में शनै: शनै: व्याप्त हुई । यह एक निर्विवादित सत्य है कि इसका उद्गम स्थान बंगाल की वह बौद्धिक उर्वरा भूमि है, जहां सर्वप्रथम नवजागरण का शंखनाद घोषित हुआ । भारतीय नवजागरण आंदोलन का सूत्रपात बंगाल में हुआ और इसके सूत्रधार थे राजा राममोहन राय । इस आंदोलन ने भारत की वहुभाषिक, संस्कृति-बहुल भौगोलिकता और सामाजिकता में भावनात्मक स्तर पर समूचे उपमहाद्वीप को  एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया । प्राचीन काल से भारत एक बहुसांस्कृतिक देश रहा है । यहाँ एक ही महान परंपरा न होकर कई महान परंपराएँ विकसित हुईं, इनके बीच टकराहट, अंत:क्रिया और आदान-प्रदान का इतिहास उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी स्वयं भारतीय संस्कृतियाँ हैं । भारतीय संस्कृति एक विराट समष्टिगत संस्कृतियों के मेल से निर्मित  समुच्चय है । उसमें अखंडता है, पर एकरूपता नहीं है । भारतीय भाषाओं का पुनरुत्थान और उनको अपनी जमीन पर पुन:प्रतिष्ठित करने का संघर्ष भी नवजागरन आंदोलन का महत्वपूर्ण उपक्रम रहा है । नवजागरण आंदोलन के अंतर्गत हिंदी को स्वाधीन भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य भी प्रमुख रूप से परिलक्षित होता है । हिंदी एवं इतर भारतीय भाषाओं के प्राचीन वैभव एवं महानता को पुनर्जीवित करने के उद्यम को ही हिंदी नवजागरण की संज्ञा दी गई । नवजागरण के अनेक लक्ष्यों में भारतीय भाषाओं को उनकी अधिकृति जमीन पर पुन: प्रतिष्ठापित करने का प्रयोजन प्रमुख है, क्योंकि अंग्रेजी ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की जमीन को अनधिकृत रूप से हथिया लिया । अंग्रेजी की साम्राज्यवादी आचरण को भारत के कुछ पराजित मानसिकता के सत्ता लोलुप शक्तियों ने बढ़ावा दिया जिससे भारतीय भाषाओं की अस्मिता को अंग्रेजी ने कुचल दिया । हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के बंधन से मुक्त करने का आंदोलन ही हिंदी नवजागरण का प्रधान उद्देश्य है । हिंदी स्वाधीनता से पूर्व ही समस्त भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सर्वसमावेशी भाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी । आधुनिक युग में हिंदी, वैविध्यपूर्ण भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है । हिंदी, भारतीय संस्कृति का एक गौरवशाली अंग है । यह एक अविशुद्ध, मिश्रित और बहुरेखीय संस्कृति को अभिव्यक्त करती है ।
किसी भी जाति अथवा समाज में उस समुदाय की विशिष्ट भाषिक संस्कृति का भी विकास होता है । हर समाज में भाषाएँ काल सापेक्ष ढंग से अपनी अपनी भाषिक संस्कृति को विकसित करती हैं जिसके द्वारा देश, काल और परिस्थितियाँ उसमें प्रतिबिंबित होती हैं । हिंदी भाषा की इसी प्रवृत्ति को हिंदी संस्कृति की मान्यता प्राप्त है ।  हिंदी संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता है, व्यापक भारतीय जीवन से उसकी अखंडता । एक दूसरी विशेषता  है, बाहर की संस्कृतियों और नवोन्मेषों से उसका संबंध ।  इस विषय में वृहत्तर हिंदी समाज में सामान्यत: तीन तरह की प्रतिक्रियाएँ हुईं हैं – आत्मसंकुचन, संवेशिकता और आत्मविसर्जन । भारतीय जीवन की साझी विरासत से जुड़ी हिंदी संस्कृति के इतिहास में परस्पर विरोधी ये तीनों प्रवृत्तियाँ प्रारम्भ से विद्यमान हैं । हिंदी समाज में आत्मसंकुचन से अभिप्राय है उनका अपनी स्थानीय पर्णपराओन में जीना, उनकी समावेशिकता दरअसल उनकी उदारता, नई नई चीजों की ग्रहणशीलता और रूपान्तरण की क्षमता है । आत्मविसर्जन का अर्थ है अपनी पहचान खोकर साम्राज्यवाद का औज़ार बन जाना, भूमंडलीकरण के विश्वव्यापी दुष्प्रभाव को सहर्ष स्वीकार कर लेना। हिंदी संस्कृति की पहचान का अर्थ है, आत्मसंकुचन, समावेशिकता और आत्मविसर्जन के परस्पर तनावों के मध्य संतुलन और समन्वय की स्थिति को विकसित करना है । आज जब धर्मांधता और वैश्वीकरण अपने अपने ढंग से इतिहास का बोध  नष्ट करने पर तुले हैं, विविधताओं से भरी हिंदी संस्कृति की पहचान एक अवधारणात्मक ही  नहीं, सामाजिक आवश्यकता भी बन जाती है । हर समाज और जाति की अपनी स्वतंत्र आकांक्षाओं और सामाजिक जरूरतों के अनुरूप अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है । भारत का हिंदी प्रदेश,   मुख्यत: बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली झारखंड और उत्तरांचल को ही माना जाता है  किन्तु इन प्रदेशों के बाहर भी हिंदी समाज विस्तरित है ।इन सबका एक भिन्न सांस्कृतिक गठन है । हिंदी भाषी लोगों का, भारत के अन्य समाजों के साथ घुल-मिलकर रहने का एक सुदीर्घ इतिहास है । हिंदी प्रदेशों में भी जनपदीय स्तर पर कई लघु संस्कृतियाँ मौजूद हैं जिनमें सांस्कृतिक विषमताएँ भी मौजूद हैं ।  किसी भी वृहदाकार समाज में भाषा, आचार-विचार, व्यवहार, रहन-सहन रीति-रिवाज आदि में विविधता स्वाभाविक है ।
हिंदी संस्कृति की अस्मिता जिसे स्वाधीनता के काल से ही राष्ट्रीय अस्मिता का निर्विवादित  स्वरूप धारण कर लेना चाहिए था, इसका वास्तविक स्वरूप आज भी धुंधला है, इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है ?  भारत की भाषाई अस्मिता का स्वरूप आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है, इसके लिए इस देश की बहुभाषिक भौगोलिकता को दोष दिया जाता है । हिंदी संस्कृति से जुड़ी हुई एक और विडंबनापूर्ण धारणा यह है कि इसे हिंदू संस्कृति मान लिया जाता है और कट्टर- परंपरावादी बताया जाता है । हिंदी केवल हिंदुओं की भाषा या अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है बल्कि यह लाखों गैर हिंदू समाजों के विशाल जनसमूह के व्यवहार की भाषा है । हिंदी संस्कृति की पहचान के विषय में अक्सर निषेधात्मक रवैया अपनाया जाता है, जो अंग्रेजी मानसिकता की आभिजात्यवादी श्रेष्ठता-ग्रंथि की देन है । पश्चिमी संस्कृति की मादकता को पोषित करने वाला एक वर्ग हिंदी को राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक स्वीकार करने की स्थिति में नहीं दिखाई देता ।  इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि हिंदी संस्कृति एक दमित संस्कृति बन गई । भाषा के पश्चिमी मानकों और अंग्रेजी के महा-वर्चस्ववाद ने हिंदी भाषा की सांस्कृतिक जड़ों में जहर फैला दिया । आज़ादी के पहले से ही नहीं बल्कि पिछले लगभग एक हजार वर्षों में हिंदू और मुस्लिम शासकों की स्वेच्छाचारिता, औपनिवेशिक दमन, संप्रदायवाद और वैश्वीकरण के प्रहार से हिंदी संस्कृति सबसे ज्यादा आहत हुई है । मध्ययुगीन अराजक राजनीति और आधुनिक युगीन पश्चिमी भाषा-संस्कृति के मोह ने हिंदी संस्कृति की समन्वय की भावना को छिनभिन्न कर दिया । यह एक युगीन सत्य है कि आजादी के बाद भारत में बुद्धिजीवी वर्ग ने हिंदी के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण को अपनाया ।  
नवजागरण काल में हिंदी को जनमानस में स्थापित करने के जो प्रयास किए गए उन्हें आज़ादी के बाद एक तरह से उलट दिए गए । इस संदर्भ में आर्य समाज की सुधारवादी लहर, किसानों और मजदूरों के आंदोलन, आदि के माध्यम से राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलैन में तेजी आई ।  दयानंद सरस्वती और बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी आदि ने हिंदी को प्रमुखता दिलाने के लिए, उसे भविष्य में स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बनाने के लिए, स्वयं हिंदी सीखकर उसे अपनाया और देश भर में उसे प्रचारित किया । दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिंदी में कि न की गुजराती अथवा अंग्रेजी में । मद्रास के सी वी राजगोपालाचारी ने हिंदी को मातृभाषा सदृश अपनाया और मद्रास में प्रथम हिंदी माध्यम का विद्यालय खोला, जिसे गांधीजी ने सराहा और इसे समस्त देशवासियों के सम्मुख प्रेरणा स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया । हिंदी संस्कृति में सहिष्णुता और सामंजस्य की सृजनात्मक परंपरा बहुत पुरानी और काफी मजबूत है ।
साठ के दशक में हिंदी प्रदेश में अंग्रेजी के विरोध में हिंदी के लिए सशक्त आन्दोलन छिड़ा था, जिसने दक्षिणी प्रांतों के लोगों के मन में उत्तर भारत के भाषिक साम्राज्यवाद के प्रति आक्रोश पैदा कर दिया था । वह आंदोलन विध्वंसक अधिक था, क्योंकि उसके पीछे भाषा प्रश्न पर सही सोच की जगह उत्तेजना ज्यादा थी । उसका कोई खास नतीजा भी नहीं निकला । हिंदी के साथ  साथ  अन्य भारतीय भाषाओं की अस्मिता भी अंग्रेजी, अंग्रेजीयत और पाश्चिमी अपसंस्कृति तेजी से निगलती जा रही है । हिंदी भाषियों के नव समृद्ध वर्ग ने हिंदी को तिलांजलि दे दी है । उसने हिंदी का प्रयोग सामान्य और विशेष, दोनों प्रयोजनों  के लिए करना छोड़ दिया है । शिक्षा माध्यम का अंग्रेजीकरण और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास में न केवल बाधक बन गया है बल्कि  भारत की भाषाई अस्मिता अंग्रेजी के कारण खतरे में पड़ गई है  जिस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है । संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल बाईस भाषों में एक के बाद एक मैथिली, राजस्थानी को शामिल किया जा रहा जो हिंदी का ही एक रूप मानी जातीं रहीं हैं । हिंदी साहित्य के इतिहास में मध्य-युगीन हिंदी साहित्य के अंतर्गत, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, डिंगल, पिंगल आदि सभी को हिंदी ही माना गया और तुलसीदास की अवधी में रचित रामचरितमानस, बरवै रामायण, विनय पत्रिका, आदि को हिंदी साहित्य के रूप में सदियों से मान्यता प्राप्त है । इसीलिए तुलसीदास को हिंदी का ही माना गया है, उसी प्रकार सूरदास द्वारा  ब्रज भाषा  में रचित सूरसागर, भ्ररगीत, साहित्य लहरी रचनाओं को हिंदी साहित्य के अंतर्गत ही स्थान दिया गया है । कबीर, जायसी, विद्यापति, बिहारी, घनानन्द, सेनापति, मीरा आदि की ब्रज और अवधी में रचित काव्य साहित्य को हिंदी साहित्य की ही संज्ञा प्रदान की गई है किन्तु इन उपभाषाओं को स्वतंत्र भाषाएँ घोषित कर उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने से उनका अस्तित्व हिंदी से पृथक हो जाने के कारण  हिंदी का समावेशी स्वरूप ध्वस्त हो रहा है । इस तरह हिंदी की अस्मिता खतरे में पड़ रही है ।  यह गहन चिंता का विषय है कि भारत की कोई भाषिक अस्मिता आज तक न तो स्थापित हो सकी है और न ही स्थिर हो पाई है । भारतीय भाषा के रूप में हम किस भाषा को राष्ट्रीय अस्मिता का चिह्न मानेंगे ? यह आज भी विवादास्पद है तथा इस विषय पर कोई एक राय देशवासियों में नहीं है । हम राष्ट्र के रूप में सन् 1947 में अवतरित तो हुए और संवैधानिक तौर पर हमने सार्वभौमिकता और संप्रभुता भी 1950 में हासिल कर ली किन्तु संवैधानिक दृष्टि से हम देश की भाषिक समस्या में उलझ गए और यह एक गुंजलक की भांति समय के साथ और अधिक उलझता  ही जा रहा है । किसी भी राष्ट्र की अस्मिता उसकी एक सर्वस्वीकृत राष्ट्रभाषा से ही मान्यता प्राप्त करती है, और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर वह समादृत होकर राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है । किन्तु भारत ऐसी सर्वमान्य भाषिक अस्मिता को धारण ही नहीं कर पाया है ।  हिंदी को राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक और राजचिह्न बनाया जा सकता है बशर्ते कि समस्त देशवासी एकस्वर में बिना किसी मतभेद के इसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लें । भारतीयों की मातृभाषाओं को अक्षुण्ण एवं सुरक्षित रखते हुए इस कल्पना को साकार किया जा सकता है । राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र के हित में देशवासियों को राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा हेतु  परस्पर भाषाई विभेदों को दूर कर हिंदी को साधारण बोलचाल के साथ साथ, शिक्षा के माध्यम, कामकाज, रोजगार, व्यापार-वाणिज्य, प्रबंधन, जनसंचार के लिए भारतीय राष्ट्रीय भाषा  का दर्जा संवैधानिक तौर पर स्वीकार करना होगा तभी देश की भाषिक समस्या का समाधान संभव है ।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी आधुनिक युग के हिंदी नवजागरण के पुरोधा माने जाते हैं । उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, की पत्रिका सरस्वती के संपादक के रूप में हिंदी नवजागरण का बीड़ा उठाया और  निरंतर   हिंदी को राष्ट्रीय अस्मिता के लिए अनिवार्य सिद्ध करने का अभियान चलाया । उनके अनुसार अंग्रेजी ने सभी भारतीय भाषाओं के अधिकार छीने हैं, इसलिए प्रत्येक भारतीय भाषा को अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करना ही पड़ेगा, इस संघर्ष में हिंदी को प्राथमिकता और वरीयता प्रदान करनी होगी । गांधीजी भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक थे । उन्हें भी अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी और गुजराती बोलने के लिए कई बार अपमानित होना पड़ा था ।  इसका वर्णन जनवरी 1918 की सरस्वती में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा  गांधीजी के मातृभाषा प्रेम का एक उत्कृष्ट उदाहरण शीर्षक टिप्पणी में किया गया है ।  इस टिप्पणी के आरंभ में पहले मातृभाषा और राष्ट्रभाषा, इन दोनों के संबंध पर ध्यान देना आवश्यक है । द्विवेदीजी ने लिखा है – “ गांधीजी मातृभाषा के कितने प्रेमी और हिंदी प्रचार के कितने  पक्षपाती हैं, यह बात उनके लेखों और वक्तृताओं से अच्छी तरह प्रकट होती है । इस बात को देशोद्धार और देशोन्नति का प्रधान साधन समझते हैं। यही राय अनेक देशभक्तों की है । पर औरों की राय से गांधीजी की राय बहुत महत्व रखती है; क्योंकि गांधीजी के जीतने काम होते हैं, उनके गंभीर विचारों के निष्कर्ष के आधार पर होते हैं । बिना खूब गहरा विचार किए, बिना दूर तक सोचे, बिना परिणाम पर अच्छी तरह ध्यान दिये, वे न कोई राय ही कायम करते हैं और न कोई काम ही करते हैं । इसी से उन्हें अपने प्रयत्नों और उद्योगों में कामयाबी होती है । वे बड़े विवेकशील हैं । अतएव जब वे यह कहते हैं कि देश के पुनरुद्धार की चेष्टा करने वालों को मातृभाषा का पक्षपाती और प्रेमी होना चाहिए तब मन यही कहता है कि उनका कथन अवश्य सच होगा । “ 1
गांधीजी के मातृभाषा प्रेम से द्विवेदीजी को कष्ट नहीं होता । वे इस बात का प्रचार नहीं करते कि गुजराती बंधुओं के मातृभाषा प्रेम से राष्ट्रभाषा (हिंदी ) का अहित होगा । इसके विपरीत वे गांधीजी के गुजराती प्रेम को हिंदी-भाषियों एवं समर्थकों के लिए अनुकरणीय उदाहरण बनाकर प्रस्तुत करते हैं । गांधीजी ने गुजराती भाषा में जेल के अपने अनुभवों का वर्णन करते हुए एक पुस्तका लिखी थी । उसमें एक घटना का वर्णन इस प्रकार है –
“ निष्क्रिय प्रतिरोध के कारण जब वे एक बार दक्षिणी आफ्रिका के एक जेल में थे तह उन्हेमुंकी धर्मपत्नी की बीमारी का सूचक तार मिला । यदि वे जुरमाना भर देते तो उन्हें जेल से छुटकारा मिल जाता और वे अपने घर अपनी पत्नी के औषधोपचार आदि का प्रबंध कर सकते । पर ऐसा करना उन्होंने अपने सिद्धान्त के प्रतिकूल समझा । अतएव जेलर की आज्ञा प्राप्त करके अपनी पत्नी को उन्होंने गुजराती में एक पत्र लिखा । इस पत्र को देखकर जेलर चौंका, क्योंकि वह उसे पढ् न सका । खैर, उसे तो उसने जाने दिया, पर हिदायत दी कि गांधीजी अपने अगले पत्र अंग्रेजी में लिखें । गांधीजी ने कहा, मेरे हाथ के गुजराती पत्र, इस बीमारी की दशा में, मेरी पत्नी के लिए दवा का काम देंगे । इस कारण, आप मुझे गुजराती में ही लिखने की आज्ञा दीजिए । पर जेलर ने न माना । फल यह हुआ कि गांधीजी ने अंग्रेजी में लिखने से इनकार कर दिया । मेरी रोगाक्रांत और आसन्न-मरण पत्नी को मेरे पत्र मिलें चाहे न मिलें, पर मैं अंग्रेजी में उन्हें पत्र न लिखूंगा । ऐसे दृढ़ प्रतिज्ञ और ऐसे मातृभाषा-भक्त को इंदौर के आठवें सम्मेलन ने अपना सभापति बनाकर बहुत ही अच्छा किया है । “2    
गांधीजी का यह उदाहरण आज भी अनुकरणीय है । मातृभाषा प्रेम से ही हिंदी के प्रति राष्ट्रीय अस्मिता का भाव जाग सकता है । मातृभाषाओं की उपेक्षा से ही भारात की भाषाई अस्मिता खतरे में पड़  गई है ।
राष्ट्रभाषा के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के महत्व पर ज़ोर देते हुए माधव राव सप्रे राष्ट्रीयता की हानि के कारण लेख ( सरस्वती 1917 ) में कहा था – “ अंग्रेजी भाषा के अधिक प्रचार और देशी भाषाओं के अनादर से राष्ट्रीयता की जो हानि हो रही है उसका पूरा वर्णन करना कठिन है । “ 3 इसीलिए अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं कि शिक्षा का माध्यम बनाना आवश्यक था । यहाँ कहीं यह नहीं कहा गया कि अंग्रेजी का स्थान केवल हिंदी ही ले; यह संघर्ष अंग्रेजी के विरुद्ध समस्त भारतीय भाषाओं संघर्ष था । इसलिए आगे कहा गया – “ जब तक अंग्रेजी भाषा का अनावश्यक महत्व न घटाया जाएगा और जब तक शिक्षा का द्वार देशी भाषाओं को बनाकर वर्तमान शिक्षा पद्धति में उचित परिवर्तन न किया जाएगा तब तक ऊपर लिखी गई बुराइयों से हमारा छुटकारा नहीं हो सकता । “ 4
यहाँ इस ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख करना आवश्यक है कि आज़ादी से पूर्व के देशी भाषा के ये आंदोलनकारी  कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थी कि स्वाधीन भारत के संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा ही नहीं दिया जाएगा, यहाँ तक कि पूरे संविधान में कहीं भी राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग ही नहीं किया जाएगा । हिंदी को अनुच्छेद 343 में संघ की राजभाषा घोषित किया गया है किन्तु इसे कहीं भी राष्ट्रभाषा की संज्ञा नहीं दी गयी, इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है ? वे देशी भाषाओं को उचित अधिकार देने के विरोध में अधिकतर अंग्रेज़ और कुछ भारतीय भी यही कहते थे कि इन भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने लायक किताबें नहीं हैं । भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा के उपयुक्त पाठ्य सामग्री तभी तैयार होगी जब विषय विशेषज्ञ लेखक अंग्रेजी में लिखना त्यागकर हिंदी और इतर भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान की सामग्री का लेखन करें । इसीलिए माधव सप्रे ने लिखा, “ संसार के अग्रगण्य वैज्ञानिकों में भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध अध्यापक जगदीशचंद्र बसु भी हैं । वे अपने सभी आविष्कारों का वर्णन अंग्रेजी में भाषा में करते हैं और ग्रंथ लेखन भी उसी भाषा में । यदि वे बांग्ला भाषा का उपयोग करने लगें तो देशी भाषाओं में वैज्ञानिक ग्रन्थों का आंशिक अभाव दूर हो सकता है । “ 5
भारतीय ज्ञान-विज्ञान की आधुनिक परंपरा का विकास अंग्रेजी भाषा में ही हो रहा है । भारतीय विशेषज्ञ विदेशी विद्वानों से वैचारिक आदान-प्रदान के लिए अंग्रेजी में ही अपने ज्ञान का प्रसार कर रहे हैं जो कि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता तथा राष्ट्रीय गौरव पर प्रश्न चिह्न लगाती है । भारतीय भाषाओं की सृजन शक्ति का अधिकतम अनुपात केवल साहित्य सृजन में  ही व्यय होता जा रहा है । यह गौरतलब है कि प्रथम महायुद्ध के समय से अनेक भारतीय विद्वान इस बात के लिए आंदोलन करते आए थे कि वैज्ञानिक पुस्तकें इस देश की भाषाओं में लिखी जाएँ । यह संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है । इस दिशा में साठ के दशक में सुप्रसिद्ध मराठी भाषी भौतिक वैज्ञानिक गुणाकार मुले का चालीस से अधिक भौतिक विज्ञान एवं गणित के ग्रन्थों का हिंदी में मौलिक सृजन उल्लेखनीय है । इस आंदोलन को तीव्र रूप में चलाना आवश्यक है । यह ध्यातव्य है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी, माधवराव सप्रे, महात्मा गांधी आदि लेखक और राजनीतिज्ञ समस्त भारतीय भाषाओं की अस्मिता और अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, केवल हिंदी के  अधिकारों के ही लिए नहीं, केवल हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए नहीं ।
स्वाधीनता से पूर्व ही हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सशक्त एवं सक्षम बनाने के लिए महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अथक प्रयास किए । हिंदी के सशक्तिकरण के लिए उन्होंने सरस्वती पत्रिका को माध्यम बनाया । राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचारक महावीरप्रसाद द्विवेदी अन्य भारतीय भाषाओं से देशवासियों को प्रेम करना सिखाते हैं ।
भारतीय नवजागरण अथवा पुनर्जागरण आंदोलन के लक्ष्य व्यापक सामाजिक सुधार के थे । तत्कालीन भारतीय जीवन में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों, धार्मिक कट्टरता और जातिगत भेदभाव की विषमताओं को मिटाकर एक नए आधुनिक भारतीय समाज के पुन: प्रतिष्ठापन का संकल्प ही नवजागरण के पुरोधा आंदोलनकारियों एवं चिंतकों का उद्देश्य था । भारत के प्राचीन सांस्कृतिक वैभव की पुन: प्रतिष्ठा एक महती कल्पना थी । अंग्रेजों के शासन काल में भारत में व्याप्त उपनिवेशवादी सभ्यता और संस्कृति से उत्पन्न भाषिक संकट से उबरने का लक्ष्य भी नवजागरण आंदोलन में समाहित था । स्वतंत्र भारत की कल्पना का मूल आधार ही भारतीयता और स्वाधीन राष्ट्रीय अस्मिता रही है । स्वतन्त्रता संग्राम का माध्यम व्यापक रूप से हिंदी एवं इतर भारतीय भाषाएँ ही रहीं है । इसीलिए भाषाई अस्मिता के संदर्भ में हिंदी ही भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का पर्याय है ।      


संदर्भ :
1          महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण पृ : 191 ( ले॰ रामविलास शर्मा )
2          वही पृ : 191 
3          वही पृ : 192
4          वही पृ : 192
5          वही पृ : 193


                                                            डॉ एम वेंकटेश्वर
                                                            हैदराबाद ।
                                                            संपर्क : 9849048156
                                                            Email : mannar.venkateshwar9@gmail.com



                    

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