Monday, October 14, 2013

महीन रिश्तों का  नाज़ुक दौर : लंच बॉक्स
                                                                                    एम वेंकटेश्वर

लंच बॉक्स यानी दोपहर के भोजन का डिब्बा जो अधिकतर कामकाजी लोग अपने अपने साथ दफ्तर ले जाते हैं या किसी अन्य साधन से भोजन के घंटे तक प्राप्त करते हैं । मुंबई में डिब्बे वालों की हजारों की संख्या में एक ऐसी खास जमात है जो समूचे मुंबई शहर में सैकड़ों दफ्तरों में कार्यरत लोगों तक उनके घरों से भोजन का डिब्बा लेकर उन्हें भोजन पहुंचाती है। इन डिब्बों वालों का नेटवर्क प्रबंधन बहुत ही सधा हुआ, अति सक्षम और अचूक है । दूर दूर से डिब्बे घरों से लिए जाते हैं उन्हें विशेष सूझ-बूझ और कुशल व्यावसायिक के साथ क्षेत्रवार वितरण प्रणाली के द्वारा सही ठिकाने पर ठीक समय पर उपभोक्ता तक पहुंचाया जाता है और फिर वापस उसी रास्ते उसे घरों में शाम से पहले लौटा दिया जाता है । मुंबई के डिब्बे  वालों की निरापद और त्रुटिहीन डिब्बा वितरण प्रणाली सारी दुनिया में  अपनी पहचान बनी चुकी है और बड़े बड़े प्रबंधन संस्थानों में इसके संगठन कौशल की मिसाल दी जाती है । अनेक विश्वविद्यालयों में इस प्रबंधन कौशल के रहस्य को परखने के लिए शोध कार्य भी सम्पन्न हुए हैं ।
लंच बॉक्स फिल्म की कहानी भी मुंबई के डिब्बे वालों द्वारा मुंबई के एक दफ्तर के बाबू को गलती से किसी दूसरे के भोजन के डिब्बे को पहुंचाने के कारण उत्पन्न घटना क्रमों की रोचक और मजेदार कहानी है । जीवन में कभी  कभी कुछ ऊटपटाँग घटनाएँ अकस्मात अनचाहे घटित  हो जाती हैं लेकिन ये ही घटनाएँ जीवन की दिशा भी बदल देती हैं । ऐसी ही यह घटना प्रधान कहानी है जिस पर यह फिल्म आधारित है जो कि आज के महानगरीय जीवन की विसंगतियों और वास्तविकताओं से दर्शकों को रूबरू कराता है । महानगरीय जीवन की जटिलताओं में दाम्पत्य संबंधों की ऊष्मा खत्म हो गई है, रिश्ते नाते तार-तार  हो गए हैं। मध्य वर्ग एक खोखला ऊबाऊ और बनावटी जीवन जीता है । यह फिल्म जीवन के समानान्तर चलती है इसलिए इसे समांतर फिल्म कहा जा सकता है ।  यह एक हल्की- फुल्की रोमांटिक कहानी  है जिसे गुनीत मोंगा, अनुराग कश्यप और अरुण रंगाचारी ने संयुक्त रूप से निर्मित किया है जिसका कुशल और श्रेष्ठ निर्देशन और रितेश बत्रा ने किया है । यह फिल्म सफल और उच्च कोटि के निर्देशन कौशल को प्रस्तुत करता है । इस फिल्म में इरफान खान (साजन फर्नांडिस)  और निम्रत कौर ( इला ) ने प्रमुख भूमिकाएँ बहुत सशक्त और आकर्षक ढंग से निभाई हैं । साथ में नवाज़ुद्दीन सीद्दीकी  ( शेख )  छोटे से एक विशेष रोल में दिखाई देते हैं जो अपनी निजी शैली में फिल्म की एकरसता को तोड़कर मनोरंजक बनाने में दर्शकों का ध्यान आकर्षित कराते हैं । हमेशा की तरह इनका अभिनय लाजवाब है । इस फिल्म की कहानी बहुत सरल और बिना किसी आकस्मिक उतार चढ़ाव के महानगरीय जीवन की आपाधापी को स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत करता है । ' साजन फर्नांडिस '  ( इरफान खान ) रिटायरमेंट के करीब है, जो गंभीर प्रकृति का सारहीन जीवन जी रहा है । वह विधुर है । डिब्बे वालों की गलती से उसके पास ' इला '  ( निम्रत कौर ) के घर से पति के लिए भेजा हुआ भोजन का डिब्बा पहुँचता है । साजन उस भोजन को खाकर प्रसन्न होकर उसे धन्यवाद की पर्ची भेजता है । डिब्बे वाले की यह गलती अब कई दिनों तक बेरोकटोक चलती है क्योंकि उन्हें इस गलती का अहसास कोई नहीं कराता, और फिल्म की कहानी इसी परिदृश्य में सघन हो चलती है । इला और साजन के मध्य दोपहर के भोजन के डिब्बी के माध्यम से पहले छोटी और बाद में लंबी चिट्ठियों का सिलसिला शुरू हो जाता है । एक महीन सा रिश्ता दोनों के बीच पनपता है । ' इला' अपने घरेलू जीवन के छोटे छोटे प्रसंगों को लिख भेजती है बदले में 'साजन'  उसे  डिब्बे के ही माध्यम से कुछ नसीहतें भेजता रहता है । यह सिलसिला बहुत जल्द एक रिश्ते का रूप अख़्तियार करता है जिसका अंत रोचक और अप्रत्याशित है । इस कहानी को बहुत ही प्रोफेशनल ढंग से निर्देशक ने सँभाला है और एक निर्दिष्ट अंत तक पहुंचाया है । इसमें कहीं बिखराव नहीं है और न ही भटकाव  है । फिल्म में बहुत कम पात्र हैं और सभी पात्र अपनी छोटी छोटी भूमिकाओं का निर्वाह बहुत ही कारगर तरीके से निभाने में सफल हुए हैं । गंभीर और सार्थक फिल्मों के   दर्शक इसे पसंद करेंगे । जीवन की नज़ाकत और परिस्थितियों का प्रभाव जीवन को कभी कभी निर्णायक मोड दे देता है जिसकी कल्पना करना कठिन है लेकिन यही जीवन की सच्चाई है, इसे साबित कराते हैं निर्माता और निर्देशक दोनों ।
रितेश बत्रा  लघु फिल्में ( शॉर्ट फिल्म ) बनाने के लिए मशहूर रहे हैं ' द  मॉर्निंग रिचुअल, गरीब नवाज़ की टैक्सी, कैफे रेगुलर और कैरो '  जैसी  फिल्मों के निर्माता -निर्देशक रितेश बत्रा ने मुंबई के डिब्बे वालों की डिब्बा वितरण प्रणाली पर फिल्म बनाने का मन बनाया । इसके लिए उन्होने मुंबई के डिब्बी वालों से दोस्ती की और काफी लंबा रिसर्च किया । इस फिल्म को फिल्म समीक्षकों ने बहुत उच्च कोटि की समांतर फिल्म के रूप में काफी सराहा और इसे 2013 के हॉलीवुड के ऑस्कर एवार्ड के लिए भारत की और से प्रतियोगी फिल्म के रूप में भेजे जाने की  चर्चा हुई ।
निश्चित रूप से यह फिल्म आज की बॉलीवुड की मसाला फिल्मों के बीच एक ताज़गी के साथ नई अनुभूति प्रदान करने वाली सार्थक फिल्म है ।

                                                                                                            एम वेंकटेश्वर

                                                                                                            9849048156 

2 comments:

  1. उम्दा समीक्षा।धन्यवाद फ़िल्म के नए अनछुये पहलुओ को सामने लाने के लिए

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  2. उम्दा समीक्षा।धन्यवाद फ़िल्म के नए अनछुये पहलुओ को सामने लाने के लिए

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