Tuesday, June 5, 2012

विवादों की राजनीति से आम आदमी परेशान

विवादों की राजनीति से देश गरमा रहा है। आज किसी भी मुद्दे पर  पर न तो सरकार में और न ही  गैर सरकारी सस्थाओं में किसी भी तरह की सामान वैचारिक एकता दिखाई पड़ती है। हर राजनीतिक दल केवल सत्ता की राजनीति  करते हुए दिखाई देते हैं और इन सबके बीच आम आदमी परेशान है। किसी भी मुद्दे पर आम सहमति नहीं बनती है।
देश महंगाई से त्राहि त्राहि कर रहा है और सत्ताधारी राजनीतिज्ञों को अपनी कुर्सी की राजनीति करने से फुरसत नहीं है। महंगी, और भ्रष्टाचार ने सभी सीमाएं पार कर ली हैं। देश विखंडन के दौर से गुजर रहा है और कोई भी राजनीतिक दल देश की आतंरिक सुरक्षा, महंगाई, बढ़ती कीमतों से देशवासियों की बदहाली, शिक्षा के गिरते स्तर, देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि, फैलते भ्रष्टाचार  पर नियंत्रण करने की इच्छा शक्ति का पूर्णत: अभाव - जैसी स्थितियों से देश गुजर रहा है। हर राजनीतिक दल स्वयं की स्थापनाओं को सही सिद्ध करने की होड़ में देश की जनता के प्रति उदासीन हो गया है। जनता या आम आदमी का अस्तित्व  ही गायब हो गया है- हमारे देश के राजनीतिक परिदृश्य से - आज राजनीतिक ताकत ही सर्व - प्रबल हो गयी है। सही-गलत में कोई भेद नहीं रहा, निर्दोष और अपराधी में अंतर समाप्त हो गया है। अपराध करके कोई भी अपराधी बहुत ही आसानी से जमानत पर छुट सकता है और फिर उसके आरोपों की जांच के लिए बरसों लग जाते हैं - इस बीच वह आरोपी बहुत ही चालाकी से न्याय व्यवस्था तक को झुठलाकर या खरीदकर स्वयं को पाक साफ़ सिद्ध कर लेता है .जमानत पर रिहा होने की विचित्र परम्परा हमारे देश की न्याय व्यवस्था ने अपराधियों को वरदान के रूप में प्रदान किया है। आज देश में एक से बढाकर एक  अक्षम्य किस्म के घोटाले खुलकर सामने आ रहे हैं जिनमें सत्ता पक्ष के और प्रतिपक्ष के भी अनेक नेतागण  शामिल  हैं। मीडिया की सक्रियता और खोजी पत्रकारिता तथा सूचना के अधिकार के द्वारा अनेक खुफिया जानकारियाँ देश के सामने प्रकट हो रही हैं जिसके द्वारा हमारे सामने राजनीतिज्ञों का एक बहुत ही भ्रष्ट - घिनौना चेहरा सामने आ रहा है - भ्रष्टाचार में लिप्त इन राजनेताओं को जल्द से जल्द सजा मिलनी चाहिए - तत्काल दंड का प्रावधान हमारी न्याय व्यवस्था में होना चाहिए। कई दशकों तक चलने वाले मुकदमे - अपराधी और अपराध दोनों को संरक्षण प्रदान करते हैं .
सरकार से जब कोई आम आदमी सीधे सवाल पूछता  है तो सरकार तिलमिला जाती है और उस प्राश्निक पर ही हमला बोल देती है। एक और तो हम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की दुहाई देते है लेकिन दूसरी और जनता की आवाज को  किसी न किसी तकनीकी पेचीदगी में उलझाकर दबा देते हैं। क्या यही लोक तंत्र है ? यह तो नाम मात्र का लोक तंत्र है। भ्रष्टाचार पर किये जाने वाले हर सवाल को - केवल भ्रष्टाचार की अतिव्याप्ति के उदाहरण देकर- परस्पर दोषारोपण करते हुए मूल मुद्दे से लोगों को भटका दिया जाता है। आखिर इस देश में आम आदमी को न्याय कब मिलेगा ?



1 comment:

  1. आपने 'रामलीला' अवश्य देखी होगी। उसमें 'राम' और 'रावण' (मंच पर) एक-दूसरे के खिलाफ़ मुँह फुलाए और एक-दूसरे के 'खून के प्यासे' नज़र आते हैं लेकिन 'लीला' समाप्त होने के ठीक बाद दोनों (मंच के पीछे) जाकर हँसी-ठहाका, चाय-नाश्ता आदि करते रहते हैं। उनकी 'लीला' मंच के सामने बैठे दर्शकों के लिए ही होती है, मंच के पीछे वे एक जैसे ही रहते हैं। कुछ ऐसी ही हालत हमारे देश के नेताओं की भी है। ये लोग भी जनता के सामने 'राम-रावण युद्ध' करते रहते हैं और सरकार में रहें या सरकार से बाहर, एक जैसे ही होते हैं। नागार्जुन की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ इन नेताओं पर एकदम सटीक एवं प्रासंगिक प्रतीत होती हैं - "बदल-बदलकर चखें मलाई, तीनों बंदर बापू के।"

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